सलिल सृजन अक्टूबर २३
*
मुक्तिका
चंद्रयान को कहो न किस्सा।
है यह नूतन सच का हिस्सा।।
जिस रो में इसरो उस रो में-
जो न खड़ा वह खाए घिस्सा।
भौंचक देखें पाकिस्तानी-
मन ही मन करते हैं गुस्सा।
मिला चंद्र में पानी हमको-
लेकर चलें बाल्टी-रस्सा।
लैंडर-रोवर धूप-छाँव सम
संग रहें ज्यों मिस्सी-मिस्सा।
इसरो ने यह बता दिया है-
नासा का नकली है ठस्सा।
नामकरण शिव-शक्ति अनूठा-
ज्यों कपोल पर सोहे मस्सा।
•••
एक दोहा
अब न पैर फुट लात पग, चरण कमल बलिहार।
रखें न भू पर हों मलिन, सिर पर पैर पखार।।
२३.१०.२०२४
***
मुक्तक
आरज़ू है अंजुमन में बहारें रहें।
आसमां में चाँद खुश हो, सितारे रहें।।
है जमीं का कौन?, सबकी वालिदा है वो
प्यार कर माँ से सलिल तो बहारें रहें।।
***
गीत
*
ओझल हो तुम
किंतु सरस छवि,
मन में अब तक बसी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
उषा किरण सम रश्मि रथी का
दर तज मेरी ड्योढ़ी आई।
तुहिन बिंदु सम ठिठकीं-सँकुचीं
अरुणाई ने की पहुनाई।।
दर पर हाथ-
हथेली छापा
घड़ी मिलन की लिखी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दिन भर राह हेरतीं गुमसुम
कब संझा हो दीपक बालो।
रजनी हो तो मिलन पूर्व मिल
गीत मिलन के गुनगुन गा लो।।
चेहरा थाम निहारा, पाया
सिमटी-सिकुड़ी छुई-मुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दो थे, पल में एक हो गए,
नयन नयन में डूब-उबरते।
अधर अधर पर धर अधरामृत
पीते; उर धर, विहँस सिहरते।।
पाकर खोएँ, खोकर पाएँ
आस अहैतुक पली हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
२३-१०-२०२२, ९४२५१८३२४४
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विमर्श- तकनीकी शिक्षा में हिंदी
क्या औचित्य और उपयोग है मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस पाठ्यक्रम शुरू करने का, जबकि सारी पुस्तकों में अधिकांश अंग्रेजी शब्द "जस के तस" हैं और उन्हें केवल देवनागरी लिपि में लिख दिया गया है?
पहले आपकी प्रश्न की पृष्ठभूमि समझें-
पढ़ने-समझने और लिखने में भाषा माध्यम का कार्य करती है। आप भाषा जानते हैं तो विषय या कथ्य को समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे?
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा सबसे आधी सरलता, सहजता से अपनी मातृभाषा समझता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है। किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नति देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
पराधीनता के समय में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया।
१९६२ में चीनी हमले के बाद देश में अभियंताओं की बड़ी संख्या की जरूरत हुई ताकि देश विज्ञान, तकनीक और उद्योग के क्षेत्र में प्रगति कर सके। दक्षिण भारतीय राज्यों ने ६ माह और एक वर्ष के सर्टिफिकेट कोर्स आरंभ किए जिन्हें उत्तीर्ण कर बड़ी संख्या में दक्षिण भाषी, मध्य तथा उत्तर भारत में कार्य विभागों में घुस गए और लगभग ४ दशकों तक पदोन्नत होकर उच्च पदों पर काबिज रहे। मध्य तथा उत्तर भारत में पॉलिटेक्निक आरंभ कर त्रिवर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरंभ किए गए। इनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक युवा प्रविष्ट हुए जिन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में अच्छे एक मिले थे किन्तु पॉलिटेक्निक तथा अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में अंग्रेजी न समझ सकने के कारण ये प्रथम वर्ष में असफल हो गए। कई ने पूरक परीक्षाओं से परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु अंक कम हो गए, कई ने आत्महत्या तक कर लीं। पॉलिटेक्निक जबलपुर के छात्रों ने वर्ष १९७१-७२ में परीक्षा में हिंदी की मांग करते हुए हड़ताल की। तब मैं भी वहाँ एक छात्र था।
डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने इस विषमता को समझते हुए पदोन्नति अवसरों के सृजन, वेतनमान में सुधार तथा हिंदी में अभियांत्रिकी शिक्षण के लिए कई बार हड़तालें कीं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि राज्यों के डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने अखिल भारतीय महासंघ बनाकर भारत सरकार को अपनी पीड़ा और समाधान के उपायों से वगत कराया। तब जनसंघ और समाजवादी दल विरोध में, कोंग्रेस सत्ता में थी। जनसंघ के कई नेताओं प्यारेलाल खंडेलवाल जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, अटलजी, आडवाणी जी, जोशी जी, आदि ने अभियंताओं के मांग पत्रों का समर्थन किया, विधायिकाओं में प्रश्न उठाए। तभी से यह नीति कि उच्च तथा तकनीकी शिक्षा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में हो जनसंघ और कालांतर में भाजपा की नीति बन गई। समाजवादी भी इस मांग के पक्ष में थे किन्तु सत्ता में आने पर उन्होंने इस बिंदु को भुला दिया। उस दौर में सर्व अभियंता ब्रह्म दत्त दिल्ली, रामकिशोर दत्त लख़नऊ, संजीव वर्मा जबलपुर, अमरनाथ लखनऊ, नारायण दास यादव ग्वालियर, जयशंकर सिंह महासमुंद, बृजेश सिंह बिलासपुर, रमाकांत शर्मा भोपाल, शिवप्रसाद वशिष्ठ उज्जैन, सतीश सक्सेना ग्वालियर, आदित्यपाल सिंह भोपाल आदि ने सतत संघर्ष किया। संजीव वर्मा ने जबलपुर में इंजीनियर्स फोरम (इंडिया) का गठन कर भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के जान दिन को अभियंता दिवस के रूप में मनाकर स्वभाषा में अभियांत्रिकी शिक्षा के आंदोलन को नव स्फूर्ति दी। फलत:, हर विभाग में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की मूर्ति कार्यालय परिसर में स्थापित कर हिंदी में कार्य करने का संकल्प लिया गया। डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने प्राकल्लन (एस्टिमेटिंग), मापन (मेजरमेंट) तथा मूल्याङ्कन (वेल्युएशन) हिंदी में करना आरंभ कर दिया। डिप्लोमा परीक्षाओं में छात्रों ने हिंदी में उत्तर लिखे। शासन के लिए इन्हें अमान्य करने का अर्थ विभागीय कार्य बंद होना होता, जिससे हड़ताल सफल होती। शासन ने हड़ताल को असफल दिखाने के लिए, देयकों का भुगतान होने दिया। मध्य प्रदेश में पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा स्तर पर हिंदी में पुस्तकें तथा परीक्षा १९९० के आसपास ही सुलभ हो गयी किन्तु दुर्भाग्य से अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों ने जहाँ समाजवादियों की सरकारें थीं ने इसका अनुकरण नहीं किया।
बड़ी संख्या में निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें भी ग्रामीण छत्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। इतिहास ने खुद को दुहराया। बी.ई./बी.टेक. तथा एम.ई./एम.टेक. में भी हिंदी का प्रवेश हुआ। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने मेडिकल की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कर एम.बी.बी.एस. में हिंदी में करना संभव कर दिया। यद्यपि यह आरंभ मात्र है। लगभग एक दशक लगेगा मेडिकल शिक्षा का पूरी तरह हिन्दीकरण होने में।
आपका प्रश्न तकनीकी किताबों में प्रयुक्त भाषा को लेकर है। हिन्दीकरण करते समय यदि शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाए तो पारिभाषिक शब्द अत्यधिक कठिन तथा अप्रचलित होंगे। विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व् शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए आरंभ में तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्या का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है।
तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, जैसी संस्थाएं हैं जहाँ हिंदी का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर कभी नहीं किया जाता। सरकार और जनता को इस दिशा में सजग होकर इन संस्थाओं का चरित्र बदलना होगा।
२३-१०-२०२२
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लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नई शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
मुक्तिका:
*
रात चूहे से चुहिया यूँ बोली
तू है पोरस तो मैं सिकंदर हूँ
.
चौंक चूहा छिपा के मुँह बोला:
तू बँदरिया, मैं तेरा बंदर हूँ
.
शोख चुहिया ने हँस जवाब दिया:
तू न गोरख, न मैं मछंदर हूँ
*
तू सुधा मेरी, मान जा प्यारी!
मैं तेरा अपना दोस्त चन्दर हूँ
.
दिया नहले पे दहला चुहिया ने
तू है मंदर मगर मैं मंदिर हूँ
.
सर झुका चूहे ने सलाम किया:
मलिका तूफान, मैं बवंडर हूँ
.
जा किनारे खड़े लहर गिनना
याद रखना कि मैं समंदर हूँ
.
बाहरी दुनिया मुबारक हो तुझे
तू है बाहर, मैं घर के अंदर हूँ
२३-१०-२०१५
***
जनक मुक्तक
*
मिल त्यौहार मनाइए
गीत ख़ुशी के गाइए
साफ़-सफाई सब जगह
पहले आप कराइए
*
प्रिया रात के माथ पर,
बेंदा जैसा चाँद धर.
कालदेवता झूमता-
थाम बाँह में चूमता।
*
गये मुकदमा लगाने
ऋद्धि-सिद्धि हरि कोर्ट में
माँगी फीस वकील ने
अकल आ गयी ठिकाने
*
नयन न नम कर नतमुखे!
देख न मुझको गिलाकर
जो मन चाहे, दिलाऊं-
समझा कटनी जेब है.
*
हुआ सम्मिलन दियों का
पर न हो सका दिलों का
तेल न निकला तिलों का
धुंआ धुंआ दिलजलों का
*
शैलेन्द्र नगर, रायपुर
***
दोहा दीप
रांगोली से अल्पना, कहे देखकर चौक
चौंक न घर पर रौनकें, सूना लगता चौक
बाती मन, तन दीप से, कहे न देना ढील
बाँस प्रयासों का रखे, ऊँचा श्रम-कंदील
नेता जी गम्भीर हैं, सुनकर हँसते लोग
रोगी का कब डॉक्टर , किंचित करते सोग?
चाह रहे सब रमा को, बिसरा रहे रमेश
याचक हैं सौ सुरा के, चाहें नहीं सुरेश
रूप-दीप किस शिखा का, कहिए अधिक प्रकाश?
धरती धरती मौन जब, पूछे नीलाकाश
दोहा दीप जलाइए, स्नेह स्नेह का डाल
बाल न लेकिन बाल दें, करिए तनिक सम्हाल
कलम छोड़कर बाण जब, लगे चलने बाण
शशि-तारे जा छिप गए हो संकट से त्राण
दीपोत्सव, रायपुर
२३.१०.२०१४.
***
नवगीत:
मंज़िल आकर
पग छू लेगी
ले प्रदीप
नव आशाओं के
एक साथ मिल
कदम रखें तो
रश्मि विजय का
तिलक करेगी
होनें दें विश्वास
न डगमग
देश स्वच्छ हो
जगमग जगमग
भाग्य लक्ष्मी
तभी वरेगी
हरी-भरी हो
सब वसुंधरा
हो समृद्धि तब ही
स्वयंवरा
तब तक़दीर न
कभी ढलेगी
२३-१०-२०१४
***
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