छंद शाला
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छंदशाला २५
चौबोला छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस व मनोरम छंद)
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विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत IS ।
लक्षण छंद-
पंद्रह मात्रा के पद रखे।
लघु-गुरु पदों का अंत सखे।।
चौबोला बोला गह हाथ।
शारद सम्मुख हो नत माथ।।
उदाहरण-
बुंदेली खें मीठे बोल।
रस कानन मां देउत घोल।।
बम्बुलिया गा भौतइ नीक।
तुरतइ रचौ अनूठी लीक।।
आल्हा सुन खें मूँछ मरोर।
बैरी सँग अजमाउत जोर।।
मचलें कजरी राई कबीर।
फाग गा रए मलें अबीर।।
सारद माँ खें पूजन जांय।
पैले रेवा खूब नहांय।।
१-१०-२०२२
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छंदशाला २६
गोपी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम व चौबोला छंद)
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विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदादि त्रिकल, पदांत S ।
लक्षण छंद-
पंद्रह कल, त्रिकलादि न भुला।
रास रचा कान्हा मन खिला।।
गोपी-गोप अंत गुरु रखें।
फोड़ें मटकी, माखन चखें।।
उदाहरण-
छंद साथ गोपी मिल रचें।
आदि त्रिकल, अंत गुरु परखें।।
कला दिखा पंद्रह सुख दिया।
नंद-यशोदा हुलसा हिया।।
बंसी बजी गोप सुन गए।
रास रचा प्रभु पुलकित हुए।।
जमुना तट पर खेलें खेल।
होता द्वैताद्वैती मेल।।
कान्हा हर गोपी सह नचे।
नाना रूप मनोहर रचे।।
१-१०-२०२२
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छंदशाला २७
जयकारी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला व गोपी छंद)
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विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SI ।
लक्षण छंद-
अंतिम तिथि कल संख्या मीत।
गुरु-लघु पद का अंत सुनीत।।
जयकारी-चौपई सुनाम।
गति-यति-लय-रस छंद ललाम।।
(संकेत- अंतिम तिथि १५)
उदाहरण-
जयकारी की कला महान।
चमचे सीखें, भरें उड़ान।।
करे वार तारीफ अचूक।
बढ़ती जाती सुनकर भूख।।
कंकर को शंकर कह रहे।
बहती गंगा में बह रहे।।
चरते खेत ईनामों का।
समय है बेईमानों का।।
लेन-देन सौदे कर रहे।
कवि चारण जीकर मर रहे।।
१-१०-२०२२
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छंदशाला २८
भुजंगिनी/गुपाल छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी व जयकारी/चौपई छंद)
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विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत ISI ।
लक्षण छंद-
नचा भुजंगिनी नच गुपाल।
वसु-ऋषि नाचे ले करताल।।
लघु-गुरु-लघु पद अंत रसाल।
छंद रचे कवि, करे कमाल।।
(संकेत- वसु८+ऋषि७=१५)
उदाहरण-
अपना भारत देश महान।
जग करता इसका गुणगान।।
सजा हिमालय सिर पर ताज।
पग धोता सागर दे मान।।
नदियाँ कलकल बह दिन-रात।
पढ़तीं गीता, ग्रंथ, कुरान।।
पंछी कलरव करें हमेश।
नाप नील नभ भरें उड़ान।।
बहा पसीना करें समृद्ध।
देश हमारे श्रमिक-किसान।।
चूसें नेता-अफसर-सेठ।
खून बचाओ कृपानिधान।।
एक-नेक हम करें निसार।
भारत माँ पर अपनी जान।।
१-१०-२०२२
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छंदशाला २९
उज्ज्वला छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई व भुजंगिनी/गुपाल छंद)
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विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SIS ।
लक्षण छंद-
उज्ज्वला रच बात बोलिए।
पंद्रह कला लिए डोलिए।।
गुरु-लघु-गुरु पदांत हो सखे!
बात में रस सलिल घोलिए।।
उदाहरण-
कृष्ण भजें पल पल राधिका।
कान्ह सुमिरे अचल साधिका।।
भव भुला चुप डूब भाव में।
भक्ति हो पतवार नाव में।।
शांत बैठ मन कर साधना।
अमला विमला रख भावना।।
नयन सूर हो बृज देख ले।
कान्ह पद रज शीश लेख ले।।
काम न आई मन कामना।
जब तक मिलता हँस श्याम ना।
२-१०-२०२२
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मुक्तिका
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वो ही खुद को तलाश पाया है
जिसने खुद को खुदी भुलाया है
जो खुदी को खुदा में खोज रहा
वो खुदा में खुदी समाया है
आईना उसको क्या दिखाएगा
जिसने कुछ भी नहीं छिपाया है
जो बहा वह सलिल रहा निर्मल
जो रुका साफ रह न पाया है
देखता है जो बंदकर आँखें
दीप हो उसने तम मिटाया है
है कमालों ने क्या कमाल किया
आ कबीरों को बेच-खाया है
मार गाँधी को कह रहे बापू
झूठ ने सत्य को हराया है
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छंद कार्य शाला :
राधिका छंद १३-९
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद.
विधान: यति १३-९, पदांत यगण १२२ , मगण २२२
उदाहरण:
१.
जिसने हिंदी को छोड़, लिखी अंग्रेजी
उसने अपनी ही आन, गर्त में भेजी
निज भाषा-भूषा की न, चाह क्यों पाली?
क्यों दुग्ध छोड़कर मय, प्याले में ढाली
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: अलंकार चर्चा १५ :
शब्दालंकार : तुलना और अंतर
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शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार
यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग
साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत
शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.
अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:
समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
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अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)
आ. लाटानुप्रास और यमक:
समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
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ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)
इ. यमक और श्लेष:
समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)
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चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)
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ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:
समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
'पहन लो चूड़ी', कहा तो, हो गयी नाराज
ब्याहता से कहा ऐसा क्यों न आई लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)
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