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बुधवार, 3 जुलाई 2024

जुलाई ३, मुक्तक, दोहे, नीबू, दोहा-हाइकु गीत,प्रेम, सड़गोड़ासनी

सलिल सृजन जुलाई ३
*
मुक्तक
आँख मिलाने से न मिलें दिल
नैन लड़ाने से न चुकें बिल.
दीद नटेरे बात बिगड़ती-
कहते लज दृग हृदय गए खिल।।
*
बचकर रहिए आँख मिलाने से
नेह न मिलता भय फैलाने से।
घटे समर्थन तो मानो है हार-
देश न चलता आँख दिखाने से।।
*
खुल नहिं जाए राज आँख मिलाने से सच मत कहिए
खो नहीं जाए लाज आँख मिलाने से बच कर रहिए।
बिन कारण उद्देश्य आँख मिलाने से कमजोर न हों-
फिसल न जाए ताज आँख मिलाने से ढेराज गहिए।।
३.७.२०२४
***
दोहे का रंग नीबू के संग :
संजीव
*
वात-पित्त-कफ दोष का, नीबू करता अंत
शक्ति बढ़ाता बदन की, सेवन करिये कंत
*
ए बी सी त्रय विटामिन, लौह वसा कार्बोज
फॉस्फोरस पोटेशियम, सेवन से दें ओज
*
मैग्निशियम प्रोटीन सँग, सोडियम तांबा प्राप्य
साथ मिले क्लोरीन भी, दे यौवन दुष्प्राप्य
*
नेत्र ज्योति की वृद्धि कर, करे अस्थि मजबूत
कब्ज मिटा, खाया-पचा, दे सुख-ख़ुशी अकूत
*
जल-नीबू-रस नमक लें, सुबह-शाम यदि छान
राहत दे गर्मियों में, फूँक जान में जान
*
नींबू-बीज न खाइये, करे बहुत नुकसान
भोजन में मत निचोड़ें, बाद करें रस-पान
*
कब्ज अपच उल्टियों से, लेता शीघ्र उबार
नीबू-सेंधा नमक सँग, अदरक है उपचार
*
नींबू अजवाइन शहद, चूना-जल लें साथ
वमन-दस्त में लाभ हो, हँसें उठकर माथ
*
जी मिचलाये जब कभी, तनिक न हों बेहाल
नीबू रस-पानी-शहद, आप पियें तत्काल
*
नींबू-रस सेंधा नमक, गंधक सोंठ समान
मिली गोलियाँ चूसिये, सुबह-शाम गुणवान
*
नींबू रस-पानी गरम, अम्ल पित्त कर दूर
हरता उदर विकार हर, नियमित पियें हुज़ूर
*
आधा सीसी दर्द से, परेशान-बेचैन
नींबू रस जा नाक में, देता पल में चैन
*
चार माह के गर्भ पर, करें शिकंजी पान
दिल-धड़कन नियमित रहे, प्रसव बने आसान
*
कृष्णा तुलसी पात ले, पाँच- चबायें खूब
नींबू-रस पी भगा दें, फ्लू को सुख में डूब
*
पियें शिकंजी, घाव पर, मलिए नींबू रीत
लाभ एक्जिमा में मिले, चर्म नर्म हो मीत
*
कान दर्द हो कान में, नींबू-अदरक अर्क
डाल साफ़ करिये मिले, शीघ्र आपको फर्क
*
नींबू-छिलका सुख कर, पीस फर्श पर डाल
दूर भगा दें तिलचटे, गंध करे खुशहाल
*
नीबू-छिलके जलाकर, गंधक दें यदि डाल
खटमल सेना नष्ट हो, खुद ही खुद तत्काल
*
पीत संखिया लौंग संग, बड़ी इलायची कूट
नींबू-रस मलहम लगा, करें कुष्ठ को हूट
*
नींबू-रस हल्दी मिला, उबटन मल कर स्नान
नर्म मखमली त्वचा पा, करे रूपसी मान
*
मिला नारियल-तेल में, नींबू-रस नित आध
मलें धूप में बदन पर, मिटे खाज की व्याध
*
खूनी दस्त अगर लगे, घोलें दूध-अफीम
नींबू-रस सँग मिला पी, सोयें बिना हकीम
*
बवासीर खूनी दुखद, करें दुग्ध का पान
नींबू-रस सँग-सँग पियें, बूँद-बूँद मतिमान
*
नींबू-रस जल मिला-पी, करें नित्य व्यायाम
क्रमश: गठिया दूर हो, पायेंगे आराम
*
गला बैठ जाए- करें, पानी हल्का गर्म
नींबू-अर्क नमक मिला, कुल्ला करना धर्म
*
लहसुन-नींबू रस मिला, सिर पर मल कर स्नान
मुक्त जुओं से हो सकें, महिलायें अम्लान
*
नींबू-एरंड बीज सम, पीस चाटिये रात
अधिक गर्भ संभावना, होती मानें बात
*
प्याज काट नीबू-नमक, डाल खाइये रोज
गर्मी में हो ताजगी, बढ़े देह का ओज
*
काली मिर्च-नमक मिली, पियें शिकंजी आप
मिट जाएँगी घमौरियाँ, लगे न गर्मी शाप
*
चेहरे पर नींबू मलें, फिर धो रखिये शांति
दाग मिटें आभा बढ़े, अम्ल-विमल हो कांति
***

अभिनव प्रयोग
दोहा-हाइकु गीत
प्रतिभाओं की कमी नहीं...
संजीव 'सलिल'
**
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
धूप-छाँव का खेल है
खेल सके तो खेल.
हँसना-रोना-विवशता
मन बेमन से झेल.

दीपक जले उजास हित,
नीचे हो अंधेर.
ऊपरवाले को 'सलिल'
हाथ जोड़कर टेर.

उसके बिन तेरा नहीं
कोई कहीं अस्तित्व.
तेरे बिन उसका कहाँ
किंचित बोल प्रभुत्व?

क्षमताओं की
कमी नहीं किंचित
समताओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
पेट दिया दाना नहीं.
कैसा तू नादान?
'आ, मुझ सँग अब माँग ले-
भिक्षा तू भगवान'.

मुट्ठी भर तंदुल दिए,
भूखा सोया रात.
लड्डूवालों को मिली-
सत्ता की सौगात.

मत कहना मतदान कर,
ओ रे माखनचोर.
शीश हमारे कुछ नहीं.
तेरे सिर पर मोर.

उपमाओं की
कमी नहीं किंचित
रचनाओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
***
गीत:
प्रेम कविता...
संजीव 'सलिल'
*
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?

***
मुक्तिका
तू है शांत, चंचल है सलिल
तू गगन है, ये अबाबील है
तू प्रताप है जो न हारता
दुख पैरों पड़ा ज्यों भील है
तू रमा रमा में न पर रमा
सलिल तुझको अर्पित खील है
जुबां शीरी तेरी ये कह रही
कहीं और न ऐसा फील' है
तुझे देखकर मुझे यूँ लगा
तू ही कायदा है, तू शील है
मैं शरण में जिसकी हूँ आ गया
तू वो रास्ता है, तू मील है
मैं हूँ देखता जिसे रोज ही
तू ही फिल्म की वह रील है
३.७.२०१९
***

बुंदेली छंद:
सड़गोड़ासनी
शुभ प्रभात
*
सूरज नील गगन से झाँक
शुभ-प्रभात कहता है।
*
उषा-माथ सिंदूरी सूरज
दिप्-दिप्-दिप् दहता है।
*
धूप खेलती आँखमिचौली,
पवन हुलस बहता है।
*
चूँ-चूँ चहक रही गौरैया,
आँगन सुख गहता है।
*
नयनों से नयनों की बतियाँ,
बज कंगन तहता है।
*
नदी-तलैया देख सूखती
घाट विरह सहता है।
*
पत्थर की नगरी में यारों!
सलिल-ह्रदय रहता है।
***
(टीप: सड़गोड़ासनी बुंदेली बोली का छंद है. मुखड़ा १५-१२ मात्रिक, चार मात्रा पश्चात् गुरु-लघु आवश्यक, अंतरा १६-१२,तथा मुखड़ा-अंतरा समतुकांती होते हैं. इस छंद को आधुनिक हिंदी खड़ी बोली में प्रस्तुत करने के इस प्रयास पर पाठकों की राय आमंत्रित है. अन्य देशज बोलिओं के छंद रचना विधान सहित हिंदी में रचे जाएं तो उन्हें अपने 'छंद कोष' में सम्मिलित कर सकूँगा।)
२.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
***
एक द्विपदी:
आदमी है, फ़रिश्ता रश्क करे
काश मैं 'शांत' हो सका होता
***
हास्य मुक्तिका:
*
हाय मल्लिका!, हाय बिपाशा!!
हाउसफुल पिक्चर की आशा
*
तुम बिन बोलीवुड है सूना
तुम हो गरमागरम तमाशा
*
तोला-माशा रूप तुम्हारा
झीने कपड़े रत्ती-माशा
*
फ़िदा खुदा, इंसां, शैतां भी
हाय! हाय!! क्या रूप तराशा?
*
गले लगाने ह्रदय मचलता
आँख खुले तो मिले हताशा
*
मानें हार अप्सरा-हूरें
उर्वशियों को हुई हताशा
*
नहा नीर में आग लगा दो
बूँद-बूँद हो मधुर बताशा
***
मुक्तक
*
ज्योति तम हर, जगत ज्योतित कर रही
आत्म-आहुति पंथ हँस कर वर रही
ज्योति बिन है नयन-अनयन एक से
ज्योति मन-मंदिर में निशि-दिन बर रही
*
ज्योति ईश्वर से मिलाती भक्त को
बचाती ठोकर से कदम अशक्त को
प्राण प्रभु से मिल सके तब ही 'सलिल'
ज्योति में मन जब हुआ अनुरक्त हो
*
ज्योति मन में जले अंधा सूर हो
और मीरा के ह्रदय में नूर हो
ज्योति बिन सूरज, न सूरज सा लगे
चन्द्रमा का गर्व पल में चूर हो
*
ज्योति का आभार सब जग मानता
ज्योति बिन खुद को न कोेेई जानता
ज्योति नयनों में बसे तो जग दिखे
ज्योति-दीपक से अँधेरा हारता
*
षट्पदी
ज्योति में आकर पतंगा जल मरे
दोष क्या है ज्योति का?, वह क्यों डरे?
ज्योति को तूफां बुझा दे तो भी क्या?
आखिरी दम तक तिमिर को वह हरे
इसलिए जग ज्योति का वंदन करे
हुए ज्योतित आप जल, मानव खरे
***
हाइकु
ज्योतिर्मयी है
मानव की चेतना
हो ऊर्ध्वमुखी
*
ज्योति है ऊष्म
सलिल है शीतल
मेल जीवन
*
ज्योति जलती
पवन है बहता
जग दहता
*
ज्योति धरती
बाँटती उजियारा
तम पीकर
*
ज्योति जागती
जगत को सुलाती
आप जलकर
***
मुक्तिका-
*
सवाल तुमने किये सौ बिना रुके यारां
हमने चाहा मगर फिर भी जवाब हो न सके
*
हमें काँटों के बीच बागबां ने ठौर दिया
खिले हम भी मगर गुल-ए-गुलाब हो न सके
*
नसीब बख्श दे फुटपाथ की शहंशाही
किसी के दिल के कभी हम नवाब हो न सके
*
उठाये जाम जमाना मिला, है साकी भी
बहा पसीना 'सलिल' ही शराब हो न सके
*
जमीन पे पैर तो जमाये, कोशिशें भी करीं
मगर अफ़सोस 'सलिल' आफताब हो न सके
***
एक रचना
हर कविता में कुछ अक्षर
रस बरसा जाते आकर
*
कुछ किलकारी भरते हैं
खूब शरारत करते हैं
नन्हे-मुन्ने होकर भी
नहीं किसी से डरते हैं
पल-पल गिर-उठ, रो-हँसकर
बढ़ कर फुर से उड़ते हैं
गीत-ग़ज़ल जैसे सस्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ पहुना से संकोची
सिमटे-सिमटे रहते हैं
करते मन की बातें कम
औरों की सुन-सहते हैं
किससे नयन लड़े, किस्से
कहें न मन में दहते हैं
खोजें मिलने के अवसर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अवगुंठन में छिपकर
थाप लगा दरवाजे पर
हौले-हौले कदम उठा
कब्जा लेते सारा घर
गज़ब कि उन पर शैदा ही
होता घरवाला अक्सर
धूप-चाँदनी सम भास्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ हारे-थककर सोये
अपने में रहते खोये
खाली हाथों में देखें
कहाँ गये सपने बोये?
होंठ हँसें तो भी लगता
मन ही मन में हैं रोये
चाहें उठें न अब सोकर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अक्षर खो जाते हैं
बनकर याद रुलाते हैं
ज्ञात न वापिस आएँगे
निकट उन्हें हम पाते हैं
सुधियों से संबल देते
सिर नत, कर जुड़ जाते हैं
हो जाते ज्यों परमेश्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*****
३-७-२०१६




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