सलिल सृजन अक्टूबर २०
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करवा चौथी सोरठे
चाँद रही है खोज, चंद्रमुखी जा चाँद पर।
करे किस तरह भोज, नहीं गगन में दिखा रहा।।
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कहे देख लो चाँद, जीवन साथी सिर झुका।
पग-तल नीचे चाँद, चमक गँवा लज्जित हुआ।।
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तोड़े धरती देख, नई रीत पति व्रत रखे।
तज सिंदूरी रेख, पत्नी जी आशीष दें।।
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विक्रमनी हैरान, विक्रम उतरा चाँद पर।
मन मसोस मायूस, मिल न सकें नभ फाँद कर।।
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प्रज्ञानिन हैरान, करवा कैसे बनाए?
बिन पानी प्रज्ञान, व्रत कैसे तुड़वाएगा??
२०.२०.२०२४
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एक दोहा
पैर जमा ले धरा पर, तब छूना आकाश
मत पतंग; पीपल बनो, खुद को खुदी तराश
२०.१०.२०२१
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हिन्दी के नए छंद- १४
महावीर छंद
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिणकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद। अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद महावीर
विधान-
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा।
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु गुरु गुरु लघु।
गीत
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नमस्कार!
निराकार!!
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रचें छंद
निरंकार।
भरें भाव
अलंकार।
मिटे तुरत
अहंकार।
रहें देव
इसी द्वार।
नमस्कार!
निराकार!!
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भरें बाँह
हरें दाह।
करें पूर्ण
सभी चाह।
गहें थाह
मिले वाह।
लगातार
करें प्यार
नमस्कार!
निराकार!!
२०-१०-२०१७
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मुक्तक
आपने चाहा जिसे वह गीत चाहत के लिखेगा
नहीं चाहा जिसे कैसे वह मिलन-अमृत चखेगा?
राह रपटीली बहुत है चाह की, पग सम्हल धरना
जान लेकर हथेली पर जो चले, आगे दिखेगा
२०-१०-२०१६
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अलंकार सलिला :
उत्प्रेक्षा अलंकार
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जब होते दो वस्तु में, एक सदृश गुण-धर्म
एक लगे दूजी सदृश, उत्प्रेक्षा का मर्म
इसमें उसकी कल्पना, उत्प्रेक्षा का मूल.
जनु मनु बहुधा जानिए, है पहचान, न भूल..
जो है उसमें- जो नहीं, वह संभावित देख.
जानो-मानो से करे, उत्प्रेक्षा उल्लेख..
जब दो वस्तुओं में किसी समान धर्म(गुण) होने के कारण एक में दूसरे के होने की सम्भावना की जाए तब वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. सम्भावना व्यक्त करने के लिये किसी वाचक शब्द यथा मानो, मनो, मनु, मनहुँ, जानो, जनु, जैसा, सा, सम आदि का उपयोग किया जाता है.
उत्प्रेक्षा का अर्थ कल्पना या सम्भावना है. जब दो वस्तुओं में भिन्नता रहते हुए भी उपमेय में उपमान की कल्पना की जाये या उपमेय के उपमान के सदृश्य होने की सम्भावना व्यक्त की जाये तो उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. कल्पना या सम्भावना की अभिव्यक्ति हेतु जनु, जानो, मनु, मनहु, मानहु, मानो, जिमी, जैसे, इव, आदि कल्पनासूचक शब्दों का प्रयोग होता है..
उदाहरण:
१. चारू कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए.
लट लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिं पिए..
यहाँ श्रीकृष्ण के मुख पर झूलती हुई लटों (प्रस्तुत) में मत्त मधुप (अप्रस्तुत) की कल्पना (संभावना) किये जाने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है.
२. फूले कांस सकल महि छाई.
जनु वर्षा कृत प्रकट बुढाई..
यहाँ फूले हुए कांस (उपमेय) में वर्षा के श्वेत्केश (उपमान) की सम्भावना की गयी है.
३. फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन.
फूली रहे तारे मानो मोती अनगन हैं..
४. मानहु जगत क्षीर-सागर मगन है..
५. झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाए.
६. मनु आतप बारन तीर कों, सिमिटि सबै छाये रहत.
७. मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज शोभा.
८. तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप, उठे न चलहिं लजाइ.
मनहुँ पाइ भट बाहुबल, अधिक-अधिक गुरुवाइ..
९. लखियत राधा बदन मनु विमल सरद राकेस.
१०. कहती हुए उत्तरा के नेत्र जल से भर गए.
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए..
११. उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने लगा.
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा..
१२. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये.
झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए..
१३. नित्य नहाता है चन्द्र क्षीर-सागर में.
सुन्दरि! मानो तुम्हारे मुख की समता के लिए.
१४. भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद ऋतु पाइ.
सद्गुरु मिले जाहि जिमि, संसय-भ्रम समुदाइ..
१५. रिश्ता दुनियाँ में जैसे व्यापार हो गया।
बीते कल का ये मानो अखबार हो गया।। -श्यामल सुमन
१६. नाना रंगी जलद नभ में दीखते हैं अनूठे
योधा मानो विविध रंग के वस्त्र धारे हुए हैं
१७. अति कटु बचन कहति कैकेई, मानहु लोन जरे पर देई
१८. दूरदर्शनी बहस ज्यों बच्चे करते शोर
'सलिल' न दें परिणाम ज्यों, बंजर भूमि कठोर
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लघुकथा:
जले पर नमक
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- 'यार! ऐसे कैसे जेब कट गयी? सम्हलकर चला करो.'
= 'कहते तो ठीक हो किन्तु कितना भी सम्हलकर चलो, कलाकार हाथ की सफाई दिखा ही देता है.'
- 'ऐसा कहकर तुम अपनी असावधानी पर पर्दा नहीं डाल सकते।'
= 'पर्दा कौन कम्बख्त डाल रहा है? जेबकतरे तो पूरी जनता जनार्दन की जेब काट रहे हैं पिछले ६७ सालों से कौन रोक पाया और कौन बच पाया?'
- 'तुम किस की बात कर रहे हो ?'
=' उन्हें की जो चुनाव की चौपड़ पर आश्वासन के पांसे फेंककर जनमत की द्रौपदी का दिल्ली के दरबार में दिन दहाड़े चीरहरण ही नहीं करते, प्यादों को शह देकर दाल, प्याज जैसी चीजों की जमाखोरी कर कई गुना ऊँचे दामों पर बिकवाकर जन गण की जेब कतरते रहते हैं. इतना ही नहीं दु:शासनी जनविरोधी नीतियों के पक्ष में दूरदर्शन पर गरज-गरज कर जन के जले मन पर नमक भी छिड़कते हैं.'
-'तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है .....'
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लघुकथाः
मुखड़ा देख ले
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कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी| गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर दो थिगड़े लपेटे कमर मटकाती बंदरिया को ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे|
आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- 'बुरा ही देखो'|
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुँह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'|
'बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाये तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी|
'अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाये हो? संपादक जी ने डपटते हुए पूछा|
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है| आज प्रैक्टिकल कर रहे हैं कोई कमी रह गयी हो तो बतायें|'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखड़ा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
२०-१०-२०१५
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