सलिल सृजन अक्टूबर २२
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हास्य रचना
'भागवान! तू शक्कर होती
तो बेहतर होता,
कड़वीवाणी नहीं
बोल मीठे सुनकर जीता।'
पट्टी की बात सुनी पत्नी ने
सोच-समझ झट बोली-
''प्राणनाथ! तुम मनुज न होकर
गर अदरक हो जाते
कूट डालतती रोज चाय में
हर मेहमां पीता।''
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कुंडलिया
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मंगल पर दंगल करें, चलो फाँदकर चाँद।
देख मिसाइल भीत हो, सूर्य छिपे जा माँद।।
सूर्य छिपे जा माँद, दसों दिस हो अँधियारा।
दहशतगर्दी साँड़ कहें, हँस मैदां मारा।।
धरती को शमशान, कर रहा आदम हर पल।
हुआ आप शैतान, सृष्टि का करें अमंगल।।
२२.१०.२४
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मानस विमर्श - मासपारायण २
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शुभ कंचन वसुदेव का, जिसने पाया साथ।
भव सागर से तर गया, इंदिरा तजे न हाथ।।
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छाया में श्री राम की, मिले विभा मिट क्लेश।
सरला छवि है सिया की, वसुधा वरे हमेश।।
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दीदी ज्ञानेश्वरी जहाँ, वहाँ सर्व कल्याण।
भाव-बाधा को दूर कर, फूकें मृत में प्राण।।
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जो है दास मुकुंद का, उसके शंकर इष्ट।
वरता पंथ अद्वैत का, होते नष्ट अनिष्ट।।
*
मिलती राम चरित्र में, सकल सृष्टि; हर तत्व।
सब कलि-मल का नाश हो, मिलता जीवन सत्व।।
*
राम कथा महिमा अमित, शाप बने वरदान।
राम नाम गाता रहे, आत्म बने रसखान।।
*
आशुतोष गुरु सृष्टि के, हैं श्रद्धा पर्याय।
उमा शुद्ध विश्वास हैं, जो समझे तर जाय।।
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गागर में सागर लिए, मानस-तुलसीदास।
जो अंजुरी भर पी सके, वही जीव है ख़ास।।
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राम कथा शुचि नर्मदा, है वर्मदा पुनीत।
सुनिए गुनिए धर्मदा, पढ़ शर्मदा विनीत।।
*
ज्ञानेश्वरी जी स्नेह की, अमिय नर्मदा धार।
जो पाए आशीष वह, हो जाए भव पार।।
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वक्ता-श्रोता-काल त्रय, ज्ञान-कर्म-विश्वास।
जगह नहीं संदेह को, श्रद्धा हरति त्रास।।
*
जन-मन के संदेह का, निराकरण है इष्ट।
तुलसी ने कहकर कथा, मेटे सकल अनिष्ट।।
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कैसा युग निर्माण हो, है यह अपने हाथ।
मानस को रख ह्रदय में, शिव सम्मुख नत माथ।।
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मानस मानस में बसे, जन-मन हो तब धन्य।
मुकुल मना सरला मति, भज ले राम अनन्य।।
*
निराकार-साकार जो, अकथ-अनादि-अनंत।
निर्गुण-सगुण न दो हुए, एक सादि अरु सांत।।
*
भेद न अंतर है कहीं, आँख खोलकर देख।
तभी मिटे संदेह की, मन से धूमिल रेख।।
*
पूरी करते कामना, सदा भक्त की राम।
'रा'ज रहे जो 'म'ही पर, जिनका नहीं विराम।।
*
जो राक्षस मारें सतत, वे ही राम अकाम।
जिनकी छवि अभिराम है, वे मनमोहक राम।।
*
नामोच्चारण ज्ञान दे, पाप मिटाए ध्यान।
वैदेही-देही मिले, संत करें गुणगान।।
*
जिज्ञासा मैया सती, श्रद्धा उमा न भूल।
पूरक दोनों जानिए, ज्यों कलिका अरु फूल।।
२२-१०-२०२२
***
तीन मुक्तक-
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मौजे रवां१ रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर२ हैं
आफ़ताबों३ सी चमकती, हक़ाइक४ क्यों दूर हैं
माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म६ में आशुफ्ता७ क्यों?
फिक्रे-फ़र्दा८ सागरो-मीना९ फ़िशानी१० सूर हैं
१. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन),
५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता,
९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना।
*
कशमकश१ मासूम२ सी, रुखसार३, लब४, जुल्फें५ कमाल६
ख्वाब७ ख़ालिक८ का हुआ आमद९, ले उम्मीदो-वसाल१०
फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक
माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७
१. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न,
८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी,
१२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग।
*
गर्द आलूदा१ मुजस्सम२ जिंदगी के जलजले३
मुन्जमिद४ सुरखाब५ को बेआब६ कहते दिलजले७
हुस्न८ के गिर्दाब९ में जा कूदता है इश्क़१० खुद
टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२
१. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी,
६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू,
१२. अरमान।
***
***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
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पुस्तक सलिला –
‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ’ सर्वोपयोगी कृति
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ, हीरो वाधवानी, हिंदी सूक्ति संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-९२२००७०-६-९, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य३००/-, राघव प्रकाशन ए ३२ जनता कालोनी, जयपुर]
*
मानव-जीवन में एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने और अपने आचार-विचार को नियंत्रित करने की परंपरा चिरकाल से है. आरम्भ में बड़े-बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति या गुरु से जीवन-सूत्र मिला करते करते थे. लिपि के आविष्कार के पश्चात लिखित विचार विनिमय संभव हो सका. घाघ-भड्डरी आदि की कहावतें, लोकोक्तियाँ वाचिक तथा लिखित दोनों रूपों में जनसामान्य का मार्गदर्शन करती रहीं. क्रमश: विचारकों तथा सुकवियों की काव्य पंक्तियाँ सार्वजनिक स्थलों पर अंकित करने के परिपाटी पुष्ट हुई. यांत्रिक मुद्रण ने स्वेड मार्टिन जैसे विदेशी विचारों की किताबों को भारत में लोकप्रियता दिलाई. संगणक और अंतर्जाल ने ब्लॉग चिट्ठों, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विट्टर, वाट्स एप जैसे अंतरजाल स्थल सुलभ कराये हैं.
श्री हीरो वाधवानी वैचारिक अदान-प्रदान के लिए फेसबुक का नियमित उपयोग करते रहे हैं. तो से पांच पंक्तियों के विचार सूत्र समयाभाव तथा अति व्यस्तता की जीवन शैली में लिखने, पढ़ने, समझने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. ‘अस्वस्थ शरीर, बुरी आदतें और द्वेष हमारी स्वयं की उपज हैं’ जैसे सद्विचार मानव-आचरण को नियंत्रित करते हैं. ‘असफलता से सफलता वर्षों की तरह दूर नहीं होती’ पढ़कर निराश मन नए सिरे से संघर्ष करने की प्रेरणा पा सकता है. ‘अच्छे इंसान पेड़ की तरह होते हैं, सबके काम आते हैं’ इस उद्धरण से अच्छा बनाने के लिए सबके काम आने तथा पेड़ न काटने के २ सद्विचार मिलते हैं.
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, अपूर्णता, भावना, एकता और मेलजोल, परिश्रम, सादगी, समुद्र, उदासीनता, स्वास्थ्य, भीतर का दर्द आदि शीर्षकों में उद्धरणों को विभाजित किया गया है. कविता, लघुकथा आदि विधाओं का भी उपयोग किया गया है. हीरो जी की भाषा सहज बोधगम्य, सरस प्रसाद गुण संपन्न है. सामान्य पाठक कथ्य को सुगमता से ग्रहण कर लेता है.
‘सबसे अधिक धनी वह है जो स्वास्थ्य, संतुष्ट और सदाचारी है .’, ‘सभी ताले चाबी से नहीं खुलते. कुछ प्यार, विश्वास और सूझ-बूझ से भी खुलते हैं.’, ‘परिश्रम सभी समस्याओं का हल है.’, ‘परिश्रम परस पत्थर और अलादीन का चिराग है. जैसे कथन हर मनुष्य के मन को छू पाते हैं.
पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण है, पाठ्य शुद्धि सावधानी से की गयी है. आवरण चित्र धरती को हरी चादर उढ़ाने की प्रेरणा देता है. यह पुस्तक घरों में रखने और उपहार देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. श्री हीरो वाधवानी को इस सर्वोपयोगी कृति को सामने लाने के लिए शुभकामनाएँ.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा’सलिल’, २०४ वोजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.
पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
*
मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
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गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तक
*
नेहा हों श्वास सभी
गेहा हो आस सभी
जब भी करिये प्रयास
देहा हों ख़ास सभी
*
अरिमर्दन सौमित्र कर सके
शक-सेना का अंत कर सके
विश्वासों की फसल उगाये
अंतर्मन को सन्त कर सके
*
विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को
हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को
कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली
सरहदों पर मार पाकी वनचरों को
*
काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद
प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद?
न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास
हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद
*
मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश
जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष
धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब
सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष
*
मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता
मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता
श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित
कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता
*
हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक
प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक
जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार
स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक
*
नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं
सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं
विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती
सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती
*
कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे
कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे?
कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती
लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती
*
***
लघुकथा
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
२२.१०.२०१६
***
एक सामयिक रचना:
अपना खून खून है
*
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
हम नेता राजाधिराज हैं
लोकतंत्र के नायक
कोटि-कोटि जनता के हम
अलबेले भाग्य-विधायक
लूट तिजोरी भारत की
धन धरें विदेशों में हम
वसुधा को परिवार मानते
घपले अपने सायक
जनप्रतिनिधि बन
जनहित रौंदे
करने दो मनमानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
दाल दलें सबकी छाती पर
जन्मसिद्ध अधिकार
सारा देश बेच दें पल में
प्यारा निज परिवार
मतदाता को भूखा मारें
मिटे न अपनी भूख
स्वार्थ साध,सर्वार्थ त्याग कर
हम करते उपकार
बेशर्मी-मोटी
चमड़ी है धन
पूँजी लासानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
भले निकम्मी संतति
थोपें तुम पर कहकर चंदन
लोफर चोर मवाली को
दे टिकिट बना दें सज्जन
ताली बजा, वोट देना ही
जनगण का अधिकार
पत्रकार को हम खरीद लें
होगा महिमा-मंडन
भूखा मार,
राहतें बाँटें
जय बोलो, हम दानीअपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
२२-१०-२०१५
***
नवगीत:
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ
अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता
मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर
विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ
अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो
चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो
सदय दिखाओ
***
नवगीत:
डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये
लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते
अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते
करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये
अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने
अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने
गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये
शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे
नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे
गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें
आशा-दीप
न कोई जलाये
***
नव गीत:
कम लिखता हूँ
अधिक समझना
अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात
शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात
गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात
झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना
एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक
एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक
कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक
शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना
एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप
मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप
विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप
भोग
लगाकर
आप गटकना
२२-१०-२०१४
***
गीत:
कौन रचनाकार है?....
*
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
कौन व्यापारी? बताओ-
क्या-कहाँ व्यापर है?.....
*
रच रहा वह सृष्टि सारी
बाग़ माली कली प्यारी.
भ्रमर ने मधुरस पिया नित-
नगद कितना?, क्या उधारी?
फूल चूमे शूल को,
क्यों तूल देता है ज़माना?
बन रही जो बात वह
बेबात क्यों-किसने बिगारी?
कौन सिंगारी-सिंगारक
कर रहा सिंगार है?
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
*
कौन नट-नटवर नटी है?
कौन नट-नटराज है?
कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?
कहाँ नग-गिरिराज है?
कौन चाकर?, कौन मालिक?
कौन बन्दा? कौन खालिक?
कौन धरणीधर-कहाँ है?
कहाँ उसका ताज है?
करी बेगारी सभी ने
हर बशर बेकार है.
कौन है रचना यहाँ पर
कौन रचनाकार है?....
*
कौन सच्चा?, कौन लबरा?
है कसाई कौन बकरा?
कौन नापे?, कहाँ नपना?
कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.
कौन ढांके?, कौन खोले?
राज सारे बिना बोले.
काज किसका?, लाज किसकी?
कौन हीरा?, कौन कचरा?
कौन संसारी सनातन
पूछता संसार है?
कौन है रचना यहाँ पर?
कौन रचनाकार है?
२२.१०.२०१०
***
रिपोर्ताज-
रिपोर्ताज गद्य-लेखन की एक विधा है। रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है।
रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा का शब्द है। रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं। रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है। रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं। रिपोर्ट का अर्थ सिर्फ़ सूचना देने तक ही सीमित भी किया जा सकता हैं, जबकि रिपोर्ताज हिंदी गद्य की एक प्रकीर्ण विधा हैं। इसके लेखन का भी एक विशिष्ट तरीका है। वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है। आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है। कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है। घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये। रिपोर्ताज लेखक पत्रकार तथा कलाकार दोनों होता है। रिपोर्ताज लेखक के लिये आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे। तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है।यह किसी घटना को अपनी मानसिक छवि में ढालकर प्रस्तुत करने का तरीका है। रिपोर्ताज में घटना को कलात्मक और साहित्यिक रूप दिया जाता है। द्वितीय महायुद्ध में रिपोर्ताज की विधा पाश्चात्य साहित्य में बहुत लोकप्रिय हुई। विशेषकर रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य में इसका प्रचलन रहा। हिन्दी साहित्य में विदेशी साहित्य के प्रभाव से रिपोर्ताज लिखने की शैली अधिक परिपक्व नहीं हो पाई है। शनैः-शनैः इस विधा में परिष्कार हो रहा है। सर्वश्री प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे तथा अमृतराय आदि ने रोचक रिपोर्ताज लिखे हैं। हिन्दी में साहित्यिक, श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे जाने की पूरी संभावनाएँ हैं।
रिपोर्ताज लिखते समय, इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
रिपोर्ताज में घटना प्रधान होना चाहिए, व्यक्ति नहीं।
रिपोर्ताज केवल वर्णनात्मक नहीं, कथात्मकता से भी युक्त होना चाहिए।
रिपोर्ताज में बहुमुखी कथ्य, चरित्र, संवाद, और प्रामाणिकता आवश्यक है।
रिपोर्ताज में भाषा और शैली प्रसंगानुकूल हो।
रिपोर्ताज के कुछ उदाहरण:
'लक्ष्मीपुरा' हिन्दी का पहला रिपोर्ताज माना गया है। इसका प्रकाशन सुमित्रानंदन पंत के संपादन में निकलने वाली 'रूपाभ' पत्रिका के दिसंबर, १९३८ ई. के अंक में हुआ था।
'भूमिदर्शन की भूमिका' शीर्षक रिपोर्ताज सन् १९६६ ई. में दक्षिण बिहार में पड़े सूखे से संबंधित है। यह रिपोर्ताज ६ टुकड़ों में ९ दिसम्बर १९६६ से लेकर १३ जनवरी १९६७ तक 'दिनमान' पत्र में छपा है।
हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज मे 'तूफानों के बीच' (रांगेय राघव), प्लाट का मोर्चा (शमशेर बहादुर सिंह), युद्ध यात्रा (धर्मवीर भारती) आदि हैं। कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, श्याम परमार, अमृतराय, रांगेय राघव तथा प्रकाश चन्द्र गुप्त आदि प्रसिद्ध रिपोर्ताजकार हैं
रिपोर्ट, किसी भी घटना का आंखों देखा वर्णन होता हैं। यह लिखित या मौखिक किसी भी रूप मे एवं भिन्न प्रारूप मे हो सकती हैं किंतु साहित्य के एक विशिष्ट प्रारूप मे लिखी गई रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहा जाता हैं। रिपोर्ताज हिंदी पत्रकारिता से संबंधित विधा है।
रिपोर्ट किसी भी घटना का सिर्फ तथ्यात्मक वर्णन होता हैं, जबकि रिपोर्ताज घटना का कलात्मक वर्णन हैं।
रिपोर्ताज साहित्य के निश्चित प्रारूप मे लिखे जाते हैं ताकि इसको पढ़ते समय पाठकों की रुचि बनी रहे।
रिपोर्ट नीरस भी हो सकती हैं, जबकि रिपोर्ताज मे लेखन की कलात्मकता इसे सरस बना देती हैं।
रिपोर्ट के लेखन की शैली सामान्य होती हैं, जबकि रिपोर्ताज लेखन की विशिष्ट शैली उसकी विषयवस्तु मे चित्रात्मकता का गुण उत्पन्न कर देती हैं।
लेखन मे चित्रात्मकता, वह गुण होता हैं जिसके कारण रिपोर्ताज पढ़ते समय पाठकों के मस्तिष्क पटल पर घटना के चित्र उभरने लगते हैं। चित्रात्मकता पाठकों के कौतूहल को बढ़ा देती हैं, जिससे पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद पूरा वृत्तांत पढ़कर ही चैन लेता हैं।
रिपोर्ताज, किसी घटना का रोचक एवं सजीव वर्णन होता हैं। लेखन में सजीवता एवं रोचकता उत्पन्न करने के लिए ही लेखक चित्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं।
सहसा घटित होने वाली अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना ही इस विधा को जन्म देने का मुख्य कारण बन जाती है। रिपोर्ताज विधा पर सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन श्री शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1941 मे प्रस्तुत किया था। हिन्दी मे रिपोर्ताज की विधा प्रारंभ करने का श्रेय हंस पत्रिका को है। जिसमें समाचार और विचार शीर्षक एक स्तम्भ की सृष्टि की गई। इस स्तम्भ मे प्रस्तुत सामग्री रिपोर्ताज ही होती हैं।
रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है। रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है। यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था। कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया। शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की।
रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं। सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं। वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है। लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा। इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे। रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी। ‘)ण जल धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है।
अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी।
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