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शुक्रवार, 3 जून 2011

दोहे : -- फ़िराक़ गोरखपुरी

फ़िराक़ गोरखपुरी के दोहे


फ़िराक़ गोरखपुरी
नया घाव है प्रेम का जो चमके दिन-रात
होनहार बिरवान के चिकने-चिकने पात

यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

जो न मिटे ऐसा नहीं, कोई भी संजोग
होता आया है सदा, मिलन के बाद वियोग

जग के आँसू बन गए निज नयनों के नीर
अब तो अपनी पीर भी जैसे पराई पीर

कहाँ कमर सीधी करे, कहाँ ठिकाना पाय
तेरा घर जो छोड़ दे, दर-दर ठोकर खाय

जगत-धुदलके में वही चित्रकार कहलाय
कोहरे को जो काट कर अनुपम चित्र बनाय

बन के पंछी जिस तरह भूल जाय निज नीड़
हम बालक सम खो गए, थी वो जीवन-भीड़

याद तेरी एकान्त में यूँ छूती है विचार
जैसे लहर समीर की छुए गात सुकुमार

मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़
गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़
दूर तीरथों में बसे, वो है कैसा राम
मन-मन्दिर की यात्रा,मूरख चारों धाम

वेद,पुराण और शास्त्रों को मिली न उसकी थाह
मुझसे जो कुछ कह गई , इक बच्चे की निगाह
**********************
आभार : सृजनगाथा

नवगीत: करो बुवाई...... --संजीव 'सलिल'

नवगीत: 

करो बुवाई...... 

--संजीव 'सलिल'

खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*

नवगीत: समाचार है आज का... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत:                                                                                                        
समाचार है आज का...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
समाचार है आज का...
मँहगी बहुत दरें नंगई की,
भाव गिरा है ताज का
समाचार है आज का...
साक्षर-शिक्षित देश हुआ पर
समझ घटी यह सत्य है.
कथनी जिसकी साफ़-स्वच्छ
उसका निंदित हर कृत्य है.
लड़े सारिका शुक घर-घर में,
किस्सा सिर्फ न आज का.
खुजली दाद, घूस मंहगाई,
लोभ रोग है खाज का
समाचार है आज का...
*
पनघट पर चौपाल न जाता,
लड़ा खेत खलिहान से.
संझा का बैरी है चंदा,
रूठी रात विहान से.
सीढ़ी-सीढ़ी मुखर देखती
गिरना-उठाना ताज का.
मूलधनों को गँवा दिया फिर
लाभ कमाया ब्याज का.
समाचार है आज का...
*
भक्तों हाथ लुट रहे भगवन,
षड्यंत्रों का दैनिक मंचन.
पश्चिम के कंकर बीने हैं-
त्याग पूर्व की थाती कंचन.
राम भरोसे राज न पूछो
हाल दफ्तरी काज का.
साजिन्दे श्रोता से पूछें
हाल हाथ के साज का.
समाचार है आज का...
*

 

एक हरियाणवी ग़ज़ल आदिक भारती


एक हरियाणवी ग़ज़ल
आदिक भारती
*
और कित'णा लखावैगा* नत्थू ....( देखेगा )
आइना टूट जावैगा नत्थू

आटा सापड़* लिया सै* सारा - ए..( ख़त्म, है )
ईब* के* मन्नै* खावैगा नत्थू ..( अब, क्या, मुझको )

ठीक सै..खाते पीते घर की सै
पर के* झोटी नै* ब्याह्वैगा नत्थू ..( क्या, को )

दर्द लिकड़'न* नै सै रै आंख्यां* तै..( निकलने को आँखों से)
कद* तलक मुस्कुरावैगा नत्थू ....( कब )

एक बै* कुर्सी थ्या* जा* नत्थू नै ..( बार, मिल जाये )
देश नै लूट खावैगा नत्थू

शादी हो ले'ण* दे घर'आली के ..( लेने )
पैरां नै भी दबावैगा नत्थू

उसनै तेरे तै* सै ग़रज़ ' आदिक'....( तुझसे )
तेरे जूते भी ठावैगा* नत्थू ..( उठाएगा )
( डा. आदिक भारती )

बाबा रामदेव के प्रति: --रजनी सक्सेना

बाबा रामदेव के प्रति:                                                                                                      
--रजनी सक्सेना 
peet pat lapet tan divyta ukerata...
by Rajni Saxena on 02 जून 2011 को 23:52 बजे
Rajni Saxena
प्रकाश का अनंत कोष, ज्यों लिए चले दिवस.
निशा के निशान जो,समेटता स्वभाव वश,
आपका अगाध तेज,उजास सिन्धु सा यही.
मर्म है बिखेरता,निशीथ सरित बन बही.
अंधकार निर्विकार,ज्योति कलश बना छलक.
अंशुमान रूप दिव्य,पाई आपकी झलक.
प्रत्येक पग पराग सा,सुबास है बिखेरता.
पीत प ट लपेट तन,दिव्यता उकेरता.
प्रकाश का अकाट सच,सौम्यता सहेज कर.
धरे शारीर आपका,बना विश्व तिमिर हर.
कौंध रहीं हैं दिशाएं,आपकी उजास से.
जगी दिव्य चेतना,आपके प्रयास से.
सत्व है उठान पर,सत्य अपनी आन पर.
तर्जनी घुमाइए,कोटि पग प्रयाण पर.
योग शास्त्र लिए आप,कलुषता समेटते.
दिव्य चेतना में दिव्य,प्राण हैं उकेरते.
पराशक्ति पंकजा सी,विहंसती समीप ही
घोर आँधियों में दीप्त,दिव्य दीप आप ही.
प्रमाण दे मिटा रहे,कुतर्कियों कि बात कों.
लाभार्थी ढाल से,रोक रहे घात कों.
प्रत्यक्ष कों प्रमाण क्या,कि बात स्वयं सिद्ध है
शोषकों कि कुटिल दृष्टि, बनी आज गिद्ध है.
किन्तु भक्त आपके,पद कमल पखारने.
देव पुत्र आपको, नयन भर निहारने.
निर्निमेष पंक्ति बद्ध,पांवड़े बिछाए हैं.
पुलकगात प्रीतिवश,अश्रु छलकाए हैं.
परार्थ का स्वरूप आप,विश्व में अशेष हैं.
परम स्वार्थ समय पर, धरे दधिची वेश हैं.
कामना है आपकी,आयु आयुष्मान हो
सूर्य चन्द्र के सदृश, आप में भी प्राण हों.
प्रकृति प्रफुल्ल आपसे,लहलहाई पौध है.
राष्ट्र कि धास-पात,बनी आज शोध है.
नौनिहाल भारती के,लाडले सपूत आप.
रामदेव रामदेव,विश्व करे नाम जप.
कृष्ण जन्म से ज्यों, कंस था डरा हुआ.
थरथराये छली आज,घोर भय भरा हुआ.
अनंत शुभ कामनाएं,साथ में हैं आपके.
दुखी गरीब बृद्धसभी,साथ में हैं आपके.
विश्व कि अतुलनीय, सौम्य सौगात आप.
योगिराज योग की,अतुल विसात आप.
खोल दिए दिव्य द्वार,गुफाओं में सील के.
वैदिक योग दर्शन, पाषण मील के.
ज्यों प्रजा राजद्वार, में प्रवेश पा गई.
क्षुधित-तृषित एक संग, अमिय पान पा गई.
सुधारस बिखेरते,आपके प्रयास सब.
पीड़ितों के तीन ताप,हो रहे दूर अब.
महा मृत्युंजय,आपके सुमंत्र हैं.
असाध्य रोगियों कों,रामबाण मन्त्र हैं.
अहर्निश गला रहे अस्थियाँ दधिची सी.
युद्ध-स्तर सी स्फूर्त,दीप्त शिखा दीप सी.
धन्य जनक आपके,जननी भी धन्य हुईं.
अहो भाग्य भारती,जगत में सुधन्य हुईं.
ग्वालियर शिविर के दौरान लिखी व बाबाजी को भेंट की गइ मेरी ये कविता ,हजारों ने सराही है योग सन्देश में भी निकली थी...बधाइयों का तांता लग गया था.माँ सरस्वती ने करवाई थी बाबाजी की यह वंदना...अब इसका अगला भाग लिखने जा रही हूँ.
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peet pat lapet tan divyta ukerata...
by Rajni Saxena on 02 जून 2011 को 23:52 बजे
Rajni Saxena
प्रकाश का अनंत कोष, ज्यों लिए चले दिवस.
निशा के निशान जो,समेटता स्वभाव वश,
आपका अगाध तेज,उजास सिन्धु सा यही.
मर्म है बिखेरता,निशीथ सरित बन बही.
अंधकार निर्विकार,ज्योति कलश बना छलक.
अंशुमान रूप दिव्य,पाई आपकी झलक.
प्रत्येक पग पराग सा,सुबास है बिखेरता.
पीत प ट लपेट तन,दिव्यता उकेरता.
प्रकाश का अकाट सच,सौम्यता सहेज कर.
धरे शारीर आपका,बना विश्व तिमिर हर.
कौंध रहीं हैं दिशाएं,आपकी उजास से.
जगी दिव्य चेतना,आपके प्रयास से.
सत्व है उठान पर,सत्य अपनी आन पर.
तर्जनी घुमाइए,कोटि पग प्रयाण पर.
योग शास्त्र लिए आप,कलुषता समेटते.
दिव्य चेतना में दिव्य,प्राण हैं उकेरते.
पराशक्ति पंकजा सी,विहंसती समीप ही
घोर आँधियों में दीप्त,दिव्य दीप आप ही.
प्रमाण दे मिटा रहे,कुतर्कियों कि बात कों.
लाभार्थी ढाल से,रोक रहे घात कों.
प्रत्यक्ष कों प्रमाण क्या,कि बात स्वयं सिद्ध है
शोषकों कि कुटिल दृष्टि, बनी आज गिद्ध है.
किन्तु भक्त आपके,पद कमल पखारने.
देव पुत्र आपको, नयन भर निहारने.
निर्निमेष पंक्ति बद्ध,पांवड़े बिछाए हैं.
पुलकगात प्रीतिवश,अश्रु छलकाए हैं.
परार्थ का स्वरूप आप,विश्व में अशेष हैं.
परम स्वार्थ समय पर, धरे दधिची वेश हैं.
कामना है आपकी,आयु आयुष्मान हो
सूर्य चन्द्र के सदृश, आप में भी प्राण हों.
प्रकृति प्रफुल्ल आपसे,लहलहाई पौध है.
राष्ट्र कि धास-पात,बनी आज शोध है.
नौनिहाल भारती के,लाडले सपूत आप.
रामदेव रामदेव,विश्व करे नाम जप.
कृष्ण जन्म से ज्यों, कंस था डरा हुआ.
थरथराये छली आज,घोर भय भरा हुआ.
अनंत शुभ कामनाएं,साथ में हैं आपके.
दुखी गरीब बृद्धसभी,साथ में हैं आपके.
विश्व कि अतुलनीय, सौम्य सौगात आप.
योगिराज योग की,अतुल विसात आप.
खोल दिए दिव्य द्वार,गुफाओं में सील के.
वैदिक योग दर्शन, पाषण मील के.
ज्यों प्रजा राजद्वार, में प्रवेश पा गई.
क्षुधित-तृषित एक संग, अमिय पान पा गई.
सुधारस बिखेरते,आपके प्रयास सब.
पीड़ितों के तीन ताप,हो रहे दूर अब.
महा मृत्युंजय,आपके सुमंत्र हैं.
असाध्य रोगियों कों,रामबाण मन्त्र हैं.
अहर्निश गला रहे अस्थियाँ दधिची सी.
युद्ध-स्तर सी स्फूर्त,दीप्त शिखा दीप सी.
धन्य जनक आपके,जननी भी धन्य हुईं.
अहो भाग्य भारती,जगत में सुधन्य हुईं.
ग्वालियर शिविर के दौरान लिखी व बाबाजी को भेंट की गइ मेरी ये कविता ,हजारों ने सराही है योग सन्देश में भी निकली थी...बधाइयों का तांता लग गया था.माँ सरस्वती ने करवाई थी बाबाजी की यह वंदना...अब इसका अगला भाग लिखने जा रही हूँ.
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1:13pm Jun 3

प्रकाश का अनंत कोष, ज्यों लिए चले दिवस.
निशा के निशान जो,समेटता स्वभाव वश,
आपका अगाध तेज,उजास सिन्धु सा यही.
मर्म है बिखेरता,निशीथ सरित बन बही.
अंधकार निर्विकार,ज्योति कलश बना छलक.
अंशुमान रूप दिव्य,पाई आपकी झलक.
प्रत्येक पग पराग सा,सुबास है बिखेरता.
पीत प ट लपेट तन,दिव्यता उकेरता.
प्रकाश का अकाट सच,सौम्यता सहेज कर.
धरे शारीर आपका,बना विश्व तिमिर हर.
कौंध रहीं हैं दिशाएं,आपकी उजास से.
जगी दिव्य चेतना,आपके प्रयास से.
सत्व है उठान पर,सत्य अपनी आन पर.
तर्जनी घुमाइए,कोटि पग प्रयाण पर.
योग शास्त्र लिए आप,कलुषता समेटते.
दिव्य चेतना में दिव्य,प्राण हैं उकेरते.
पराशक्ति पंकजा सी,विहंसती समीप ही
घोर आँधियों में दीप्त,दिव्य दीप आप ही.
प्रमाण दे मिटा रहे,कुतर्कियों कि बात कों.
लाभार्थी ढाल से,रोक रहे घात कों.
प्रत्यक्ष कों प्रमाण क्या,कि बात स्वयं सिद्ध है
शोषकों कि कुटिल दृष्टि, बनी आज गिद्ध है.
किन्तु भक्त आपके,पद कमल पखारने.
देव पुत्र आपको, नयन भर निहारने.
निर्निमेष पंक्ति बद्ध,पांवड़े बिछाए हैं.
पुलकगात प्रीतिवश,अश्रु छलकाए हैं.
परार्थ का स्वरूप आप,विश्व में अशेष हैं.
परम स्वार्थ समय पर, धरे दधिची वेश हैं.
कामना है आपकी,आयु आयुष्मान हो
सूर्य चन्द्र के सदृश, आप में भी प्राण हों.
प्रकृति प्रफुल्ल आपसे,लहलहाई पौध है.
राष्ट्र कि धास-पात,बनी आज शोध है.
नौनिहाल भारती के,लाडले सपूत आप.
रामदेव रामदेव,विश्व करे नाम जप.
कृष्ण जन्म से ज्यों, कंस था डरा हुआ.
थरथराये छली आज,घोर भय भरा हुआ.
अनंत शुभ कामनाएं,साथ में हैं आपके.
दुखी गरीब बृद्धसभी,साथ में हैं आपके.
विश्व कि अतुलनीय, सौम्य सौगात आप.
योगिराज योग की,अतुल विसात आप.
खोल दिए दिव्य द्वार,गुफाओं में सील के.
वैदिक योग दर्शन, पाषण मील के.
ज्यों प्रजा राजद्वार, में प्रवेश पा गई.
क्षुधित-तृषित एक संग, अमिय पान पा गई.
सुधारस बिखेरते,आपके प्रयास सब.
पीड़ितों के तीन ताप,हो रहे दूर अब.
महा मृत्युंजय,आपके सुमंत्र हैं.
असाध्य रोगियों कों,रामबाण मन्त्र हैं.
अहर्निश गला रहे अस्थियाँ दधिची सी.
युद्ध-स्तर सी स्फूर्त,दीप्त शिखा दीप सी.
धन्य जनक आपके,जननी भी धन्य हुईं.
अहो भाग्य भारती,जगत में सुधन्य हुईं.
*****************************

घनाक्षरी ------संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी
संजीव 'सलिल'

*
.... राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
नीतिपरक :
जनगण हितकर, लोकनीति शीश धर, पद-मद भूलकर, देश को चलाइए.
सबसे अधिक दीन, सबसे अधिक हीन, जो है हित उसका न, कभी भी भुलाइए..
दीनबंधु दीनानाथ, द्वारिका के अधिपति, सम राज-पाट तज, मीत अपनाइए..
कंस को पछारिए या, मुरली को बजाइए, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये..
*
लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को गले हमेशा, हँस के लगाइए.
लात मार दूर कर, दशमुख-अनुज सा, दुश्मन को न्योत घर, कभी भी न लाइए..
भाई को दुश्मन कह, इंच भर भूमि न दे, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए.
छल-छद्म, दाँव-पेंच, कूटनीति, दंद-फंद, राज नीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
*
.....बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है..
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है.
आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है..
चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है..
 गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है..
*
....देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है..
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन के मन भाया है.
पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है..
चाह वाह आह दाह, नेह नदिया अथाह, कलकल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है.
गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद कर जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है..
*
.... नार बिन चले ना.
पाँव बिन चल सके, छाँव बिन ढल सके, गाँव बिन पल सके, नार बिन चले ना.
नार करे वार जब, नैनन में नार आये, नार बाँध कसकर, नार बिन पले ना..
नार कटे ढोल बजे, वंश-बेल आगे बढ़े, लडुआ-हरीरा बँटे, बिन नार जले ना.
'सलिल' नवीन नार, नगद या हो उधार, हार प्यार अंगार, टाले से टले ना..
(छंद विधान : ८-८-८-७)
**********

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 31 मई 2011

घनाक्षरी /कवित्त योगराज प्रभाकर


घनाक्षरी /कवित्त 
योगराज प्रभाकर  
*
 भ्रूण हत्या

जैसे बेटा पैदा होना, इक वरदान कहा,
घर में न बेटी होना, एक बड़ा श्राप है !

होती न जो बेटियां तो, होते कैसे बेटे भला
इन्ही की वजह से तो, शिवा है - प्रताप है !

पैदा ही न होने देना, कोख में ही मार देना,
हर मज़हब में ये, घोर महापाप है !

महामृत्युंजय सम, वंश के लिए जो बेटा,
उसी तरह कन्या भी, गायत्री का जाप है !
---------------------------------------
(2)
(टीस)

राष्ट्र अपने के लिए, नशा कोढ़ के समान ,
जिसने उजाड़ दिए, लाखों नौजवान हैं !

नशे के गुलाम हुए, भूले इस बात को वो,
उनकी जवानी से ही, भारती की शान हैं !

भूल निज वंश करें, दानवों सी हरकतें
उन्हें बतलाए वे तो, ऋषि की संतान है !

देना होगा हौसला भी, इन्हें समझाना होगा,
हिम्मत करो तो सभी, मंजिलें आसान है
------------------------------------------

मुक्तिका: ज़रा सी जिद ने --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
ज़रा सी जिद ने
संजीव 'सलिल'
*
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बटवारा कराया है.
बना घर को मकां, मालिक को बंजारा कराया है..

नहीं अब मेघदूतों या कबूतर का ज़माना है.
कलम-कासिद को मोबाइल ने नाकारा कराया है..

न खूँटे से बँधे हैं, ना बँधेंगे, लाख हो कोशिश.
कलमकारों ने हर ज़ज्बे को आवारा कराया है..

छिपाकर अपनी गलती, गैर की पगड़ी उछालो रे. 
न तूती सच की सुन, झूठों का नक्कारा कराया है..

चढ़े जो देश की खातिर, विहँस फाँसी के तख्ते पर
समय ने उनके बलिदानों का जयकारा कराया है..

हुआ मधुमेह जबसे डॉक्टर ने लगाई बंदिश
मधुर मिष्ठान्न का भी स्वाद अब खारा कराया है..

सुबह उठकर महलवाले टपरियों को नमन करिए.
इन्हीं ने पसीना-माटी मिला गारा कराया है..

निरंतर सेठ, नेता, अफसरों ने देश को लूटा.
बढ़ा मँहगाई इस जनगण को बेचारा कराया है..

न जनगण और प्रतिनिधि में रहा विश्वास का नाता.
लड़ाया 'सलिल' आपस में, न निबटारा कराया है..

कटे जंगल, खुदे पर्वत, सरोवर पूर डाले हैं.
'सलिल' बिन तप रही धरती को अंगारा कराया है..
********

सोमवार, 30 मई 2011

मुक्तिका : संजीव 'सलिल' भंग हुआ हर सपना

मुक्तिका :
संजीव 'सलिल'
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.

माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..

तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?

पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..

बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
************

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त --- योगराज प्रभाकर

 घनाक्षरी / मनहरण कवित्त  
योगराज प्रभाकर 
Encyclopedia of Sikh Literature
Guru Shabd Ratnakar
Mahaan-Kosh
By Bhai Kahan Singh Nabha ji.
Excerpts from page no. 1577-1579



(अ) घनाक्षरी : यह छंद "कबित्त" का ही एक रूप है, लक्षण - प्रति चरण ३२ अक्षर, ८-८ अक्षरों पर विश्राम, अंत २ लघु !


निकसत म्यान ते ही, छटा घन म्यान ते ही
कालजीह लह लह, होय रही हल हल,
लागे अरी गर गेरे, धर पर धर सिर,
धरत ना ढहर चारों, चक्क परैं चल चल !

(आ) घनाक्षरी का दूसरा रूप है "रूप-घनाक्षरी", लक्षण: प्रति चरण ३२ अक्षर, १६-१६ पर दो विश्राम, इक्त्तीस्वां (३१ वाँ) दीर्घ, बत्तीसवां (३२ वाँ ) लघु !
मिसाल :

अबिचल नगर उजागर सकल जग
जाहर जहूर जहाँ जोति है जबर जान
खंडे हैं प्रचंड खर खड़ग कुवंड धरे
खंजर तुफंग पुंज करद कृपान बान !

(इ) घनाक्षरी का तीसरा रूप है "जलहरण", लक्षण: रूप है प्रति चरण ३२ अक्षर, १६-१६ पर दो विश्राम, इक्त्तीस्वां (३१ वाँ) लघु, बत्तीसवां (३२ वाँ ) दीर्घ, !

देवन के धाम धूलि ध्व्स्न कै धेनुन की
धराधर द्रोह धूम धाम कलू धांक परा
साहिब सुजन फ़तेह सिंह देग तेग धनी
देत जो न भ्रातन सो सीस कर पुन्न हरा !

(ई) घनाक्षरी का चौथा रूप है "देव-घनाक्षरी", लक्षण: रूप है प्रति चरण ३३ अक्षर, तीन विश्राम ८ पर, चौथा ९ पर, अंत में "नगण " !

सिंह जिम गाजै सिंह,
सेना सिंह घटा अरु,
बीजरी ज्यों खग उठै,
तीखन चमक चमक

मुक्तिका: है भारत में महाभारत... -- संजीव 'सलिल'


  है भारत में महाभारत...
  संजीव 'सलिल'
ये भारत है, महाभारत समय ने ही कराया है.
लड़ा सत से असत सिर असत का नीचा कराया है..  

निशा का पाश तोड़ा, साथ ऊषा के लिये फेरे.
तिमिर हर सूर्य ने दुनिया को उजयारा कराया है..

रचें सदभावमय दुनिया, विनत लेकिन सुदृढ़ हों हम.
लदेंगे दुश्मनों के दिन, तिलक सच का कराया है..

मिली संजय की दृष्टि, पर रहा धृतराष्ट्र अंधा ही.
न सच माना, असत ने नाश सब कुल का कराया है..

बनेगी प्रीत जीवन रीत, होगी स्वर्ग यह धरती.
मिटा मतभेद, श्रम-सहयोग ने दावा कराया है..

रहे रागी बनें बागी, विरागी हों न कर मेहनत.
अँगुलियों से बनें मुट्ठी, अहद पूरा कराया है..

जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया हैं.
हुए हैं एक फिर से नेक, अँकवारा कराया है..

बने धर्मेन्द्र जब सिंह तो, मने जंगल में भी मंगल.
हरी हो फिर से यह धरती, 'सलिल' वादा कराया है..

**********
अँकवारा = अंक में भरना, स्नेह से गोद में बैठाना, आलिगन करना.

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त ... झटपट करिए --संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
संजीव 'सलिल'
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
*
छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
*********
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com/

रविवार, 29 मई 2011

मुक्तिका: आँख -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
आँख
संजीव 'सलिल'
*
आँख में पानी न आना चाहिए.
आँख का पानी न जाना चाहिए..

आँख मिलने का बहाना चाहिए.
आँख-आँखों में समाना चाहिए..

आँख लड़ती आँख से मिल दिल खिले.
आँख को नज़रें चुराना चाहिए..

आँख घूरे, झुक चलाये तीर तो.
आँख आँखों से लड़ाना चाहिए..

आँख का अंधा अदेखा देखता.
आँख ना आना न जाना चाहिए..

आँख आँखों से मिले हँसकर गले.
आँख में सपना सुहाना चहिये..

आँख झाँके आँख में सच ना छिपे.
आँख को बिजली गिराना चाहिए..

आँख करती आँख से बातें 'सलिल'
आँख आँख को करना बहाना चाहिए..

आँख का इंगित 'सलिल' कुछ तो समझ.
आँख रूठी मिल मनाना चाहिए..
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Acharya Sanjiv Salil

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माननीय राकेश खंडेलवाल जी को समर्पित गीत ------संजीव 'सलिल'

माननीय राकेश खंडेलवाल जी को समर्पित
गीत
संजीव 'सलिल'
*
चरण रज चन्दन तुम्हारी
काश पाकर तर सकूँ मैं...
*
शब्द आराधक! रुको
जग पग पखारे तो तरेगा.
प्राण जब भी व्यथित होगा-
गीत पढ़कर तम हरेगा.
जी रहे युग कई तुममें
झलक भी हमने न देखी.
बरस कितने ही गँवाये
सत्य की कर-कर अदेखी.
चाहना है मात्र यह
निर्मल चदरिया धर सकूँ मैं...
*
रश्मि रथ राकेश लेकर
पंथ उजियारा करेगा.
सूर्य आकर दीप शत-शत
द्वार पर सादर धरेगा.
कौन पढ़ पाया कहो कब
भाग्य की लिपि लय-प्रलय में.
किन्तु तुमने गढ़ दिये हैं
गीत किस्मत के विलय में.
ढाई आखर भरे गीतों में
पढ़ाओ पढ़ सकूँ मैं...
*
चाकरी होती अधम यह
सत्य पुरखे कह गये हैं.
क्या कहूँ अनमोल पल
कितने समय संग बह गये हैं.
गीत जब पढ़ता तुम्हारे
प्राण-मन तब झूम जाते.
चित्र शब्दों से निकलकर
नयन-सम्मुख घूम जाते.
सीखता लिखना तुम्हें पढ़
काश तुम सा लिख सकूँ मैं...
*
दीप्ति मय होता सलिल जब
उषा आती ऊर्मियाँ ले.
या बहाये दीप संध्या
बहें शत-शत रश्मियाँ ले.
गीत सुनकर गीत गाये
पवन ले-लेकर हिलोरे.
झूम जाये देवता ज्यों
झूमते तरु ले झकोरे.
एक तो पल मिले ऐसा
जिसे जीकर मर सकूँ मैं...
*

Acharya Sanjiv Salil

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दोहे आचार्य हैं सलिल जी महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

आचार्य हैं सलिल जी, कविता में उद्यत: दोहे-- ईकविता, २९ मई २०११


आचार्य हैं सलिल जी, कविता में उद्यत
कूल नर्मदा पर रहें, पावन ज्यों अमृत

आशु-लेखन में नहीं उनका सानी कोय
शब्द लिखे जो लेखनी, अमर तुरत ही होय

सीधा सरल स्वभाव है, कटु वचनों से दूर
व्यसन उन्हें है एक ही, कविता से मज़बूर

मुक्त-हृदय कविता करें, मन कविता की आग
वे आए तो जग गए ईकविता के भाग

धन-धन हे आचार्य जी, हमहू कर लो शिष्य
बन जाए साहित्य में हमरा तनिक भविष्य.

महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
२९ मई २०११

--
(Ex)Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Medico-legal Consultant
www.writing.com/authors/mcgupta44

मुक्तिका: हमेशा भीड़ में... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
हमेशा भीड़ में...
संजीव 'सलिल'
*
हमेशा भीड़ में फिर भी अकेलापन मेरी किस्मत.
किया कुछ भी नहीं फिर भी लगी मुझ पर सदा तोहमत.

कहे इंसान से ईश्वर 'न अब होता सहन तू रुक.
न मुझ पर पेड़-पर्वत पर तनिक तो कर दे तू रहमत..

न होती इन्तेहाँ आतंक की, ज़ुल्मो-सितम की क्यों?
कहे छलनी समय से तन मेरा 'तज अब मुझे घिस मत'..

बहस होती रही बरसों न पर निष्कर्ष कुछ निकला.
नहीं कोई समझ पाया कि क्यों बढ़ती रही नफरत..

किया नीलाम ईमां को सड़क पर बेहिचक जिसने.
बना है पाक दावा कर रहा बेदाग़ है अस्मत..

मिले जब 'सलिल' तब खिल सुमन जग सुवासित करता.
न काँटे रोक पाते अधूरी उनकी रही हसरत..
*

मुक्तिका : आज बिदा का दिन है __संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
आज बिदा का दिन है
-- संजीव 'सलिल'
*
आज बिदा का दिन है देखूँ जी भर के.
क्या मालूम कल किसका दिल टूटे-दरके..

बिम्ब आँख में भर लूँ आज तुम्हारा फिर.
जिसे देख जी पाऊँ मैं हँस मर-मर के..

अमन-चैन के दुश्मन घेरे, कहते है:
दूर न जाओ हम न बाहरी, हैं घर के..

पाप मुझे कुछ जीवन में कर लेने दो.
लौट सकूँ, चाहूँ न दूर जाना तर के..

पूज रहा है शक्ति-लक्ष्मी को सब जग.
कोई न आशिष चाह रहा है हरि-हर के..

कमा-जोड़ता रहूँ चाहते हैं अपने.
कमा न पाये जो चाहें जल्दी सरके..

खलिश 'सलिल' का साथ न छूटे कभी कहीं.
रहें सुनाते गीत-ग़ज़ल मिल जी भर के..
********

शनिवार, 28 मई 2011

रोचक चर्चा: कमल और कुमुद -रावेंद्रकुमार

रोचक चर्चा:
कमल और कुमुद

रावेंद्रकुमार
*
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने ललित निबंध 'महाकवि माघ का प्रभात वर्णन' में स्पष्ट लिखा है -
.
जब कमल शोभित होते हैं, तब कुमुद नहीं, और जब कुमुद शोभित होते हैं तब कमल नहीं। दोनों की दशा बहुधा एक सी नहीं रहती परन्तु इस समय, देखी जाती है। कुमुद बन्द होने को है; पर अभी पूरे बन्द नहीं हुए। उधर कमल खिलने को है, पर अभी पूरे खिले नहीं। एक की शोभा आधी ही रह गयी है, और दूसरे को आधी ही प्राप्त हुई है। रहे भ्रमर, सो अभी दोनों ही पर मंडरा रहे हैं और गुंजा रव के बहाने दोनों ही के प्रशंसा के गीत से गा रहे हैं। इसी से, इस समय कुमुद और कमल, दोनों ही समता को प्राप्त हो रहे हैं।

कमल और कुमुद एक ही फूल है या अलग-अलग? पाठक कृपया बतायें.

मुक्तिका: नहीं समझे -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
नहीं समझे
संजीव 'सलिल'
*
समझकर भी हसीं ज़ज्बात दिल के दिल नहीं समझे.
कहें क्या जबकि अपने ही हमें अपना नहीं समझे..

कुसुम परिमल से सारे चमन को करता सुवासित है.
चुभन काँटों की चुप सहता कसक भँवरे नहीं समझे..

सियासत की रवायत है, चढ़ो तो तोड़ दो सीढ़ी.
कभी होगा उतरना भी, यही सच पद नहीं समझे..

कही दर्पण ने अनकहनी बिना कुछ भी कहे हरदम.
रहे हम ताकते खुद को मगर दर्पण नहीं समझे.. 

'सलिल' सबके पखारे पग मगर निर्मल सदा रहता.
हुए छलनी लहर-पग, पीर को पत्थर नहीं समझे..

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मुक्तिका: ज़रा सी जिद ने --संजीव 'सलिल'


मुक्तिका: 
ज़रा सी जिद ने
संजीव 'सलिल'   
 
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है. 
की बेकदरी ने सिर नीचा कराया है..  

ज़माने ने न जाने किससे कब-कब क्या कराया है. 
दिया लालच, सिखा धोखा,  दगा-दंगा कराया है.. 

उसूलों की लगा बोली, करा नीलाम ईमां भी. 
न सच खुल जाये सबके सामने, परदा कराया है.. 

तिलकधारी था, योगीराज बागी दानी भी राणा.  
हरा दुश्मन को, नीचा शत्रु का झंडा कराया है..   

सधा मतलब तो अपना बन गले से था लिया लिपटा. 
नहीं मतलब तो बिन मतलब झगड़ पंगा कराया है.. 

वो पछताते है लेकिन भूल कैसे मिट सके बोलो- 
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है.. 

न सपने और नपने कभी अपने होते सच मानो.
डुबा सूरज को चंदा ने ही अँधियारा कराया है..  

सियासत में वफ़ा का कुछ नहीं मानी 'सलिल' होता- 
मिली कुर्सी तो पद-मद ने नयन अंधा कराया है.. 

बही बारिश में निज मर्याद लज्जा शर्म तज नदिया. 
'सलिल' पर्वत पिता ने तजा, जल मैला कराया है..

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