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सोमवार, 12 सितंबर 2011

हिंदी दोहा सलिला हिंदी प्रातः श्लोक है..... -- संजीव 'सलिल'

हिंदी दोहा सलिला
हिंदी प्रातः श्लोक है.....
-- संजीव 'सलिल'
*
हिंदी भारत भूमि के, जनगण को वरदान.
हिंदी से हिंद का, संभव है उत्थान..
*
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..
*
हिंदी आता माढ़िये, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल..
*
ईंट बनें सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी बसी प्रणम्य..
*
संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिंदी उर्दू पाँच.
भाषा-बोली अन्य हैं, स्नेहिल बहने साँच..
*
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह् पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
*
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबको स्नेह ही, हो जीवन का ध्येय..
*
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ हैं अलग पर, पलता स्नेह-विवेक..
*
भाषा बोलें कोई भी, किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर प्रेम प्रबुद्ध..
*
मौसी-चाची ले नहीं, सकतीं माँ का स्थान.
सिर-आँखों पर बिठा पर, उनको माँ मत मान..
*
ज्ञान गगन में सोहाती, हिंदी बनकर सूर्य.
जनहित के संघर्ष में, है रणभेरी तूर्य..
*
हिंदी सजती भाल पे, भारत माँ के भव्य.
गौरव गाथा राष्ट्र की, जनवाणी यह दिव्य..
*
हिंदी भाषा-व्याकरण, है सटीक अरु शुद्ध.
कर सटीक अभिव्यक्तियाँ, पुजते रहे प्रबुद्ध..
*
हिंदी सबके माँ बसी, राजा प्रजा फकीर.
केशव देव रहीम घन, तुलसी सूर कबीर..
*
हिंदी प्रातः श्लोक है, दोपहरी में गीत.
संध्या वंदन-प्रार्थना, रात्रि प्रिया की प्रीत..
**************
Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 11 सितंबर 2011

मुक्तिका: प्रिय के नाम सुबह लिख दी... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
प्रिय के नाम सुबह लिख दी...
संजीव 'सलिल'
*
प्रिय के नाम सुबह लिख दी है, प्रिय में भी बैठा रब है.
'सलिल' दिख रहा दूर, मगर वह तुझसे दूर हुआ कब है??

जब-जब तुझको हो प्रतीत यह, तेरा कुछ भी नहीं बचा.
तब-तब सच इतना ही होगा, रहा न शेष मिला सब है..

कल करना जो कभी न होगा, कब आया कल बतलाओ?
जो करना है आज करो- वह होता जो कि हुआ अब है..

राजा तो केवल चाकर है, जो चाकर वह राजा है.
चाकर का चाकर वह चाहे, जग जाने उसमें नब है..

दुनिया का क्या तौर-तरीकों की बंदी वह 'सलिल' रही.
जिसको उसकी चाह हुई, उसको कहते सब बेढब है..

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Acharya Sanjiv Salil

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कुण्डलिनी : दन्त-पंक्ति श्वेता रहे..... -- संजीव 'सलिल'

कुण्डलिनी :
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे.....
-- संजीव 'सलिल'
*
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे, सदा आपकी मीत.
मीठे वचन उचारिये, जैसे गायें गीत..
जैसे गायें गीत, प्रीत दुनिया में फैले.
मिट जायें सब झगड़े, झंझट व्यर्थ झमेले..
कहे 'सलिल' कवि, सँग रहें जैसे कामिनी-कंत.
जिव्हा कोयल सी रहे, मोती जैसे दन्त.
*
नेहा स्नेहा श्वास हो, सुगम सुगेहा आस.
गति-यति मति-वारी रहे, अधर सुशोभित हास..
अधर सुशोभित हास, त्रास किंचित न कभी हो.
मत कल पर कुछ टाल, कार्य हर आज-अभी हो..
कहे 'सलिल' कवि रति हो देहा, सुमति विदेहा.
रखें हास-परिहास भरा, जग-जीवन नेहा..
*

लघु कथा २: मुखौटे -- संजीव 'सलिल'

लघु कथा :                                                                                                                                     
मुखौटे
-- संजीव 'सलिल'

*
मेले में बच्चे मचल गये- 'पापा! हमें मुखौटे चाहिए, खरीद दीजिए.'

हम घूमते हुए मुखौटों की दुकान पर पहुँचे. मैंने देखा दुकान पर जानवरों, राक्षसों, जोकरों आदि के ही मुखौटे थे. मैंने दुकानदार से पूछा- 'क्यों भाई! आप राम. कृष्ण, ईसा, पैगम्बर, बुद्ध, राधा, मीरा, गाँधी, भगत सिंग, आजाद, नेताजी, आदि के मुखौटे क्यों नहीं बेचते?'

'कैसे बेचूं? राम की मर्यादा, कृष्ण का चातुर्य, ईसा की क्षमा, पैगम्बर की दया, बुद्ध की करुणा, राधा का समर्पण, मीरा का प्रेम, गाँधी की समन्वय दृष्टि, भगतसिंह का देशप्रेम, आजाद की निडरता, नेताजी का शौर्य  कहीं देखने को मिले तभी तो मुखौटों पर अंकित कर पाऊँगा. आज-कल आदमी के चेहरे पर जो गुस्सा, धूर्तता, स्वार्थ, हिंसा, घृणा और बदले की भावना देखता हूँ उसे अंकित कराने पर तो मुखौटा जानवर या राक्षस का ही बनता है. आपने कहीं वे दैवीय गुण देखे हों तो बतायें ताकि मैं भी देखकर मुखौटों पर अंकित कर सकूँ.' -दुकानदार बोला.

मैं कुछ कह पाता उसके पहले ही मुखौटे बोल पड़े- ' अगर हम पर वे दैवीय गुण अंकित हो भी जाएँ तो क्या कोई ऐसा चेहरा बता सकते हो जिस पर लगकर हमारी शोभा बढ़ सके?' -मुखौटों ने पूछा.

मैं निरुत्तर होकर सर झुकाए आगे बढ़ गया.

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*
Acharya Sanjiv Salil

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बुधवार, 7 सितंबर 2011

लघु कथा: गुरु दक्षिणा संजीव 'सलिल'

लघुकथा:                                                                                
गुरु दक्षिणा
संजीव 'सलिल'
*
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराये कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए.

उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अँगूठा माँग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया. प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा.

'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बायें हाथ का अँगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया. छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अँगूठा जुड़वाया, द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा.

तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अँगूठा लगाने लगे.

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Acharya Sanjiv Salil

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शिक्षक दिवस पर: कहाँ गया गुरु?... --- संजीव 'सलिल'

शिक्षक दिवस पर:
कहाँ गया गुरु?...
संजीव 'सलिल'
*
गुरु था गंगा ज्ञान की, अब है गुरु घंटाल.
मेहनत चेलों से करा, खूब उड़ाये माल..

महागुरु बन हो गया, गुरु से संत महंत.
पीठाधीश बना- हुआ, गुरु-शुचिता का अंत..

चेले-चेली पालकर, किया बखेड़ा खूब.
कृष्ण स्वघोषित हो गया, राधाओं में डूब..

करी रासलीला हुआ, दस दिश में बदनाम.
शिक्षा लेना भूलकर, दे शिक्षा बेकाम..

शिक्षक करता चाकरी, चकरी सा नित घूम.
अफसर-चमचे मजे कर, रहे मचाते धूम..

दुश्चक्री फल-फूलकर, कहें सत्य को झूठ.
शिक्षा के रथचक्र की, थामे कर में मूठ..

आई.ए.एस. बन नियंता, नचा रहे दिन-रात.
नाच रहे अँगुलियों पर, शिक्षक पाकर मात..

टीचर टीच न कर हुए, सिर्फ फटीचर आज.
गुरु कह पग वंदन करें, कैसे आती लाज?

शब्दब्रम्ह के निकट जा, दें पुनि अक्षर-ज्ञान.
अभय बने जब शिष्य तब, देगा गुरु को मान..

हिंदी से रोजी जुटा, इंग्लिश लिखते रोज.
कोंवेंट बच्चे पढ़ें, क्यों? करिए कुछ खोज..

जूता पहने पूजते, सरस्वती बेशर्म.
नकल कराते, क्या नहीं, दण्डयोग्य दुष्कर्म?

मूल्यांकन करते गलत, देते गलत हिसाब.
श्वेत हो चुके बाल पर, मलकर रोज खिजाब..

कथनी-करनी में हुआ, अंतर जबसे व्याप्त.
तब से गुरुमुख से नहीं, मिला ज्ञान कुछ आप्त..

कहाँ गया गुरु? द्रोण से, पूछ रहा था कर्ण.
एकलव्य को देखकर, गुरु-मुख हुआ विवर्ण..

सत्ता का चाकर नहीं, होगा जब गुर मुक्त.
तब ही श्रृद्धा-आस्था, पुनि होगी संयुक्त..

कलम करे पगवन्दना, कहें योग्य है कौन?
प्रश्न रहा पुनि अनसुना, प्रभु-मूरत है मौन..

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Acharya Sanjiv Salil

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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

नवगीत: भाव गिरा है लाज का.... ---संजीव 'सलिल'

नवगीत:
भाव गिरा है लाज का....
संजीव 'सलिल'
*
समाचार है आज का...
मँहगी बहुत दरें नंगई की
भाव गिरा है लाज का....
*
साक्षर-शिक्षित देश हुआ पर
समझ घटी यह सत्य है.
कथनी जिसकी साफ-स्वच्छ
उसका ही गर्हित कृत्य है.
लड़े सारिका-शुक घर-घर में-
किस्सा सिर्फ न आज का...
खुजली-दाद घूस-मँहगाई
लोभ रोग है खाज का...
*
पनघट पर चौपाल न जाता,
लड़ा खेत खलिहान से.
संझा का बैरी क्यों चंदा?
रूठी रात विहान से.
सीढ़ी-सीढ़ी मुखर देखती
गिरना-उठना ताज का.
मूलधनों को गँवा दिया
फिर लाभ कमाया ब्याज का..
*
भक्तों-हाथ लुट रहे भगवा,
षड्यंत्रों का मंथन-मंचन.
पश्चिम के कंकर बीने हैं-
त्याग पूर्व के शंकर-कंचन.
राम भरोसे राज, न पूछो
हाल यहाँ के काज का.
साजिन्दे श्रोता से पूछें-
हाल हाथ के काज का....
*
नवगीत:
भाव गिरा है लाज का....
संजीव 'सलिल'
*
समाचार है आज का...
मँहगी बहुत दरें नंगई की
भाव गिरा है लाज का....
*
साक्षर-शिक्षित देश हुआ पर
समझ घटी यह सत्य है.
कथनी जिसकी साफ-स्वच्छ
उसका ही गर्हित कृत्य है.
लड़े सारिका-शुक घर-घर में-
किस्सा सिर्फ न आज का...
खुजली-दाद घूस-मँहगाई
लोभ रोग है खाज का...
*
पनघट पर चौपाल न जाता,
लड़ा खेत खलिहान से.
संझा का बैरी क्यों चंदा?
रूठी रात विहान से.
सीढ़ी-सीढ़ी मुखर देखती
गिरना-उठना ताज का.
मूलधनों को गँवा दिया
फिर लाभ कमाया ब्याज का..
*
भक्तों-हाथ लुट रहे भगवा,
षड्यंत्रों का मंथन-मंचन.
पश्चिम के कंकर बीने हैं-
त्याग पूर्व के शंकर-कंचन.
राम भरोसे राज, न पूछो
हाल यहाँ के काज का.
साजिन्दे श्रोता से पूछें-
हाल हाथ के काज का....
*
Acharya Sanjiv Salil

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दोहे पर्यावरण के: भारत की जय बोल --- संजीव 'सलिल'

दोहे पर्यावरण के :                                                               
भारत की जय बोल
-- संजीव 'सलिल'
*
वृक्ष देव देते सदा, प्राणवायु अनमोल.
पौधारोपण कीजिए, भारत की जय बोल..
*
पौधारोपण से मिले, पुत्र-यज्ञ का पुण्य.
पेड़ काटने से अधिक, पाप नहीं है अन्य..
*
माँ धरती के लिये हैं, पत्ते वस्त्र समान.
आभूषण फल-फूल हैं, सर पर छत्र वितान..
*
तरु-हत्या दुष्कर्म है, रह नर इससे दूर.
पौधारोपण कर मिले, तुझे पुण्य भरपूर..
*
पेड़ कटे, वर्षा घटे, जल का रहे अभाव.
पशु-पक्षी हों नष्ट तो, धरती तप्त अलाव..
*
जीवनदाता जल सदा, उपजाता है पौध.
कलकल कलरव से लगे, सारी दुनिया सौध..
*
पौधे बढ़कर पेड़ हों, मिलें फूल,फल, नीड़.
फुदक-फुदक शुक-सारिका, नाचें देखें भीड़..
*
पेड़ों पर झूले लगें, नभ छू लो तुम झूल.
बसें देवता-देवियाँ. काटो मत तुम भूल..
*
पीपल में हरि, नीम में, माता करें निवास.
शिव बसते हैं बेल में, पूजो रख विश्वास..
*
दुर्गा को जासौन प्रिय, हरि को हरसिंगार.
गणपति चाहें दूब को, करी सबसे प्यार..
*
शारद-लक्ष्मी कमल पर, 'सलिल' रहें आसीन.
पाट रहा तालाब नर, तभी हो रहा दीन..
*************


Acharya Sanjiv Salil

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दोहा सलिला: एक हुए दोहा-यमक संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                               
एक हुए दोहा-यमक
संजीव 'सलिल'

*
एक हुए दोहा यमक, नव मुद्रा नव अर्थ.
अर्थ-शास्त्री कह रहे, यहाँ न मुद्रा-अर्थ..
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
क्या जानें कब प्रगट हों, जीवन-धन घनश्याम..
*
तीर नजर के चीर दिल, चीर न पाये चीर.
दिल-सागर के तीर पर, गिरे न खोना धीर..
*
मार भले के लिये ही, लेकिन कभी न मार.
उसका कर आभार जो, उठा रहा आ भार..
*
खुद पर खुद का बस नहीं, है बेबस इंसान.
परबस हो छल रहा है, खुद को खुद हैरान..
*
चाट रहे हैं उंगलियाँ, जी भर खाकर चाट.
खड़ी हो गयी खाट पा, खटमलवाली खाट..
*
भूख कहे : आ हार- तो, जय पा कर आहार.
जय पाता वह जो करे, अजय जगत व्यवहार..
*
खोली में जा खोलना, खोल, खुले ना पोल.
ढोल रहे जितना बड़ा, उतनी ज्यादा पोल..
*
अ-मन अमन होता नहीं, स-मन अमन हो मीत.
रमण चमन में कर तभी, जब हों सभी अभीत..
*

Acharya Sanjiv Salil

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षडयंत्र के साये में भारतीय सेना.... प्रधानमंत्री खामोश क्यों है?


षडयंत्र के साये में भारतीय सेना.... प्रधानमंत्री खामोश क्यों है?

सांसद का एक वरिष्ठ सांसद यदि प्रधानमंत्री को खत लिखे और पूछे कि क्या
सरकार द्वारा भारत के थल सेनाध्यक्ष पद के भावी उम्मीदवार लेफ्टिनेंट
जनरल की बहू यानी उनके दुबई में काम करने वाले ल़डके की पत्नी पाकिस्तान
की नागरिक है? तो यह गंभीर मामला बन जाता है. प्रधानमंत्री कार्यालय इसका
उत्तर देने की जगह उन सांसद पर उनकी पार्टी द्वारा दबाव डलवाता है कि वह
इस खत को वापस ले लें. इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री के साथ जु़डे एक
मंत्री नारायण सामी संसद में ही इस सांसद को पक़ड लेते हैं और कहते हैं
कि आप खत वापस ले लीजिए, क्योंकि प्रधानमंत्री का़फी अपसेट हैं.


सांसद कहते हैं कि अच्छा हो प्रधानमंत्री चार लाइन का उत्तर भेज दें कि
उनके द्वारा खत में उठाए गए सवाल ग़लत हैं, पर प्रधानमंत्री अब तक खामोश
हैं, कम से कम इस रिपोर्ट के लिखे जाने के समय तक. दरअसल सेना का यह सख्त
नियम है कि अगर कोई भी व्यक्ति जो भारतीय सेना में है, वह या उसका परिवार
किसी विदेशी नागरिक से शादी करता है तो उसे सूचना भी देनी होगी. यहां तो
किसी भी विदेशी नागरिक से नहीं, पाकिस्तानी नागरिक से शादी का मामला है.
अगर यह खबर सही है तो भारत के थल सेनाध्यक्ष के घर में पाकिस्तानी नागरिक
होगा, जिसके पास सेना के सारे राज़ होंगे.

   आ़खिर क्या वजह है कि ले. जनरल बिक्रम सिंह के गंभीर आरोपों में घिरे
होने के बाद भी प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री उन्हें भावी सेनाध्यक्ष
बनाना चाहते हैं. अपने बेटे की शादी पाकिस्तानी लड़की से करने के बाद भी
वह सेनाध्यक्ष जैसे अति संवेदनशील पद पर बैठाए जा रहे हैं. क्या इसके
पीछे स़िर्फ उनका प्रधानमंत्री के समाज का होना कारण है या किसी बड़ी
विदेशी ताक़त का भारत सरकार पर दबाव है? प्रधानमंत्री कार्यालय यूपीए के
ही एक सांसद द्वारा उठाए सवाल पर खामोश क्यों है?

हमेशा खतरा बना रहेगा कि ये राज़ या खु़फिया सूचनाएं पाकिस्तान न पहुंच
जाएं. प्रधानमंत्री द्वारा अब तक खत का जवाब न देना बताता है कि आरोप सही
हैं.

भारत के भावी थल सेनाध्यक्ष अक्सर अपने बेटे और पाकिस्तानी बहू से मिलने
दुबई जाते रहते हैं. इसके बारे में अंग्रेजी के एक मशहूर साप्ताहिक ने
रिपोर्ट छापी है कि जब यह कांगो में भारतीय शांति सेना के चीफ थे तो वहां
रहे कुछ सिपाहियों और अ़फसरों पर यौन शोषण का आरोप लगा था. इसकी जांच
भारतीय सेना कर रही है. जब बिल क्लिंटन राष्ट्रपति के रूप में भारत आए तो
कश्मीर के छत्तीसिंह पुरा में सिखों की हत्या हुई थी. जांच में पता चला
कि इसमें का़फी संदेह है कि ये हत्याएं आतंकवादियों ने की हैं. इसमें
अनदेखी का आरोप इन्हीं ले. जनरल साहब पर लगा. जब यह कश्मीर के कोर कमांडर
थे तो एक पैंसठ साल के व्यक्ति का एनकाउंटर हुआ.पुलिस ने जांच की तो पता
चला कि यह फर्ज़ी एनकाउंटर था. अनंतनाग के डीआईजी ने जांच रिपोर्ट आने के
बाद बाक़ायदा प्रेस कांफ्रेंस की. भारत के भावी थल सेनाध्यक्ष ने कोर
कमांडर रहते हुए सेना से प्रशस्ति पत्र भी ले लिया. कश्मीर में ही रहते
हुए कैसे दुकानों के आवंटन में धांधली हुई, इस पर भी सांसद ने
प्रधानमंत्री को खत लिखा, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस खत का जवाब नहीं
दिया.

 
आ़खिर क्या वजह है कि ले. जनरल बिक्रम सिंह के गंभीर आरोपों में घिरे
होने के बाद भी प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री उन्हें भावी सेनाध्यक्ष
बनाना चाहते हैं. उनके द्वारा अपने बेटे की शादी पाकिस्तानी ल़डकी से
करने के बाद भी वह सेनाध्यक्ष जैसे अति संवेदनशील पद पर बैठाए जा रहे
हैं. क्या इसके पीछे स़िर्फ उनका प्रधानमंत्री के समाज का होना कारण है
या इसके पीछे किसी ब़डी विदेशी ताक़त का भारत सरकार पर दबाव है?
प्रधानमंत्री कार्यालय यूपीए के ही एक सांसद द्वारा उठाए सवाल पर खामोश
क्यों है?
पीएम के नाम यूपीए के एक सांसद का पत्र
चौथी दुनिया के पास उपलब्ध एक पत्र, जो तृणमूल सांसद अंबिका बनर्जी
द्वारा 7 जुलाई, 2011 को प्रधानमंत्री को लिखा गया, लेफ्टिनेंट जनरल
बिक्रम सिंह पर एक और संगीन आरोप का खुलासा करता है. हावड़ा से तृणमूल
कांग्रेस के सांसद अंबिका बनर्जी अपने इस पत्र के माध्यम से प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह को लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह के एक कारनामे के बारे में
सूचित करते हैं और कार्रवाई की मांग करते हैं. बनर्जी अपने पत्र में
लिखते हैं कि कोर कमांडर पद पर रहते हुए बिक्रम सिंह ने एच क्यू 15 कोर
(श्रीनगर) में 10 दुकानें आवंटित की थीं. वह आगे लिखते हैं कि मुझे बताया
गया है कि बिक्रम सिंह ने इस आवंटन के बदले हर एक दुकान के लिए 3 से 5
लाख रुपये लिए. बनर्जी इसे शर्मनाक बताते हुए प्रधानमंत्री से इस मामले
को देखने के लिए कहते हैं और यह भी अनुरोध करते हैं कि जब तक जांच पूरी न
हो जाए, तब तक के लिए बिक्रम सिंह को उनकी संवेदनशील पद पर तैनाती से हटा
दिया जाए. बहरहाल, प्रधानमंत्री की ओर से इस मसले पर अब तक क्या कार्रवाई
की गई है, किसी को नहीं पता. क्या इस मामले पर अब भी कोई कार्रवाई होगी,
कहा नहीं जा सकता.
आभार : चौथी दुनिया 

राष्ट्रनिर्माता सावित्री बाई फुले

राष्ट्रनिर्माता सावित्री बाई फुले  
जनवरी, १८३१ को सावित्रीबाई फुले का जन्म हुआ था। भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक को नमन।  

 
एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन १८४८ में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद हम २०११ में नहीं कर सकेंगे । लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी । सावित्री बाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया, वह भी पुणे जैसे कूढ़मगज शहर में । 
 
वे स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे । आज से १६० साल पहले बालिकाओ के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम मन जाता था कितना सामाजिक अपमान झेलकर खोला गया होगा देश में एक अकेला बालिका विद्यालय । 
 
 इतिहास लिखने वालों ने इस असली राष्ट्रनायिका के साथ न्याय नहीं किया। इतिहास का पुनर्लेखन एक अनिवार्य कार्यभार है । स्कूल तो क्या कॉलेज तक में विद्यार्थियों को बताते ही नहीं है कि कोई सावित्रीबाई फुले भी थीं, जिन्होंने देश का पहला बालिका विद्यालय खोला था । सावित्रीबाई फुले के स्कूल में हर धर्म और जातियों की बालिकाएँ  पढ़ती थीं । उन्होंने ब्राह्मण विधवा काशीबाई के बच्चे को गोद लिया था । 
 
सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं । हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया । जब सावित्री बाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उनपर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्री बाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं । अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं। 
 
 साभार:फ़ेसबुक पर अमित जी 

दोहा सलिला: गले मिले दोहा-यमक... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                                
गले मिले दोहा-यमक...
-- संजीव 'सलिल'
*
गले मिले दोहा-यमक, गले भेद का बर्फ.
नये अर्थ बतला रहा, 'सलिल' एक ही हर्फ़..
*
ताना तो नभ में उड़ी, ऊपर 'सलिल' पतंग.
ताना सुन वह भड़ककर, उठी छेड़ने जंग..
*
ताना-बाना बुना पर, ताना अधिक न तार.
बाना धारण किया फिर, करने लगे सिंगार..
*
मनमाना जी भर किया, हो पायें संतुष्ट.
मन माना फिर भी नहीं, खुद ही खुदसे रुष्ट..
*
दधि भाना आता नहीं, पर भाना नंदलाल.
'भा ना', मैया भा रही, आ कर धूम-धमाल..
*
दही बिलोना था मगर, भाग कर रही खेल.                                             
गेंद बिलोना तू नहीं, होगा व्यर्थ झमेल..
*
गुणा-भाग क्या कर रही?, भाग हो रही देर.
गुणा-भाग के फेर में, हो न कहीं अंधेर..
*
दाम न दामन का लगा, होता पाक-पवित्र.
सुर नर असुर सभी पले, इसमें सत्य विचित्र..
*
लड़के लड़ के माँगते, हक न करें कर्त्तव्य.
माता-पिता मना रहे, उज्जवल हो भवितव्य..
*
Acharya Sanjiv Salil

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कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना फिरिया जेओ ना प्रभु! का भावानुवाद: --संजीव 'सलिल'

कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना फिरिया जेओ ना प्रभु! का भावानुवाद:
(’नैवेद्य’ नामक कविता संग्रह में ५वीं कविता)
 संजीव 'सलिल'
*


















 
god20speaks.jpg

मूल रचना उद्धृत कर रहा हूं।
”जोदि ए आमार हृदोयदुआर
 बोन्धो रोहे गो कोभु
 द्वार भेंगे तुमि एशो मोर प्राणे
 फिरिया जेओ ना प्रभु!
          जोदि कोनो दिन ए बीणार तारे
          तोबो प्रियनाम नाहि झोंकारे
          दोया कोरे तुमि क्षणेक दाँडाओ
          फिरिया जेओ ना प्रभु!
तोबो आह्वाने जोदि कोभु मोर
नाहि भेंगे जाय शुप्तिर घोर
बोज्रोबेदोने जागाओ आमाय
फिरिया जेओ ना प्रभु!
            जोदि कोनो दिन तोमार आशोने
            आर-काहारेओ बोशाई जोतोने
            चिरोदिबोशेर हे राजा आमार
            फिरिया जेओ ना प्रभु!"

*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..

Acharya Sanjiv Salil

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विशेष आलेख: स्वाति नक्षत्र और साहित्यिक मान्यताएँ --- संजीव 'सलिल'

विशेष आलेख:                                                                          
स्वाति नक्षत्र और साहित्यिक मान्यताएँ
--संजीव 'सलिल'
*

स्वाति संबंधी मेरी अल्प जानकारी निम्न है:


स्वाति शुभ नक्षत्र है. यह राशि चक्र के २७ नक्षत्रों अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेशा, मघा, पूर्व फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठ, मूला, पूर्व आषाढ़ा, उत्तर आषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद व रेवती में १५ वाँ नक्षत्र है. यह वायु से नियंत्रित होता है.

समान्तर कोष भाग २, पृष्ठ ५०५, क्र. ९२४.७  के अनुसार स्वाति का पर्याय तलवार भी है.

वृहत हिंदी कोष संपादक कालिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय व मुकुन्दी लाल श्रीवास्तव के अनुसार सूर्य की एक पत्नि का नाम स्वाति है.                                                                      

साहित्यिक मान्यताओं और जन-श्रुतियों के अनुसार स्वाति नक्षत्र में होने वाले जल वृष्टि की चाह में चातक 'पिऊ कहाँ' की टेर लगाता है तथा स्वाति नक्षत्र में गिरा जल पीकर चातक तृप्त होता है. यही जल सीप-गर्भ में जने पर मोती, वंश-वृक्ष (बांस) की जड़ में जाने पर वंशलोचन (आयुर्वेदिक औषधि), कदली-पत्र के समपार में कपूर तथा सर्प-मुख में गरल बनता है. 

स्वाति से संबंधित अन्य शब्द और उनके अर्थ : स्वातिकारी = कृषि देवी, स्वातिगिरि = एक नागकन्या, स्वाति पंथ / पथ = आकाशगंगा, स्वातिबिंदु = स्वाति नक्षत्र में गिरि जल की बूँद, स्वातिमुख = एक समाधि, एक किन्नर, स्वातिमुखा = एक नागकन्या, स्वातियोग = आषाढ़ के शुक्ल पक्ष में स्वाति नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग, स्वातिसुत / सुवन = मुक्ता, मोती. 

हिंदी ज्योतिष के अनुसार;                                                               
स्वाति नक्षत्र का स्वरूप मोती के समान है (Swati nakshtra looks like a pearl)। इसे शुभ नक्षत्रों में गिना जाता है। इस नक्षत्र के विषय में मान्यता है कि, इस नक्षत्र के दौरान जब वर्षा की बूंदें मोती के मुख में पड़ती है तब सच्चा मोती बनता है, बांस में इसकी बूंदे पड़े तो बंसलोचन और केले में पड़े में कर्पूर बन जाता है। यानी देखा जाय तो यह नक्षत्र गुणों को बढ़ाने वाला व्यक्तित्व में निखार लाने वाला होता है। इस नक्षत्र के विषय में यह भी कहा जाता है कि जो व्यक्ति इस नक्षत्र में पैदा लेते हैं वे मोती के समान उज्जवल होते हैं ( Native of swati nakshatra are shining like a pearl)।
                                                                                 
स्वाति नक्षत्र राहु का दूसरा नक्षत्र है (Swati is the second nakshatra of Rahu)। यह नक्षत्रमंडल में उपस्थित 27 नक्षत्रों में 15 वां है (Swati nakshtra is fifteenth Nakshatra of constellation) । इसकी राशि तुला होती है। इन सभी के प्रभाव के कारण इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति में सात्विक और तामसी गुणों का समावेश होता है (Native of swati nakshatra are combination of passion and Morality)। ये अध्यात्म में गहरी आस्था रखते हैं। आपका जन्म स्वाति नक्षत्र में हुआ है तो आप परिश्रमी होंगे और अपने परिश्रम के बल पर सफलता हासिल करने का ज़ज्बा रखते होंगे।

आप राहु के प्रभाव के कारण कुटनीतिज्ञ बुद्धि के होते है, राजनीति में आपकी बुद्धि खूब चलती हैं, राजनीतिक दांव पेंच और चालों को आप अच्छी तरह समझते हैं यही कारण है कि आप सदैव सतर्क और चौकन्ने रहते हैं। आप राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से हों अथवा नहीं परंतु अपका व्यवहार आपको राजनैतिक व्यक्तित्व प्रदान करता है। आप अपना काम निकालना खूब जानते हैं। आप परिश्रम के साथ चतुराई का भी इस्तेमाल बखूबी करना जानते हैं। आप इस नक्षत्र के जातक हैं और सक्रिय राजनीति में हैं तो इस बात की संभावना प्रबल है कि आप सत्ता सुख प्राप्त करेंगे (If native of Swati nakshatra play an active role in politics, they get great position and success there) ।

सामाजिक तौर पर देखा जाए तो लोगों के साथ आपके बहुत ही अच्छे सम्बन्ध होते हैं क्योंकि आपका स्वभाव अच्छा होता है। आपके स्वभाव की अच्छाई एवं रिश्तों में ईमानदारी के कारण लोग आपके प्रति विश्वास रखते हैं। आपके हृदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति और दया की भावना रहती है। लोगों के प्रति अच्छी भावना होने के कारण आपको जनता का सहयोग प्राप्त होता है और आपकी छवि उज्जवल रहती है।

आप स्वतंत्र विचारधारा के व्यक्ति होते हैं अत: आप दबाव में रहकर काम करने में विश्वास नहीं रखते हैं। आप जो भी कार्य करना चाहते है उसमें पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं। नौकरी, व्यवसाय एवं आजीविका की दृष्टि से इनकी स्थिति काफी अच्छी रहती है। आप चाहे नौकरी करें अथवा व्यवसाय दोनों ही में कामयाबी हासिल करते हैं। आप काफी महत्वाकांक्षी होते हैं और सदैव ऊँचाईयों पर पहुंचने की आकांक्षा रखते हैं।                

आर्थिक मामलों में भी स्वाति नक्षत्र के जातक भाग्यशाली होते हैं, अपनी बुद्धि और चतुराई से काफी मात्रा में धन सम्पत्ति प्राप्त करते हैं (Native of Swati Nakshatra are lucky, they earn lots of money from their gumption and cunningness)। स्वाति नक्षत्र में पैदा होने वाले व्यक्ति पारिवारिक दायित्व को निभाना बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। अपने परिवार के प्रति काफी लगाव व प्रेम रखते हैं। आप सुख सुविधाओं से परिपूर्ण जीवन का आनन्द लेते हें। आपके व्यक्तित्व की एक बड़ी विशेषता यह होती है कि आप अपने प्रतिद्वंद्वी को सदा पराजित करते हैं और विजयी होते हैं।

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रविवार, 4 सितंबर 2011

काव्य सलिला: अनेकता हो एकता में -- संजीव 'सलिल'

sanjiv verma 'salil'

काव्य सलिला: 

अनेकता हो एकता में 

-- संजीव 'सलिल'

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विविधता ही सृष्टि के, निर्माण का आधार है.
'एक हों सब' धारणा यह, क्यों हमें स्वीकार है?

तुम रहो तुम, मैं रहूँ मैं, और हम सब साथ हों.
क्यों जरूरी हो कि गुड़-गोबर हमेशा साथ हों?

द्वैत रच अद्वैत से, उस ईश्वर ने यह कहा.
दूर माया से सकारण, सदा मायापति रहा..

मिले मोदक अलग ही, दो सिवइयां मुझको अलग.
अर्थ इसका यह नहीं कि, मन हमारे हों विलग..

अनेकता हो एकता, में- यही स्वीकार है.
तन नहीं मन का मिलन ही, हमारा त्यौहार है..

दोहा सलिला: यथा समय हो कार्य... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यथा समय हो कार्य...
-- संजीव 'सलिल'
*
जो परिवर्तित हो वही, संचेतित सम्प्राण.
जो किंचित बदले नहीं, वह है जड़ निष्प्राण..

जड़ पल में होता नहीं, चेतन यह है सत्य.
जड़ चेतन होता नहीं, यह है 'सलिल' असत्य..

कंकर भी शत चोट खा हो, शंकर भगवान.
फिर तो हम इंसान हैं, ना सुर ना हैवान..

माटी को शत चोट दे, गढ़ता कुम्भ कुम्हार.
चलता है इस तरह ही, सकल सृष्टि व्यापार..

रामदेव-अन्ना बने, कुम्भकार दें चोट.
धीरे-धीरे मिटेगी, जनगण-मन की खोट..

समय लगे लगता रहे, यथा समय हो कार्य.
समाधान हो कोई तो, हम सबको स्वीकार्य..

तजना आशा कभी मत, बन न 'सलिल' नादान..
आशा पर ही टँगा है, आसमान सच मान.


Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 3 सितंबर 2011

श्री गणेश वंदना संजीव 'सलिल'


















श्री गणेश वंदना
संजीव 'सलिल'
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कजरी गीत:१
भोला-भोला गणपति बिसरत नहीं, गौरा के लाला रे भोला.
भोला-भोला सुमिरत टेर रहे हम, दरसन दे दो रे भोला.
भोला-भोला नन्दी सेर मूस पर चढ़कर आओ रे भोला.
भोला-भोला कहाँ गजानन बिलमे, कहाँ षडानन रे भोला.
भोला-भोला ऋद्धि-सिद्धि-स्वामी संग, आके न जाओ रे भोला.
भोला-भोला भ्रस्ट असुर नेतागण, गणपति मारें रे भोला.
भोला-भोला मोदक थाल धरे, कर ग्रहण विराजो रे भोला.
*
कजरी गीत:२
हरि-हरि जय गनेस के चरना, दीन के दानी रे हरि.
हरि-हरि मंगलमूर्ति गजानन, महिमा बखानी रे हरि.
हरि-हरि विद्या-बुद्धि प्रदाता, युक्ति के ज्ञानी रे हरि.
हरि-हरि ध्यान धरूँ नित तुमरो, कथा सुहानी रे हरि.
हरि-हरि मार रही मँहगाई, कठिन निभानी रे हरि.
हरि-हरि चरण पखार तरे, यह 'सलिल' सा प्राणी रे हरि.
*

आलेख: प्रथम पूजनीय गणेश जी प्रो. अश्विनी केशरवानी

आलेख: प्रथम पूजनीय गणेश जी 

प्रो. अश्विनी केशरवानी



श्री गणेश जी की पूजा प्रत्येक शुभकार्य करने के पूर्व ‘‘श्रीगणेशायनमः’’ का उच्चारण किया जाता है। क्योंकि गणेश जी की आराधना हर प्रकार के विघ्नों के निवारण करने के लिए किया जाता है। क्योंकि गणेश जी विघ्नेश्वर हैं:-

वक्रतुण्ड महाकाय कोटि समप्रभा।
निर्विघ्नं कुरू में देव, सर्व कार्येषु सर्वदा।।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के मंगलाचरण में गणेश जी की वंदना करते हुए लिखा हैः-

जो सुमिरन सिधि होई गन नायक करिवर वदन।
करउ अनुग्रह सोई बुधि रासि शुभ गुण सदन।।

भगवान गणेश सत, रज और तम तीनों गुणों के ईश हैं। गणों का ईश ही प्रणव स्वरूप ‘ऊँ’ है। अतः प्रणव स्वरूप ओंकार ही भगवान की मूर्ति है जो वेद मंत्रों के प्रारंभ में प्रतिष्ठित है। ऊँकार रूपी भगवान को ही गणेश कहा गया है:-

ओंकार रूपी भगवानुक्तसत गणनायकः।
यथा कार्येषु सर्वेषु पूज्यते औ विनायकः।।

ऋग्वेद में भी कहा गया हैः- ‘‘न ऋतेत्वतकियते किं चन्तरे’’ अर्थात् हे गणेश जी तुम्हारे बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं किया जाता। पुराणों में पंचदेवों की उपासना कही गयी है.। इस उपासना का रहस्य स्थल पंचभूतों से सम्बंधित है। ये स्थूल तत्व हैं- पुथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनके अधिपति क्रमशः शिव, गणेश, भगवती, सूर्य और विष्णु हैं। गणेश जी के जल तत्व के अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा का विधान है। नारद पुराण के अनुसार- ‘‘गणेशादि पंचदेव ताभ्यो नमः’’ गणेश जी ब्रह्मांड और उसके विशिष्ट तत्वों के प्रतीक होने के कारण दार्शनिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। गणेश जी बल, बुद्धि और पराक्रम के धनी हैं। संसार की परिक्रमा में प्रथम आने की शर्त जब सब देवताओं ने रखी और पृथ्वी की पक्र्रिमा शुरू की तो उन्होंने अपना बुद्धि चातुर्य्य दिखाया। उन्होंने सोचा कि जीव तो चर-अचर में रमा है- ‘रमन्ते चराचरेषु संसारे’ और उन्होंने अपने माता-पिता की परिक्रमा करके रूक गये। जब समस्त देवता पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे तो उनकी बृद्धि और चतुरता की बात सुनकर स्तब्ध रह गये और अपनी हार स्वीकार कर लिये। तब से वे देवताओं के अग्रगण्य बने और अग्र पूजा के अधिकारी हुए।

विघ्ननाशक और सिद्धि विनायक गणेश या गणपति की विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यो के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुद्धि के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृद्धि के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सिद्धि दायक देवता के रूप में मिलती है।

स्वतंत्र मूर्तियों के साथ गणेश जी को शिव परिवार के सदस्य के रूप में लगभग 8 वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच शिव और शक्ति की मूर्तियों में उत्कीर्ण किया गया। भुवनेश्वर के सभी शिव मंदिरों की वाह्य भित्ति पर दोनों ओर कार्तिकेय और पार्वती तथा एक ओर गणेश का रूपायन हुआ है। शिव की नटराज (कांचीपुरम् और भुवनेश्वर), त्रिपुरान्तक, उमा-महेश्वर (खजुराहो, वाराणसी) और कल्याण-सुंदर (भुवनेश्वर, वाराणसी) मूर्तियों में भी गणेश के शिल्पांकन की परंपरा रही है। इसके अतिरिक्त सप्तमातृका फलकों पर एक ओर वीरभद्र और दूसरी ओर गणेश का अंकन हुआ है। मध्यकाल में एलोरा, भुवनेश्वर, कन्नौज, ओसियां, खजुराहो, भेड़ाघाट आदि स्थानों पर गणेश की प्रभूत मूर्तियां दर्शनीय है। इनमें प्रमुख रूप से गणेश को अकेले, नृत्यरत या शक्ति सहित दिखाया गया है। नेपाल, चीन, तिब्बत और इन्डोनेशिया में भी गणेश जी की प्रचुर मात्रा में मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। गणेश की नृत्त मूर्तियां कन्नौज, पहाड़पुर, सुहागपुर, रींवा, भेड़ाघाट, खजुराहो, भुवनेश्वर और ओसियां में प्राप्त हुआ है।

शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र होने के कारण भुवनेश्वर में गणेश जी की मूर्तियां शिव परिवार के सदस्य के रूप में उत्कीर्ण हैं। प्रायः प्रत्येक शिव मंदिर में वाह्य भित्ति की रथिकाओं में गणेश, कार्तिकेय और पार्वती का रूपायन हुआ है। यहां गणेश जी की कुल 75 मूर्तियां मिली हैं। यहां की गणेश मूर्तियों में विविधता का आभाव है। इसीप्रकार एलोरा में गणेश जी की 20 मूर्तियां हैं जिनमें स्वतंत्र मूर्तियों के साथ कल्याण-सुंदर एवं सप्तमातृका फलकों पर निरूपित मूर्तियां भी हैं। गणेश जी की अनेक मूर्तियां मथुरा और लखनऊ में संग्रहित हैं। बैजनाथ (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के शिव मंदिर की नृत्त मूर्ति में पीठिका में गणेश जी को नृत्यरत दिखाये गये हैं और पीठिका के नीचे दुन्दुभिवादकों की आकृतियां भी उकेरी गयी हैं। षड्भुज गणेश का वाहन सिंह और उनके हाथों में अभयाक्ष, परशु, पुष्प और मोदक स्पष्ट हैं।



गणेश जी की स्तुति:-

ऊँ गणानां त्वा गणपति  हवामहे 
प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे 
निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम। 
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्। (यजुर्वेद 23/19) 

इस श्लोक से गणेश जी का आव्हान किया जाता है।
गणेश जी का द्वादश नाम:-

सुमुखश्चैवकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि।।

अर्थात् गणेश जी के बारह नाम क्रमशः सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लंबोदर, विकट, विघ्न विनाशक, विनायक, धुम्रकेतु, गणेशाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन।

सिद्धि विनायक गणेश जी:-

विघ्ननाशक और सिद्धि विनायक गणेश या गणपति की विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यो के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुद्धि के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृद्धि के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सिद्धि दायक देवता के रूप में मिलती है।

गणेश जी का जन्म प्रसंग:-

सिद्धि सदन एवं गजवदन विनायक के उद्भव का प्रसंग ब्रह्मवैवर्त्य पुराण के गणेश खंड में मिलता है। इसके अनुसार पार्वती जी ने पुत्र प्राप्ति का यज्ञ किया। उस यज्ञ में देवता और ऋषिगण आये और पार्वती जी की प्रार्थना को स्वीकार कर भगवान विष्णु ने व्रतादि का उपदेश दिया। जब पार्वती जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ अनेक देवता उन्हें आशीर्वाद देने पहंुचे। सूर्य पुत्र शनिदेव भी वहां पहंुचे। लेकिन उनका मस्तक झुका हुवा था। क्योंकि एक बार ध्यानस्थ शनिदेव ने अपनी पत्नी के शाप का उल्लेख करते हुए अपना सिर उठाकर बालक को देखने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। लेकिन पार्वती जी ने निःशंक होकर गणेश जी को देखने की अनुमति दे दी। शनिदेव की दृष्टि बालक पर पड़ते ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया:-

सत्य लोचन कोणेन ददर्शच शिशोर्मुखम्।
शनिश्वर मस्तकं कृष्णे गत्वा गोलोकमीप्सितम्।।

..और कटा हुआ सिर भगवान विष्णु में प्रविष्ट हो गया। तब पार्वती जी पुत्र शोक में विव्हल हो उठीं। भगवान विष्णु ने तब सुदर्शन चक्र से पुष्पभद्रा नदी के तट पर सोती हुई हथनी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। तब से उन्हें ‘‘गणेश’’ के रूप में जाना जाता है।


गणेश जी के सम्बंध में एक दूसरी कथा भी प्रचलित है। उसके अनुसार एक बार पार्वती जी ने अपने शरीर में उबटन लगाकर शरीर से मैल निकालने लगी। शरीर के मैल से उसने मानव आकृति बनाया और उसमें जान डालकर जीवित कर दिया और उसे दरवाजे पर बिठाकर किसी को अंदर आने नहीं देने का आदेश दिया। कुछ देर बाद शिवजी आये। जब वे अंदर जाने लगे तब उसने शिव जी अंदर जाने से रोका फलस्वरूप दोनों में भीषण संघर्ष हुआ और क्रोध में आकर शिवजी ने उसका सिर काट दिया। जब पार्वती जी को इस घटना का पता चला तो वह विलाप करने लगी। उन्हें मनाने के लिये शंकर जी ने अपने गणों को आदेश दिया कि जो प्राणी अपने संतान से विमुख हो उसका सिर काटकर ले आओ। गणों को एक हथनी अपने बच्चे की ओर पीठ करके सोयी मिल गया और गण उसका सिर काटकर ले आये और बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। यही बालक ‘‘गणेश जी‘‘ के नाम से प्रतिष्ठित हुआ। भारत में जब मूर्ति पूजन का प्रचलन हुआ तो देवताओं के पांच वर्ग बने जो सम्प्रदाय के रूप में जाने गये। इसमें गणपति जी का ‘‘गणपत्य सम्प्रदाय’’ भी सम्मिलित था। प्रत्येक सम्प्रदाय अपने अधिष्ठाता देव को सृष्टिकर्Ÿाा मानता है। ऋग्वेद में कहा गया है- ‘‘एकः सद्विप्रा बहुधा वदंति’’ ईश्वर तो एक ही है, आप उसे चाहे जिस रूप में स्वीकार करो और उसकी उपासना करो। परवर्ती कथा के अनुसार एक बार क्षमता से अधिक मोदक खा लेने के कारण गणेश के मुख से मोदक बाहर निकलने लगा जिसे रोकने के लिए समीप से जाते हुए सर्प को पकड़कर गणेश जी ने अपने पेट में लपेट लिया। सर्प के सरकने से गणेश जी का वाहन मूषक भयवश पीछे हटने लगा जिससे गणेश असंतुलित होकर गिर पड़े। इस दृश्य को देखकर चंद्रमा को हंसी आ गयी। उनकी हंसी सुनकर गणेश जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने अपना एक दांत तोड़कर चंद्रमा पर प्रहार किया आगे चलकर उसे आयुध के रूप में उन्होंने ग्रहण किया। एक दांत होने के कारण वे एकदंत के रूप में भी जाने गये। यह कथा गणेश के गजमुख, शूर्पकर्ण, एकदंत तथा नाग यज्ञोपवीतधारी, मूषकारूढ़ होने तथा करों में मोदक पात्र एवं स्वदंत धारण करने की पारंपरिक पृष्ठभूमि का स्पष्ट संकेत देती है।

गणेश पूजन एवं मूर्ति स्थापना की प्राचीनता:-

स्वतंत्र मूर्तियों के साथ गणेश जी को शिव परिवार के सदस्य के रूप में लगभग 8 वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच शिव और शक्ति की मूर्तियों में उत्कीर्ण किया गया। भुवनेश्वर के सभी शिव मंदिरों की वाह्य भित्ति पर दोनों ओर कार्तिकेय और पार्वती तथा एक ओर गणेश का रूपायन हुआ है। शिव की नटराज (कांचीपुरम् और भुवनेश्वर), त्रिपुरान्तक, उमा-महेश्वर (खजुराहो, वाराणसी) और कल्याण-सुंदर (भुवनेश्वर, वाराणसी) मूर्तियों में भी गणेश के शिल्पांकन की परंपरा रही है। इसके अतिरिक्त सप्तमातृका फलकों पर एक ओर वीरभद्र और दूसरी ओर गणेश का अंकन हुआ है। मध्यकाल में एलोरा, भुवनेश्वर, कन्नौज, ओसियां, खजुराहो, भेड़ाघाट आदि स्थानों पर गणेश की प्रभूत मूर्तियां दर्शनीय है। इनमें प्रमुख रूप से गणेश को अकेले, नृत्यरत या शक्ति सहित दिखाया गया है। नेपाल, चीन, तिब्बत और इन्डोनेशिया में भी गणेश जी की प्रचुर मात्रा में मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। गणेश की नृत्त मूर्तियां कन्नौज, पहाड़पुर, सुहागपुर, रींवा, भेड़ाघाट, खजुराहो, भुवनेश्वर और ओसियां में प्राप्त हुआ है।

शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र होने के कारण भुवनेश्वर में गणेश जी की मूर्तियां शिव परिवार के सदस्य के रूप में उत्कीर्ण हैं। प्रायः प्रत्येक शिव मंदिर में वाह्य भित्ति की रथिकाओं में गणेश, कार्तिकेय और पार्वती का रूपायन हुआ है। यहां गणेश जी की कुल 75 मूर्तियां मिली हैं। यहां की गणेश मूर्तियों में विविधता का आभाव है। इसीप्रकार एलोरा में गणेश जी की 20 मूर्तियां हैं जिनमें स्वतंत्र मूर्तियों के साथ कल्याण-सुंदर एवं सप्तमातृका फलकों पर निरूपित मूर्तियां भी हैं। गणेश जी की अनेक मूर्तियां मथुरा और लखनऊ में संग्रहित हैं। बैजनाथ (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के शिव मंदिर की नृत्त मूर्ति में पीठिका में गणेश जी को नृत्यरत दिखाये गये हैं और पीठिका के नीचे दुन्दुभिवादकों की आकृतियां भी उकेरी गयी हैं। षड्भुज गणेश का वाहन सिंह और उनके हाथों में अभयाक्ष, परशु, पुष्प और मोदक स्पष्ट हैं।

कला चण्डीविनायकौ:-

गणेश सभी राशियों के अधिपति माने गये हैं। आकाश में राशियों के तारा समूह वृश्चिक राशि तो गणेश मुखाकृति जैसे होता है। यह राशि साक्षात् गणेश जी प्रतिकृति है। ऐसा माना जाता है कि इसी राशि में गणेश जी का जन्म हुआ था। अगस्त और सितंबर माह में सूर्य सिंह और कन्या राशि पर रहने के कारण सूर्यास्त के बाद यह राशि स्पष्ट दिखाई देती है। गणेश जी सुंड को उठाकर चलते प्रतीत होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘कला चण्डीविनायकौ‘‘ अर्थात् कलयुग में चण्डी और विनायक की अराधना सिद्धिदायक और फलदायी होता है। सतयुग में दस भुजा वाले गणेश जी सिंह पर विराजमान होते हैं, त्रेतायुग में मयूर और कलयुग में मूषक उसका वाहन होता है। सूर्य यदि किसी राशि में अन्य ग्रहों को पीड़ित करता है तो गणेश जी की विशेष पूजा-अर्चना से ग्रहों के दोष को शांत किया जा सकता है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में गणेश जी:-

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बाल गंगाधर तिलक का अविस्मरणीय योगदान है। एक ओर उन्होंने ‘‘स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे‘‘ का नारा देकर लोगों का उत्साह वर्द्धन कर रहे थे तो दूसरी ओर महाराष्ट्र प्रांत में गणेशोत्सव के बहाने स्वतंत्रता समर के नायकों को एकत्रित करके आंदोलन की भावी रूपरेखा तय करते थे। हमारे देश में सर्वप्रथम महाराष्ट्र प्रांत से ही गणेश पूजन की शुरूवात स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में की गयी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गणेश पूजन महाराष्ट्र प्रांत का धार्मिक पर्व बन गया। हालांकि गणेश जी पूरे देश में बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजे जाते हैं लेकिन महाराष्ट्र में गणेश पूजन का एक अलग रंग होता है। आज भी गणेश जी घर घर में विराजमान होते हैं।

भाद्र पक्ष शुक्ल चतुर्थी को दोपहर में गणेश जी का जन्म हुआ था। पूरे देश में गणेश चतुर्थी को गणेश जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। मोदक उन्हें बहुत प्रिय है। अतः मोदक का भोग लगाकर उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे हमारे घर, समाज और राष्ट्र को धन धान्य से परिपूर्ण करें। गणेश जी की पूजा सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रीय सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व के रूप में मानाया जाता है। अनंत चतुर्दशी को गणेश जी का विसर्जन होता है। इस बीच धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन से राष्ट्र की एकता, अखंडता और सम्प्रभुता में अभिवृद्धि की प्रेरणा मिलती है। ऐसे देवाधिदेव को हमारा शत् शत् नमन...।
आभार : साहित्य  शिल्पी 

 

मुक्तिका: श्वास-श्वास घनश्याम हो गयी..... -- संजीव 'सलिल'


*
अलस्सुबह मन-दर्पण देखा, श्वास-श्वास घनश्याम हो गयी.
जब नयनों से नयन मिलाये, आस-आस सुख-धाम हो गयी..

अँजुरी भर जल से मुँह धोकर, उषा थपकती मन के द्वारे.
तुहिन बिंदु सज्जित अनूप-छवि, सुंदरता निष्काम हो गयी..

नर्तित होती रवि किरणों ने, सलिल-लहरियों में अवगाहा.
सतत साधना-दीप लिये वंदना विमल आयाम हो गयी..

ज्ञान-परिश्रम-प्रेम त्रिवेणी, नेह नर्मदा हुई निनादित.
कंकर-कंकर को शंकर कर, दुपहरिया बेनाम हो गयी..

सांध्य-अर्चना के निर्मल पल, कलकल निर्झर ध्वनि संप्राणित.  
नीराजन कर लिये नीरजा, मूंदे नयन अनाम हो गयी..

सब संकल्प-विकल्प परखकर, श्रांत-क्लांत पग ठिठक थम गये.
अंतर से अंतर तज अंतर्वीणा विनत प्रणाम हो गयी..

काट-काट कर्मों की कारा, सुध बेसुध हो मौन हुई तो-
काम-कुसुम निष्काम हो गये, राका पूरनकाम हो गयी..

शशि-नभ शशिवदनी-शशीश सम, अभयदान दे रहे मौन रह.
थी जैसी जितनी जिजीविषा, जिसकी वह अंजाम हो गयी..

मन्वन्तर ने अभ्यंतर में, आत्म प्रकाशित होते पाया.
मृण्मय 'सलिल' न थक-रुक, झुक-चुक, बूँद-बूँद परमात्म हो गयी..

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Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

पुस्तक सलिला: 'खुले तीसरी आँख' : प्राणवंत ग़ज़ल संग्रह -- संजीव 'सलिल'

पुस्तक सलिला:                                                                   

'खुले तीसरी आँख' : प्राणवंत ग़ज़ल संग्रह

संजीव 'सलिल'
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(पुस्तक विवरण: खुले तीसरी आँख, हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) संग्रह, चन्द्रसेन 'विराट', प्रथम संस्करण, आकर डिमाई,  पृष्ठ १७८, मूल्य २५० रु., समान्तर प्रकाशन तराना उज्जैन)

हिंदी ग़ज़ल के सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध गीत-गज़लकार श्री गोपाल प्रसाद सक्सेना 'नीरज' का मत है_ ''क्या संस्कृतनिष्ठ हिंदी में गज़ल लिखना संभव है? इस प्रश्न पर यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो मेरा उत्तर होगा-नहीं |....हिंदी भाषा की प्रकृति भारतीय लोक जीवन के अधिक निकट है, वो भारत के ग्रामों, खेतों खलिहानों में, पनघटों बंसीवटों में ही पलकर बड़ी हुई है | उसमे देश की मिट्टी की सुगंध है | गज़ल शहरी सभ्यता के साथ बड़ी हुई है | भारत में मुगलों के आगमन के साथ हिंदी अपनी रक्षा के लिए गांव में जाकर रहने लगी थी जब उर्दू मुगलों के हरमों, दरबारों और देश के बड़े बड़े शहरों में अपने पैर जमा रही थी वो हिंदी को भी अपने रंग में ढालती रही इसलिए यहाँ के बड़े बड़े नगरों में जो संस्कृति उभर कर आई उसकी प्रकृति न तो शुद्ध हिंदी की ही है और न तो उर्दू की ही | यह एक प्रकार कि खिचड़ी संस्कृति है | गज़ल इसी संस्कृति की प्रतिनिधि काव्य विधा है | लगभग सात सौ वर्षों से यही संस्कृति नागरिक सभ्यता का संस्कार बनाती रही | शताब्दियों से जिन मुहावरों, शब्दों का प्रयोग इस संस्कृति ने किया है गज़ल उन्ही में अपने को अभिव्यक्त करती रही | अपने रोज़मर्रा के जीवन में भी हम ज्यादातर इन्ही शब्दों, मुहावरों का प्रयोग करते हैं | हम बच्चों को हिंदी भी उर्दू के माध्यम से ही सिखाते है, प्रभात का अर्थ सुबह और संध्या का अर्थ शाम, लेखनी का अर्थ कलम बतलाते हैं | कालांतर में उर्दू के यही पर्याय मुहावरे बनकर हमारा संस्कार बन जाते हैं | सुबह शाम मिलकर मन में जो बिम्ब प्रस्तुत करते हैं वो प्रभात और संध्या मिलकर नहीं प्रस्तुत कर पाते हैं | गज़ल ना तो प्रकृति की कविता है ना तो अध्यात्म की वो हमारे उसी जीवन की कविता है जिसे हम सचमुच जीते हैं | गज़ल ने भाषा को इतना अधिक सहज और गद्यमय बनाया है कि उसकी जुबान में हम बाजार से सब्जी भी खरीद सकते हैं | घर, बाहर, दफ्तर, कालिज, हाट, बाजार में गज़ल  की भाषा से काम चलाया जा सकता है | हमारी हिंदी भाषा और विशेष रूप से हिंदी खड़ी बोली का दोष यह है कि  हम बातचीत में जिस भाषा और जिस लहजे का प्रयोग करते हैं उसी का प्रयोग कविता में नहीं करते हैं | हमारी जीने कि भाषा दूसरी है और कविता की दूसरी इसीलिए उर्दू का शेर जहाँ कान में पड़ते ही जुबान पर चढ जाता है वहाँ हिंदी कविता याद करने पर भी याद नहीं रह पाती | यदि शुद्ध हिंदी में हमें गज़ल लिखनी है तो हमें हिंदी का वो स्वरुप तैयार करना होगा जो दैनिक जीवन की भाषा और कविता की दूरी  मिटा सके |''

नीरज के समकालिक प्रतिष्ठित गीत-गज़लकार श्री चंद्रसेन 'विराट' इस मत से सहमत नहीं हैं. अपने ११ हिंदी ग़ज़ल संग्रहों के माध्यम से विराट ने गज़लियत और शेरियत को हिंदी एक मिजाज में ढलने में सफलता पायी है, यह जरूर है कि विराट की भाषा शुद्ध और परिष्कृत होने के नाते अंग्रेजी भाषा में प्राथमिक शिक्षा पाये लोगों को क्लिष्ट लगेगी. विराट ने ग़ज़ल लेखन के शिल्प में उर्दू के मानकों को पूरी तरह अपनाया है. उनकी हर ग़ज़ल का हा र्शेर बहरों के अनुकूल है किन्तु वे उर्दू की लफ्ज़ गिराने या दीर्घ को लघु और लघु को दीर्घ की तरह पढ़ने की परंपरा से असहमत हैं. उनकी भाषिक दक्षता, शब्द भण्डार और अभिव्यक्ति क्षमता इतनी है कि कि भावाभिव्यक्ति उनके लिये शब्दों से खेलने की तरह है. शिल्प के निकष पर उनकी हिंदी ग़ज़लों को कोई खारिज नहीं कर सकता, कथ्य की कसौटी पर हिंदी की भाषागत शुचिता, भावगत प्रांजलता, बिम्बगत टटकापन, अलंकारगत आकर्षण, शैलीगत स्पष्ट व सरलता और संकल्पनागत मौलिकता विराट जी का वैशिष्ट्य है. अभियंता होने के नाते आपने सृजन को काव्यगत मानकों पर कसा जाना उन्हें अपरिहार्य प्रतीत होता है. उन्ही के शब्दों में-
यह जरूरी है कि कृति का आकलन होता रहे.
न्यूनताओं और दोषों का शमन होता रहे.
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कथ्य, भाषा, भाव, शैली, शिल्प पर भी आपका
साथ रचना के सदा चिंतन-मनन होता रहे.
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विराट की आत्मा का तरह उनकी ग़ज़लों का स्वर गीतमय है. वे आरंभ में ग़ज़ल को गीतिका कहते रहे हैं किन्तु यह संज्ञा हिंदी छंद शस्त्र में एक छंद विशेष की है. विराट जी के लिये हिंदी-उर्दू खिचडी के डाल-चाँवल की तरह है. वे हिंदी की शुद्धता के पक्षधर होते हुए भी उर्दू के शब्दों का यथावश्यक निस्संकोच प्रयोग करते हैं. विराट जी अपनी सृजन प्रक्रिया को स्वयं तटस्थ भाव से निरखते-परखते हैं. पहले आपने आप से पूछते हैं 'गीत सृजन कब-बकब होता है?', फिर उत्तर देते हैं- 'जब होना है तब होता है'. सृजन प्रक्रिया यांत्रिक नहीं होती कि मशीनी उत्पाद की तरह कविता का उत्पादन हो. विराट जी की अनुभूति हर रचनाकार की है- 'यह होना कैसे समझाऊँ? सचमुच खूब अजब होता है'. विराट जी सृजन का उत्स पीड़ा, दर्द, अभाव, वैषम्य जनित असंतोष और परिस्थिति में परिवर्तन की जिजीविषा को मानते हैं. उनके शब्दों में
'प्रेरक कोई कांटा, अनुभव / कोई एक सबब होता है.  - पृष्ठ ११
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दर्द ही तो देवता अक्षय सृजन के स्रोत का / छंद से उसका हमेशा संस्तवन होता रहे.  - पृष्ठ ५
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दुःख, दर्द, अश्रु, आहें तेरे ही नाम हैं सब / हम गीत में निरंतर इनको उचारते हैं. - पृष्ठ १३
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दुःख न जग का गा सके, वह एक सच्चा कवि नहीं / प्यास होठों पर न जिसके, आँख में पानी न हो - पृष्ठ १२६
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जीवन के मरु में कविता को मरु-उद्यान किया जाता है 
भीतर उतर स्वयं अपना ही अनुसन्धान किया जाता है. - पृष्ठ ६२
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हम मीरा के वंशज हमने कहन विरासत में पाई है / अमरित के जैसी सच्चाई हमने पीकर ग़ज़ल कही है. - पृष्ठ १८
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रोज जी-जी मरे / रोज मर-मर जिए...  जिंदगी क्यों मिली / सोचिए-सोचिए. - पृष्ठ ६७
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विराट जी की सकारात्मक, तटस्थ, यथार्थपरक सोच उनकी हर रचना में मुखर होते हैं. वे सत्य से डरते नहीं, सत्य कितना भी अप्रिय हो उसे आवरण से ढंकते नहीं, जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारते हैं और शुभ का संस्तवन करते समय अशुभ के परिवर्तन का आव्हान करना नहीं भूलते किन्तु उनके लिये परिवर्तन या बदलाव का रास्ता विनाश नहीं सुधार है. विराट जी सात्विकता, शुचिता, शालीनता, मर्यादा, संतुलन और निर्माण के कवि हैं. वे आजीविका से अभियंता रहे हैं और इस रूप में अपने योगदान से संतुष्ट भी रहे हैं, संभवतः इसीलिये वे ध्वंसात्मक क्रांति की भ्रान्ति से हमेशा दूर रहे हैं.
गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहों सँग हाथ लगा कुछ बड़े पुलों में
मैंने मेरा सारा जीवन व्यर्थ गुजारा नहीं लगा है - पृष्ठ ५०
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इसी कारण विराट जी के काव्य में वीभत्स, भयानक या रौद्र रस लगभग अनुपस्थित हैं जबकि श्रृंगार, शांत व  करुणा का उपस्थिति सर्वत्र अनुभव की जा सकती है. विराट जी इंगितों में बात करने के अभ्यस्त हैं. वे पाठक को लगातार सोचने के लिये प्रेरित करते हैं.
इतने करुण हैं दृश्य कि देखे न जा सकें / क्यों देश को हो नाज? कहो क्या विचार है? - पृष्ठ १७१
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हाथों से करके काम हुनरमंद वे हुए / हम हाथ की लकीर दिखाने में रह गये. - पृष्ठ १६४
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करते प्रणाम सभी चमत्कार को यहाँ / सरसों हथेलियों पे जमाव तो बात है. -- पृष्ठ ४२
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विराट जी समकालिक सामयिक परिस्थितियों का आकलन अपनी तरह से करते हैं और जो गलत होते देखते हैं निस्संकोच उद्घाटित करते हैं. 'खुले तीसरी आंख' में विराट जी ने हर रिसते नासूर पर नश्तर चलाये हैं किन्तु अपने विशिष्ट अंदाज़ में-
हमें जो दीखता होता नहीं है वह सियासत में / शिकारी के पिछाड़ी भी शिकारी और होता है. - पृष्ठ १७
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यह आधुनिकता द्वंद्व है, छलना है, ढोंग है / जिस्मों की भूख-प्यास है, कहने को प्यार है. - पृष्ठ ५१
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विराट-काव्य का सर्वाधिक आकर्षक और सशक्त पक्ष श्रृंगार है. वे श्रृंगार की उत्कटता को चरम पर ले जाते समय भी पूरी तरह सात्विक और मर्यादित रखते हैं-
सुबह से निर्जला एकादशी का व्रत तुम्हारा है / परिसा प्यार से मुझसे मगर खाया नहीं जाता.. - पृष्ठ १४८
भावनाओं की ऐसी सूक्ष्म अभिव्यक्ति की चादर शब्दों के ताने-बाने से बुनना विराट के ही बस की बात है. प्रिय के मुखड़े को हथेली में थामकर देखने की सामान्य मुद्रा को विराट जी कितना पावन क्षण बना सके हैं-
भागवत सा है तुम्हारा मुखड़ा / दो हथेली की रहल होती है. - पृष्ठ १३२ 
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जब महफिल में उसे विराजित, सम्मुख पाया नहीं गया है
तब सचमुच में बहुत हृदय से, हमसे गया नहीं गया है. - पृष्ठ २५
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प्यार को पूजा पर वरीयता देते विराट की अभिनव दृष्टि और बिम्ब का कमाल देखिये-
जिस पर तितली चिपक गयी थी, पूजा हित वह कुसुम न तोडा.
माफ़ करें इस प्रणय-मिथुन को तो अलगाया नहीं गया है. - पृष्ठ २५
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विराट सनातन सत्य और समयजयी कवियों की विरासत थाती की तरह गहते हैं यह उनकी काव्य-पंक्तियाँ बताती है.
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पद जाए..   - महाकवि रहीम
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चलो जोड़ा गया टूटे हुए संबंध का धागा.
मगर जो पड़ गयी है वह गिरह देखी नहीं जाती. विराट - पृष्ठ३३
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'दिल मिले या न मिले हाथ मिलाये रहिये' का भाव विराट की शैली में यूँ अभिव्यक्त हुआ है-
हमारे मन नहीं मिलते, फकत ये हाथ मिलते हैं.
लडाई के लिये होती सुलह देखी नहीं जाती. - पृष्ठ ३४
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विराट के लिये कविता करना शौक, शगल या मनोरंजन नहीं पवित्र कर्त्तव्य, पूजा या जीवन-धर्म है. उन जैसे वरिष्ठ कवि-कुल गुरु की पंक्तियाँ नवोदितों को रिचाओं / मन्त्रों की तरह स्मरण कर आत्मस्थ करना चाहिए ताकि वे काव्य-रचना के सारस्वत कर्म का मर्म समझ सकें.
कितनी वक्रोक्ति, ध्वनि, रस का परिपाक है? / कथ्य क्या?, छंद क्या?, शब्द विन्यास है. - पृष्ठ १५४
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गीत का लेखन तपस्या से न कम / आप कवि मन को तपोवन कीजिये. - पृष्ठ १५०
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गजल का शे'र होठों पर, उअतर कर जिद करे बोले
कहे बिन रह न पायें जब, उसे तब ही कहा जाए. १२९
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सच को सच कहता है सच्चा शायर / खूब हिम्मत से हो बेबाक बहुत. - पृष्ठ ११०
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कविता, कविता हो, पद्य हो उसको / गद्य सा मत सपाट होने दे.
अपने कवि को तू कवि ही रख केवल / उसको चरण न भाट होने दे - पृष्ठ ११२
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दुःख न जग का गा सके, वह एक सच्चा कवि नहीं.
प्यास होठों पर न जिसके, आँख में पानी न हो. - पृष्ठ १२६
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समीक्ष्य कृति का आवरण आकर्षक, मुद्रण स्वच्छ व शुद्ध है. पाठ्य-त्रुटियाँ नगण्य हैं- यथा: पोशाख - पृष्ठ१३४, प्रितिष्ठित - पृष्ठ १३५. मुझे एक पंक्ति में अक्रम या व्युतिक्रम काव्य-दोष प्रतीत हुआ- 'तन के आँगन चौड़े, मन के पर गलियारे तंग रहे हैं' में पर को मन के पहले होना चाहिए. संयोजन शब्द 'पर' तन और 'मन' को जोड़ता है, गलियारे को नहीं. अस्तु...
'खुली तीसरी आँख' विराट जी का ११ वाँ हिंदी गजल संग्रह है. विराट जी का काव्य-कौशल इस संग्रह में शीर्ष पर है. सुधी पाठकों ही नहीं, कवियों के लिये भी यह संकलन पठनीय और मननीय भी है.
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 Acharya Sanjiv Salil