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शनिवार, 6 जुलाई 2024

जुलाई ६, शहर, नवगीत, गुरु, शीला पांडे, धर्म, ज्योति, अर्चन, मतदान, वर्षा मंगल, नवगीत



सलिल सृजन जुलाई ६

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लेख
वर्षा मंगल
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भारतीय जन मानस उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ तरह तरह के पर्व मनाये जाते हैं। वर्षा ऋतु ग्रीष्म से तप्त धरा, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और मानवों को सलिल बिंदुओं के साथ जीवन्मृत प्रदान कर उनमें नव चेतना का संचार करती है। लोक मानस झूम कर गाने-नाचने लगता है। चौपालों पर आल्हा, कजरी, सावन गीत, रास आदि सुनाई देने लगते हैं। धरती कर सर्वत्र नवांकुरों का हरित-पीत सौंदर्य बिखर जाता है। बेलें हुमसकर वृक्षों से लिपटकर बढ़ चलती हैं। आसमान पर गरजते मेघ, तड़कती बिजली भय हुए हर्ष की मिली-जुली भावनाओं का संचार करती है। बरसाती जलधार धरा को तृप्त कर आप भी तृप्त होती है। सुखी सलिलाएँ मदमाती नारी के तरह किनारे तोड़कर बहने लगती हैं।
ऋग्वेद के पाँचवे मंडल के ८३वें सूक्त की प्रथम ऋचा में उस वैदिक बलवान, दानवीर, भीम गर्जना करनेवाले पर्जन्य देवता की स्तुति की गई है- जो वृषभ के समान निर्भीक है और पृथ्वीतल की औषधियों में बीजारोपण करके नवजीवन के आगमन की सूचना देते हैं। यहाँ पर्जन्य "पृष' (जह सींचना) धातु में "अन्य' प्रत्यय लगाने से और ष को ज या य से विस्थापित करने से बना है। धारणा कि पर्जन्य देवता यानि मानसून के मेघ बरस कर धरती को जल से परिपूरित कर प्रकृति में नवजीवन की सृष्टि करते हैं। पर्जन्य देवता गर्जना करने वाले वृषभ हैं। संस्कृत भाषा में "वृष' का अर्थ भी सींचना है और इसी धातु से वृषभ, वृषण, वृष्टि, वर्षण, वर्षा और वर्ष आदि शब्द बने हैं।महाभारत में अपने देश को भारतवर्ष कहा गया है, कृष्ण अर्जुन को 'भारत' कहते हैं। भारत के पूर्वोत्तर भाग में स्थित मेघालय के अंतर्गत पूर्वी खासी पहाड़ी में मौसिनराम नामक एक गाँव में विश्व में सर्वाधिक वर्षा होती है। भारतवर्ष नामकरण का अन्य कारण कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था का वर्षा पर आश्रित होना है।
भारतीय जनमानस को प्रतिबिंबित करता भारतीय साहित्य भी वर्षा ऋतु की नैसर्गिक सुषमा से परिपूर्ण है। संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि और कवियों में श्रेष्ठ कालिदास ने तो वर्षा का जैसा बखान किया है, वह विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। वाल्मीकि कृत रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के २८ वें सर्ग में राम वर्षा की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहते हैं, "वर्षाकाल आ पहुँचा। देखो, पर्वत के समान बड़े-बड़े मेघों के समूह से आकाश आच्छादित हो गया है। आकाश सूर्य की किरणों के माध्यम से समुद्र के जल को खींचकर और नौ मास (मध्य आश्विन से मध्य ज्येष्ठ तक) तक गर्भ धारण कर, अब वृष्टि रूपी रसायन को उत्पन्न कर रहा है। इस समय इन मेघ रूपी सीढ़ियों से आकाश में पहुँचकर, कौरेया और अर्जुन के फूलों के हार सी दिखने वाली मेघमालाओं से सूर्य बिम्ब स्थित अलंकार प्रिय नारायण शोभा पा रहे हैं।'
पहाड़ों की ढलानों पर उतरते हुए मेघों को देखकर कवि मुग्ध हो कह उठते हैं, "इन पहाड़ों ने जिनकी कन्दरा रूपी मुखों में हवा भरी हुई है, जो मेघ रूपी काले मृगचर्म और वर्षा की धारा रूपी यज्ञोपवीत धारण किये हुए हैं, मानो वेदोच्चारण करना आरम्भ कर दिया है।' ध्यातव्य है कि प्राचीन काल में राजा, सैनिक, व्यापारी, गृहस्थ, ब्रााहृण और साधु-संत अपनी यात्रायें स्थगित कर देते थे और इस चातुर्मास की अवधि को वेद अध्ययन के लिए उपयुक्त माना जाता था, साथ ही चातुर्मास के आरम्भ से ही वर्षा का आरंभ मान्य था। कवि ने वर्षा काल में नदियों के कलकल निनाद, झरनों के झर-झर, मेढकों के टर्र-टर्र, झींगुरों के झिर-झिर और वनों, उपवनों की सुंदरता तथा पशु-पक्षियों के क्रीड़ा-किल्लोल का अद्भुत चित्रण किया है। कवि कुछ किंवदन्तियों का भी जिक्र करते हैं, यथा राजहंस नीर-क्षीर विवेकी होते हैं, अतएव वे बरसात के गंदले जल को छोड़ इस ऋतु में हिमालय स्थित मानसरोवर को प्रस्थान कर जाते हैं।
प्रवासी चिड़िया चातक /पपीहा की खासियत यह है कि यह मानसून (अरबी मूल व-स-म, चिह्न से बने शब्द मौसम से) के आगमन से कुछ पहले मई-जून में अफ्रीका से उड़ती हुई भारतीय प्रायद्वीप आ जाती है। इसे वर्षा के आगमन का पूर्व दूत माना जाता है। इसके नर "पियु पियु' की आवाज निकालते हैं, जिसे लोग "पिय आया, पिय आया' का संदेश समझते हैं। संस्कृत में चातक की व्युत्पत्ति -भीख माँगना और प्रत्यय है। किंवदन्ती है कि चातक मात्र वर्षा जल ही पीते हैं, अतएव ये गगन की ओर टकटकी लगाकर मेघों से वर्षा जल की भीख माँगते हैं। वर्षा ऋतु का एक पर्यायवाची शब्द चातकानंदन यानि चातक आनंदन (चातक को आनंद देने वाली ऋतु) भी है। वर्षा काल की समाप्ति के उपरान्त अक्टूबर-नवम्बर तक ये पक्षी लौटते मानसून के साथ पुनः अरब सागर होते हुए वापस अफ्रीका चले जाते हैं, ठीक वैसे जैसे परदेशी बलम चातुर्मास बीतने के बाद अपनी प्रियतमा को छोड़ वापस काम पर लौट जाया करते थे।
क्या पावस (प्रवृष) ऋतु का यह शब्दचित्र अन्यत्र सम्भव है? इसका उत्तर कविकुल शिरोमणि तुलसीदास कृत रामचरितमानस के वर्षा-वर्णन में हिंदी की लोकभाषा अवधी में रामकथा कहकर तुलसी वाल्मीकि से भी ज़्यादा जन-जन में ख्याति पाते हैं।
संस्कृत कवियों में श्रेष्ठ कालिदास रचित 'मेघदूतम्' विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर है। इसमें अलकापुरी से भटके, शापग्रस्त यक्ष द्वारा मेघों को दूत मानकर अपनी प्रिया यक्षिणी तक विरह-वेदना और प्रेम सन्देश भेज देने का निवेदन है। कहते हैं कि कालिदास ही वह यक्ष थे, जो उज्जैन से कश्मीर तक अपनी प्रियतमा को मेघों से संदेश भेजना चाहते थे। आधुनिक हिंदी साहित्य के पहले नाटक "आषाढ़ का पहला दिन' में मोहन राकेश ने इसी विषय को उठाया है। इस नाटक पर आधारित कई फिल्में भी बन चुकी हैं। कालिदास से इतर सोच रखने वाले आधुनिक कवि श्रीकांत वर्मा का अंतर्द्व्न्द कविता 'भटका मेघ' में है।
भारतीय साहित्य ही नहीं मुगलकालीन चित्रों और भारतीय संगीत भी वर्षा-मंगल या वर्षा-उमंग से परिपूर्ण है। संगीत में राग मल्हार से जुड़े अनेक मिथक हैं और आम धारणा है कि यह राग ग्रीष्म ऋतु के मल को हर लेता है और मेघ-वर्षण का माहौल बनाता है। किंतु कम लोगों को यह पता है कि मालाबार केरल राज्य मे अवस्थित पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिम तट के समानांतर एक संकीर्ण तटवर्ती क्षेत्र है। मलयालम में माला का अर्थ है - पर्वत और वारम् का अर्थ है- क्षेत्र। कालांतर में मालाबार से दक्षिण भारत के पूरे चन्दन वन क्षेत्र को जाना जाने लगा। संस्कृत में मलयज का अर्थ - चन्दन से जन्मा है। संस्कृत और हिंदी साहित्य में मलय पवन या मलय मरुत् का जन्म स्थान भारत का यही दक्षिण पश्चिमी तट है, जहाँ गर्मियों के बाद अरब सागर से मानसून पवन दस्तक देता है और फिर पूरे भारत में वर्षा होती है। यह मलय पवन ही सम्भवतः मॉनसून विंड है, जिसकी चर्चा मलयानिल के नाम से काव्यों में है।
बंकिम बाबू "वन्दे मातरम्' में भारत भूमि को "मलयज शीतलाम् शस्य श्यामलाम्' कहते हैं, जिसका साधारण अर्थ - चन्दन सी शीतल और धान के श्यामल रंग से सुशोभित है; किन्तु इसका व्यापक अर्थ है - मलय पवन की वर्षा से ग्रीष्म ऋतु को शीतलता देती, धान्य सम्पन्न धरती। भारतीय संगीत का मल्हार राग वस्तुतः मलय पवन को हरने वाला, आहरित करने वाला राग है। जिस तरह राग दीपक में वातावरण में ऊष्मा का आभास कराने का सामर्थ्य है, उसी तरह मल्हार में वर्षा ऋतु का माहौल पैदा किया जाता है। राग मल्हार समेत उपशास्त्रीय संगीत की वर्षाकालीन विधा कजरी (कद् जल या काजल जैसे मेघ का संगीत) है। भारत में वर्षा काल ज्येष्ठ से शुरू होकर भादों तक चलता है। ज्येष्ठ ज्या (पृथ्वी) के तपन की शुरुआत है। आषाढ़ असह्र गर्मी का द्योतक है। श्रावण में प्रकृति के स्वरों का श्रवण होता है और भाद्रपद में घर-आँगन समेत पूरा बिखरे मेघों वाला आकाश ऐसा दिखता है, मानो किसी गाय (भद्रा) ने अपने खुर (पाद) से रौंद दिया हो। हमारे प्रवासी मित्र परदेस में वर्षा ऋतु का आनन्द-उत्सव कैसे मनाते हैं, इसे हमने ख़ास तौर पर जानने का प्रयास किया है। वर्षा ऋतु भारत के लिए सर्वतोभद्र है। यह महीनों रेगिस्तान की गर्मी में सफर कर रहे क्लांत पथिक को नदी का किनारा मिलने जैसा है। यह सुखद संयोग है कि इस वर्ष मौसम वैज्ञानिकों ने औसत से ज़्यादा वर्षा होने की भविष्यवाणी की है। इससे हमारे कृषकों को लाभ पहुँचे और हमारी अर्थव्यवस्था मज़बूत हो।
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सॉनेट
मतदान
*
मत दान कर, मतदान कर
शुभ का सदा गुणगान कर
श्रम-साधना वरदान कर
विद्वान का सम्मान कर
जो हो रहा, वह देख-सुन
क्या उचित-अनुचित मौन गुन
सपने नए दिन-रात बुन
साकार करने एक चुन
वर लक्ष्य, शर-संधान कर
रख देह अपनी तानकर
हो दृष्टि स्थिर, संकल्प दृढ़
हँस कोशिशों का मानकर
कह बात हर रस-खान कर
रस-लीन हो, सज जानकर
६-७-२०२२
•••
सॉनेट
अर्चन
*
अर्चन कर पाऊँ शिव तेरा
अर्पण कर रस-छंद गीत कुछ
नर्तन काव्य कामिनी का हो
अर्जन हो यश-कीर्ति का तनिक
श्वासों से सध सके तरन्नुम
आसें में अदायगी उसकी
त्रासों-हासों का दाता जो
रासें बनें बंदगी उसकी
ज्यों की त्यों चादर धर पाएँ
अंतिम पल प्रभु रहें ध्यान में
तब तक सत् शिव सुंदर गाएँ
चारण बनकर ईश-शान में
शिव तुझ बिन सब कुछ केवल शव
शिवा कर कृपा, छूट सके भव
६-७-२०२२
•••
पुस्तक चर्चा:
'ऐसा भी होता है' गीत मन भिगोता है
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय: ऐसा भी होता है, गीत संग्रह, शिव कुमार 'अर्चन', वर्ष २०१७, आईएसबीएन ९७८-९३-९२२१२- ८९-५, आकार २१ से.मी.x १४ से.मी., आवारण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य ७५/-, पहले पहल प्रकाशन, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल, ९८२६८३७३३५, गीतकार संपर्क: १० प्रियदर्शिनी ऋषि वैली, ई ८ गुलमोहर विस्तार, भोपाल, ९४२५१३७१८७४]
*
सौंदर्य की नदी नर्मदा अपने अविरल-निर्मल प्रवाह के लिए विश्व प्रसिद्ध है। आदिकाल से कलकल निनादिनी के तट पर शब्द-साधना और शब्द-साधकों की अविच्छिन्न परंपरा रही है। इस परंपरा को वर्तमान समय में आगे बढ़ाने में महती भूमिका का निर्वहन के प्रति सचेष्ट सरस्वती-सुतों में शिवकुमार 'अर्चन' का नाम उल्लेखनीय है। शिवकुमार गीत और ग़ज़ल दोनों विधाओं में दखल रखते हैं। विवेच्य कृति के पूर्व दो कृतियों ग़ज़ल क्या कहे कोई २००७ तथा गीत संग्रह उत्तर की तलाश २०१३ के माध्यम से हिंदी जगत ने अर्चन के कृतित्व में अंतर्निहित बाँकी बिम्बात्मकता और मौलिक कहन के गंगो-जमुनी संगम का आनंद लिया है।
अर्चन के गीत आम आदमी के दर्द-दुःख, जीवन के उतार-चढ़ाव, मौसम की धूप-छाँव और संघर्ष-सफलता के बीच में से उभरते हैं। अर्चन आकाश कुसुम की तरह काल्पनिक कमनीयता, दिवास्वप्न की तरह वायवी आदर्शवादिता, कृत्रिम क्रंदन के कोलाहल, ऐ.सी. में बैठकर नकली अभावों की प्रदर्शनी लगाने, अथवा गले तक ठूस कर भोग लगाने के बाद भुखमरी को शोकेस में सजानेवाले शब्द-बाजीगरों से सर्वथा अलग शिष्ट-शांत, मर्यादित तरीके और सलीके से अपनी बात सामने रखने में दक्ष हैं।
प्रेम और श्रृंगार अर्चन के प्रिय विषय है किन्तु सात्विकता के पथिक होने के नाते वे प्रदर्शनप्रियता, प्रगल्भता और अश्लीलता का स्पर्श भी नहीं करते। साहित्यिक गोष्ठियों, काव्य मंचों, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपने गीतों और ग़ज़लों के माधुर्य के लिए अर्चन जाने जाते हैं। सात्विक श्रृंगार की एक बानगी 'फूल पारिजात के' गीत से-
आँखों में उग आये / फूल पारिजात के
ऐसे अनुदान हुए / भीगी बरसात के
साँसों पर टहल रहीं / अनछुई सुगन्धियाँ
राजमार्ग जीती हैं / सूनी पगडंडियाँ
तितली के पंखों पर / हैं निबंध रात के
कविता का उत्स पीड़ा से सर्व मान्य है। भारतीय वांग्मय में मिथुनरत क्रौंच युगल पर व्याध के शर-प्रहार से नर का प्राणांत होने पर व्याकुल क्रौंची के आर्तनाद को काव्य का उद्गम कहा गया है तो अरब में हिरन शावक के वध पश्चात हिरनी के आर्तनाद को ग़ज़ल का मूल बताया गया है। पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ''Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.'' गीतकार शैलेन्द्र कहते हैं- ''हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'' अर्चन का अनुभव इनसे जुदा न होते हुए भी जुदा है। जुदा इसलिए नहीं कि अर्चन भी छंद का उत्स दर्द से मानते हैं, जुदा इसलिए कि यह दर्द मृत्युजनित नहीं, प्रेमजनित है।
जो ऐसे अनुबंध न होते / दर्द हमारे छंद न होते
अगर न पीड़ाओं को गाते / तो शायद कब के मर जाते
और
जब-जब हमने गीत उठाया / दौड़ा, दौड़ा आँसू आया
अर्चन गीत और नवगीत को एक शाख पर खिले दो फूलों की तरह देखते हैं। उन्हें गीत-नवगीत में भारत-पकिस्तान की तरह अनुल्लंघ्य सीमारेखा कहीं नहीं दिखती। इसलिए वे दोनों को साथ-साथ रचते, गुनगुनाते, गाते है नहीं छपाते भी रहे हैं। अर्चन के नवगीत 'अभाव' को सहजता से सहकर 'भाव' की भव्यता को जीते भारतीय मानस के आत्मानंद को अभिव्यक्त करते हैं। वे सहज सुलभ सुविधा से रहते हुए आडम्बरी असुविधा को शब्दों में गूँथने का पाखंड नहीं करते। संभवत: इसीलिये साम्यवादी विचारधारा समर्थक आलोचक अर्चन के नवगीतों में सामाजिक विघटन परक विसंगति-विडम्बना और ओढ़े हुए दर्द-अन्याय के भाव में उन्हें नवगीत कहते झिझकते हैं। अर्चन ने नवगीत को उत्सवधर्मी भावमुद्रा दी है। एक झलक 'धरती मैया' शीर्षक नवगीत से- जय-जय धरती मैया रे / चल-चल-चल हल भैया रे!
गीत उगायें माटी में / गीतों के राम रखैया रे!
झम्मर-झम्मर बदरा बरसे / महकी क्यारी-क्यारी...
... धरती के पृष्ठों पर लिख दें / श्रम की नयी कहानी...
... अमृत बाँटा, ज़हर पी लिया / श्रम इस तरह जिया है
धरती पलना, डूब बिछौना / अम्बर ओढ़ लिया है
जिन्हें नहीं है श्रम से मतलब खाएं दूध मलैया रे!
यह नवगीत लोकगीत, जनगीत और पारंपरिक गीत तीनों में गिना जा सकता है। यह गीत अर्चन की समरसतापरक सोच की बानगी प्रस्तुत करता है।
'संध्या' शीर्षक नवगीत में ताम के हाथों तमाचा खाकर शंकाओं को जनम देने वाला उजियारा हो या प्रश्न चिन्ह लिए लौट रहा श्रम अथवा सौतन रात के कहर से रोती सूर्यमुखी तीनों का अंत आशा, उल्लास के सूर्य का वंश पालने से होता है। नवगीत के उद्गम के समय चिन्हित किये गए कुछ लक्षणों को पत्थर की लकीर मान रहे तथाकथित प्रगतिवादी खेमे के समीक्षक 'गीत' के मरने की घोषणा कर खुद को कालजयी मानने की मृग मरीचिका से छले जाकर इहलोक से प्रस्थान कर गए किन्तु गीत और छंद अदम्य जिजीविषा के पर्याय बनकर नवपरिवेशानुकूल साज-सज्जा के साथ सर उठाकर खड़े ही नहीं हुए, सृजनाकाश में अपनी पताका भी फहरा रहे हैं। नवगीत की उत्सवधर्मी भावमुद्रा के विकास में अर्चन का योगदान उल्लेखनीय है।
जले-जले, दीपक जले-जले
अँधियारों की गोदी / सूरज के वंश पले
पोखर में डूब गया / सूरज का गोलाअर्चन, सोनेट, mtdan
***
विमर्श
ज्योति
- ज्योति से ज्योति जलाते चलो...
- ज्योति जलेगी तो आलोक फैलेगा, तिमिर मिटेगा।
- ज्योति तब जलेगी जब बाती, स्नेह (तेल) और दीपक होगा।
- बाती बनाने के लिए कपास उगाने, तेल के लिए तिल उगाने और दीप बनाने के लिए अपरिहार्य है माटी।
- माटी ही मिटकर दीप, तेल और बाती में रूपांतरित होती है तथापि इन तीनों से तम नहीं मिटता, आलोक नहीं फैलता।
- माटी का मिटना सार्थक तब होता है जब अग्नि ज्योतित होती है।
- अग्नि बिना पवन के ज्योतित नहीं हो सकती।
- माटी पानी को आत्मसात किए बिना दीपक नहीं बन सकती।
- पानी पाए बिना न तो कपास उत्पन्न हो सकती है न तिल।
- आकाश न हो तो प्रकाश कहाँ फैले?
- माटी, पानी, पवन, आकाश और अग्नि होने पर भी उन्हें रूपांतरित और समन्वित करने के लिए मनुष्य का होना और उद्यम करना जरूरी है।
- उद्यम करने के लिए चाहिए मति या बुद्धि।
- मति रचने की ओर प्रवृत्त तभी होगी जब उसे जग और जीवन में रस हो।
- रसवती मति सरसवती होकर सत-शिव-सुंदर का सृजन करती है और सरस्वती के रूप में सुर, नर, असुर, वानर, किन्नर सबकी पूज्य और आराध्य होती है।
- वह सरस्वती ही विधि (ब्रह्मा), हरि (विष्णु) और हर (महेश) की नियामक है।
- सरस्वती ही त्रिदेवों की आत्मशक्ति के रूप में उन्हें सक्रिय करती है।
- शक्ति का अस्तित्व शक्तिवान को बिना संभव नहीं। यह शक्तिवान निर्गुण है, निराकार है।
- निराकार का चित्र नहीं हो सकता अर्थात चित्र गुप्त है।
- निराकार ही सगुण-साकार होकर सकल सृष्टि में अभिव्यक्त होता है।
- निवृत्ति और प्रवृत्ति का सम्मिलन हुए बिना रचना नहीं होती।
- रचनाकार ही खुद को भाषा, भूषा, लिंग, क्षेत्र, विचारधारा को आधार पर विभाजित कर मठाधीशी करने लगे तो सरस्वती कैसे प्रसन्न हो सकती है?
- विश्वैक नीड़म्, वसुधैव कुटुम्बकम्, अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि और शिवोsहम् की विरासत पाकर भी जीवन में रस का अभाव अनुभव करना विडंबना ही है।
- आइए! रसाराधना कर श्वास-श्वास को रसवती, सरसवती बनाएँ ।
***
***
विमर्श
धर्म
*
- धर्म क्या है?
- धर्म वह जो धारण किया जाए
- क्या धारण किया जाए?
- जो शुभ है
- शुभ क्या है?
- जो सबके लिए हितकारी, कल्याणकारी हो
- हमने जितना जीवन जिया, उसमें जितने कर्म किए, उनमें से कितने सर्वहितकारी हैं और कितने सर्वहितकारी? खुद सोचें गम धार्मिक हैं या अधार्मिक?
- गाँधी से किसी ने पूछा क्या करना उचित है, कैसे पता चले?
- एक ही तरीका है गाँधी' ने कहा। यह देखो कि उस काम को करने से समाज के आखिरी आदमी (सबसे अधिक कमजोर व्यक्ति) का भला हो रहा है या नहीं? गाँधी ने कहा।
- हमारे कितने कामों सो आखिरी आदमी का भला हुआ?
- अपना पेट तो पशु-पक्षी भी भर लेते हैं। परिंदे, चीटी, गिलहरी जैसे कमजोर जीव आपत्काल के लिए बताते भी हैं किंतु ताकतवर शेर, हाथी आदि कभी जोड़ते नहीं। इतना ही नहीं, पेट भरने के बाद खाते भी नहीं, अपने से कमजोर जानवरों के लिए छोड़ देते हैं जिसे खाकर भेजिए, सियार उनका छोड़ा खाकर बाज, चील, अवशिष्ट खाकर इल्ली आदि पाते हैं।
- हम तथाकथित समझदार इंसान इसके सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। खाते कम, जोड़ते अधिक हैं। यहाँ तक कि मरने तक कुछ भी छोड़ते नहीं।
- धार्मिक कौन है? सोचें, फकीर या राजा, साधु या साहूकार?, समय का अधिकारी?
- गम क्या बनना चाहते हैं? धार्मिक या अधार्मिक?
६-७-२०२०
***
दोहा सलिला
प्रात नमन करता अरुण, नित अर्णव के साथ
कहे सत्य सारांश में, जिओ उठाकर माथ
जिओ उठाकर माथ, हाथ यदि थाम चलोगे
पाओगे आलोक, धन्य अखिलेश कहोगे
रमन अनिल में करो, विजय तब मिल पाएगी
श्रीधर दिव्य ज्योत्सना मुकुलित जय गाएगी
मीनाक्षी सपना चंदा नर्मदा नहाएँ
तारे हो संजीव, सलिल में भव तर जाएँ
शिव शंकर डमडम डिमडिम डमरू गुंजाएँ
शिवा गजानन कार्तिक से मन छंद लिखाएँ
जगवाणी हिंदी दस दिश हो सके प्रतिष्ठित
संग बोलियाँ-भाषाएँ सब रहें अधिष्ठित
कर उपासना सतत साधना सद्भावों की
होली जला सकें हम मिलकर अलगावों की
६-७-२०
***
पर्यावरण गीत
पौधा पेड़ बनाओ
*
काटे वृक्ष, पहाडी खोदी, खो दी है हरियाली.
बदरी चली गयी बिन बरसे, जैसे गगरी खाली.
*
खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
*
किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता है, विकास क्यों क्रीड़ा?
*
कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
*
नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
*
पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
*
अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
*
पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
*
मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
***
६.७.२०१८
दो कवि रचना एक:
*
शीला पांडे:
झूठ मूठ की कांकर सांची गागर फोड़ गयी
प्रेम प्रीत की प्याली चटकी घायल छोड़ गयी
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
लिए आस-विश्वास फेविक्विक आँख लगाती है
झुकी पलक संबंधों का नव सेतु बनाती है.
६-७-२०१८
***
मुक्तक:
*
भारती की आरती है शुभ प्रभात
स्वच्छता ही तारती है शुभ प्रभात
हरियाली चूनर भू माँ को दो-
मैया मनुहारती है शुभ प्रभात
*
झुक बुजुर्ग से आशिष लेना शुभ प्रभात है
छंदों में नव भाव पिरोना शुभ प्रभात है
आशा की नव फसलें बोना शुभ प्रभात है
कोशिश कर अवसर ना खोना शुभ प्रभात है
*
गरज-बरसकर मेघ, कह रहे शुभ प्रभात है
योग भगाए रोग करें, कह शुभ प्रभात है
लगा-बचाकर पौध, कहें हँस शुभ प्रभात है
स्वाध्याय कर, रचें नया कुछ शुभ प्रभात है
***
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
*
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रुकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मनभाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
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मुक्तक:
*
गरज-बरसकर मेघ, कह रहे शुभ प्रभात है
योग भगाए रोग करें, कह शुभ प्रभात है
लगा-बचाकर पौध कहें हँस शुभ प्रभात है
स्वाध्याय कर, रचें नया कुछ शुभ प्रभात है
६-७-२०१७
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गुरु महिमा
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जीवन के गुर सिखाकर, गुरु करता है पूर्ण
शिष्य बिना गुरु,शुरू बिना रहता शिष्य अपूर्ण
*
गुरु उसको ही जानिए, जो दे ज्ञान-प्रकाश
आशाओं के विहग को, पंख दिशा आकाश
*
नारायण-आनंद का, माध्यम कर्म अकाम
ब्रम्हा-विष्णु-महेश ही, कर्मदेव के नाम
*
गुरु को अर्पित कीजिये, अपने सारे दोष
लोहे को सोना करें, गुरु पाये संतोष
*
गुरु न गूढ़, होता सरल, क्षमा करे अपराध
अहंकार-खग मारता, ज्यों निष्कंपित व्याध
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गीत
शहर
*
मेरा शहर
न अब मेरा है,
गली न मेरी
रही गली है।
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अपनेपन की माटी गायब,
चमकदार टाइल्स सजी है।
श्वान-काक-गौ तकें, न रोटी
मृत गौरैया प्यास लजी है।
सेव-जलेबी-दोने कहीं न,
कुल्हड़-चुस्की-चाय नदारद।
खुद को अफसर कहता नायब,
छुटभैया तन करे अदावत।
अपनेपन को
दे तिलांजलि,
राजनीति विष-
बेल पली है।
*
अब रौताइन रही न काकी,
घूँघट-लज्जा रही न बाकी।
उघड़ी ज्यादा, ढकी देह कम
गली-गली मधुशाला-साकी।
डिग्री ऊँची न्यून ज्ञान, तम
खर्च रूपया आय चवन्नी।
जन की चिंता नहीं राज को
रूपया रो हो गया अधन्नी।
'लिव इन' में
घायल हो नाते
तोड़ रहे दम
चला-चली है।
*
चाट चाट, खाना ख़राब है
देर रात सो, उठें दुपहरी।
भाई भाई की पीठ में छुरा
भोंक जा रहा रोज कचहरी।
गूँगे भजन, अजानें बहरी
तीन तलाक पड़ रहे भारी।
नाते नित्य हलाल हो रहे
नियति नीति-नियतों से हारी।
लोभतंत्र ने
लोकतंत्र की
छाती पर चढ़
दाल दली है।
६-७-२०१६
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मुक्तक:
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त्रासदी ही त्रासदी है इस सदी में
लुप्त नेकी हो रही है क्यों बदी में
नहीं पानी रहा बाकी आँख तक में
रेत-कंकर रह गए बाकी नदी में
*
पुस्तकें हैं मीत मेरी
हार मेरी जीत मेरी
इन्हीं में सुख दुःख बसे हैं
है इन्हीं में प्रीत मेरी
६-७-२०१५
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