- *- : विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : -*
- ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
- *- : अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ : -*
- [सकल अलंकरण राशि १ लाख रुपए* से अधिक]
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ हेतु हिंदी में स्तरीय लेखन को प्रोत्साहित करने हेतु साहित्य, यांत्रिकी, चिकित्सा, कृषि, प्रबंधन, कंप्यूटर, वाणिज्य, उद्योग, पर्यटन, व्यवसाय, कला, संगीत, नृत्य, चित्रकारी, तथा अन्य सभी विधाओं में प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जा रही हैं। श्रेष्ठ प्रविष्टियों के रचनाकारों ३० अलंकरणों में एक लाख रुपए से अधिक की नगद धनराशि, पदक तथा अलंकरण पत्र, पुस्तकोपहार आदि प्रदान कर सम्मानित किया जाएगा। इस हेतु हिंदी में लिखित, गत ५ वर्षों में प्रकाशित पुस्तकों की प्रविष्टियाँ (पुस्तक की २ प्रतियाँ, पुस्तक तथा लेखक संबंधी संक्षिप्त विवरण, संस्थान के नियम व निर्णय मान्य होने का सहमति पत्र) आदि संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ के पते पर आमंत्रित हैं। प्रति प्रविष्टि सहभागिता निधि ३०० रु., वाट्सऐप ९४२५१ ८३२४४ पर भेजें। कला क्षेत्र में शिक्षण तथा अन्य जमीनी कार्यों से जुड़े प्रविष्टिकार गत ५ वर्षों की गतिविधियों के प्रामाणिक विवरण भेज सकते हैं।
अचयनित प्रविष्टिकारों को सम्मान पत्र वाट्स एप से भेजें जाएँगे। प्रविष्टि प्राप्ति हेतु अंतिम तिथि ३० जुलाई २०२४ है। सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेज कर अपने नाम व वाट्स एप क्रमांक सहित स्नैप शॉट भेजिए। संस्था के सदस्य बनकर किसी प्रिय / पूज्य जन की स्मृति में अलंकरण स्थापित करने, संस्था की ईकाई आरंभ करने, पुस्तक प्रकाशित कराने, भूमिका / समीक्षा लिखाने, पांडुलिपि संशोधित कराने, कार्यशाला आयोजित करने आदि सुविधाओं का लाभ लेने हेतु चलभाष ९४२५१८३२४४ पर संपर्क कीजिए। पुस्तकोपहार में अपनी पुस्तकें भेंट करने के इच्छुक रचनाकार पुस्तकें उक्त पते पर १० अगस्त तक भेजें।
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*- : विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : -*
*- : अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ : -*
[सकल अलंकरण राशि १ लाख रुपए* से अधिक]
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जा रही हैं। निम्नानुसार प्रविष्टियाँ (गत ५ वर्षों में प्रकाशित पुस्तक की २ प्रतियाँ, पुस्तक तथा लेखक संबंधी संक्षिप्त विवरण, संस्थान का निर्णय मान्य होने का सहमति पत्र पृथक कागज पर तथा सहभागिता निधि ३०० रु., संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१ ८३२४४ पर आमंत्रित हैं। अचयनित प्रविष्टिकारों को सम्मान पत्र वाट्स एप से भेजें जाएँगे। प्रविष्टि प्राप्ति हेतु अंतिम तिथि ३० जुलाई २०२४ है। सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेज कर अपने नाम व वाट्स एप क्रमांक सहित स्नैप शॉट भेजिए।
अलंकरण और प्रविष्टियाँ
०१. शांतिराज हिन्दी रत्न अलंकरण, ११,००० रु., जीवनोपलब्धि सम्मान। सौजन्य : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर।
०२. परम ज्योति देवी हिन्दी रत्न अलंकरण, ११,००० रु. समग्र साहित्यिक अवदान। सौजन्य : इं. ओमप्रकाश यती, नोएडा।
०३. राजधर जैन 'मानस हंस' अलंकरण, ५१०० रु., समीक्षा, मीमांसा। सौजन्य : डाॅ. अनिल जैन जी, दमोह।
०४. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' हिंदी भूषण अलंकरण,५१०० रु., निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रावृत्त, पर्यटन, साक्षात्कार, पत्र। सौजन्य : सुश्री अस्मिता शैली जी, जबलपुर।
०५. धीरेन्द्र खरे स्मृति हिंदी भूषण अलंकरण, ५१००/-., उपन्यास। सौजन्य : श्रीमती वसुधा वर्मा मुंबई, श्री रचित खरे, श्री विभोर खरे।
०६. डॉ. दिनेश खरे स्मृति हिंदी भूषण अलंकरण, ५१००/-, तकनीकी लेखन (यांत्रिकी, चिकित्सा, आयुर्वेद, आई.टी., ए.आई. आदि), सौजन्य : श्रीमती निशा खरे जबलपुर।
०७. इं. देवनाथ सिंह आनंद गौतम स्मृति अलंकरण, ५१००/-, महाकाव्य / खंड काव्य / प्रबंध काव्य, सौजन्य : इं. हेमेंद्रनाथ सिंह आनंदगौतम, रीवा।
०८. कमला शर्मा स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, ५१०० रु., हिंदी गजल (मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, सजल, पूर्णिका आदि)। सौजन्य : श्री बसंत कुमार शर्मा जी, बिलासपुर।
०९. कृष्ण बिहारी 'नूर' स्मृति अलंकरण, ५१००/-, आध्यात्म, योग आदि, सौजन्य इं. देवकी नंदन 'शांत', लखनऊ।
१०. किशोरी लाल सेठी कृष्ण प्रज्ञा अलंकरण, ५१००/-, श्री कृष्ण साहित्य, सौजन्य : पवन सेठी, मुंबई।
११. सिद्धार्थ भट्ट स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१००/-., लोक कथा (बोध कथा, बाल कथा, दृष्टांत कथा, लघुकथा, पर्व कथा आदि)। सौजन्य : श्रीमती मीना भट्ट जी, जबलपुर।
१२. डाॅ. शिवकुमार मिश्र स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१००/-, हिंदी छंद। सौजन्य : डाॅ. अनिल वाजपेयी जी, जबलपुर।
१३. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१००/-, गीत, नवगीत। सौजन्य : श्रीमती मनीषा सहाय जी, जबलपुर।
१४. डॉ. अरविन्द गुरु स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१००/-, कविता संग्रह। सौजन्य : डॉ. मंजरी गुरु जी, रायगढ़।
१५. विजय कृष्ण शुक्ल स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१००/-, व्यंग्य लेख संग्रह। सौजन्य : डॉ. संतोष शुक्ला।
१६. शिवप्यारी देवी- बेनी प्रसाद स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१००/-, बाल साहित्य (गद्य, पद्य, एकांकी, अन्य), सौजन्य : डॉ. मुकुल तिवारी, जबलपुर।
१८. हृदयेश्वरी पाण्डे स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१००/-, एकांकी, नाटक, प्रहसन संग्रह। सौजन्य- डॉ. अरुणा पाण्डे, जबलपुर।
१९. सत्याशा प्रकृति श्री अलंकरण, ११००/-, पर्यावरण, कृषि, वानिकी, उद्यानिकी संबंधी। सौजन्य : डा. साधना वर्मा जी, जबलपुर।
२०. रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा शिक्षा श्री अलंकरण, ११००/-, शैक्षिक नवाचार कृति। सौजन्य : सुश्री आशा वर्मा जी, जबलपुर।
२१. कवि राजीव वर्मा कला श्री अलंकरण, ११००/-, कला (गायन-वादन-नर्तन, चित्रकारी) आदि। सौजन्य : आर्किटेक्ट मयंक वर्मा, जबलपुर।
२२. डॉ. कृष्ण मोहन निगम साहित्य श्री अलंकरण, ११००/-, अन्य विधाएँ। सौजन्य : सुषमा निगम, जबलपुर।
२३. सुशील वर्मा लोक श्री अलंकरण, ११००/-, बुंदेली साहित्य। सौजन्य : श्रीमती सरला वर्मा भोपाल।
२४. अतुल श्रीवास्तव स्मृति भाषा श्री अलंकरण, ११००/-, अहिंदी भारतीय भाषा साहित्य / अनुवाद साहित्य । सौजन्य : श्रीमती तनुजा श्रीवास्तव, रायगढ़।
२५. प्रभु दयाल खरे 'व्यथित' छंद श्री अलंकरण, ११००/-, लघु छंद (माहिया, कहमुकरी, रुबाई, सॉनेट, हाइकु, ताँका, बाँका आदि)। सौजन्य: मंजूषा मन, बलौदा बाजार, छत्तीसगढ़।
२६. मेधराज सिंह सृजन श्री अलंकरण, ११००/-, संपादन पत्रिका/साझा संकलन। सौजन्य: सुभाष सिंह जी कटनी ।
२७. राजकुमारी सिंह शांति श्री अलंकरण, ११००/-, विधि, न्याय, समाज सेवा। सौजन्य: डॉ. तरुण सिंह जबलपुर।
२८. कलावती-मुरलीधर लोहुमी साहित्य श्री अलंकरण, ११००/-, प्रथम कृति पर नवांकुर अलंकरण, सौजन्य: चंद्र शेखर लोहुमी।
प्रस्तावित
२९. विदुषी सुमन तेलंग स्मृति चित्रलेखा अलंकरण, ५१००/- चित्रकला, पेंटिंग शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु, सौजन्य; रत्ना पानवलकर, भोपाल।
३०. पंडित शरद तेलंग स्मृति शब्द-राग अलंकरण ५१००/-, संगीत-साहित्य दोनों क्षेत्रों में उल्लेखनीय अवदान, सौजन्य : राग तेलंग, भोपाल।
उक्त के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों की श्रेष्ठ कृतियों पर सम्मान पत्र तथा पुस्तकोपहार प्रदान किए जाएँगे। टीप : उक्त अनुसार किसी अलंकरण हेतु प्रविष्टि न आने अथवा प्रविष्टि स्तरीय न होने पर वह अलंकरण अन्य विधा में दिया अथवा स्थगित किया जा सकेगा। अंतिम तिथि के पूर्व तक नए अलंकरण जोड़े जा सकेंगे।
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अलंकरण स्थापना
विधि, आध्यात्म, ग्राम विकास, जन जागरण तथा अन्य विधाओं में अपने पूज्यजन /प्रियजन की स्मृति में अलंकरण स्थापना हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। अलंकरणदाता अलंकरण निधि के साथ ११००/- (सहभागिता निधि), ११००/- वार्षिक सदस्यता निधि, अपना नाम, पूरा पता व वाट्स एप क्रमांक ९४२५१८३२४४ पर स्नैप शाॅट सहित भेजें।
टीप : उक्त अनुसार किसी अलंकरण हेतु प्रविष्टि न आने अथवा प्रविष्टि स्तरीय न होने पर वह अलंकरण अन्य विधा में दिया अथवा स्थगित किया जा सकेगा। अंतिम तिथि के पूर्व तक नए अलंकरण जोड़े जा सकेंगे।
पुस्तक प्रकाशन
कृति प्रकाशित कराने, भूमिका/समीक्षा लेखन हेतु पांडुलिपि सहित संपर्क करें। चयनित पांडुलिपियों का प्रकाशन संस्था न्यूनतम लागत पर करती है।
संस्था की संरक्षक सदस्यता (सहयोग निधि १ लाख रु.) ग्रहण करने पर एक १५० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का तथा आजीवन सदस्यता (सहयोग निधि २५ हजार रु.) ग्रहण करने पर ६० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का प्रकाशन समन्वय प्रकाशन, जबलपुर द्वारा किया जाएगा। संरक्षकों का वार्षिकोत्सव में सम्मान किया जाएगा।
संस्था के वार्षिक सदस्य (शुल्क ११००/-) पुस्तक भेजकर भूमिका / समीक्षा निशुल्क लिखवा सकते हैं। सदस्यों की पांडुलिपियों पर संशोधन/परिवर्धन/परिवर्तन हेतु सुझाव निशुल्क दिए जाते हैं।
पुस्तक विमोचन
कृति विमोचन हेतु कृति की ५ प्रतियाँ, सहयोग राशि २५०० रु. रचनाकार तथा किताब संबंधी जानकारी ३० जुलाई तक आमंत्रित है। विमोचित कृति की संक्षिप्त चर्चा कर, कृतिकार का सम्मान किया जाएगा।
वार्षिकोत्सव, ईकाई स्थापना दिवस, किसी साहित्यकार की षष्ठि पूर्ति, साहित्यिक कार्यशाला, संगोष्ठी अथवा अन्य सारस्वत अनुष्ठान करने हेतु इच्छुक ईकाइयाँ / सहयोगी सभापति से संपर्क करें।
नई ईकाई
संस्था की नई ईकाई आरंभ करने हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। नई ईकाई हेतु कम से कम ११ सदस्य होना अनिवार्य है। वार्षिक सदस्यता सहयोग निधि ११००/- देकर ईकाई के वार्षिक सदस्य बन सकेंगे। हर ईकाई १००/- प्रति वर्ष प्रति सदस्य केंद्र को भेजेगी। केंद्र ईकाई द्वारा वार्षिकोत्सव या अन्य कार्यक्रमों में सहभागिता हेतु केन्द्रीय पदाधिकारी भेजेगा। केन्द्रीय समिति के कार्यक्रमों में सहभागिता हेतु ईकाई से प्रतिनिधि आमंत्रित किए जाएँगे। वार्षिकोत्सव में ईकाईयों की गतिविधि का विवरण प्रस्तुत किया जाएगा। श्रेष्ठ ईकाई के प्रतिनिधि को सम्मानित किया जाएगा।
*सभापति- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'*
*अध्यक्ष- बसंत शर्मा *
*उपाध्यक्ष- जय प्रकाश श्रीवास्तव, मीना भट्ट, अश्विनी पाठक*
*सचिव - अनिल बाजपेई, मुकुल तिवारी, छाया सक्सेना*
*कोषाध्यक्ष - डॉ. अरुणा पांडे*
*प्रकोष्ठ प्रभारी - अस्मिता शैली, मनीषा सहाय*
जबलपुर, १५.७.२०२४
***
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर, म. प्र.
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बैठक सूचना
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा "अभियान वार्षिकोत्सव एवं अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ " संबंधी विचार विमर्श हेतु रविवार दिनाँक १६ जून २०२४ को पूर्वान्ह १०.३० बजे से कॉफी हाउस घंटाघर जबलपुर में बैठक आयोजित की गई है। आप सभी की उपस्थिति आवश्यक है।
बैठक विषय बिंदु :--
अध्यक्षता - श्री बसंत शर्मा जी
१) वार्षिकोत्सव समारोह व्यवस्था संबंधी।
२) दिव्य अलंकरण व्यवस्था राशि संबंधी।
३) अन्य विषय।
दिनांक :-- १५/०६/२४
डॉ. मुकुल तिवारी
सचिव
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, जबलपुर, म. प्र.
कृपया, आपके द्वारा बनाए गए, नए सदस्यों, संस्था के लिए जुटाई गई निधि, समूह सूची जिनमें आयोजन की सूचना प्रसारित की, जुटाई गई प्रविष्टियाँ आदि की जानकारी लेते आइए। सभी संरक्षक सदस्य कृपया अवश्य पधारिए।
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश।
माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा।
प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।
शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी. एस.,विशारद, एम.ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एल-एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.। शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी. एस.,विशारद, एम.ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एल-एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।
संप्रति:
- पूर्व कार्यपालन यंत्री / पूर्व संभागीय परियोजना यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.।
- अध्यक्ष इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर।
- अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय।
- सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर।
- संचालक समन्वय प्रकाशन संस्थान जबलपुर।
- पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद जयपुर।
- पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा दिल्ली।
- पूर्व उपाध्यक्ष, अध्यक्ष लोक निर्माण समिति, पत्रिका संपादक म.प्र. डिप्लोमा इंजीनियर्स असोसिएशन भोपाल।
- संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन जबलपुर।
उपलब्धि :
- प्रकाशित पुस्तकें १२ (२ कहानी संग्रह, २ कविता संग्रह, ३ गीत-नवगीत संग्रह, २ लघुकथा संग्रह, १ लोकोपयोगी भूकंप विषयक, १ खंड काव्य, १ संस्कृत-हिंदी अनुवाद)
- 'सलिल : एक साहित्यिक निर्झर' व्यक्तित्व-कृतित्व पर पुस्तक, लेखिका: मनोरमा जैन 'पाखी', मुरैना।
- इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा २०१७ में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ - तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा।
- विविध अभियंता संस्थाओं के माध्यम से जबलपुर में भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की ९ मूर्तियाँ स्थापित करवाईं।
- 'हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी अंब विमल मति दे' सरस्वती शिशु मंदिरों में दैनिक प्रार्थना करोड़ों विद्यार्थियों द्वारा गायन।
- जीवन परिचय प्रकाशित ७ साहित्यकार कोश।
- विश्व रिकॉर्डधारी तीन ग्रंथों भारत को जानें, आयुर्वेद को जानें तथा संविधान को जानें में सहभागी।
- २१ वीं सदी के अंतर्राष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार में सहभागी।
- नवगीत के सृजन सारथी भाग २ व ३ में सहभागी।
- नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार में सहभागी ।
- १५ उपनिषदों का हिंदी काव्यानुवाद।
- ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।
- १६ भाषाओं/बोलिओं (हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, बुंदेली, पचेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बृज, हाड़ौती, भोजपुरी, सरायकी, गढ़वाली, मैथिली, अंगिका) में काव्य रचना।
- ७५ सरस्वती वंदना लेखन।
- इंटरनेट पर हिंदी छंदों तथा हिंदी अलंकारों पर द्वि वर्षीय लेखमालाएँ।
- हिंदी में ३२१ सॉनेट, ३२ सोनेटकारों का प्रथम संकलन संपादित-प्रकाशित।
- हिंदी में प्रथम सोरठा सतसई (डॉ। संतोष शुक्ला) का संपादन-प्रकाशन।
- ट्रू मिडिया पत्रिका दिल्ली द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश। ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४, चलभाष जिओ ७९९९५५९६१८।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. कलम के देव, (भक्ति गीत संग्रह १९९७),
२. भूकंप के साथ जीना सीखें, (जनोपयोगी तकनीकी १९९७),
३. लोकतंत्र का मक़बरा, (कविताएँ २००१),
४. मीत मेरे, (कविताएँ २००२),
५. सौरभः, (संस्कृत श्लोकों का दोहानुवाद) २००३, सहलेखन,
६. काल है संक्रांति का, नवगीत संग्रह २०१६,
७. कुरुक्षेत्र गाथा, प्रबंध काव्य सहलेखन २०१६,
८. सड़क पर, नवगीत संग्रह,
९. ओ मेरी तुम, श्रृंगार गीत संग्रह २०२१,
१०. आदमी अभी जिन्दा है, लघुकथा संग्रह २०२२,
११. इक्कीस श्रेष्ठ (आदिवासी) लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२,
१२. इक्कीस श्रेष्ठ बुंदेली लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२।
१३. सरस छंद है सोरठा, (सोरठा सतसई) यंत्रस्थ।
१४. दिव्य ग्रह, प्रबंध काव्य यंत्रस्थ।
१५. सॉनेट सतसई, यंत्रस्थ।
संपादन:
(क) कृतियाँ: १. निर्माण के नूपुर (अभियंता कवियों का संकलन १९८३),२. नींव के पत्थर (अभियंता कवियों का संकलन १९८५), ३. राम नाम सुखदाई १९९९ तथा २००९, ४. तिनका-तिनका नीड़ २०००, ५. ऑफ़ एंड ओन (अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह) २००१, ६. यदा-कदा (ऑफ़ एंड ऑन का हिंदी काव्यानुवाद) २००४, ७ . द्वार खड़े इतिहास के २००६, ८. समयजयी साहित्यशिल्पी प्रो. भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' (विवेचना) २००६, ९-१०. काव्य मंदाकिनी २००८ व २०१०, ११, दोहा दोहा नर्मदा २०१८, १२. दोहा सलिला निर्मला २०१८, १३. दोहा दीप्त दिनेश २०१८, हिंदी सॉनेट सलिला २०२३ (३२ सॉनेटकारों के ३२१ सॉनेट)।
(ख) स्मारिकाएँ: १. शिल्पांजलि १९८३, २. लेखनी १९८४, ३. इंजीनियर्स टाइम्स १९८४, ४. शिल्पा १९८६, ५. लेखनी-२ १९८९, ६. संकल्प १९९४,७. दिव्याशीष १९९६, ८. शाकाहार की खोज १९९९, ९. वास्तुदीप २००२ (विमोचन स्व. कुप. सी. सुदर्शन सरसंघ चालक तथा भाई महावीर राज्यपाल मध्य प्रदेश), १०. इंडियन जिओलॉजिकल सोसाइटी सम्मेलन २००४, ११. दूरभाषिका लोक निर्माण विभाग २००६, (विमोचन श्री नागेन्द्र सिंह तत्कालीन मंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.) १२. निर्माण दूरभाषिका २००७, १३. विनायक दर्शन २००७, १४. मार्ग (IGS) २००९, १५. भवनांजलि (२०१३), १७. आरोहण रोटरी क्लब २०१२, १७. अभियंता बंधु (IEI) २०१३।
(ग) पत्रिकाएँ: १. चित्राशीष १९८० से १९९४, २. एम.पी. सबॉर्डिनेट इंजीनियर्स मंथली जर्नल १९८२ - १९८७, ३. यांत्रिकी समय १९८९-१९९०, ४. इंजीनियर्स टाइम्स १९९६-१९९८, ५. एफोड मंथली जर्नल १९८८-९०, ६. नर्मदा साहित्यिक पत्रिका २००२-२००४, ७. शब्द समिधा २०१९।
साहित्य त्रिवेणी त्रैमासिकी कोलकाता भारतीय छंद विधान विशेषांक अप्रैल-सितंबर १९१८ के अतिथि संपादक।
मासिकी शिखर वार्ता भोपाल के भूकंप अंक में जबलपुर भूकंप १९९३ संबंधी आमुख कथा प्रकाशित।
(घ). भूमिका लेखन: ९० पुस्तकें।
(च). तकनीकी लेख: १५।
(छ). समीक्षा लेखन: ३०० से अधिक।
अप्रकाशित कार्य-
मौलिक कृतियाँ:
जंगल में जनतंत्र, कुत्ते बेहतर हैं ( लघुकथाएँ), आँख के तारे (बाल गीत), दर्पण मत तोड़ो (गीत), आशा पर आकाश (मुक्तक), पुष्पा जीवन बाग़ (हाइकु), काव्य किरण (कवितायें), जनक सुषमा (जनक छंद), मौसम ख़राब है (गीतिका), गले मिले दोहा-यमक (दोहा), दोहा-दोहा श्लेष (दोहा), मूं मत मोड़ो (बुंदेली), जनवाणी हिंदी नमन (खड़ी बोली, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, सिरायकी रचनाएँ), छंद कोश, अलंकार कोश, मुहावरा कोश, दोहा गाथा सनातन, छंद बहर का मूल है, तकनीकी शब्दार्थ सलिला।
अनुवाद:
(अ) ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद: नर्मदा स्तुति (५ नर्मदाष्टक, नर्मदा कवच आदि), शिव-साधना (शिव तांडव स्तोत्र, शिव महिम्न स्तोत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र आदि),रक्षक हैं श्री राम (रामरक्षा स्तोत्र), गजेन्द्र प्रणाम ( गजेन्द्र स्तोत्र), नृसिंह वंदना (नृसिंह स्तोत्र, कवच, गायत्री, आर्तनादाष्टक आदि), महालक्ष्मी स्तोत्र (श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र), विदुर नीति।
(आ) पूनम लाया दिव्य गृह (रोमानियन खंडकाव्य ल्यूसिआ फेरूल)।
(इ) सत्य सूक्त (दोहानुवाद)।
रचनायें प्रकाशित: मुक्तक मंजरी (४० मुक्तक), कन्टेम्परेरी हिंदी पोएट्री (८ रचनाएँ परिचय), ७५ गद्य-पद्य संकलन, लगभग ४०० पत्रिकाएँ। मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित, पत्रिका शिकार वार्ता में भूकंप पर आमुख कथा।
अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, शताधिक छंदों पर लेखमाला।
विशेष उपलब्धि: ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।, हिंदी, अंग्रेजी, बुंदेली, मालवी, निमाड़ी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बृज, राजस्थानी, सरायकी, नेपाली आदि में काव्य रचना।
सम्मान- ११ राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल, झारखण्ड) की विविध संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान तथा अलंकरण। प्रमुख - संपादक रत्न २००३ श्रीनाथद्वारा, सरस्वती रत्न आसनसोल, विज्ञान रत्न, २० वीं शताब्दी रत्न हरयाणा, आचार्य हरयाणा, वाग्विदाम्बर उत्तर प्रदेश, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, वास्तु गौरव, मानस हंस, साहित्य गौरव, साहित्य श्री(३) बेंगलुरु, काव्य श्री, भाषा भूषण, कायस्थ कीर्तिध्वज, चित्रांश गौरव, कायस्थ भूषण, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान, कविगुरु रवीन्द्रनाथ सारस्वत सम्मान कोलकाता, युगपुरुष विवेकानंद पत्रकार रत्न सम्मान कोलकाता, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, भारत गौरव सारस्वत सम्मान, सर्वोच्च कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण जबलपुर, उत्कृष्टता प्रमाणपत्र, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट, लोक साहित्य शिरोमणि अलंकरण गुंजन कला सदन जबलपुर २०१७, सर्वोच्च राजा धामदेव अलंकरण २०१७ गहमर, युग सुरभि २०१७, सर्वोच्च भवानी प्रसाद तिवारी प्रसंग अलंकरण जबलपुर २०२०, सर्वोच्च भारतेंदु पुरस्कार (५०००/-) उत्कर्ष साहित्य अकादमी दिल्ली २०२२ आदि।
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लघुकथा संकलन: आदमी जिंदा है
अनुक्रम
०९. जनसेवा
१०. विक्षिप्तता की झलक
११. आलिंगन का संसार
१२. वेदना का मूल
१३. उलझी हुई डोर
१४. अविश्वासी मन
१५. सनसनाते हुए बाण
१६. चिंता की अवस्था
१७. ह्रदय का रक्त
१८. कल का छोकरा
१९. सम्मान की दृष्टि
२०. गाइड
२१. समाज का प्रायश्चित्य
२२. शुद्ध आचरण
२३. गरम आँसू
२४. दबा हुआ आवेश
२५. भय की रात
२६. मान-मनुहार
२७. नया साल
२८. फल
२९. आदर्श
३०. घर
३१. स्वतंत्रता
३२. कानून के रखवाले
३३. गद्दार कौन
३४. संदेश और माफी
३५. योग्यता
३६. निरुत्तर
३७. विधान
३८. जीत का इशारा
३९. यह स्वप्न कैसा?
४० सहारे की आदत
४१.चेतना शून्य
४२. अनजानी राह
४३. रफ्तार
४४. सफ़ेद झूठ
४५. जनसेवा
४६. जैसे को तैसा
४७. स्थानांतरण
४८. संक्रांति
४९. भारतीय
५०. चैन की साँस
५१. ताना-बाना
५२. पतंग
५३. आदमी जिंदा है
५४. बेदाग़
५५. हवा का रुख
५६. गुलामी का अनुबंध
५७. मोल
५८. मूक दर्शक
५९. विरासत
६० कब्रस्तान
७२. निर्माण
७३. चित्रगुप्त पूजन
७४. अखबार
७५. अर्थ
७६. सहिष्णुता
७७. करनी-भरनी
७८. धनतेरस
७९. थोड़ा सा चन्द्रमा
८०. नाम का प्यार
जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचरण, लगातार बढ़ते कर और मँहगाई, संवेदनहीन प्रशासन ने जीवन दूभर कर दिया तो जनता जनार्दन ने अपने वज्रास्त्र का प्रयोग कर सत्ताधारी दल को चारों खाने चित्त कर वोपक्षवोपक्ष को सत्तासीन कर दिया।
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में निरंतर पेट्रोल-डीजल की कीमत में गिरावट के बावजूद ईंधन के दाम न घटने, बीच सत्र में अहिनियमों के द्वारा परोक्ष कर वृद्धि और बजट में आम कर्मचारी को मजबूर कर सरकार द्वारा काटे और कम ब्याज पर लंबे समय तक उपयोग किये गये भविष्य निधि कोष पर करारोपण से ठगा अनुभव कर रहे मतदाता को समझ ही नहीं आया बदलाव का मतलब।
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"दूर रहो, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। मुझे नहीं बनाना तुम्हारी राज भाषा या राष्ट्र भाषा, तुम सब दोहरे च्रेहरेवाले हो। मुझसे प्रेम जताते हो और बच्चों को विदेशी भाषा में पढ़ाते हो। अपने राजनैतिक हित साधने के लिये मेरे ही विविध रूपों का प्रयोग करनेवालों को भड़काकर आपस में लड़वाते हो। मुझे लोकभाषा और लोकवाणी ही रहने दो। साल के हर दिन हर समय बार-बार मेरा उपयोग करने के स्थान पर एक दिन मेरे नाम पर घडियाली आँसू बहाकर मेरा अपमान करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती? नहीं सुधरोगे तो मैं भी सरस्वती नदी की तरह तुम सबको छोड़कर विलुप्त हो जाऊंगी।
'नहीं, ऐसा मत करना, माफ़ कर दो मैं जोर से चिल्लाया और आँख खुल गयी।'
"क्या हुआ? सोते हुए माफी क्यों मांगना पड़े यदि सोने के पहले ही माँग लो" पत्नी ने चुहल कर पानी देते हुए कहा "भूल जाओ वह भयानक सपना
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गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराकर, देशभक्ति पर धाँसू भाषण देने के बाद करतल ध्वनि सुनकर वे आत्ममुग्ध थे। मुझे भी यह सोचकर अच्छा लगा कि वैलेंटाइन डे का अन्धानुकरण करती पीढ़ी कभी देश और मनुष्य के विषय में भी चिंता और चिंतन करती है।
कुछ दिनों बाद उनके नेतृत्व में छात्र आन्दोलन हुआ. उनके आव्हान पर जुटी भीड़ ने कई सरकारी और निजी वाहन जलाये, पथराव कर जन सामान्य और कर्तव्य निर्वहन कर रहे पुलिस जवानों को घायल किया, हाथ ठेले पलटाकर गरीबों की आजीविका छीनी, एम्बुलेंस को भे इन्हीं जाने दिया जिससे मरीजों की जान पर बन आयी।
पत्रकारों ने उनसे प्रश्न करते किये तो वे जिम्मेवारी स्वीकार करने के स्थान पर पुलिस प्रशासन की नाकामी बताते हुए, पल्ला झाड़ते नज़र आये। देश भक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर से जनगण समझ रहा था की कितना मलिन है उनके मन का दर्पण।
३-३-२०१६
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मातृभक्त बेटे ने मन-पसंद से विवाह कर लिया तो कोइ चारा न रहने पर उन्होंने स्वीकार तो कर लिया पर बहु को स्नेह न दे सकीं। छोटे बेटे के लिये खुद लड़की चुनी, उमंगपूर्वक विवाह किया, पाने सब जेवर और नगदी भी धीरे-धीरे उसे देती रहीं। बेटी दोनों बहुओं से समान व्यवहार करने के लिये कहती तो भी वे अनसुना करती रहीं कि खुद घुस आयी है, मैं तो लायी नहीं अब भुगते।
समय के साथ नाती-पोते हुए किन्तु वे नहीं बदलीं। छोटी बहु को जब यह आभास हुआ कि उनका खज़ाना खाली हो गया है तो उसका विनम्र स्वभाव उद्दंडता में बदलने लगा। उनका शिथिल होता शरीर बीमारियों से घिरने लगा। छोटा बेटा किसी बहाने उन्हें बड़े भाई के पास छोड़ गया।
बड़े बेटे-बहू ने अंत तक जी-जान से सेवा की। जिसे जीवन भर सर-आँखों पर रखा वह समय पर काम न आयी, जिसको जीवन भर ठेंगे पर मारा वह सजल नेत्रों से जल रही है उनके नाम का दिया।
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अभियांत्रिकी महाविद्यालय में परीक्षा का पर्यवेक्षण करते हुए शौचालयों में पुस्तकों के पृष्ठ देखकर मन विचलित होने लगा। अपना विद्यार्थी काल में पुस्तकों पर आवरण चढ़ाना, मँहगी पुस्तकों की प्रति तैयार कर पढ़ना, पुस्तकों में पहचान पर्ची रखना ताकि पन्ने न मोड़ना पड़े, वरिष्ठ छात्रों से आधी कीमत पर पुस्तकें खरीदना, पढ़ाई कर लेने पर अगले साल कनिष्ठ छात्रों को आधी कीमत पर बेच अगले साल की पुस्तकें खरीदना, पुस्तकालय में बैठकर नोट्स बनाना, आजीवन पुस्तकों में सरस्वती का वास मानकर खोलने के पूर्व नमन करना, धोखे से पैर लग जाए तो खुद से अपराध हुआ मानकर क्षमाप्रार्थना करना आदि याद हो आया।
नयी खरीदी पुस्तकों के पन्ने बेरहमी से फाड़ना, उन्हें शौच पात्रों में फेंक देना, पैरों तले रौंदना क्या यही आधुनिकता और प्रगतिशीलता है?
रंगे हाथों पकड़ेजानेवालों की जुबां पर गिड़गड़ाने के शब्द पर आँखों में कहीं पछतावे की झलक नहीं देखकर स्तब्ध हूँ। प्राध्यापकों और प्राचार्य से चर्चा में उन्हें इसकी अनदेखी करते देखकर कुछ कहते नहीं बनता। उनके अनुसार वे रोकें या पकड़ें तो उन्हें जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों या गुंडों से धमकी भरे संदेशों और विद्यार्थियों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। तब कोई साथ नहीं देता। किसी तरह परीक्षा समाप्त हो तो जान बचे। उपाधि पा भी लें तो क्या, न ज्ञान होगा न आजीविका मिलेगी, जैसा कर रहे हैं वैसा ही भरेंगे।
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इस स्वतंत्र देश से तो गुलाम भारत ही ठीक था। हम-तुम एक साथ तो रह पाते थे। तब मेरे लिये तुम लाठी-गोली भी हँसकर खा लेते थे। तुम्हारे साथ खेत, खलिहान, जंगल, पहाड़, महल, झोपड़ी हर जगह मैं रह पाता था। बच्चे, बूढ़े, महिला सभी का सान्निन्ध्य पाकर मेरा सर गर्व से ऊँचा हो जाता था।
देश आज़ाद होने के पहले जो अफसर मेरे साये से भी डरकर मुझसे नफरत करते थे उन्हीं ने मुझे नियम-कायदों में कैद कर अपना गुलाम बना लिया। तुम आज़ाद हो गये, मैं गुलाम हो गया।
अब तुम मुझे अपने घर, खेत, वाहन में फहरा नहीं पाते, गलती से उल्टा लगा लो तो तुम्हें सजा हो जाती है। मजबूरी में तम्हें अपने वस्त्रों और सामानों पर विदेशों के झंडे लगाये देखता हूँ तो मेरा मन रोता है, ऐसी कैसी स्वतंत्रता कि स्वतंत्र नागरिक को अपना झंडा फहराने में भी डरना पड़े।
काश! कोई मुझे दिला दे मुक्ति अपनों की गुलामी से।
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माँ इसे फेंकने को क्यों कह रही हो? बताओ न इसे कहाँ रखूँ? शिक्षक कह रहे थे इसे सबसे ऊपर रखना होता है। तुम न तो पूजा में रखने दे रही हो, न बैठक में, न खाने की मेज पर, न ड्रेसिंग टेबल पर फिर कहाँ रखूँ?
बच्चा बार-बार पूछकर झुंझला रहा था.… इतने में कर्कश आवाज़ आयी 'कह तो दिया फेंक दे, सुनाता है कि लगाऊँ दो तमाचे?'
अवाक् बच्चा सुबकते हुए बोला 'तुम बड़े लोग गंदे हो। सही बात बताते नहीं और डाँटते हो, तुमसे बात नहीं करूंगा'। सुबकते-सुबकते कब आँख लगी पता ही नहीं चला उसके सीने से अब भी लगा था तिरंगा।
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शत-प्रतिशत साक्षरता के नीति बनकर शासन ने करोड़ों रुपयों के दूरदर्शन, संगणक, लेखा सामग्री, चटाई, पुस्तकें , श्याम पट आदि खरीदे। हर स्थान से अधिकारी कर्मचारी सामग्री लेने भोपाल पहुँचे जिन्हें आवागमन हेतु यात्रा भत्ते का भुगतान किया गया। नेताओं ने जगह-जगह अध्ययन केन्द्रों का उद्घाटन किया, संवाददताओं ने दूरदर्शन और अख़बारों पर सरकार और अधिकारियों की प्रशंसा के पुल बाँध दिये। कलेक्टर ने सभी विभागों के शासकीय अधिकारियों / कर्मचारियों को अध्ययन केन्द्रों की गतिविधियों का निरीक्षण कर प्रतिवेदन देने के आदेश दिये।
हर गाँव में एक-एक बेरोजगार शिक्षित ग्रामीण को अध्ययन केंद्र का प्रभारी बनाकर नाममात्र मानदेय देने का प्रलोभन दिया गया। नेताओं ने अपने चमचों को नियुक्ति दिला कर अहसान से लाद दिया। खेतिहर तथा अन्य श्रमिकों के रात में आकर अध्ययन करना था। सवेरे जल्दी उठकर खा-पकाकर दिन भर काम कर लौटने पर फिर राँध-खा कर आनेवालों में पढ़ने की दम ही न बाकी रहती। दो-चार दिन में शौकिया आनेवाले भी बंद हो गये। प्रभारियों को दम दी गयी कि ८०% हाजिरी और परिणाम न होने पर मानदेय न मिलेगा। मानदेय की लालच में गलत प्रवेश और झूठी हाजिरी दिखा कर खाना पूरी की गयी। अब बारी आयी परीक्षा की।
कलेक्टर ने शिक्षाधिकारी से आदेश प्रसारित कराया कि कार्यक्रम का लक्ष्य साक्षरता है, विद्वता नहीं। इसे सफल बनाने के लिये अक्षर पहचानने पर अंक दें, शब्द के सही-गलत होने को महत्व न दें। प्रभारियों ने अपने संबंधियों और मित्रों के उनके भाई-बहिनों सहित परीक्षा में बैठाया की परिणाम न बिगड़े। कमल को कमाल, कलाम और कलम लिखने पर भी पूरे अंक देकर अधिक से अधिक परिणाम घोषित किये गये। अख़बारों ने कार्यक्रम की सफलता की खबरों से कालम रंग दिये। भरी-भरकम रिपोर्ट राजधानी गयी, कलेक्टर मुख्य मंत्री स्वर्ण पदक पाकर प्रौढ़ शिक्षा की आगामी योजनाओं हेतु शासकीय व्यय पर विदेश चले गये। प्रभारी अपने मानदेय के लिये लगाते रहे कलेक्टर कार्यालय के चक्कर और श्रमिक अँगूठा।
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अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पैट्रोल-डीजल की कीमतें घटीं। मंत्रिमंडल की बैठक में वर्तमान और परिवर्तित दर से खपत का वर्ष भर में आनेवाले अंतर का आंकड़ा प्रस्तुत किया गया। बड़ी राशि को देखकर चिंतन हुआ कि जनता को इतनी राहत देने से कोई लाभ नहीं है। पैट्रोल के दाम घटे तो अन्य वस्तुओं के दाम काम करने की माँग कर विपक्षी दल अपनी लोकप्रियता बढ़ा लेंगे।
अत:, इस राशि का ९०% भाग नये कराधान कर सरकार के खजाने में डालकर विधायकों का वेतन-भत्ता आदि दोगुना कर दिया जाए, जनता तो नाम मात्र की राहत पाकर भी खुश हो जाएगी। विरोधी दल भी विधान सभा में भत्ते बढ़ाने का विरोध नहीं कर सकेगा।
ऐसा ही किया गया और नेतागण दत्तचित्त होकर कर रहे हैं जनसेवा।
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१०. विक्षिप्तता की झलक
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सड़क किनारे घूमता पागल प्राय: उसके घर के समीप आ जाता, सड़क के उस पार से बच्चे को खेलते देखता और चला जाता। उसने एक-दो बार झिड़का भी पर वह न तो कुछ बोला, न आना छोड़ा।
आज वह कार्यालय से लौटा तो सड़क पर भीड़ एकत्र थी, पूछने पर किसी ने बताया वह पागल किसी वाहन के सामने कूद पड़ा और घायल हो गया। उसका मन हुआ कि देख ले अधिक चोट तो नहीं लगी किन्तु रुकने पर किसी संभावित झंझट की कल्पना कर बचे रहने के विचार से वह घर पहुँचा तो देखा पत्नि बच्चे की मलहम पट्टी कर रही थी। उसने बिना देर किये बताया कि सड़क पार करता बच्चा कार की चपेट में आने को था किंतु वह पागल बीच में कूद पड़ा, बच्चे को दूर ढकेल कर खुद घायल हो गया। अवाक रह गया वह, अब उसे अपनी समझदारी की तुलना में बहुत अच्छी लग रही थी पागल में विक्षिप्तता की झलक।
१-२-२०१६
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११. आलिंगन का संसार
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अलगू और जुम्मन को दो राजनैतिक दलों ने टिकिट देकर चुनाव क्या लड़ाया उनका भाईचारा ही समाप्त हो गया। दोनों ने एक-दूसरे के आचार-विचार की ऐसी बखिया उधेड़ी कि तीसरा जीत गया पर दोनों के मन में एक-दूसरे के लिये कटुता का बीज बो गया। फलत:, मिलना-जुलना तो बंद हो ही गया, दुश्मनी भी पल गयी।
एक दिन रात को अँधेरे में लौटते हुए अलगू का बच्चा दुर्घटनाग्रस्त हो गया, कुछ देर बाद जुम्मन वहाँ से गुजरा, भीड़ देखकर कारण पूछा, पता लगा अलगू बच्चे को लेकर अस्पताल गया है। सोचा चुपचाप सरक जाए पर मन न माना, बरबस वह भी अस्पताल पहुँच गया। कान में आवाज़ सुनायी दी बच्चा रोते-रोते भी पिता से उसे बुलाने की ज़िद कर रहा था। डॉक्टर निश्चेतक (अनिस्थीसिया) देकर बच्चे को शल्य क्रिया कक्ष में ले गया। कुछ देर बाद चढ़ाने के लिये खून की जरूरत हुई, घर के किसी व्यक्ति का खून बच्चे के खून से न मिला। जुम्मन का खून उसी रक्त समूह का था, उसने बिना देर अपना खून दे दिया।
अलगू और लोगों को लेकर लौटा तो निगाह जुम्मन के जूतों पर पड़ी। उसे सच समझने में देर न लगी, झपट कर कमरे में घुसा और खून देकर उठ रहे जुम्मन को बाँहों में भरकर सिसक पड़ा, आँखों से भी आँसू बह निकले और फिर आबाद हो गया आलिंगन का संसार।
१-२-२०१६
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१२. वेदना का मूल
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तुम्हारे सबसे अधिक अंक आये हैं, तुम पीछे क्यों बैठी हो?, सबसे आगे बैठो।
जो पढ़ने में कमजोर है या जिसका मन नहीं लगता पीछे बैठाया जाए तो वह और कम ध्यान देगा, अधिक कमजोर हो जाएगा। कमजोर और अच्छे विद्यार्थी घुल-मिलकर बैठें तो कमजोर विद्यार्थी सुधार कर सकेगा।
तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?
इसलिए कि हमारा संविधान सबके साथ समता और समानता व्यवहार करने की प्रेरणा किन्तु हम जाति, धर्म, धन, ताकत, संख्या, शिक्षा, पद, रंग, रूप, बुद्धि किसी न किसी आधार पर विभाजन करते हैं। जो पीछे कर दिया जाता है उसके मन में द्वेष पैदा होता है। यही है सारी वेदना का मूल।
१-२-२०१६
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१३. उलझी हुई डोर
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तुम झाड़ू लेकर क्यों आयी हो? विद्यालय गन्दा है तो रहें दो, तुम क्या कर लगी? इतना बड़ा भवन अकेले तो साफ़ नहीं कर सकतीं न? प्राचार्य की जिम्मेदारी है वह साफ करायें। फिर कचरा भी तुम अकेले ने तो नहीं फैलाया है।
कचरा तो प्राचार्य अकेले ने भी नहीं फैलाया है, न ही शिक्षकों ने। कचरा सबने थोड़ा-थोड़ा फैलाया है, सब थोड़ा-थोड़ा साफ़ करें तो साफ़ हो जायेगा। मैं पूरा भवन साफ़ नहीं कर सकती पर अपनी कक्षा का एक कोना तो साफ़ कर ही सकती हूँ। झाड़ू इसलिए लायी हूँ कि हम अपनी कमरा साफ़ करेंगे तो देखकर दूसरे भी अपना-अपना कमरा साफ़ करेंगे, धीरे-धीरे पूरा विद्यालय साफ़ रहेगा तो हमें अच्छा लगेगा। उलझी हुई डोर न तो एक साथ सुलझती है, न खींचने से, एक सिरा पकड़ कर कोशिश करें तो धीरे-धीरे सुलझ ही जाती है उलझी हुई डोर।
१-२-२०१६
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१४. अविश्वासी मन
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कल ही वेतन लाकर रखा था, कहाँ गया? अलमारी में बार-बार खोजा पर कहीं नहीं मिला। कौन ले गया? पति और बच्चों से पूछ चुकी उन्होंने लिया नहीं। जरूर बुढ़िया ने ही लिया होगा। कल पंडित से जाप कराने की बात कर रही थी। निष्कर्ष पर पहुँचते ही रात मुश्किल से कटी, सवेरा होता ही उसने आसमान सर पर उठा लिया घर में चोरों के साथ कैसे रहा जा सकता है?, बड़े चोरी करेंगे तो बच्चों पर क्या असर पड़ेगा? सास कसम खाती रही, पति और बच्चे कहते रहे कि ऐसा नहीं हो सकता पर वह नहीं मानी। जब तक पति के साथ सास को देवर के घर रवाना न कर दिया चैन की साँस न ली। इतना ही नहीं देवरानी को भी नमक-मिर्च लगाकर घटना बता दी जिससे बुढ़िया को वहाँ भी अपमान झेलना पड़े। अफ़सोस यह कि खाना-तलाशी लेने के बाद भी बुढ़िया के पास कुछ न मिला, घर से खाली हाथ ही गयी।
वाशिंग मशीन में धोने के लिये मैले कपड़े उठाये तो उनके बीच से धम से गिरा एक लिफाफा, देखते ही बच्चे ने लपक कर उठाया और देखा तो उसमें वेतन की पूरी राशि थी। उसे काटो तो खून नहीं, पता नहीं कब पति भी आ गये थे और एकटक घूरे जा रहे थे उसके हाथ में लिफ़ाफ़े को। वह कुछ कहती इसके पहले ही बच्चे ने पंडित जी के आने की सूचना दी। पंडित ने उसे प्रसाद दिया तथा माँ को पूछा, घर पर न होने की जानकारी पाकर उसे कुछ रुपये देते हुए बताया कि बहू की कुंडली के अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिये जाप आवश्यक बताने पर माँ ने अपना कड़ा बेचने के लिये दे दिया था और बचे हुए रुपये वह लौटा रहा है।
वह गड़ी जा रही थी जमीन में, उसे काट रहा था उसका ही अविश्वासी मन।
१-२-२०१६
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१५. सनसनाते हुए बाण
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चाहे न चाहे उसके कानों में पड ही जाते हैं बयान ''निकम्मी सरकार को तुरंत त्यागपत्र दे देना चाहिए, महिलाओं को पर्दे में रहना चाहिए, पश्चिमी संस्कृति के कारण हो रही हैं शील भंग की घटनाएँ, पुलिस व्यवस्था अक्षम है, लड़कों से जवानी के जोश में हो जाती हैं गलतियाँ, अपराधी अवयस्क है इसलिए उसे कठोर दंड नहीं दिया जा सकता, अपराधी को मृत्युदंड दिया जाना मानवाधिकार का उल्लंघन है, कानून बदला जाना चाहिए आदि आदि। एक भी बयान यह नहीं कहता कि निरपराध को मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का अवसर इसलिए वह तैयार है आजीवन संगी बनने के लिये।
यह जानते हुए भी ये नपुंसक शब्दवीर मौका मिलने पर भिन्न आचरण नहीं करते, हर निर्भया विवश है झेलने के लिये अपनी वेदना के प्रति असंवेदनशील लोगों की जुबान से निकलते सनसनाते हुए बाण।
१-२-२०१६
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१६. चिंता की अवस्था
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दूरदर्शन पर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हो रही थी, बहस विविध राजनैतिक दलों के प्रवक्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से सरकार को कटघरे में खड़ा करने में जुटे थे यह भुलाकर कि उनके सत्तासीन रहते समय परिस्थितियाँ नियंत्रण से अधिक बाहर थीं।
पकड़े गये आतंकवादी को न्यायालय द्वारा मौत की सजा सुनाये जाने पर मानवाधिकार की दुहाई, किसी अंचल में एक हत्या होने पर प्रधानमंत्री से त्यागपत्र की माँग, किसी संस्था में नियुक्त कुलपति का विद्यार्थियों द्वारा अकारण विरोध, आतंवादियों की धमकी के बावजूद सुरक्षा से जुडी जानकारी सबसे पहले बताने के लिये न्यूज़ चैनलों में होड़, देश के एक अंचल के लोगों को दूसरे अंचल में रोजगार मिलने का विरोध और संसद में किसी भी कीमत पर कार्यवाही न होने देने की ज़िद। क्या अब भी चिंता की अवस्था खोजने की आवश्यकता है?
१-२-२०१६
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१७. ह्रदय का रक्त
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अब दवा से अधिक दुआ का सहारा है, डॉक्टर से यह सुनते ही उनका ह्रदय चीत्कार कर उठा। किस-किस देवता की मन्नत नहीं मानी किन्तु होनी तो होकर ही रही। उनकी गोद सूनी कर चला ही गया वह।
उसके महाप्रस्थान के पहले मन कड़ा कर उन्होंने देहदान के प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। छोटे से बच्चे का ह्रदय, किडनी, नेत्र, लीवर आदि अंग अलग-अलग रोगियों के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिये गये। उन्होंने एक ही शर्त रखी कि जहाँ तक हो सके ये अंग ऐसे रोगियों को लगाये जाएँ जो आर्थिक रूप से विपन्न हों।
अंग प्रत्यारोपण के बाद उनके सामने जब वे रोगी आये तो उनका मन भर आया, ऐसा लगा की एक बच्चा खोकर उन्होंने पाँच बच्चे पा लिये हैं जिनकी रगों में प्रवाहित हो रहा है उनके अपने बच्चे के ह्रदय का रक्त।
१-२-२०१६
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१८. कल का छोकरा
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अखबार खोलते ही चौंक पड़ीं वे, वही लग रहा है? ध्यान से देखा हाँ, वही तो है। गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति द्वारा वीरता पुरस्कार प्राप्त बच्चों में उसका चित्र? विवरण पढ़ा तो उनकी आँखें भर आयीं, याद आया पूरा वाकया।
उस दिन सवेरे धूप में बैठी थी कि वह आ गया, कुछ दूर ठिठका खड़ा अपनी बात कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। 'कुछ कहना है? बोलो' उनके पूछने पर उसने जेब से कागज़ निकाल कर उनकी ओर बढ़ा दिया, देखा तो प्रथम श्रेणी अंकों की अंकसूची थी। पूछा 'तुम्हारी है?' उसने स्वीकृति में गर्दन हिला दी।
'क्या चाहते हो?' पूछा तो बोला 'सहायता'। उसने एक पल सोचा रुपये माँग रहा है, क्या पता झूठा न हो?, अंकसूची इसकी है भी या नहीं?' न जाने कैसे उसे शंका का आभास हो गया, बोला 'मुझे रुपये नहीं चाहिए, पिता की खेती की जमीन सड़क चौड़ी करने में सरकार ने ले ली, शहर आकर रिक्शा चलाते हैं. माँ कई दिनों से बीमार है, नाले के पास झोपड़ी में रहते हैं, सरकारी पाठशाला में पढ़ता है, पिता पढ़ाई का सामान नहीं दिला पा रहे। कोई उसे कॉपी, पेन-पेन्सिल आदि दिला दे तो दूसरे बच्चों की किताब से वह पढ़ाई कर लेगा। उसकी आँखों की कातरता ने उन्हें मजबूर कर दिया, अगले दिन बुलाकर लिखाई-पढ़ाई की सामग्री खरीद दी।
आज समाचार था कि बरसात में नाले में बाढ़ आने पर झोपड़पट्टी के कुछ बच्चे बहने लगे, सभी बड़े काम पर गये थे, चिल्ल्पों मच गयी। एक बच्चे ने हिम्मत कर बाँस आर-पार डाल कर, नाले में उतर कर उसके सहारे बच्चों को बचा लिया। इस प्रयास में २ बार खुद बहते-बहते बचा पर हिम्मत नहीं हांरी। मन प्रसन्न हो गया, पति को अखबार देते हुए वाकया बताकर कहा- इतना बहादुर तो नहीं लगता था वह कल का छोकरा।
१-२-२०१६
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१९. सम्मान की दृष्टि
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कचरा बीनने वाले बच्चों से दूर रहा करो। वे गंदे होते हैं, पढ़ते-लिखते नहीं, चोरी भी करते हैं। उनसे बीमारी भी लग सकती है- माँ बच्चे को समझा रही थी।
तभी दरवाज़ा खटका, खोलने पर एक कचरा बीननेवाला बच्चा खड़ा था। क्या है? हिकारत से माँ ने पूछा।
माँ जी! आपके दरवाज़े के बाहर पड़े कचरे में से यह सोने की अँगूठी मिली है, आपकी तो नहीं? पूछते हुए बच्चे ने हथेली फैला दी. चमचमाती अँगूठी देखते ही माँ के मुँह से निकला अरे!यह तो मेरी ही है। तो ले लीजिए कहकर बच्चा अंगूठी देकर चला गया।
रात पिता घर आये तो बच्चे ने घटना की चर्चा कर बताया की यह बच्चा समीप की सरकारी पाठशाला में पढ़ता है, कक्षा में पहला आता है, उसके पिता की सडक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी है, माँ बर्तन माँजती है। अगले दिन पिता बच्चे के साथ पाठशाला गए, प्रधानाध्यापक को घटना की जानकारी देकर बच्चे को बुलाया, उसकी पढ़ाई का पूरा खर्च खुद उठाने की जिम्मेदारी ली। कल तक उपेक्षा से देखे जा रहे बच्चे को अब मिल रही थी सम्मान की दृष्टि।
१-२-२०१६
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२०. गाइड
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गाइड शिक्षिका से सूचना पाते ही वह हर्ष से उछल पड़ी, सूचना थी ही ऐसी। उसे गाइड आंदोलन में राज्यपाल पदक से सम्मानित किया गया था।
कुछ वर्ष बाद किंचित उत्सुकता के साथ वह प्रतीक्षा कर रही थी आगंतुकों की। समय पर अतिथि पधारे, स्वल्पाहार के शिष्टाचार के साथ चर्चा आरंभ हुई: 'बिटिया! आप नौकरी करेंगी?'
मैंने जितना अध्ययन किया है, देश ने उसकी सुविधा जुटाई, मेरे ज्ञान और योग्यता का उपयोग देश और समाज के हित में होना चाहिए- उसने कहा।
लेकिन घर और परिवार भी तो.…
आप ठीक कहते हैं, परिवार मेरी पहली प्राथमिकता है किन्तु उसके साथ-साथ मैं कुछ अन्य कर सकी तो घर और अगली पीढ़ी के विकास में सहायक होना चाहूँगी।
तुम मांसाहारी हो या शाकाहारी?
मैं शाकाहारी हूँ, मेरे साथ बैठा व्यक्ति शालीनतापूर्वक जो चाहे खाये मुझे आपत्ति नहीं किंतु मैं क्या खाती पहनती हूँ यह मेरी पसंद होगी।
ऐसा तो सभी लड़कियाँ कहती हैं पर बाद में नये माहौलके अनुसार बदल जाती हैं। मेरी बड़ी बहू भी शाकाहारी थी पर बेटे ने उसके मना करने पर भी मुँह से लगा-खिला कर उसे माँसाहारी बना दिया। आगन्तुका अब उसके पिताश्री की ओर उन्मुख हुईं और पूछा: आपके यहाँ क्या रस्मो-रिवाज़ होते हैं?
अन्य स्वजातीय परिवारों की तरह हमारे यहाँ भी सभी रस्में की जाती हैं. आपको स्वागत में कोई कमी नहीं मिलेगी, निश्चिन्त रहिए। पिताजी ने उत्तर दिया।
मेरे बड़े बेटे की शादी में यह-यह हुआ था। बेंगलुरु से गोरखपुर एक व्यक्ति का जाने-आने का वायुयान किराया ही १५,००० रु.है। ८ लोगों का बार-बार आना-जाना, हमारे धनी-मानी संबंधी-मित्र आदि का आथित्य, बड़े बेटे को कार और मकान मिला … इश्वर ने हमें सब कुछ दिया है, आप अपनी बेटी को जो चाहें दें, हमें आपत्ति नहीं है।
बहुत देर से बेचैन हो रही वह बोल पड़ी: आई आई टी जैसे संस्थान में पढ़ने और ३० लाख रुपये सालाना कमाने के बाद भी जिसे दूसरों के आगे हाथ पसारने में शर्म नहीं आती, जो अपने माँ-बाप को अपना सौदा करते देख चुप रहता है, मुझे ऐसे भिखारी को अपना जीवनसाथी नहीं बनाना है। मैं ठुकराती हूँ तुम्हारा प्रस्ताव, और आप दोनों उम्र में मुझसे बहुत बड़े हैं पर आपकी सोच बहुत छोटी है। आपने अपने लड़कों को कमाऊ बैल तो बना दिया पर अच्छा आदमी नहीं बना सके। आपमें मुझ जैसी बहू पाने की योग्यता नहीं है। आपकी बातचीत मैंने रिकॉर्ड कर ली है कहिए तो थाने में रिपोर्ट कर आप सबको बंद करा दूँ। आप ने सुना नहीं, पिता जी ने बताया था कि मुझे कोई गलत बात सहन नहीं होती, मैं हूँ गाइड।
२३-१०-२०१५
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खाप पंचायत ने स्वगोत्री विवाह करने पर उनके ग्राम-प्रवेश पर रोक लगा दी। दोनों के परिवारजन तथाकथित मान-मर्यादा के नाम पर उन्हें क्षति पहुँचाने को उद्यत हुए तो उन्हें इस अपराध से दूर रखने का विचार कर दोनों ने गाँव छोड़ दिया।
शहर में विषम परिस्थितियों से जूझते हुए एक-दूसरे का संबल बनकर उन्होंने राष्ट्रीय दलों में चयनित होकर प्रसिद्धि प्राप्त की। संयोगवश उस खेल की अंतर्राष्ट्रीय स्पर्ध उनके अपने जिले में आयोजित थी। न चाहते हुए भी उन्हें राष्ट्रीय दलों में होने के कारण जाना ही पड़ा। स्टेशन पर दल के उतरते ही उनकी दृष्टि उस बैनर पर पड़ी जिए पर उनके बड़े-बड़े चित्रों के साथ स्वागत और गाँव को उन पर गर्व होने का नारा अंकित था।बड़े-बड़े पुष्पहार लेकर उनका स्वागत कर सेल्फी लेने की होड़ में सम्मिलित थे वे सब जो कभी उनकी जान के दुश्मन बने थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह स्वागत व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए था या समाज का प्रायश्चित्य।
१०-३-२०१६
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२१. समाज का प्रायश्चित्य२२. शुद्ध आचरण
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चल परे हट, बाद में आना। पंडित जी ने सेठानी को आते देख रिक्शेवाले को दूर हटाया और पूजा कराने लगे। भगवान् को फल-फूल चढ़ाते समय सेठानी के गले से स्वर्ण-जंजीर टूट कर फूलों के बीच गिर गयी, उन्हें पता न चला किन्तु पंडित और रिक्शेवाले दोनों की दृष्टि पड़ गयी। पूजा कर सेठानी लौटने लगीं तो रिक्शेवाले ने पंडित जी को आवाज़ लगाकर फूलें के बीच गिरी जंजीर उठाकर देने को कहा।
खिसियाये पंडित से जंजीर वापिस लेते हुए सेठानी ने मोटी दक्षिणा देकर प्रणाम किया और रिक्शेवाले से घर तक पहुँचाने के लिये २५ रुपये की जगह १५ रुपये देने के लिये झिकझिक करने लगीं।
मंदिर में विराजे भगवान को पुजारी द्वारा की जा रही सेवा और सेठानी द्वारा की जा रही भक्ति के स्थान पर प्रसन्नता दे रहा था रिक्शेवाले का शुद्ध आचरण।
१०-३-२०१६
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२१. समाज का प्रायश्चित्य२२. शुद्ध आचरण२३. गरम आँसू
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टप टप टप
चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे!मैंने बापे सक करो. परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गयीं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ. सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी. मोरी सगरी पूजा अकारत भई'
''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है. तैं अपने मोंडा खों समझत है. मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई. भली भई, मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे.''
एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी को पाकर मुस्कुरा रहे थे गरम आँसू।
९-३-२०१६
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२४. दबा हुआ आवेश
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'मेरी बात नहीं मान सकती हो तो चली जाओ' जैसे ही पति ने कहा वह फुंफकारती नागिन की तरह उठ खड़ी हुई और बोली ''हाँ, हाँ चली जाऊँगी। जिस घर में घर की लक्ष्मी को पैर की जूती समझा जाता हो वहाँ मैं पल भर भी नहीं रहूँगी। क्या समझते हो मुझे, अपनी नौकरानी?'' और उसने दरवाजे की और कदम बढ़ा दिये किंतु बाहर निकल नहीं सकी।
पति ने हाथ थामते हुए दरवाज़ा बंद किया और कहा 'ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं, कहने की बात तो दूर। हमेशा समझाता हूँ, माँ ने सारी उम्र जिन बातों पर विश्वास किया है आखिरी समय में उसे कैसे छोड़ सकती है? बहस कर उसका मन दुखाने की जगह, जितना सहजता से हो सके उसके अनुसार कर दो, बाकी छोड़ दो। लो पहले पानी पियो, फिर जो जी चाहे करना।
पानी पीते-पीते, पानी-पानी हो गई थी वह, दिन भर बाद लौटे पति से चाय-पानी पूछने की जगह माँ की शिकायत करते हुए उलझ पड़ी। माँ के कहने से शिव पूजन करने के बाद फलाहार ग्रहण कर लेती तो क्या हो जाता?
'चलो, दोनों जनी आ जाओ फलाहार करने' पति का स्वर सुन चैतन्य हुई वह, झेंपती हुई माँ के कमरे में जाते-जाते सोचा- 'अब से माँ की बात ही मान लूँगी, अब कभी मुझ पर हावी नहीं हो सकेगा मन का आवेश।
७-३-२०१६
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२५. भय की रात
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बच्चे को ज्वर होने का समाचार मिलते ही उसका मन बोझिल हो गया। बात पूरी न हो सकी और संपर्क टूट गया। फिर पढ़ाने में मन नहीं लगा। कोलेज का समय समाप्त होते ही पहली बस पकड कर चल पड़ी।
गाँव की सड़क, खटारा बस में खड़े-खड़े उसके पैर दुःख रहे थे किन्तु आँखों में घूम रहा था बच्चे का चेहरा। जिला मुख्यालय पहुँचते तक आँधी-पानी ने घेर लिया और और आगे नाले में बाढ़ आ जाने का समाचार मिला। गनीमत यह कि कुछ देर बाद रेल मिल सकती थी। भीगती-भागती वह रिक्शे से रेलवे स्टशन पहुँची। आधी रात के बाद अपने शहर पहुँची सुनसान स्टेशन पर जिस और नज़र जाती भय की अनुभूति होती।
अपना शहर पराया लगाने लगा, एक और से लड़खड़ाते हुए दो आदमियों को आते देख उसकी जान निकलने लगी। चलभाष पर पति से संपर्क न हो सका। खुद को कोस रही थी वह। कुछ गडबड हुई तो कैसे घर पहुंचेगी? क्या कहेगी सबसे कि बिना सूचना दिये क्यों चल पड़ी अकेली?कोई लेने आये भी तो कैसे? चलभाष नहीं लगा तो भी वह जान-बूझकर ऊँची आवाज़ में बोलती रही ताकि आनेवाले समझें की किसी से बात हो रही है।
पति ने अनुमान किया की बात पूरी न हो सकी, कहीं वह आने का प्रयास न कर रही हो और वे अस्बके मन करने पर भी, बरसते पानी की परवाह किये बिना दौड़ते-भागते स्टेशन पहुँच ही गये। पति के आते ही लिपट गयी वह, जैसे किसी मुसीबत से मुक्ति मिली। घर पहुँच बच्चे को दुलारते हुए उसे भूल चुकी थी भय की रात।
७-३-२०१६
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२६. मान-मनुहार
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बारात आगमन में विलम्ब चर्चा का विषय बन रहा था। अचानक पता चला बाराती अत्यधिक सुरापान किये है और घरातियों से उलझ पड़े हैं। घरातियों के सब्र का बाँध टूट गया जब दुल्हे ने ही अपशब्दों की बौछार करते हुए बुजुर्गों का अपमान कर मोटी रकम लिये बिना दरवाज़े पर आने से मना कर दिया।
मन में उफनता आक्रोश नियंत्रित कर उसने चलभाष उठाया, जिलाधिकारी को स्थिति की जानकारी दे तत्काल हस्तक्षेप का अनुरोध किया और इसके पहले कि कोई कुछ समझे वह तेज चाल से पहुँच गयी दरवाजे पर। पिताजी को सम्हालते हुए निर्णय सुनाया कि वह विवाह नहीं करेगी, बाराती वापिस जा सकते हैं।
बारातियों ने पाँसा पलटते देखा तो उनके पैरों तले से जमीन खिसकने लगी,खाली हाथ बारात लौटने पर बहुत बदनामी होगी। समाज के लोगों ने बीच-बचाव करते हुए बात सम्हालने की कोशिश की पर वह टस से मस न हुई। आखिरकार वर स्वयं उसे मनाने आया किंतु उसने मुँह फेर लिया। आत्म सम्मान के आगे बेअसर हो चुकी थी मान-मनुहार।
७-३-२०१६
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२७. नया साल
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चंद कदमों के फासले पर एक बूढ़े और एक नवजात को सिसकते-कराहते देखकर चौंका, सजग हो धीरज बँधाकर कारण पूछा तो दोनों एक ही तकलीफ के मारे मिले। उनकी व्यथा-कथा ने झकझोर दिया।
वे दोनों समय के वंशज थे, एक जा रहा था, दूसरा आ रहा था, दोनों को पहले से सत्य पता था, दोनों अपनी-अपनी भूमिकाओं के लिये तैयार थे। फिर उनके दर्द और रुदन का कारण क्या हो सकता था? बहुत सोचने पर भी समझ न आया तो उन्हीं से पूछ लिया।
हमारे दर्द का कारण हो तुम, तुम मानव जो खुद को दाना समझने वाले नादान हो। कुदरत के कानून के मुताबिक दिन-रात, मौसम, ऋतुएँ आते-जाते रहते हैं। आदमियों को छोड़कर कोई दूसरी नस्ल कुदरत के काम में दखल नहीं देती। सब अपना-अपना काम करते हैं। तुम लोग बदलावों को खुद से जोड़कर और सबको परेशान करते हो।
कुदरत के लिये सुबह दोपहर शाम रात और पैदा होने-मरने का क्रम का एक सामान्य प्रक्रिया है। तुमने किसी आदमी से जोड़कर समय को साल में गिनना आरंभ कर दिया, इतना ही नहीं अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग आदमियों के नाम पर साल बना लिये।
अब साल बदलने की आड़ में हर कुछ दिनों में नये साल के नाम पर झाड़ों को काट कर कागज़ बनाकर उन पर एक दूसरे को बधाई कामना देते हो जबकि इसमें तुम्हारा कुछ नहीं होता। कितना शोर मचाते हो?, कितनी खाद्य सामग्री फेंकते हो?, कितना धुआँ फैलाते हो? पशु-पक्षियों का जीना मुश्किल कर देते हो। तुम्हारी वज़ह से दोनों जाते-आते समय भी चैन से नहीं रह सकते। सुधर जाओ वरना भविष्य में कभी नहीं देख पालोगे कोई नया साल। समय के धैर्य की परीक्षा मत लो, काल को महाकाल बनने के लिये मजबूर मत करो।
इतना कहकर वे दोनों तो ओझल हो गये लेकिन मेरी आँख खुल गयी, उसके बाद सो नहीं सका क्योंकि पड़ोसी जोर-शोर से मना रहे थे नया साल।
१-१-२०१६
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- मैंने सबसे अच्छी कलम लगाकर समय पर खाद-पानी दिया, देख-भाल भी की किन्तु कुछ फल बड़े, कुछ मझोले, कुछ छोटे क्यों हुए? तुमसे तो सर्वश्रेष्ठ की अपेक्षा थी उसने वृक्ष से कहा।
= भिन्नता ही प्रकृति का नियम और ज़िन्दगी का उत्स है। थाली में सिर्फ उत्तम मिष्ठान ही परोसा जाए तो पेट भर खा सकोगे क्या? नमकीन, खट्टा, तीखा और कडवा भी भोजन के स्वाद को ही बढ़ाते हैं, सबका स्वाद लेना सीखो। तुम्हारे हाथ-पैर की सब अंगुलियाँ सामान हैं क्या? शरीर का दायें और बायें भाग भी शत-प्रतिशत एक से नहीं होते। अनेकता में एकता और भिन्नता में अभिन्नता जीवन का उत्स है।
- अगर अच्छे-बुरे को अलग-अलग नहीं करेंगे तो सुधार कैसे होगा?
= सुधार के जितने अधिक प्रयास करोगे उसकी विपरीत क्रिया भी उतनी ही अधिक होगी, उसे सहन और वहन करने की तैयारी रखना। दिया जलाओगे तो ऊपर उजाला और नीचे अँधेरा एक साथ ही जन्म लेगा।
- तब क्या उन्नति प्रयास ही नहीं करना चाहिए?
= ऐसा मैंने कब कहा? दिया जलाना बंद कर दोगे तो सब ओर अँधेरा अपने आप हो जायेगा। अँधेरा कन नहीं पड़ता, हो जाता है। उजाला होता नहीं, करना पड़ता है। कुछ नहीं करोगे तो फल छोटे अपने आप हो जायेंगे, कुछ करोगे तो बड़े, मंझोले छोटे सभी आकार के फल मिलेंगे। उनके लिये वृक्ष, प्रयास या विधाता को दोष मत दो। सफल और विफल दोनों में फल तो होता ही है, उसे संभव से स्वीकार कर प्रयास करते रहो।
२९. आदर्श
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त्रिवेदी जी ब्राम्हण सभा के मंच से दहेज़ के विरुद्ध धुआंधार भाषण देकर नीचे उतरे। पडोसी अपने मित्र के कान में फुसफुसाया 'बुढ़ऊ ने अपने बेटों की शादी में तो जमकर माल खेंचा लिया, लडकी वालों को नीलाम होने की हालत में ला दिया और अब दहेज़ के विरोध में भाषण दे रहा है, कपटी कहीं का'।
'काहे नहीं देगा अब एइकि मोंडी जो ब्याहबे खों है'. -दूसरे ने कहा
२८-२-२०१६
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३०. घर
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दंगे, दुराचार, आगजनी, गुंडागर्दी के बाद सस्ती लोकप्रियता और खबरों में छाने के इरादे से बगुले जैसे सफेद वस्त्र पहने नेताजी जन संपर्क के लिये निकले। पीछे-पीछे चमचों का झुण्ड, बिके हुए कैमरे और मरी हुई आत्मा वाली खाखी वर्दी।
बर्बाद हो चुके एक परिवार की झोपड़ी पहुँचते ही छोटी सी बच्ची ने मुँह पर दरवाजा बंद करते हुए कहा 'आरक्षण की भीख चाहनेवालों के लिये यहाँ आना मना है। यह संसद नहीं, भारत के नागरिक का घर है।
२९-२-२०१६
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३१. स्वतंत्रता
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जातीय आरक्षण आन्दोलन में आगजनी, गुंडागर्दी, दुराचार, वहशत की सीमा को पार करने के बाद नेताओं और पुलिस द्वारा घटनाओं को झुठलाना, उसी जाति के अधिकारियों का जाँच दल बनाना, खेतों में बिखरे अंतर्वस्त्रों को देखकर भी नकारना, बार-बार अनुरोध किये जाने पर भी पीड़ितों का सामने न आना, राजनैतिक दलों का बर्बाद हो चुके लोगों के प्रति कोई सहानुभूति तक न रखना क्या संकेत करता है?
यही कि हमने उगायी है अविश्वास की फसल चौपाल पर हो रही चर्चा सरपंच को देखते ही थम गयी, वक्ता गण देने लगे आरक्षण के पक्ष में तर्क, दबंग सरपंच के हाथ में बंदूक को देख चिथड़ों में खुद को ढाँकने का असफल प्रयास करती सिसकती रह गयी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ।
२९-२-२०१६
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३२. कानून के रखवाले
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हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े गीले हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम अपने देश में ऐसा नहीं होने दे सकते। वक्ता अपने कृत्य का बखान करते हुए खुद को महिमामंडित कर रहे थे।
उनकी बात पूर्ण होते ही एक श्रोता ने पूछा आप तो संविधान और कानून के जानकार होने का दवा करते हैं क्या बता सकेंगे कि संविधान का कौन सा अनुच्छेद या किस कानून की कौन सी कंडिका या धारा किसी नागरिक को अपनी विचारधारा से असहमत अन्य नागरिक को प्रतिबंधित या दंडित करने का धिकार देती है?
क्या आपसे भिन्न विचार धारा के नगरिकों को भी यह अधिकार है कि वे आपको घेरकर आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करें?
यह भी बतायें कि अगर नागरिकों को एक-दूसरे को दंड देने का अधिकार है तो न्यायालय किसलिए हैं? क्या इससे कानून-व्यवस्था नष्ट नहीं हो जाएगी?
वकील होने के नाते आप खुद को कानून का रखवाला कहते हैं क्या कानून को हाथ में लेने के लिये आपको सामान्य नागरिक की तुलना में अधिक कड़ी सजा नहीं मिलना चाहिए?
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर थे कानून के रखवाले।
३३. गद्दार कौन
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कुछ युवा साथियों के बहकावे में चंद लोगों के बीच एक झंडा दिखाने और कुछ नारों को लगाने का प्रतिफल, पुलिस की लाठी, कैद और गद्दार का कलंक किन्तु उसी घटना को हजारों बार,लाखों दर्शकों और पाठकों तक पहुँचाने का प्रतिफल देशभक्त होने का तमगा क्यों?
यदि ऐसी दुर्घटना प्रचार न किया जाए तो वह चंद क्षणों में चंद लोगों के बीच अपनी मौत आप न मर जाए? हम देश विरोधियों पर कठोर कार्यवाही न कर उन्हें प्रचारित-प्रसारित कर उनके प्रति आकर्षण बढ़ाने में मदद क्यों करते हैं? गद्दार कौन है नासमझी या बहकावे में एक बार गलती करने वाले या उस गलती का करोड़ गुना प्रसार कर उसकी वृद्धि में सहायक होने वाले?
१४-२-२०१६
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३४. संदेश और माफी
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जब आपको माफी ही माँगनी थी तो आपने आतंकवादी के नाम के साथ 'जी' क्यों जोड़ा? पूछा पत्रकार ने।
इतना समझ पाते तो तुम भी नेता न बन जाते। 'जी' जोड़ने से आतंकवादियों, अल्पसंख्यकों और विदेशी आकाओं तक सन्देश पहुँच गया और माफी माँगकर आपत्ति उठानेवालों को जवाब तो दिया ही उनके नेताओं के नाम लेकर उन्हें आतंवादियों से समक्ष भी खड़ा कर दिया।
लेकिन इससे तो संतोष भड़केगा, आन्दोलन होंगे, जुलूस निकलेंगे, अशांति फैलेगी, तोड़-फोड़ से देश का नुकसान होगा।
हाँ, यह सब अपने आप होगा, न हुआ तो हम कराएँगे और उसके लिये सरकार को दोषी और देश को असहिष्णु बताकर अपने अगले चुनाव के लिये जमीन तैयार करेंगे।
३५. योग्यता
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गत कुछ वर्षों से वे लगातार लघुकथा मंच का सभापति बनाने पधार रहे थे। हर वर्ष आयोजनों में बुलाते, लघुकथा ले जाकर पत्रिका में प्रकाशित करते। संस्थाओं की राजनीति से उकता चुका वह विनम्रता से हाथ जोड़ लेता। इस वर्ष विचार आया कि समर्पित लोग हैं, जुड़ जाना चाहिए। उसने संरक्षकता निधि दे दी।
कुछ दिन बाद एक मित्र ने पूछा आप लघु कथा के आयोजन में नहीं पधारे? वे चुप्पी लगा गये, कैसे कहते कि जब से निधि दी तब से किसी ने रचना लेने, आमंत्रित करने या संपर्क साधने योग्य ही नहीं समझा।
२१-२-२०१६
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३६. निरुत्तर
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मेरा जूता है जापानी, और पतलून इंग्लिस्तानी
सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
पीढ़ियाँ गुजर गयीं जापान, इंग्लॅण्ड और रूस की प्रशंसा करते इस गीत को गाते सुनते, आज भी उपयोग की वस्तुओं पर जापान, ब्रिटेन, इंग्लैण्ड, चीन आदि देशों के ध्वज बने रहते हैं उनके प्रयोग पर किसी प्रकार की आपत्ति किसी को नहीं होती। ये देश हमसे पूरी तरह भिन्न हैं, इंग्लैण्ड ने तो हमको गुलाम भी बना लिया था। लेकिन अपने आसपास के ऐसे देश जो कल तक हमारा ही हिस्सा थे, उनका झंडा फहराने या उनकी जय बोलने पर आपत्ति क्यों उठाई जाती है? पूछा एक शिष्य ने, गुरु जी थे निरुत्तर।
१३-२-२०१६
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३७. विधान
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नवोढ़ा पुत्रवधू के हर काम में दोष निकलकर उन्हें संतोष होता, सोचतीं यह किसी तरह मायके चली जाए तो पुत्र पर फिर एकाधिकार हो जाए. बेटी भी उनका साथ देती। न जाने किस मिट्टी की बनी थी पुत्रवधु कि हर बात मुस्कुरा कर टाल देती।
कुछ दिनों बाद बेटी का विवाह बहुत अरमनों से किया उन्होंने। कुछ दिनों बाद बेटी को अकेला देहरी पर खड़ा देखकर उनका माथा ठनका, पूछा तो पता चला कि वह अपनी सास से परेशान होकर लौट आयी फिर कभी न जाने के लिये। इससे पहले कि वे बेटी से कुछ कहें बहू अपनी ननद को अन्दर ले गयी और वे सोचती रह गयीं कि यह विधि का विधान है या शिक्षा-विधान?
९-१-२०१६
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३८. जीत का इशारा
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पिता को अचानक लकवा क्या लगा घर की गाड़ी के चके ही थम गये। कुछ दिन की चिकित्सा पर्याप्त न हुई. आय का साधन बंद और खर्च लगातार बढ़ता हुआ रोजमर्रा के खर्च, दवाई-इलाज और पढ़ाई।
उसने माँ के चहरे की खोटी हुई चमक और पिता की बेबसी का अनुमान कर अगले सवेरे औटो उठाया और चल पड़ी स्टेशन की ओर। कुछ देर बाद माँ जागी, उसे घर पर न देख अनुमान किया मंदिर गयी होगी। पिता के उठते ही उनकी परिचर्या के बाद तक वह न लौटी तो माँ को चिंता हुई, बाहर निकली तो देखा औटो भी नहीं है।
बीमार पति से क्या कहती?, नन्हें बेटे को जगाकर पडोसी को बुलाने का विचार किया। तभी एकदम निकट हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौंकी। पलट कर देख तो उन्हीं का ऑटो था। ऑटो लेकर भागने वाले को पकड़ने के लिए लपकीं तो ठिठक कर रह गयीं, चालक के स्थान पर बैठी बेटी कर रही थी जीत का इशारा।
१०-१-२०१६
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३९. यह स्वप्न कैसा?
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आप एक कार से उतर कर दूसरी में क्यों बैठ रहे है? जहाँ जाना है इसी से चले जाइये न.
नहीं भाई! अभी तक सरकारी दौरा कर रहा था इसलिए सरकारी वाहन का उपयोग किया, अब निजी काम से जाना है इसलिए सरकारी वाहन और चालक छोड़कर अपने निजी वाहन में बैठा हूँ और इसे खुद चलाकर जा रहा हूँ अगर मैं जन प्रतिनिधि होते हुए सरकारी सुविधा का दुरूपयोग करूँगा तो दूसरों को कैसे रोकूँगा?
सोच रहा हूँ जो कभी साकार न हो सके वह स्वप्न कैसा?
१२-१-२०१६
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४० सहारे की आदत
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'तो तुम नहीं चलोगे? मैं अकेली ही जाऊँ?' पूछती हुई वह रुँआसी हो आयी किंतु उसे न उठता देख विवश होकर अकेली ही घर से बाहर आयी और चल पड़ी अनजानी राह पर।
रिक्शा, रेलगाड़ी, विमान और टैक्सी, होटल, कार्यालय, साक्षात्कार, चयन, दायित्व को समझना-निभाना, मकान की तलाश, सामान खरीदना-जमाना एक के बाद एक कदम-दर-कदम बढ़ती वह आज विश्राम के कुछ पल पा सकी थी। उसकी याद सम्बल की तरह साथ होते हुए भी उसके संग न होने का अभाव खल रहा था।
साथ न आया तो खोज-खबर ही ले लेता, मन हुआ बात करे पर स्वाभिमान आड़े आ गया, उसे जरूरत नहीं तो मैं क्यों पहल करूँ? दिन निकलते गये और बेचैनी बढ़ती गयी। अंतत: मन ने मजबूर किया तो चलभाष पर संपर्क साधा, दूसरी और से उसकी नहीं माँ की आवाज़ सुन अपनी सफलता की जानकारी देते हुए उसके असहयोग का उलाहना दिया तो रो पड़ी माँ और बोली बिटिया वह तो मौत से जूझ रहा है, कैंसर का ऑपरेशन हुआ है, तुझे नहीं बताया कि फिर तू जा नहीं पाती। तुझे इतनी रुखाई से भेजा ताकि तू छोड़ सके उसके सहारे की आदत।
स्तब्ध रह गयी वह, माँ से क्या कहती?
तुरंत बाद माँ के बताये चिकित्सालय से संपर्क कर देयक का भुगतान किया, अपने नियोक्ता से अवकाश लिया, आने-जाने का आरक्षण कराया और माँ को लेकर पहुँची चिकित्सालय, वह इसे देख चौंका तो बोली मत परेशान हो, मैं तम्हें साथ ले जा रही हूँ। अब मुझे नहीं तुम्हें डालनी है सहारे की आदत।
१०-१-२०१६
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४१.चेतना शून्य
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उच्च पदस्थ बेटी की उपलब्धि पर आयोजित अभिनन्दन भोज में आमंत्रित माँ पहुँची। बेटी ने शैशव में दिवंगत हो चुके पिता के निधनोपरांत माँ द्वारा लालन-पालन किये जाने पर आभार व्यक्त करते हुए अपनी श्रेष्ठ शिक्षा, आत्म विश्वास और उच्च पद पाने का श्रेय माँ को दिया तो पत्रकारों के प्रश्न और छायाकारों के कैमरे माँ पर केंद्रित हो गये।
सामान्य घरेलू जीवन की अभ्यस्त माँ असहज अनुभव कर शीघ्र ही हट गयी। घर आते ही माँ ने बेटी से उसकी सफलता के इतने बड़े आयोजन में उसके जीवन साथी और संतान की अनुपस्थिति के बारे पूछा। बेटी ने झिझकते हुए अपने लिव इन रिलेशन, वैचारिक टकराव और जीवनसाथी तथा संतान से अलगाव की जानकारी दी। माँ को लगा वह हुई जा रही है चेतना शून्य ।
१२-१-२०१६
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४२. अनजानी राह
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कोशिश रंग ला पाती इसके पहले ही तूफ़ान ने कदमों को रोक दिया, धूल ने आँखों के लिये खुली रहना नामुमकिन कर दिया, पत्थरों ने पैरों से टकराकर उन्हें लहुलुहान कर दिया, वाह करनेवाला जमाना आह भरकर मौन हो रहा।
इसके पहले कि कोशिश हार मानती, कहीं से आवाज़ आयी 'चली आओ'। कौन हो सकता है इस बवंडर के बीच आवाज़ देनेवाला? कान अधिकाधिक सुनने के लिये सक्रिय हुए, पैर सम्हाले, हाथों ने सहारा तलाशा, सर उठा और चुनौती को स्वीकार कर सम्हल-सम्हल कर बढ़ चला उस ओर जहाँ बाँह पसारे पथ हेर रही थी अनजानी राह।
१४-१-२०१६
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४३. रफ्तार
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प्रतियोगिता परीक्षा में प्रथम आते ही उसके सपनों को रफ्तार मिल गयी। समाचार पत्रों में सचित्र समाचार छपा, गाँव भी पहुँचा। ठाकुर ने देखा तो कलेजे पर साँप लोट गया। कर्जदार की बेटी हाकिम होकर गाँव में आ गयी तो नाक न कट जायेगी? जैसे भी हो रोकना होगा।
जश्न मनाने के बहाने हरिया को जमकर पिलाई और बिटिया के फेरे अपने निकम्मे शराबी बेटे से करने का वचन ले लिया। उसने नकारा तो पंचायत बुला ली गयी जिसमें ठाकुर के चमचे ही पञ्च थे जिन्होंने धार्मिक पाखंड की बेडी उसके पैर में बाँधने वरना जात बाहर करने का हुक्म दे दिया।
उसके अपनों और सपनों पर बिजली गिर पड़ी। उसने हार न मानी और रातों-रात दद्दा को भेज महापंचायत करा दी जिसने पंचायत का फैसला उलट दिया। ठाकुर के खिलाफ दबे मामले उठने लगे तो वह मन मसोस कर बैठ रहा।
उसने धार्मिक पाखंड, सामाजिक दबंगई और आर्थिक शोषण के त्रिकोण से जूझते हुए भी फिर दे दी अपने सपनों को रफ्तार।
१४-१-२०१६
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४४. सफ़ेद झूठ
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गाँधी जयंती की सुबह दूरदर्शन पर बज रहा था गीत 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल', अचानक बेटे ने उठकर टीवी बंद कर दिया।
कारण पूछने पर बोला- '१८५७ से लेकर १९४६ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अज्ञातवास में जाने तक क्रांतिकारियों ने आत्म-बलिदान की अनवरत श्रंखला की अनदेखी कर ब्रिटेन संसद सदस्यों से में प्रश्न उठवानेवालों को शत-प्रतिशत श्रेय देना सत्य से परे है।
सत्यवादिता के दावेदार के जन्म दिन पर कैसे सहन किया जा सकता है सफ़ेद झूठ?
२३-१-२०१६
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४५. जनसेवा
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अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पैट्रोल-डीजल की कीमतें घटीं। मंत्रिमंडल की बैठक में वर्तमान और परिवर्तित दर से खपत का वर्ष भर में आनेवाले अंतर का आंकड़ा प्रस्तुत किया गया। बड़ी राशि को देखकर चिंतन हुआ कि जनता को इतनी राहत देने से कोई लाभ नहीं है। पैट्रोल के दाम घटे तो अन्य वस्तुओं के दाम काम करने की माँग कर विपक्षी दल अपनी लोकप्रियता बढ़ा लेंगे।
अत:, इस राशि का ९०% भाग नये कराधान कर सरकार के खजाने में डालकर विधायकों का वेतन-भत्ता आदि दोगुना कर दिया जाए, जनता तो नाम मात्र की राहत पाकर भी खुश हो जाएगी। विरोधी दल भी विधान सभा में भत्ते बढ़ाने का विरोध नहीं कर सकेगा।
ऐसा ही किया गया और नेतागण दत्तचित्त होकर कर रहे हैं जनसेवा।
३०-१-२०१६
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४६. जैसे को तैसा
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कत्ल के अपराध में आजीवन कारावास पाये अपराधी ने न्यायाधीश के सामने ही अपने पिता पर घातक हमला
कर दिया। न्यायाधीश ने कारण पूछा तो उसने नाट्य की उसके अपराधी बनने के मूल में पिता का अंधा प्यार
ही था। बचपन में मामा की शादी में उसने पिता के एक साथी की पिस्तौलसे ११ गोलियाँ चला दी थीं। पिता
ने उसे डाँटने के स्थान पर जाँच करने आये पुलिस निरीक्षक को राजनैतिक पहुँच से रुकवा दिया तथा झूठा
बयान दिलवा दिया की उसने खिलौनेवाली पिस्तौल चलायी थी। पहली गलती पर सजा मिल गयी होती तो वह
बात-बात पर पिस्तौल का उपयोग करना नहीं सीखता और आज आजीवन कारावास नहीं पाता। पिता उसका
अपराधी है जिसे दुनिया की कोई अदालत या कानून दोषी नहीं मानेगा इसलिए वह अपने अपराधी को दंडित
कर संतुष्ट है, अदालत उसे एक जन्म के स्थान पर दो जन्म का कारावास दे दे तो भी उसे स्वीकार है।
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४७. स्थानांतरण
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चाची! जमाना खराब है, सुना है बहू अकेली बाहर गाँव जा रही है। कैसे और कहाँ रहेगी? समय खराब है।
भतीज बहू की बात सुनकर चाची ने कहा 'तुम चिंता मत करो, बहू के साथ पढ़ा एक दोस्त वही परिवार सहित रहता है। उसके घर कुछ दिन रहेगी, फिर मकान खोजकर यहाँ से सामान बुला लेगी। बीच-बीच में आती-जाती रहेगी। बेटा बिस्तर से न लगा होता तो साथ जाता। उसके पैर का प्लास्टर एक माह बाद खुलेगा, फिर २-३ माह में चलने लायक होगा।'
'ज़माने का क्या है? भला कहता नहीं, बुरा कहने से चूकता नहीं। समय नहीं मनुष्य भले-बुरे होते हैं। अपन भले तो जग भला.… बहू पढ़ी-लिखी समझदार है। हम सबको एक-दूसरे का भरोसा है, फिर फ़िक्र क्यों?
माँ की बात सुनकर स्थानांतरण आदेश पाकर परेशान श्रीमती जी के अधरों पर मुस्कान झलकी, अभी तक मैं उन्हें हिम्मत बँधा रहा था कि किसी न किसी प्रकार साथ जाऊँगा। अब वे बोल रही थीं आपके जाने की जरूरत नहीं, आप सब यहाँ रहेंगे तो बच्चों को स्कूल नहीं छोड़ना होगा। वहाँ अच्छे स्कूल नहीं हैं। मैं सब कर लूँगी। आप अपना और बच्चों का ध्यान रखना, समय पर दवाई लेना। माँ ने साथ चलने को कहा तो बोलीं आप यहाँ रहेंगी तो मुझे इन सबकी चिंता न होगी। मैं आपकी बहू हूँ, सब सम्हाल लूँगी।
मैं अवाक देख रहा था विचारों का स्थानन्तरण।
२४-१-२०१६
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४८. संक्रांति
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- छुटका अपनी एक सहकर्मी को आपसे मिलवाना चाहता है, शायद दोनों....
= ठीक है, शाम को बुला लो, मिलूँगा-बात करूँगा, जम गया तो उसके माता-पिता से बात की जाएगी।बड़की को कहकर तमिल ब्राम्हण, छुटकी से बातकर सरदार जी और बड़के को बताकर असमिया को भी बुला ही लो।
- आपको कैसे?... किसी ने कुछ.....?
= नहीं भई, किसी ने कुछ नहीं कहा, उनके कहने के पहले ही मैं समझ न लूँ तो उन्हें कहना ही पड़ेगा। ऐसी नौबत क्यों आने दूँ? हम दोनों इस घर-बगिया में सूरज-धूप की तरह हैं। बगिया में किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ेगी, इसमें सूरज और धूप दखल नहीं देते, सहायता मात्र करते हैं।
- किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ाना है यह तो माली ही तय करता है फिर हम कैसे यह न सोचें?
= ठीक कह रही हो, किस पेड़ों पर किन लताओं को चढ़ाना है, यह सोचना माली का काम है। इसीलिये तो वह माली ऊपर बैठे-बैठे उन्हें मिलाता रहता है। हमें क्या अधिकार कि उसके काम में दखल दें?
- इस तरह तो सब अपनी मर्जी के मालिक हो जायेंगे, घर ही बिखर जायेगा।
= ऐसे कैसे बिखर जायेगा? हम संक्रांति के साथ-साथ पोंगल, लोहड़ी और बीहू भी मना लिया करेंगे, तब तो सब एक साथ रह सकेंगे। सब अँगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बनेंगीं तभी तो मनेगी संक्रांति।
१५-१-२०१६
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४९. भारतीय
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- तुम कौन?
_ मैं भाजपाई / कॉंग्रेसी / बसपाई / सपाई / साम्यवादी... तुम?
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५०. चैन की साँस
*
- हे भगवान! पानी बरसा दे, खेती सूख रही है।
= हे भगवान! पानी क्यों बरसा दिया? काम रुक गया।
- हे भगवान! रेलगाड़ी जल्दी भेज दे समय पर कार्यालय पहुँच जाऊँ।
= हे भगवान! रेलगाड़ी देर से आये, स्टेशन तो पहुँच जाऊँ।
- हे भगवान पास कर दे, लड्डू चढ़ाऊँगा।
= हे भगवान रिश्वतखोरों का नाश कर दे।
_ हे इंसान! मेरा पिंड छोड़ तो चैन की साँस ले सकूँ।
१९-१-२०१६
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४१.चेतना शून्य४२. अनजानी राह४३. रफ्तार४४. सफ़ेद झूठ४५. जनसेवा४६. अँगूठा४७. स्थानांतरण४८. संक्रांति४९. भारतीय५०. चैन की साँस५१. ताना-बाना
*
- ताना ताना?
= ताना पर टूट गया।
- अधिक क्यों ताना?, और बाना?
= पहन लिया।
- ताना क्यों नहीं?
= ताना ताना
- बाना क्यों नहीं ताना?
= ताना ताना, बाना ताना।
- ताना, ताना है तो बाना कैसे हो सकता है?
= इसको ताना, उसको ताना, ये है ताना वो है बाना
- ताना मारा, बाना नहीं मारा क्यों?
दोनों चुप्प.
५२. पतंग
*
- बब्बा! पतंग कट गयी....
= कट गयी तो कट जाने दे, रोता क्यों है? मैंने दूसरी लाकर रखी है, वह लेकर उड़ा ले।
- नहीं, नयी पतंग उड़ाऊँगा तो बबलू फिर काट देगा।
= काट देगा तो तू फिर नयी पतंग ले जाना और उड़ाना
- लेकिन ऐसा कब तक करूँगा?
= जब तक तू बबलू की पतंग न काट दे। जीतने के लिये हौसला, कोशिश और जुगत तीनों जरूरी हैं। चरखी और मंझा साथ रखना, पतंग का संतुलन साधना, जिस पतंग को काटना हो उस पर और अपनी पतंग दोनों पर लगातार निगाह रखना, मौका खोजना और झपट्टा मारकर तुरंत दूर हो जाना, जब तक सामनेवाला सम्हाले तेरा काम पूरा हो जाना चाहिए। कुछ समझा?
- हाँ, बब्बा! अभी आता हूँ काटकर बबलू की पतंग।
५३. आदमी जिंदा है
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साहित्यिक आयोजन में वक्ता गण साहित्य की प्रासंगिकता पर चिंतन कम और चिंता अधिक व्यक्त कर रहे थे। अधिकांश चाहते थे कि सरकार साहित्यकारों को आर्थिक सहयोग दे क्योंकि साहित्य बिकता नहीं, उसका असर नहीं होता।
भोजन काल में मैं एक वरिष्ठ साहित्यकार से भेंट करने उनके निवास पर जा ही रहा था कि हरयाणा से पधारे अन्य साहित्यकार भी साथ हो लिये। राह में उन्हें आप बीती बताई- 'कई वर्ष पहले व्यापार में लगातार घाटे से परेशं होकर मैंने आत्महत्या का निर्णय लिया और रेल स्टेशन पहुँच गया, रेलगाड़ी एक घंटे विलंब से थी। मरता क्या न करता प्लेटफ़ॉर्म पर टहलने लगा। वहां गीताप्रेस गोरखपुर का पुस्तक विक्रय केंद्र खुला देख तो समय बिताने के लिये एक किताब खरीद कर पढ़ने लगा। किताब में एक दृष्टान्त को पढ़कर न जाने क्या हुआ, वापिस घर आ गया। फिर कोशिश की और सफलता की सीढ़ियाँ चढ़कर आज सुखी हूँ। व्यापार बेटों को सौंप कर साहित्य रचता हूँ। शायद इसे पढ़कर कल कोई और मौत के दरवाजे से लौट सके। भोजन छोड़कर आपको आते देख रुक न सका, आप जिनसे मिलाने जा रहे हैं, उन्हीं की पुस्तक ने मुझे नवजीवन दिया।
साहित्यिक सत्र की चर्चा से हो रही खिन्नता यह सुनते ही दूर हो गयी। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता? सत्य सामने था कि साहित्य का असर आज भी बरकरार है, इसीलिये आदमी जिंदा है।
३१-१२-२०१५
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५४. बेदाग़
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उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए उससे पूर्व की परीक्षा में उतीर्ण होना पर्याप्त होते हुए भी शासन-प्रशासन ने मिलकर प्रवेश परीक्षा का प्रावधान कर दिया। जनतंत्र में जनमत की अभिव्यक्ति करते जनविरोध की अनदेखी कर परीक्षा थोप दी गयी और मरता क्या न करता की लोकोक्ति को क्रियान्वित करते किशोर परीक्षा देने लगे। क्रमश: परीक्षा में गडबडी की खबरें फैलने लगीं। हाथ कंगन को आरसी क्या? परीक्षा में न बैठनेवाले भी उत्तीर्ण होकर चिकित्सक बनने लगे तो जाँच आयोग का गठन करने के लिए सरकार बाध्य हो गयी।
जाँच प्रक्रिया आगे बढ़ने के साथ ही गवाहों के मरने की गति बढ़ती गयी। अंतत:, गवाहों की मौतों की जाँच आरम्भ कर दी गयी जिसने सभी मौतों को स्वाभाविक बताने में देर नहीं की गयी। जितने नेता और अफसर कारावास भेजे गए थे उन्हें शिकायत का स्पर्श हुए बिना बेदाग़ घोषित कर दिया गया.
१०-१-२०१६
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५५. हवा का रुख
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''कलमुँही पैले तो मांय मोंड़ा खों मोहजाल माँ फँसा खें छीन लै गयी, ऐसो जाड़े करो की मोंड़ा नें जीते जी मुड़ के भी नई देखो। मोंड़ा कहें खा के भी चैन नई परो, अब डुकरा-डुकरिया की छाती पे होरा भूंजबे आ गई नासपीटी।''
रोज सवेरे पड़ोस से धाराप्रवाह गालियों और बद्दुआओं को सुनकर हमें कभी शर्म, कभी क्रोध हो आता पर वह सफे डीडी सड़ी पहने चुप-चाप काम करते रहती मानो बहरी हो।
आज अखबार खोलते ही चौंका उसकी चित्र और पी.एस.सी.में चयन का समाचार था। बधाई देने जाऊँ तो मूंड़ मुंडाते ओले न पड़ जाएँ। सोच ही रहा था कि कुछ पत्रकार उसे खोजते हुए पहुँच गए। पहले तो डुकरो सबको भगाती रही पर जब पूरी बात समझ में आई तो अपनी बहू को दुर्गा ,लक्ष्मी, सरस्वती और म जाने काया-क्या कहकर उसका गुण बखानने लगी। सयानी थी, देर न लगाई पहचानने में हवा का रुख।
७-१-२०१६
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५६. गुलामी का अनुबंध
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संसद में सरकार पर असहनशीलता और तानाशाही का आरोप लगाकर लगातार कार्यवाही ठप करनेवालों की सहनशीलता का नमूना यह कि उनके एक नेता पडोसी देश के प्रधान मंत्री से अपने देश की सरकार बदलने का अनुरोध करते हैं, वे जनता द्वारा ५ साल के लिये चुनी गयी सरकार एक पल सहन करने को तैयार नहीं है और उनके एक वरिष्ठ और उम्रदराज नेता दल की यव उपाध्यक्ष के पैरों में अपने हाथ से खुले-आम जूते पहनाते हैं, इससे अधिक तानाशाही और क्या हो सकती है?
इसमें नया भी कुछ नहीं है. उनके चचाजान ने भी अपने पिता की उम्र के नेता के हाथों जूते पहने थे. गुलामी के सबसे बड़ा अनुबंध उनकी दादी ने आपातकाल लगाकर किया था. युवराज अपने पुरखों के नक़्शे-कदम पर चलें तो परिणाम भी याद रखें।
१०-१२-२०१५
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५७. मोल
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कुछ दिन पूर्व पत्रिका में सद्य प्रकाशित पुस्तक की समीक्षा छपी जिसमें पुस्तक को श्रेष्ठ बताया गया था. रचनाकार से भेंट होने उन्होंने भी पुस्तक को मिले प्रतिसाद पर संतोष व्यक्त करते हुए बताया था कि प्रकाशक से मिली प्रतियाँ समाप्त हो गयी,अब किसी शोध छात्र को चाहिए है किसे दूँ? मैंने निवेदन किया की मुझे भेंट की गयी प्रति मैं पढ़ चुका हूँ,समीक्षा भी लिख चुका हूँ, आपत्ति न हो तो मुझसे लेकर शोधछात्र को दे दें. उनहोंने मुझे दुबारा देने की बात कहकर मेरा प्रस्ताव मान लिया।
आज एक बड़े अधिकारी के आवास पर गया तो उनकी श्रीमती जी कबाड़ी को रद्दी देते हुए वज़न और भाव को लेकर बहस कर रही थी, मेरी ओर देखकर बोली- 'ठीक कह रही हूँ न?' मुझे सौजन्यता वश हामी भरनी ही पड़ी, तभी नज़र कबाड़ी की तराजू पर पड़ी, उसमें कई अन्यों के साथ रखी थी वही पुस्तक।
२७-१२-२०१५
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५८. मूक दर्शक
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नगर के एक धनपति की पुस्तक का विमोचन समारोह था। बढ़िया निमंत्रण पत्र, अख़बारों में समाचार छपे, अनेक संस्थाओं की ओर से पुष्पमाल, अभिनंदन पत्र समर्पित किये गए, वक्ताओं ने प्रशंसा के पुल बाँध दिए, अभी उपस्थितों को पुस्तक की प्रति भेंट की गयी, बढ़िया भोजन कराया गया। पत्रकारों को मूल्यवान उपहार मिले अत:उन्हें अगले दिन लम्बे समाचार छापना ही थे।
भोज के बाद जहाँ-तहाँ फ़ैली गन्दगी के साथ-साथ सद्य विमोचित कृति की कुछ प्रतियाँ मुँह बिसूरती हुई सी बनी हुई थीं आयोजन की मूक दर्शक।
२७-१२-२०१५
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५९. विरासत
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घर की सफाई करते हुए एक अलमारी में पुराने सामान के साथ मिलीं कुछ किताबें। उन पर चढ़ाए गये आवरण के कागज का पीलापन बता रहा था कि बरसों पहले उसे चढ़ाया गया होगा। किताबों को खोलकर देखा रामचरित मानस, श्रीमद्भागवतगीता भगवत गीता तथा कुछ साहित्यिक पुस्तकें, उत्सुकता हुई इन्हें यहाँ इस तरह किसने रखा? मानस तथा गीता को खोलकर देखा अन्दर धुंधली पड़ चुकी स्याही में लिखा था 'अनुज-वधु श्रीमती शांति देवी को मुख दिखरौनी के शुभ अवसर पर भेंट', नीचे हस्ताक्षर और तिथि। मुझे सुखद आश्चर्य के साथ खेद हुआ कि हम शुभ अवसरों पर प्रचुर सामग्री देते हैं किन्तु भूल जाते हैं पुस्तक संस्कृति की विरासत।
६०. कब्रस्तान
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महाविद्यालय के प्राचार्य मुख्य अतिथि को अपनी संस्था की गुणवत्ता और विशेषताओं की जानकारी दे रहे थे. पुस्तकालय दिखलाते हुए जानकारी दी की हमारे यहाँ विषयों की पाठ्य पुस्तकें तथा सन्दर्भ ग्रंथों के साथ-साथ अच्छा साहित्य भी है. हम हर वर्ष अच्छी मात्र में साहित्यिक पुस्तकें भी क्रय करते हैं.
आतिथि ने उनकी जानकारी पर संतोष व्यक्त करते हुए पुस्तकालय प्रभारी से जानना चाहा कि गत २ वर्षों में कितनी पुस्तकें क्रय की गयीं, विद्यार्थियों ने कितनी पुस्तकें पढ़ने हेतु लीं तथा किन पुस्तकों की माँग अधिक थी? उत्तर मिला इस वर्ष क्रय की गयी पुस्तकों की आदित जांच नहीं हुई है, गत वर्ष खरीदी गयी पुस्तकें दी नहीं जा रहीं क्योंकि विद्यार्थी या तो विलम्ब से वापिस करते हैं या पन्ने फाड़ लेते हैं.
नदी में बहते पानी की तरह पुस्तकालय से प्रतिदिन पुस्तकों का आदान-प्रदान न हो तो उसका औचित्य और सार्थकता ही क्या है? तब तो वह किताबों का कब्रस्तान ही हो जायेगा, अतिथि बोले और आगे चल दिए.
२८-१२-२०१५
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६१. द़ेर है
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एक प्रकाशक महोदय को उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक विश्वविद्यालय में स्वीकृत होने पर बधाई दी तो उनहोंने बुझे मन से आभार व्यक्त किया। कारण पूछने पर पता चला कि विभागाध्यक्ष ने पाठ्यक्रम में लगवाने का लालच देकर छपवा ली, आधी प्रतियाँ खुद रख लीं। शेष प्रतियाँ अगले सत्र में विद्यार्थियों को बेची जाना थीं किन्तु विभागाध्यक्ष जुगाड़ फिट कर किसी अकादमी के अध्यक्ष बन गये। नये विभाध्यक्ष ने अन्य प्रकाशक की किताब पाठ्यक्रम में लगा दी।
अनेक साहित्यकार मित्र प्रकाशक जी द्वारा शोषण के कई प्रसंग बता चुके थे। आज उल्टा होता देख सोचा रहा हूँ देर है अंधेर नहीं।
७-१२-२०१५
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६२. परीक्षा
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अभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रायोगिक परीक्षाएँ चल रहीं हैं। कक्षा में विद्यार्थियों का झुण्ड अपनी प्रयोग पुस्तिका, किताबों, कैलकुलेटर तथा चलभाष आदि से सुसज्जित होकर होकर रणक्षेत्र में करतब दिखा रहा है। एक अन्य कक्ष में गरमागरम नमकीन तथा मिष्ठान्न का स्वाद लेते परीक्षक तथा प्रभारी मौखिक प्रश्नोत्तर कर रहे हैं जिसका छवि-अंकन निरंतर हो रहा है।
पर्यवेक्षक के नाते परीक्षार्थियों से पूछा कौन सा प्रयोग कर रहे हैं? कुछ ने उत्तर पुस्तिका से पढ़कर दिया, कुछ मौन रह गये। परिचय पत्र माँगने पर कुछ बाहर भागे और अपने बस्तों में से निकालकर लाये, कुछ की जेब में थे।जो बिना किसी परिचय पत्र के थे उन्हें परीक्षा नियंत्रक के कक्ष में अनुमति पत्र लेने भेजा। कुतूहलवश कुछ प्रयोग पुस्तिकाएँ उठाकर देखीं किसी में नाम अंकित नहीं था, कोई अन्य महाविद्यालय के नाम से सुसज्जित थीं, किसी में जाँचने के चिन्ह या जाँचकर्ता के हस्ताक्षर नहीं मिले।
प्रभारी से चर्चा में उत्तर मिला 'दस हजार वेतन में जैसा पढ़ाया जा सकता है वैसा ही पढ़ाया गया है. ये पाठ्य पुस्तकों नहीं कुंजियों से पढ़ते हैं, अंग्रेजी इन्हें आती नहीं है, हिंदी माध्यम है नहीं। शासन से प्राप्त छात्रवृत्ति के लोभ में पात्रता न होते हुए भी ये प्रवेश ले लेते हैं। प्रबंधन इन्हें प्रवेश न दे तो महाविद्यालय बंद हो जाए। हम इन्हें मदद कर उत्तीर्ण न करें तो हम पर अक्षमता का आरोप लग जाएगा। आप को तो कुछ दिनों पर्यवेक्षण कर चला जाना है, हमें यहीं काम करना है। आजकल विद्यार्थी नहीं प्राध्यापक की होती है परीक्षा कि वह अच्छा परिणाम देकर नौकरी बचा पाता है या नहीं?
७-१२-१५
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६३. मुट्ठी से रेत
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आजकल बिटिया रोज शाम को सहेली के घर पढ़ाई करने का बहाना कर जाती है और सवेरे ही लौटती है। समय ठीक नहीं है, मना करती हूँ तो मानती नहीं। कल पड़ोसन को किसी लडके के साथ पार्क में घूमते दिखी थी।
यह तो होना ही है, जब मैंने आरम्भ में उसे रोक था तो तुम्हीं झगड़ने लगीं थीं कि मैं दकियानूस हूँ, अब लडकियों की आज़ादी का ज़माना है। अब क्या हुआ, आज़ाद करो और खुश रहो।
मुझे क्या मालूम था कि वह हाथ से बाहर निकल जाएगी, जल्दी कुछ करो।
दोनों बेटी के कमरे में गए तो मेज पर दिखी एक चिट्ठी जिसमें मनपसंद लडके के साथ घर छोड़ने की सूचना थी।
दोनों अवाक, मुठ्ठी से फिसल चुकी थी रेत।
७-१२-२०१५
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६४. समरसता
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भृत्यों, सफाईकर्मियों और चौकीदारों द्वारा वेतन वृद्धि की माँग मंत्रिमंडल ने आर्थिक संसाधनों के अभाव में ठुकरा दी।
कुछ दिनों बाद जनप्रतिनिधियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य कुशलता की प्रशंसा कर अपने वेतन भत्ते कई गुना अधिक बढ़ा लिये।
अगली बैठक में अभियंताओं और प्राध्यापकों पर हो रहे व्यय को अनावश्यक मानते हुए सेवा निवृत्ति से रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ न कर दैनिक वेतन के आधार पर कार्य कराने का निर्णय सर्व सम्मति से लिया गया और स्थापित हो गयी समरसता।
७-१२-२०१५
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६५. ओवर टाइम
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अभी तो फैक्ट्री में काम का समय है, फिर मैं पत्ते खेलने कैसे आ सकता हूँ? ५ बजे के बाद खेल लेंगे।
तुम भी यार! रहे लल्लू के लल्लू। शाम को देर से घर जाकर कौन अपनी खाट खड़ी करवाएगा? चल अभी खेलते हैं काम बाकी रहेगा तभी तो प्रबंधन समय पर कराने के लिये देगा ओवर टाइम।
६-१२-२०१५
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६६. उत्सव १
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बेटी ने माँ को बताया की उसकी कक्षा में एक लड़की होशियार है लेकिन किताब न लाने के कारण उसे रोज डाँट पड़ती है। उसके पिता रिक्शा चलाते हैं।
अगले दिन स्कूल जाते समय माँ ने बेटी को एक पैकेट दिया कि उस लड़की के लिये है, दे देना। लड़की स्कूल से लौटी तो माँ से पूछा कि बिना माँगे, अपने पैसे खर्च कर पढ़ाई का सामान क्यों भिजवाया?
माँ बोली: 'तुम खाना खा रही हो और एक चिड़िया भूख से मर रही हो तो देखती रहोगी?'
' नहीं, उसको थोड़ा खाना-पानी दे दूँगी, वह खा-पीकर फुर्र से उड़ जाएगी। दाना लेकर घर जाएगी तो उसके बच्चे कित्ते खुश होंगे'
'यही तो, तुम्हारी सहेली घर जाकर पढ़ेगी, अच्छी नंबर लाएगी तो वह और उसके घर के सब लोग खुश होंगे, तुमको दुआ देंगे, तभी तो मनेगा उत्सव।'
६७. गुलामी का अनुबंध
*
आप कैसे जनप्रतिनिधि हैं जो जनमत जानते हुए भी संसद में व्यक्त नहीं करते?
क्या करूँ मजबूर हूँ?
कैसी मजबूरी?
दल की नीति जनमत की विरोधी है. मैं दल का उम्मीदवार था, चुने जाने के बाद मुझे संसद में वही कहना पड़ेगा जो दल चाहता है.
अरे! तब तो दल का प्रत्याशी बनने का अर्थ बेदाम का गुलाम होना है, उम्मीदवार क्या हुए जैसे गुलामी का अनुबंध कर लिया हो.
२-१२-२०१५
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६८. उत्तराधिकारी
*
दोपहर संसद में कुछ हनुमानवंशी अशोक वाटिका कांड की पुनरावृत्ति करने लगे।
अध्यक्षता कर रही मंदोदरी ने उन्हें शांत होने की हिदायत दी तो मतभेदों के दशानन और दलीय स्वार्थों के मेघनाथ ने साथ मिलकर मेजें थपथपाना आरम्भ कर दिया।
स्थिति को नियंत्रण से बाहर होते देख राम ने सुविधाओं के सत्ताभिषेक की घोषणा कर दी। तत्काल एकत्र हो गये विभीषण के उत्तराधिकारी
१-१२-२०१५ ।
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६९. सहिष्णुता
*
कहा-सुनी के बाद वह चली गयी रसोई में और वह घर के बाहर, चलते-चलते थक गया तो एक पेड़ के नीचे बैठ गया. कब झपकी लगी पता ही न चला, आँख खुली तो थकान दूर हो गयी थी, कानों में कोयल के कूकने की मधुर ध्वनि पड़ी तो मन प्रसन्न हुआ. तभी ध्यान आया उसका जिसे छोड़ आया था घर में, पछतावा हुआ कि क्यों नाहक उलझ पड़ा? कुछ सोच तेजी से चल पड़ा घर की ओर, वह डबडबाई आँखों से उसी को चिंता में परेशान थी, जैसे ही उसे अपने सामने देखा, राहत की साँस ली. चार आँखें मिलीं तो आँखें चार होने में देर न लगी.
दोनों ने एक-दुसरे का हाथ थामा और पहुँच गये वहीं जहाँ अनेकता में एकता का सन्देश दे नहीं, जी रहे थे वे सब जिन्हें अल्पबुद्धि जीव कहते हैं वे सब जो पारस्परिक विविधता के प्रति नहीं रख पा रहे अपने मन में सहिष्णुता।
६-१२-२०१५
*
७०. मुझे जीने दो
*
कश्मीरी पंडितों पर आतंकी हमलों से उत्पन्न आँसुओं की बाढ़, नेताओं और प्रशासन की उपेक्षा से जमी बर्फ, युवाओं के आतंकी संगठनों से जुड़ने के ज्वालामुखी, सीमाओं पर रोज मुठभेड़ों और सिपाहियों की शहादत के भूकम्प तथा दूरदर्शनी निरर्थक बहसों के तूफ़ान के बीच घिरी असहाय लोकतांत्रिक प्रणाली असहाय बिटिया की तरह लगातार गुहार रही है मुझे जीने दो पर गूंगी जनता और बहरी संसद दोनों मजबूर हैं.
१-१२-२०१५
*
अखबार में प्रायः पढ़ता हूँ अमुक चौराहे पर कामचोरी का अभिनन्दन हुआ, रिश्वतखोरी का सम्मान समारोह है, जुगाड़ू साहित्यकार को पुरस्कृत किया गया आदि.
देखा एक कोने में मेहनत,ईमानदारी और लगन मुँह लटकाये बैठे थे. मैंने हालचाल पूछा तो समवेत स्वर में बोले आज फिर भूखा रहना होगा कोई नहीं है हमारा खरीददार।
१-१२-२०१५
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७२. निर्माण
*
जनप्रतिनिधि महोदय के ३-४ सन्देश मिले तो कोई काम न होते हुए भी मिलना आवश्यक प्रतीत हुआ।
कहिये क्या चल रहा है? कार्यों की प्रगति कैसी है? पूछा गया। जिलाध्यक्ष कार्यालय में बैठक में जानकारी दी थी मैंने बताया। महोदय ने कहा आपके संभाग में इतनी योजनाओं के लिए इतने करोड़ रुपये स्वीकृत कराये हैं, आपको समझना चाहिए, मिलना चाहिए। मेरे समर्थन के बिना कोई मेरे क्षेत्र में नहीं रह सकता। मेरे कारण ही आपको कोई तकलीफ नहीं हुई जबकि लोग कितनी शिकायतें करते हैं।
मैंने धन्यवाद दे निवेदन किया कि निर्माण कार्यों की गुणवत्ता देखना मेरा कार्य है, इससे जुडी कोई शिकायत हो तो बतायें अथवा मेरे साथ भ्रमण कर स्वयं कार्य देख लें। विभाग के सर्वोच्च अधिकारी तथा जाँच अधिकारी कार्यों की प्रगति तथा गुणवत्ता से संतुष्ट हैं। केंद्र और राज्य की योजनाओं में उपलब्ध राशि के लिए सर्वाधिक प्रस्ताव भेजे और स्वीकृत कराये गये हैं, कार्यालय में किसी ठेकेदार की कोई निविदा या देयक लंबित नहीं है। पारिवारिक स्थितियों के कारण मैं कार्यालय संलग्न रहना चाहता हूँ।
काम तो आपका ठीक है। भोपाल में भी आपके काम की तारीफ सुनी है पर हम लोगों का भी आपको ध्यान रखना चाहिए, वे बोले।
मैंने निवेदन किया कि आपका सहयोग इसी तरह कर सकता हूँ कि कार्य उत्तम और समय पर हों, शासन की छवि उज्जवल हो तो चुनाव के समय प्रतिनिधि को ही लाभ होगा।
वह तो जब होगा तब होगा, कौन जानता है कि टिकिट किसे मिलेगा? आप तो बताएं कि अभी क्या मदद कर सकते हैं?
मेरे यह कहते ही कि समय पर अच्छे से अच्छा निर्माण ही मेरी ऒर से मदद है, बोले मेरे बच्चे तो नहीं जायेंगे कभी सरकारी स्कूल-कॉलेज में फिर क्या लाभ मुझे ऐसे निर्माण से? आपको हटाना ही पड़ेगा।
मैं अभिवादन कर चला आया।
१-१२-२०१५
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७३. चित्रगुप्त पूजन
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अच्छे अच्छों का दीवाला निकालकर निकल गई दीपावली और आ गयी दूज...
सकल सृष्टि के कर्म देवता, पाप-पुण्य नियामक निराकार परात्पर परमब्रम्ह चित्रगुप्त जी और कलम का पूजन कर ध्यान लगा तो मनस-चक्षुओं ने देखा अद्भुत दृश्य.
निराकार अनहद नाद... ध्वनि के वर्तुल... अनादि-अनंत-असंख्य. वर्तुलों का आकर्षण-विकर्षण... घोर नाद से कण का निर्माण... निराकार का क्रमशः सृष्टि के प्रागट्य, पालन और नाश हेतु अपनी शक्तियों को तीन अदृश्य कायाओं में स्थित करना...
महाकाल के कराल पाश में जाते-आते जीवों की अनंत असंख्य संख्या ने त्रिदेवों और त्रिदेवियों की नाम में दम कर दिया. सब निराकार के ध्यान में लीन हुए तो हर चित्त में गुप्त प्रभु की वाणी आकाश से गुंजित हुई:
__ "इस समस्या के कारण और निवारण तुम तीनों ही हो. अपनी पूजा, अर्चना, वंदना, प्रार्थना से रीझकर तुम ही वरदान देते हो और उनका दुरूपयोग होने पर परेशान होते हो. करुणासागर बनने के चक्कर में तुम निष्पक्ष, निर्मम तथा तटस्थ होना बिसर गये हो."
-- तीनों ने सोचा:' बुरे फँसे, क्या करें कि परमपिता से डाँट पड़ना बंद हो?'.
एक ने प्रारंभ कर दिया परमपिता का पूजन, दूसरे ने उच्च स्वर में स्तुति गायन तथा तीसरे ने प्रसाद अर्पण करना.
विवश होकर परमपिता को धारण करना पड़ा मौन.
तीनों ने विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर कब्जा किया और भक्तों पर करुणा करने का दस्तूर और अधिक बढ़ा दिया.
१९-११-२०१५
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७४. अखबार
*
सवेरे बेचैनी से अख़बार की प्रतीक्षा थी. अखबार आये... हिन्दी के, अंग्रेजी के, राष्ट्रीय, स्थानीय....
सभी में छपी थी में एक खबर प्रमुखता से.... अमुक नेता ने महात्मा की समाधि पर माला चढ़ायी.
मैं ने कुछ पुराने अख़बार पलटाये.... अलग-अलग समय पर छपी खबरें देखता गया
राष्ट्रपति स्वर्णमंदिर में गये...,
गृहमंत्री ने नमाज़ अदा की...,
लोकसभाध्यक्ष गिरिजाघर गये...,
राज्यपाल बौद्ध मठ में...,
विधान सभाध्यक्ष ने जैन संत से आशीष लिया...,
कुलपति सतनामी समाज में
पुस्तकालय जाकर भी बहुत से अखबार पलटाये... खोजता रहा... थक गया पर नहीं मिली वह खबर जिसे पढ़ने के लिये मेरे प्राण तरस रहे थे....
खबर कुछ ऐसी... कोई जनप्रतिनिधि या अधिकारी या साहित्यकार या संत भारतमाता के मंदिर में जलाने गया एक दीप.... हार कर खोज बंद कर दी....
अब रद्दी कागज़ लग रहे थे अखबार ....
१९-११-२०१५
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७५. अर्थ
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हमने बच्चे को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिहार के छोटे से कसबे से बेंगलोर जैसे शहर में आया। इतने साल पढ़ाई की। इतनी अच्छी कंपनी में इतने अच्छे वेतन पर है, देश-विदेश घूमता है। गाँव में खेती भी हैं और यहाँ भी पिलोट ले लिया है। कितनी ज्यादा मँहगाई है, १ करोड़ से कम में क्या बनेगा मकान? बेटी भी है ब्याहने के लिये, बाकी आप खुद समझदार हैं।
आपकी बेटी पढ़ी-लिखी है,सुन्दर है, काम करती है सो तो ठीक है, माँ-बाप पैदा करते हैं तो पढ़ाते-लिखाते भी हैं। इसमें खास क्या है? रूप-रंग तो भगवान का दिया है, इसमें आपने क्या किया? ईनाम - फीनाम का क्या? इनसे ज़िंदगी थोड़े तेर लगती है। इसलिए हमने बबुआ को कुछ नई करने दिया। आप तो समझदार हैं, समझ जायेंगे।
हम तो बाप-दादों का सम्मान करते हैं, जो उन्होंने किया वह सब हम भी करेंगे ही। हमें दहेज़-वहेज नहीं चाहिए पर अपनी बेटी को आप दो कपड़ों में तो नहीं भेज सकते? आप दोनों कमाते हैं, कोई कमी नहीं है आपको, माँ-बाप जो कुछ जोड़ते हैं बच्चियों के ही तो काम आता है। इसका चचेरा भाई बाबू है ब्याह में बहुरिया कर और मकान लाई है। बाकी तो आप समझदार हैं।
जी, लड़का क्या बोलेगा? उसका क्या ये लड़की दिखाई तो इसे पसंद कर लिया, कल दूसरी दिखाएंगे तो उसे पसंद कर लेगा। आई. आई. टी. से एम. टेक. किया है,इंटर्नेशनल कंपनी में टॉप पोस्ट पे है तो क्या हुआ? बाप तो हमई हैं न। ये क्या कहते हैं दहेज़ के तो हम सख्त खिलाफ हैं। आप जो हबी करेंगे बेटी के लिए ही तो करेंगे अब बेटी नन्द की शादी में मिला सामान देगई तो हम कैसे रोकेंगे? नन्द तो उसकी बहिन जैसी ही होगी न? घर में एक का सामान दूसरे के काम आ ही जाता है। बाकि तो आप खुद समझदार हैं।
मैं तो बहुत कोशिश करने पर भी नहीं समझ सका, आप समझें हों तो बताइये समझदार होने का अर्थ।
६-११-२०१५
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७६. सहिष्णुता
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'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
१८-११-२०१५
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७७. करनी-भरनी
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अभियांत्रिकी महाविद्यालय में परीक्षा का पर्यवेक्षण करते हुए शौचालयों में पुस्तकों के पृष्ठ देखकर मन विचलित होने लगा। अपना विद्यार्थी काल में पुस्तकों पर आवरण चढ़ाना, मँहगी पुस्तकों की प्रति तैयार कर पढ़ना, पुस्तकों में पहचान पर्ची रखना ताकि पन्ने न मोड़ना पड़े, वरिष्ठ छात्रों से आधी कीमत पर पुस्तकें खरीदना, पढ़ाई कर लेने पर अगले साल कनिष्ठ छात्रों को आधी कीमत पर बेच अगले साल की पुस्तकें खरीदना, पुस्तकालय में बैठकर नोट्स बनाना, आजीवन पुस्तकों में सरस्वती का वास मानकर खोलने के पूर्व नमन करना, धोखे से पैर लग जाए तो खुद से अपराध हुआ मानकर क्षमाप्रार्थना करना आदि याद हो आया।
नयी खरीदी पुस्तकों के पन्ने बेरहमी से फाड़ना, उन्हें शौच पात्रों में फेंक देना, पैरों तले रौंदना क्या यही आधुनिकता और प्रगतिशीलता है?
रंगे हाथों पकड़ेजानेवालों की जुबां पर गिड़गड़ाने के शब्द पर आँखों में कहीं पछतावे की झलक नहीं देखकर स्तब्ध हूँ। प्राध्यापकों और प्राचार्य से चर्चा में उन्हें इसकी अनदेखी करते देखकर कुछ कहते नहीं बनता। उनके अनुसार वे रोकें या पकड़ें तो उन्हें जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों या गुंडों से धमकी भरे संदेशों और विद्यार्थियों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। तब कोई साथ नहीं देता। किसी तरह परीक्षा समाप्त हो तो जान बचे। उपाधि पा भी लें तो क्या, न ज्ञान होगा न आजीविका मिलेगी, जैसा कर रहे हैं वैसा ही भरेंगे।
२९-१२-२०१५
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७८. धनतेरस
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वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहां साफ़-सफाई क्यों नहीं करते?त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगादो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे फेंके कचरे को बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस'
कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।
९-११-२०१५
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७९. थोड़ा सा चन्द्रमा
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अभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रवेश, पति को हृद्रोग दोनों सूचनाएँ साथ-साथ पाकर उनका जी धक से रह गया... अपना बक्सा खोला उसमें रखे पैसे गिने, बैंक की पास बुक देखी, दवाई-इलाज का काम तो खींच-तान कर चला लेंगी पर अभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रवेश कैसे?, प्रवेश न कराये तो बच्चे का भविष्य अंधकारमय, पति के लिये तनाव भी घातक, क्या करें?…
''आइये, आइये' दरवाज़े पर उन्हें ठिठका देख मैंने पूछा 'कहिये, डॉक्टर क्या कह रहे हैं?' और सोफे पर बैठने का संकेत किया।
खुद को संयत करते हुए उन्होंने उक्त परिस्थति की चर्चाकर मागदर्शन चाहा। एक क्षण को मैं हतप्रभ हुआ,क्या कहूँ? परिस्थिति वाकई जटिल थी। कुछ सोचकर कहा: 'फ़िक्र न करें,हम सब मिलकर स्थिति को सुलझा लेंगे। बच्चे को कितनी फीस कब भरनी है बता दें, मैं बैंक से लाकर भिजवा दूँगा, आप इलाज पर ध्यान दें।'
'आपसे यही उम्मीद थी, पर ५ साल पढ़ाई का खर्च कैसे? अभी २ माह ये नौकरी पर भी नहीं जा सकेंगे, तनखा भी बाद में ही मिलेगी' -वे बोलीं, चाहती तो नहीं थी पर मजबूरी में आपसे …
इस बीच मैं अपना मन स्थिर कर चुका था कहा: 'आपने तुरंत बताकर बिलकुल ठीक किया। एक ही रास्ता है लेकिन आपको बहुत मेहनत'
'मैं कुछ भी कर लूँगी' मेरे वाक्य पूरा करने के पहले ही बोल पड़ीं वे और फिर अपनी हड़बड़ी पर झेंप भी गयीं।
'मुझे कार्यालय के मित्रों को पार्टी देना है, ये कॉलेज में ही इतना थक जाती हैं कि चाह कर भी बना नहीं पाएंगी औए बाजार का बना मैं खिलाना नहीं चाहता, सामान भेज दूँ तो बना देंगी मेरे लिये?' मैंने उन्हें मिठाई-नमकीन की सूची दे दी। उन्हें अटपटा तो लगा किन्तु चुप रहीं। श्रीमती जी के घर लौटने पर मैंने पूरी बात और अपनी योजना बताई और उनसे पूछकर किरानेवाले को फोन कर सामान भिजवा दिया।
अगले ही दिन उन्होंने कहे अनुसार सामान बनाकर भेज दिया था। हमने अपने कार्यालयों में साथियों को वह मीठा-नमकीन खिलाकर त्यौहार पर इन्हीं से खरीदने का आग्रह किया। बाजार भाव से १०% कम दर बताई तो उनका सब सामान बिक गया था। किरानेवाले का बिल चुकाकर अच्छी रकम बच गयी। श्रीमती जी ने बची राशि व नये आदेश उन्हें देते हुए बताया कि किरानेवाला सामान भी भेज रहा है, आप सुविधा से बना देना तो हम दोनों ग्राहकों तक पहुँचा देंगे। वे अवाक सी सुनती रहीं मानों विश्वास न कर पा रही हों, चेहरे पर एक रंग आ रहा था तो एक जा रहा था, अंत में ख़ुशी ने स्थाई डेरा जमा लिया तो हमने चैन की सांस ली।
'अरे! ऐसे क्या देख रही हैं? आपने तो तीर मार दिया, बेटा जाने कब कमायेगा पर आपने तो कमाना शुरू भी कर दिया। अब बेटे की पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आएगी लेकिन पहले रुपये गिन लीजिये, आपकी सहेली ने कम तो नहीं कर दिए और पहली कमाई पर खीर तो खिलानी ही पड़ेगी।'
मेरी आवाज सुनकर उन्होंने आश्चर्य और कृतज्ञता के भाव से मुझे देखा और श्रीमती जी से बोलीं: 'डाइबिटीजवालों को तो खीर मिलेगी नहीं।'
'अच्छा! मेरी बिल्ली मुझी से म्याऊं?' श्रीमती जी बोलीं, तब मुझे ध्यान आया कि उनके श्रीमान और मेरी श्रीमती जी मधुमेहग्रस्त हैं। वे तो चली गयीं पर खिड़की से झाँक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।
९-९-२०१५
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८०. नाम का प्यार
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'आया! बेबी को सम्हालो। ध्यान रखना, समय पर खा-पी ले. मैं किटी पार्टी में जा रही हूँ, गंदे हाथों से छू लेगी तो मेकअप ख़राब हो जायेगा' कहते हुए वे बच्ची को झिड़कते हुए कार में जा बैठीं और मैं देखता ही रह गया उनका नाम का प्यार।
८१. गुलगुले
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अरे! कहाँ आ गया? घर तो अपने जैसा ही लगता है, मेज, कुर्सी, दीवारें, परदे सब वैसे ही पर खाने की मेज पर ये बोतल, सिगरेट की डब्बी कैसे? सपना तो नहीं? सोचते-हुए उसने आँखें मलीं। तभी उसकी बच्ची वहाँ आयी और प्यार से बोली: 'पप्पा! आप कित्ती देर से आये हो? मैं मम्मा को बुलाती हूँ, भूख से हम दोनों की जान निकली जा रही है लेकिन खा भी नहीं सकते। आज आपका बड्डे है न?ममा ने कहा है हम सब अब से साथ ही खाया-पिया करेंगे, आप को रोज बाहर नहीं खाना पड़ेगा। बिटिया ने हाथ पकड़कर उसे मेज पर बैठाया, माँ को बुलाया और तीन गिलासों में ढालने लगी अंगूरी।
झनझना गया उसका दिमाग, पत्नी और बेटी के हाथों में उठे गिलास चियर्स कहते हुए जैसे ही समीप आये चूक ही गया उसका धैर्य। 'नहीं' की चीख के साथ उसका हाथ घूमा और सारा सामान गिरा जमीन पर, धम्म से गिर ही पड़ा जमीन पर 'मैं कितना बुरा हूँ, मेरे लिये तुम दोनों ने.… हे भगवान!यह देखने से अच्छा तो मैं मर ही जाऊँ।'
'नहीं पापा! तुम बहुत अच्छे हो, बहुत प्यारे' बिटिया लिपट गयी उसके गले से। सिसकती बिटिया को जैसे-तैसे चुपाकर वह पत्नी की तरफ घूमा और बोला 'आज मेरी आँखें खुल गयीं, तुम ठीक कहती हो। आज से यह सब बंद। यह जन्म दिवस मेरा मुक्ति दिवस बन गया है। चलो, हम वैसे ही मनायेंगे जैसे माँ मनाती थी, जल्दी से बनाओ गुलगुले।
६-११-२०१५
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८२. जरा सी गिरह
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बरसों बाद वह आयी तो मैंने गले से लगाया, समाचार पूछे, उसके ठहरने और भोेजन की व्यवस्था करने के साथ अस्पताल पहुँचाने-लाने के लिये वाहन की व्यवस्था के लिये इनसे कह दिया कि अपने साथ के साथ कुछ दिन कार्यालय आने-जाने की व्यवस्था कर लें। वाहन चालक न होने पर खुद ही वाहन चलाया, साथ जा कर चिकित्सक को दिखाया, परीक्षण कराये, दवाइयाँ लाई और परहेजी भोजन तैयार कर खिलाया।
यह सब करना मेरा कर्तव्य था, वे मेरी एकमात्र भाभी जो थीं। उन्हें विश्राम करने के लिए कहकर मैं रसोई समेटने में जुट गयी, बच्चों के लौटने के पहले उनके नाश्ते की व्यवस्था की, फिर रात का खाना। सोने के पूर्व एक बार उन्हें देखने गयी कि कोई असुविधा तो नहीं है। उन्हें सिसकता पाकर एक पल को ठिठकी की लौट जाऊँ पर मन न माना। वे बीमारी को लेकर चिंतित न हों यह सोचकर आगे बढ़ी और उनके निकट बैठ हाथ में हाथ लेकर थपथपाते हुए कहा कि चिंता की कोई बात नहीं हैं, वे शीघ्र ही पूरी तरह ठीक हो जाएँगी और जब तक ठीक नहीं हो जातीं मैं उन्हें जाने नहीं दूँगी। वे सब फ़िक्र छोड़कर मुझ पर भरोसा करें।
इतना सुनते ही वे लिपटते हुए फफक पड़ीं- 'आप पर भरोसा न कर ज़िन्दगी में एक बार गलती कर चुकी हूँ, दोबारा नहीं करूँगी। आपने मन पसंद लडके से शादी ही तो की थी। आपसे और लाला जी से किस मुँह से कुछ कहूँ? तब आपसे कैसा सलूक किया था? आप भरोसा करके ही तो आईं थीं दुधमुँही बच्ची के साथ और मैंने बासी रोटी दे दी, बिना पंखे के सुलाया और आपने चूं भी न की। तब से कितनी बार चाहा कि बात करूँ पर खुद ही खुद को कोसती रह गयी। आपके भैया से कहा तो बोले खुद ही जाओ। आज इस बहाने हिम्मत कर आयी हूँ। आप दोनों मुझे माफ़ कर वह बात भूल.… '
'अरे!ऐसे कैसे भूल जाएँ? जब तक आप पूरी तरह स्वस्थ होकर गरमागरम रोटी बनाकर नहीं खिलातीं तब तक कैसे?' इन्होंने अचानक प्रवेश करते हुए कहा।
'अच्छा जी, छिप-छिपकर ननद-भौजाई की बातें सुनी जा रही हैं।' प्रगल्भता से भाभी बोल पडीं, मेरी चिंता दूर हुई कि इस बहाने ही सही खुल गयी वह जरा सी गिरह।
१६-११-२०१५
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८३. चन्द्र ग्रहण
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फेसबुक पर रचनाओं की प्रशंसा से अभिभूत उसने प्रशंसिका के मित्रता आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। एक दिन सन्देश मिला कि वह प्रशंसिका उसके शहर में आ रही है और उससे मिलना चाहती है। भेंट के समय आसपास के पर्यटन स्थलों का भ्रमण करने का प्रस्ताव उसने सहज रूप से स्वीकार कर लिया। नौकाविहार आदि के समय कई सेल्फी भी लीं प्रशंसिका ने। लौटकर वह प्रशंसिका को छोड़ने उसके कमरे में गया ही था की कमरे के बाहर भाग-दौड़ की आवाज़ आई और जोर से दरवाजा खटखटाया गया।
दरवाज़ा खोलते ही कुछ लोगों ने उसेउसे घेर लिया। गालियाँ देते हुए, उस पर प्रशंसिका से छेड़छाड़ और जबरदस्ती के आरोप लगाये गए, मोबाइल की सेल्फ़ी और रात के समय कमरे में साथ होना साक्ष्य बनाकर उससे रकम मांगी गयी, उसका कीमती कैमरा और रुपये छीन लिए गए। किंकर्तव्यविमूढ़ उसने इस कूटजाल से टकराने का फैसला किया और बात मानने का अभिनय करते हुए द्वार के समीप आकर झटके से बाहर निकलकर द्वार बंद कर दिया अंदर कैद हो गई प्रशंसिका और उसके साथी।
तत्काल काउंटर से उसने पुलिस और अपने कुछ मित्रों से संपर्क किया। पुलिसिया पूछ-ताछ से पता चला वह प्रशंसिका इसी तरह अपने साथियों के साथ मिलकर भयादोहन करती थी और बदनामी के भय से कोई पुलिस में नहीं जाता था किन्तु इस बार पाँसा उल्टा पड़ा और उस चंद्रमुखी को लग गया चंद्रग्रहण।
१०-११-२०१५
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८४. रिश्ते
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लंबे विदेश प्रवास के बीच पति के किसी अन्य महिला से जुड़ने का समाचार पाकर बिखर गयी थी वह। पति का फोन सुनना भी बंद कर दिया। विश्वास और संदेह में डूबते-उतराते उसने अपना कार्य निबटाया और स्वदेश लौट आयी।
जितने मुँह उतनी बातें, सत्य की तलाश में एक दिन किसी को कुछ बताये बिना मन कड़ा कर वह पहुँच गयी पति के दरवाज़े पर।
दरवाज़ा खटकाने को थी कि अंदर से किसी को डाँटते हुए महिला स्वर सुनाई पड़ा 'कितनी बार कहा है अपना ध्यान रखा करिए लेकिन सुनते ही नहीं हो, भाभी का नंबर दो तो उनसे ऐसी शिकायत करूँ कि आपकी खटिया खड़ी कर दें।'
'किससे शिकायत करोगी और क्या वह न तो अपनी खबर देती है, न कोई फोन उठाती है। हमारे घरवाले पहले ही इस विवाह के खिलाफ थे। तुम्हें मना करता करता हूँ फिर भी रोज चली आती हो, लोग पीठ पीछे बातें बनायेंगे।'
'बनाने दो बातें, भाई को बीमार कैसे छोड़ दूँ?.... उसका धैर्य जवाब दे गया। भरभराती दीवार सी ढह पड़ी.… आहट सुनते ही दरवाज़ा खुला, दो जोड़ी आँखें पड़ीं उसके चेहरे पर गड़ी की गड़ी रह गयीं। तुम-आप? चार हाथ सहारा देकर उसे उठाने लगे। उसे लगा धरती फट जाए वह समा जाए उसमें, इतना कमजोर क्यों था उसका विश्वास? उसकी आँखों से बह रहे थे आँसू पर मुस्कुरा रहे थे रिश्ते।
२४-१०-२०१५
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८५. प्यार ही प्यार
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'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
८७. उत्सव
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सड़क दुर्घटना, दम्पति की मौत, नन्ही बच्ची अनाथ पढ़ते-पढ़ते उसकी दृष्टी अपने नन्हीं बिटिया पर पड़ी.… मन में कोई विचार कौंधा और सिहर उठा वह, बिटिया को बांहों में भरकर चूम लिया…… पत्नी ने देखा तो कारण पूछा।
थोड़ी देर बाद तीनों पहुँचे कलेक्टर के कमरे में, कुछ लिखा-पढ़ी के बाद घर लौटे, दुर्घटना में माँ-बाप खो चुकी बिटिया के साथ.…
धीरे-धीरे चारों का जीवन बन गया एक उत्सव।
८८. मानवाधिकार
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राजमार्ग से आते-जाते विभाजक के एक किनारे पर उसे अक्सर देखते हैं लोग। किसे फुर्सत है जो उसकी व्यथा-कथा पूछे। कुछ साल पहले वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन के साथ गरीबी में भी प्रसन्न हुआ करता था। एक रात वे यहीं सो रहे थे कि एक मदहोश रईसजादे की लहराती कार सोते हुई ज़िन्दगियों पर मौत बनकर टूटी। पल भर में हाहाकार मच गया, जब तक वह जागा उसकी दुनिया ही उजड़ गयी थी। कैमरों और नेताओं की चकाचौंध १-२ दिन में और साथ के लोगों की हमदर्दी कुछ महीनों में ख़त्म हो गयी।
एक पडोसी ने कुछ दिन साथ में रखकर उसे बेचना सिखाया और पहचान के कारखाने से बुद्धि के बाल दिलवाये। आँखों में मचलते आँसू, दिल में होता हाहाकार और दुनिया से बिना माँगे मिलती दुत्कार ने उसे पेट पालना तो सीखा दिया पर जीने की चाह नहीं पैदा कर सके। दुनियावी अदालतें बचे हुओं को कोई राहत न दे पाईं। रईसजादे को पैरवीकारों ने मानवाधिकारों की दुहाई देकर छुड़ा दिया लेकिन किसी को याद नहीं आया निरपराध मरने वालों का मानवाधिकार।
८९. सच्चा उत्सव
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उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
९०. गणराज्य
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व्यापम घोटाला समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ से लेकर पनघट हर जगह बना रहा चर्चा का केंद्र, बड़े-बड़ों के लिपटने के समाचारों के बीच पकड़े गए कुछ छुटभैये।
फिर आरम्भ हुआ गवाहों के मरने का क्रम लगभग वैसे ही जैसे श्री आसाराम बापू और अन्य इस तरह के प्रकरणों में हुआ।
सत्ताधारियों के सिंहासन डोलने और परिवर्तन के खबरों के बीच विश्व हिंदी सम्मेलन का भव्य आयोजन, चीन्ह-चीन्ह कर लेने-देने का उपक्रम, घोटाले के समाचारों की कमी, रसूखदार गुनहगारों का जमानत पर रिहा होना, समान अपराध के गिरफ्तार अन्य को जमानत न मिलना, सत्तासीनों के कदम अंगद के पैर की तरह जम जाना, समाचार माध्यमों से व्यापम ही नहीं छात्रवृत्ति और अन्य घोटालों की खबरों का विलोपित हो जाना, पुस्तक हाथ में लिए मैं कोशिश कर रहा हूँ किन्तु समझ नहीं पा रहा हूँ समानता, मौलिक अधिकारों और लोककल्याणकारी गणतांत्रिक गणराज्य का अर्थ।
९१. सहनशीलता
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देश की स्वतंत्रता के लिए बलिदान करने का दावा कर येन-केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज रहने तक येन-केन-प्रकारेण विरोधियों और विपक्षियों को परेशान करने झूठे मुकदमे चलाने लोकनायक जय प्रकाश पर लाठी चलाने, आपात काल लगाने, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस प्रकरण में देश को गुमराह करने, शास्त्री जी के संदिग्ध निधन को छिपाने, सिखों को दंगों और कश्मीरी ब्राम्हणों को पलायन के बाद धोखा देनेवालों ने गत आम चुनाव में मिली पराजय से कोई सबक नहीं सीखा।
विरोधी तो दूर अपने ही दाल के भीतर असहमति को न सह सकने वाले आब आरोप लगा रहे हैं प्रचुर जनमत से चुनी गयी सरकार पर असहनशीलता का.
संसद ठप करने से मन नहीं भरा तो पुरस्कार वापिसी की नौटंकी करते समय यह तो सोच लें कि १९४७ से आपने देश के बहुसंखयक लोगों के प्रति कैसी सहनशीलता दिखाई कि उनकी जनसँख्या वृद्धि दर घट गयी और अल्पसंख्यकों की आबादी बढ़ने की दर बढ़ गयी.आप जिन्हें विरोधी दल के रूप में भी सहन नहीं कर पा रहे थे उन्हें जनता ने सत्ता सौंप कर परीक्षा आरम्भ कर दी है आपकी सहनशीलता की और आप हो रहे हैं पूरी तरह असफल।
६-११-२०१५
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९२. अंध मोह
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मध्य प्रदेश बांगला साहित्य अकादमी रजत जयंती समारोह मुख्य अतिथि वक्ता के नाते भाषा के उद्भव, उपादेयता, स्वर-व्यंजन, लिपि के विकास,विविध भाषाओँ बोलिओं के मध्य सामंजस्य, जीवन में भाषा की भूमिका, भाषा से आजीविका, अनुवाद, लिप्यंतरण तथा स्थानीय, देशज व् राष्ट्रीय भाषा में मध्य अंतर्संबंध जैसे जटिल और नीरस विषय को सहज बनाते हुए हिंदी में अपनी बात पूरी की. महिलाएं, बच्चे तथा पुरुष रूचि लेकर सुनते रहे, उनके चेहरों से पता चलता था कि वे बात समझ रहे हैं, सुनना चाहते हैं.
मेरे बाद भागलपुर से पधारे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता बांगला प्रोफ़ेसर ने बांगला में बोलना प्रारम्भ किया। विस्मय हुआ की बांगलाभाषी जनों ने हिंदी में कही बात मन से सुनी किन्तु बांगला वक्तव्य आरम्भ होते ही उनकी रूचि लगभग समाप्त हो गयी, आपस में बात-चीत होने लगी. वोिदवान वक्त ने आंकड़े देकर बताया कि गीतांजलि के कितने अनुवाद किस-किस भाषा में हुए. शरत, बंकिम, विवेकानंद आदि कासाहित्य किन-किन भाषाओँ में अनूदित हुआ किन्तु यह नहीं बता सके कि कितनी भाषाओँ का साहित्य बांगला में अनूदित हुआ.
कोई कितना भी धनी हो उसके कोष से धन जाता रहे किन्तु आये नहीं तो तिजोरी खाली हो ही जाएगी। प्रयास कर रहा हूँ कि बांगला भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगे तो हम मूल रचनाओं को उसी तरह पढ़ सकें जैसे उर्दू की रचनाएँ पढ़ लेते हैं. लिपि के प्रति अंध मोह के कारण वे नहीं समझ पा रहे हैं मेरी बात का अर्थ।
६-११-२०१५
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जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।
गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।
धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
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परिंदे के पंख फ़ड़फ़ड़ाने से उनकी तन्द्रा टूटी, न जाने कब से ख्यालों में डूबी थीं। ध्यान गया कि पानी तो है ही नहीं है, प्यासी होगी सोचकर उठीं, खुद भी पानी पिया और कटोरी में भी भर दिया।
मन खो गया यादों में, बचपन, गाँव, खेत-खलिहान, छात्रावास, पढ़ाई, विवाह, बच्चे, बच्चों का बसा होना, नौकरी, विवाह और घर में खुद का अकेला होना। यह अकेलापन और अधिक सालने लगा जब वे भी चले गए कभी न लौटने के लिये। दुनिया का दस्तूर, जिसने सुना आया, धीरज धराया और पीठ फेर ली, किसी से कुछ घंटों में, किसी ने कुछ दिनों में।
अंत में रह गया बेटा, बहु तो आयी ही नहीं कि पोते की परीक्षा है, आज बेटा भी चला गया।
उनसे साथ चलने का अनुरोध किया किन्तु उन्हें इस औपचारिकता के पीछे के सच का अनुमान करने में देर न लगी, अनुमान सच साबित हुआ जब बेटे ने उनके दृढ़ स्वर में नकारने के बाद चैन की सांस ली।
चारों ओर व्याप्त खालीपन को भर रही थी परिंदे की आवाज़। 'बाई साब! कब लौं बिसूरत रैहो? उठ खें सपर ल्यो, मैं कछू बना देत हूँ। सो चाय-नास्ता कर ल्यो जल्दी से। जे आ गयी है जिद करके, जाहे सीखना है कछू, तन्नक बता दइयो' सुनकर चौंकी वह। देखा कामवाली के पीछे उसकी अनाथ नातिन छिप रही थी।
'कहाँ छिप रही है? यहाँ आ, कहते हुए हाथ बढ़ाकर बच्ची को खींच लिया अपने पास। क्या सीखेगी पूछा तो बच्ची ने इशारा किया हारमोनियम की तरफ। विस्मय से पूछा यह सीखेगी? अच्छा, सिखाऊँगी तुझे लेकिन तू क्या देगी मुझे?
सुनकर बच्ची ठिठकी कुछ सोचती रही फिर आगे बढ़कर दे दी एक पप्पी। पानी पीकर गा रही थी चिड़िया और मुस्कुरा रही बच्ची के साथ अब उन्हें घर नहीं लग रहा था पिंजरा।
५-११-२०१५
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= १९७३ में एक २० बरस के लड़के ने जिसे न अनुभव था, न जिम्मेदारी २८०/- आधार वेतन पर नौकरी आरंभ की। कुल वेतन ३७५/- , सामान्य भविष्य निधि कटाने के बाद ३५०/- हाथ में आते थे जिससे पौने तीन तोले सोना खरीदा जा सकता था। लड़का ही नहीं परिवारजन भी खुश, शादी के अनेक प्रस्ताव, ख़ुशी ही ख़ुशी ।
= ४० साल नौकरी और अधिकतम पारिवारिक जिम्मेदारियों और अनुभव के बाद सेवानिवृत्ति के समय वेतन ३५०००/- जिसमें डेढ़ तोला सोना आता है। पेंशन और कम, अधिकतम योग्यता, कार्य अनुभव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बावजूद क्रय क्षमता में कमी.... ४० साल लगातार जेबकतरे जाने का अहसास अब रूह को कँपाने लगा है, बेटी के लिये नहीं मिलते उचित प्रस्ताव, दाल-प्याज-दवाई जैसी रोजमर्रा की चीजों के दाम आसमान पर और हौसले औंधे मुँह जमीन पर फिर भी पकड़ में नहीं आते जेबकतरे.
१९-११-२०१५
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मध्य प्रदेश बांगला साहित्य अकादमी रजत जयंती समारोह मुख्य अतिथि वक्ता के नाते भाषा के उद्भव, उपादेयता, स्वर-व्यंजन, लिपि के विकास,विविध भाषाओँ बोलिओं के मध्य सामंजस्य, जीवन में भाषा की भूमिका, भाषा से आजीविका, अनुवाद, लिप्यंतरण तथा स्थानीय, देशज व् राष्ट्रीय भाषा में मध्य अंतर्संबंध जैसे जटिल और नीरस विषय को सहज बनाते हुए हिंदी में अपनी बात पूरी की. महिलाएं, बच्चे तथा पुरुष रूचि लेकर सुनते रहे, उनके चेहरों से पता चलता था कि वे बात समझ रहे हैं, सुनना चाहते हैं.
मेरे बाद भागलपुर से पधारे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता बांगला प्रोफ़ेसर ने बांगला में बोलना प्रारम्भ किया। विस्मय हुआ की बांगलाभाषी जनों ने हिंदी में कही बात मन से सुनी किन्तु बांगला वक्तव्य आरम्भ होते ही उनकी रूचि लगभग समाप्त हो गयी, आपस में बात-चीत होने लगी. वोिदवान वक्त ने आंकड़े देकर बताया कि गीतांजलि के कितने अनुवाद किस-किस भाषा में हुए. शरत, बंकिम, विवेकानंद आदि कासाहित्य किन-किन भाषाओँ में अनूदित हुआ किन्तु यह नहीं बता सके कि कितनी भाषाओँ का साहित्य बांगला में अनूदित हुआ.
कोई कितना भी धनी हो उसके कोष से धन जाता रहे किन्तु आये नहीं तो तिजोरी खाली हो ही जाएगी। प्रयास कर रहा हूँ कि बांगला भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगे तो हम मूल रचनाओं को उसी तरह पढ़ सकें जैसे उर्दू की रचनाएँ पढ़ लेते हैं. लिपि के प्रति अंध मोह के कारण वे नहीं समझ पा रहे हैं मेरी बात का अर्थ
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व्यापम घोटाला समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ से लेकर पनघट हर जगह बना रहा चर्चा का केंद्र, बड़े-बड़ों के लिपटने के समाचारों के बीच पकड़े गए कुछ छुटभैये।
फिर आरम्भ हुआ गवाहों के मरने का क्रम लगभग वैसे ही जैसे श्री आसाराम बापू और अन्य इस तरह के प्रकरणों में हुआ।
सत्ताधारियों के सिंहासन डोलने और परिवर्तन के खबरों के बीच विश्व हिंदी सम्मेलन का भव्य आयोजन, चीन्ह-चीन्ह कर लेने-देने का उपक्रम, घोटाले के समाचारों की कमी, रसूखदार गुनहगारों का जमानत पर रिहा होना, समान अपराध के गिरफ्तार अन्य को जमानत न मिलना, सत्तासीनों के कदम अंगद के पैर की तरह जम जाना, समाचार माध्यमों से व्यापम ही नहीं छात्रवृत्ति और अन्य घोटालों की खबरों का विलोपित हो जाना, पुस्तक हाथ में लिए मैं कोशिश कर रहा हूँ किन्तु समझ नहीं पा रहा हूँ समानता, मौलिक अधिकारों और लोककल्याणकारी गणतांत्रिक गणराज्य का अर्थ।
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हमने बच्चे को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिहार के छोटे से कसबे से बेंगलोर जैसे शहर में आया। इतने साल पढ़ाई की। इतनी अच्छी कंपनी में इतने अच्छे वेतन पर है, देश-विदेश घूमता है। गाँव में खेती भी हैं और यहाँ भी पिलोट ले लिया है। कितनी ज्यादा मँहगाई है, १ करोड़ से कम में क्या बनेगा मकान? बेटी भी है ब्याहने के लिये, बाकी आप खुद समझदार हैं।
आपकी बेटी पढ़ी-लिखी है,सुन्दर है, काम करती है सो तो ठीक है, माँ-बाप पैदा करते हैं तो पढ़ाते-लिखाते भी हैं। इसमें खास क्या है? रूप-रंग तो भगवान का दिया है, इसमें आपने क्या किया? ईनाम - फीनाम का क्या? इनसे ज़िंदगी थोड़े तेर लगती है। इसलिए हमने बबुआ को कुछ नई करने दिया। आप तो समझदार हैं, समझ जायेंगे।
हम तो बाप-दादों का सम्मान करते हैं, जो उन्होंने किया वह सब हम भी करेंगे ही। हमें दहेज़-वहेज नहीं चाहिए पर अपनी बेटी को आप दो कपड़ों में तो नहीं भेज सकते? आप दोनों कमाते हैं, कोई कमी नहीं है आपको, माँ-बाप जो कुछ जोड़ते हैं बच्चियों के ही तो काम आता है। इसका चचेरा भाई बाबू है ब्याह में बहुरिया कर और मकान लाई है। बाकी तो आप समझदार हैं।
जी, लड़का क्या बोलेगा? उसका क्या ये लड़की दिखाई तो इसे पसंद कर लिया, कल दूसरी दिखाएंगे तो उसे पसंद कर लेगा। आई. आई. टी. से एम. टेक. किया है,इंटर्नेशनल कंपनी में टॉप पोस्ट पे है तो क्या हुआ? बाप तो हमई हैं न। ये क्या कहते हैं दहेज़ के तो हम सख्त खिलाफ हैं। आप जो हबी करेंगे बेटी के लिए ही तो करेंगे अब बेटी नन्द की शादी में मिला सामान देगई तो हम कैसे रोकेंगे? नन्द तो उसकी बहिन जैसी ही होगी न? घर में एक का सामान दूसरे के काम आ ही जाता है। बाकि तो आप खुद समझदार हैं।
मैं तो बहुत कोशिश करने पर भी नहीं समझ सका, आप समझें हों तो बताइये समझदार होने का अर्थ।
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बेटी ने माँ को बताया की उसकी कक्षा में एक लड़की होशियार है लेकिन किताब न लाने के कारण उसे रोज डाँट पड़ती है। उसके पिता रिक्शा चलाते हैं।
अगले दिन स्कूल जाते समय माँ ने बेटी को एक पैकेट दिया कि उस लड़की के लिये है, दे देना। लड़की स्कूल से लौटी तो माँ से पूछा कि बिना माँगे, अपने पैसे खर्च कर पढ़ाई का सामान क्यों भिजवाया?
माँ बोली: 'तुम खाना खा रही हो और एक चिड़िया भूख से मर रही हो तो देखती रहोगी?'
' नहीं, उसको थोड़ा खाना-पानी दे दूँगी, वह खा-पीकर फुर्र से उड़ जाएगी। दाना लेकर घर जाएगी तो उसके बच्चे कित्ते खुश होंगे'
'यही तो, तुम्हारी सहेली घर जाकर पढ़ेगी, अच्छी नंबर लाएगी तो वह और उसके घर के सब लोग खुश होंगे, तुमको दुआ देंगे, तभी तो मनेगा उत्सव।'
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- आपका राज्य पिछले वर्षों में बहुत पिछड़ गया है आप अमुक दल की सरकार बनाइये और अपने राज्य को उन्नत राज्यों में सम्मिलित करिये।
- आपका प्रान्त अब तक आगे नहीं बढ़ सका, इसके कसूरवार वे हैं जो खुद को सम्पूर्ण क्रांति का मसीहा कहते रहे किन्तु सरकार बनाने के बाद ऐसे कारनामे किये की माननीय न्यायालय ने उनके चुनाव लड़ने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया। हमारी पार्टी को मत दें।
- आपका प्रदेश बेरोजगारी का शिकार है, दोषी कौन? वे जो केंद्र में बैठे हैं और आपके प्रदेश के लिए कुछ नहीं करते। हमारे गठबंधन को जिताइए।
मेज पर फैले हैं अखबार और उनमें छपे हैं नेताओं के बयान। एक भी बयान ऐसा नहीं मिला जो कहता हो 'आपके पिछड़ेपन के लिये जिम्मेदार आप खुद हैं। जब तक मेहनत नहीं करेंगे, कुरीतियाँ नहीं छोड़ेंगे, बच्चों को नहीं पढ़ायेंगे, दहेज़ लेना बंद नहीं करेंगे, कानून का पालन नहीं करेंगे आगे नहीं बढ़ सकेंगे। किसी भी दल को चुनें, कोई नेता और कोई दल आपको आगे नहीं बढ़ा सकता। आपको कोई आगे बढ़ा सकता है तो वह हैं आप खुद। उठिए, जागिये और लक्ष्य पाइए। जो आपको भीख में अधिकार और उन्नति देने की बात करते हैं वे जनप्रतिनिधि नहीं हो सकते क्यों की वे हैं सपनों के सौदागर और शब्दों का मायाजाल रचनेवाले बाजीगर।
२२-१०-२०१५
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दर्पण में मैया की छवि झलक रही थी, सुनाई दे रहा था देवी गीत 'छूम छूम छन नन बाजे मैया पाँव
पैंजनिया' उनका मन लीन होता गया गीत में और पहुँच गया बचपन में.… गाँव का मंदिर, नौ दुर्गा पर्व, कन्या
भोज, विसर्जन जुलुस, दशहरा मेला आदि. सवेरे से पोती को सम्हालती-खिलाती बूढ़ी काया थक गयी थी. बहू
दफ्तर से लौटी तो बच्ची माँ की गोद में जाने के लिये मचलने लगी पर वे सम्हाले रहीं कि दिन भर की
थकी-हारी घर लौटी है तरोताजा हो ले, तब बच्ची दें। अब राहत मिली तो देह पिराने लगी थी जोर से, अपने
हाथों से मालिश करनी चाही तो हँसी और झुँझलाहट दोनों हो आई, हाथों में दम ही नहीं रह गया था।
'तड़ाक' तमाचे और रोने की आवाज़ से उनींदापन दूर होते देर न लगी। 'ये आलता कहाँ से लगा लाई? कितनी
बार मना किया है, यह गँवारियत नहीं करने के लिये।' उठने को हुईं कि बहू को समझा दें कि यह तो देवी का
कृपा-प्रसाद है पर कुछ सोचकर रुक गईं। सामने देवी से क्षमा माँगने हाथ जोड़े तो देखा न जाने कब काँच
चटक गया था और उसमें खंडित दिख रहा था उनका अपना प्रतिबिम्ब।
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