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शनिवार, 13 जुलाई 2024

जुलाई १३, कविता, सॉनेट, गट्टू, द्वि इंद्रवज्रा सवैया, भाषा, व्याकरण, धूप, दोहा, गीत, कुंडलिया, हाइकु

सलिल सृजन जुलाई १३
*
सॉनेट
श्री विहीन है सकल शहर
ग़ज़ल हुई ज्यों बिना बहर

तात अचानक हुए विदा
सन्न रह गया संवत्सर

लिए गोद में सुत अपना
शांत बहे नर्मदा हहर

सिर पर हाथ न रहा वरद
विकल करे हर तप्त प्रहर

जिजीविषा का विंध्य ढहा
सूख रही अपनत्व नहर

राजदूत ब्रज के भास्वर
स्वाध्याय सतपुड़ा शिखर

बहुभाषी विद्वान प्रखर
बुंदेला निर्भीक निडर

अमरकंटकी अपनापन
शोभित पाकर हुआ शहर

गिर उठ बढ़ की मंज़िल सर
नत मस्तक हैं अनगिनत सर
१३.७.२०२४
•••
तुकबंदी
पल में तोला
पल में माशा

चाहो आशा
मिले निराशा

समय खा रहा
उम्र बताशा

जन नक्कारा
नेता ताशा

देश बदलता
कमाल पाशा
१३•७•२०२४
•••
श, ष, स भेद , उच्चारण स्थान
--------------------------
श ष स के उच्चारण भेद को बहुधा लोग नहीं जानते, यदि जानते भी होंगे तो जानबूझ त्रुटि करते हैं अथवा स्वाभविक सुगमतावश गलत उच्चारण होता है। संस्कृत ही एक मात्र व्यवस्थित जिसका विज्ञानपरक व्याकरण को समूचा विश्व अपनी आवश्यकतानुकूल ग्रहण कर रहा है। हमें समझना होगा उच्चारण स्थान को -
1 अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः
क वर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) अ, आ, ह और विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ है।
2 इचुयशानां तालुः
च वर्ग (च, छ, ज, झ, ´) इ, ई, य, श का उच्चारण स्थान तालु है। इसी आधार पर श के तालव्यी होने की पहचान सर्व विदित है।
3 ऋटुरषानां मूर्घाः
ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) ऋ, र, ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है। इसी आधार पर ष के मूर्धन्नी होने की पहचान सर्व विदित है।
4 लृतुलसानां दन्तः
त वर्ग (त, थ, द, ध, ना) लृ, ल, स का उच्चारण स्थान दंत है। इसी आधार पर स के दन्ती होने की पहचान सर्व विदित है।
5 उपूपध्मानीयानामोष्ठौ
प वर्ग (प, फ, ब, भ, म) )( उ, ऊ का उच्चारण स्थान ओष्ठ है।
तालव्यी, मूर्धन्नी, दन्ती रूपी पहचान ही श,ष,स के भेद को प्रकट करती है। च वर्ग के फ्लो में जीभ का तालु से स्पर्श होते हुए निकलने वाली शकार ध्वनि तालव्यी है। टवर्ग के फ्लो में मुंह के खुलने से निकलने वाली षकार ध्वनि मूर्धन्नी है, जबकि त वर्ग के फ्लो में दंतपंक्तियों के परस्पर मिलने से होने वाली सकार ध्वनि दन्ती है।
*
सॉनेट
गट्टू
नटखट-चंचल है गट्टू,
करे शरारत जी भरकर,
सीधा-साधा है बिट्टू,
रहे मस्त पुस्तक पढ़कर।
तुहिना जीजी के प्यारे,
भैया सनी लड़ाते लाड़,
दादी के चंदा-तारे,
बब्बा करते जान निसार।
शैंकी जी को दुलराते,
धमाचौकड़ी करते खूब,
मिल चिंकी को दुलराते,
हिल-मिल रहें स्नेह में डूब।
खड़ी करें मिल सबकी खाट।
एक एक से बढ़कर ठाठ।।
१३-७-२०२३
•••
सॉनेट
प्राण निकलते गर्मी से, नवगीतों में गाया,
धरती की छाती फटती, सुन इंद्र देव पिघले,
झुलस रहा लू से तन-मन, सूरज को गरियाया,
रूठा छिपा मेघ पीछे, बोला जी भर जल ले।
हुई मूसलाधार वृष्टि, हो कुपित गिरी बिजली,
वन काटे रूठे पर्वत, हो गीले फिसल गिरे,
कर विनाश कहकर विकास, हँस राजनीति पगली,
अच्छे सोच बुरे दिन पा, जुमलों से लोग घिरे।
पानी मरा आँख का तो, तू पानी-पानी हो,
रौंद प्रकृति को ठठा रहा, पानी आँखों में भर,
भोग कर्म का दंड न अब, तुझसे नादानी हो,
हाय हाय क्यों करता है, गलती करने से डर।
गीत खुशी के मत बिसरा, गा बंबुलिया कजरी।
पूज प्रकृति को सुत सम तब देखे हालत सुधरी।।
१३-७-२०२३
•••
नवान्वेषित द्वि इंद्रवज्रा सवैया
२ x (त त ज ग ग), २२ वर्ण, सम पदांत।
*
दूरी मिटा दे मिल ले गले आ, श्वासें करेंगी मनुहार तेरा।
आँखें मिलीं तो हट ही न पाई, आसें बनेंगी गलहार तेरा।
तू-मैं किनारे नद के भले हों, है सेतु प्यारी शुभ प्यार तेरा।
पूरा करेंगे हम वायदों को, जीना मुझे है बन हार तेरा।
१३-७-२०१९
***
भाषा व्याकरण
*
*ध्वनि*
कान सुन रहे वह ध्वनि, जो प्रकृति में व्याप्त।
अनहद ध्वनि गुंजरित है, सकल सृष्टि में आप्त।।
*
*रसानुभूति*
ध्वनि सुनकर प्रतिक्रिया हो, सुख-दुख की अनुभूति।
रस अनुभूति सजीव को, जड़ को हो न प्रतीति।।
*
*उच्चार*
जो स्वतंत्र ध्वनि बोलते, वह ही है उच्चार।
दो प्रकार लघु-गुरु कहें, इनको मात्रा भार।।
*
*अर्थ*
ध्वनि सुनकर जो समझते, उसको कहते अर्थ।
अगर न उसका भान तो, बनता अर्थ अनर्थ।।
*
*सार्थक ध्वनि*
कलकल कलरव रुदन में, होता निश्चित अर्थ।
शेर देख कपि हूकता, दे संकेत न व्यर्थ।।
*
*निरर्थक ध्वनि*
अंधड़ या बरसात में, अर्थ न लेकिन शोर।
निरुद्देश्य ध्वनि है यही, मंद या कि रव घोर।।
*
*सार्थक ध्वनि*
सार्थक ध्वनियाँ कह-सुनें, जब हम बारंबार।
भाव-अर्थ कह-समझते, भाषा हो साकार।।
*
*भाषा*
भाषा वाहक भाव की, मेटे अर्थ अभाव।
कहें-गहें हम बात निज, पड़ता अधिक प्रभाव।।
*
*लिपि*
जब ध्वनि को अंकित करें देकर चिन्ह विशेष।
चिन्ह देख ध्वनि विदित हो, लिपि विग्यान अशेष।।
*
*अक्षर*
जो घटता-कमता नहीं,
ऐसा ध्वनि-संकेत।
अक्षर अथवा वर्ण से,
यही अर्थ अभिप्रेत।।
*
*मात्रा*
लघु-गुरु दो उच्चार ही, लघु-गुरु मात्रा मीत।
नीर-क्षीर वत वर्ण से, मिल हों एक सुनीत।।
*
*वर्ण माला*
अक्षर मात्रा समुच्चय, रखें व्यवस्थित आप।
लिख-पढ़ सकते हैं सभी, रखें याद कर जाप।।
*
*शब्द*
वर्ण जुड़ें तो अर्थ का, और अधिक हो भान।
अक्षर जुड़कर शब्द हों, लक्ष्य एकता जान।।
*
*रस*
स्वाद भोज्य का सार है, गंध सुमन का सार।
रस कविता का सार है, नीरस बेरस खार।।
*
*रस महिमा*
गो-रस मधु-रस आम्र-रस,
गन्ना रस कर पान।
जौ-रस अंगूरी चढ़़े, सिर पर बच मतिमान।।
.
बतरस, गपरस दे मजा, नेतागण अनजान।
निंदारस में लीन हों, कभी नहीं गुणवान।।
.
पी लबरस प्रेमी हुए, धन्य कभी कुर्बान।
संजीवित कर काव्य-रस, फूँके सबमें प्राण।।
*
*अलंकार*
पत्र-पुष्प हरितिमा है, वसुधा का श्रृंगार।
शील मनुज का; शौर्य है, वीरों का आचार।।
.
आभूषण प्रिय नारियाँ, चला रहीं संसार।
गह ना गहना मात्र ही, गहना भाव उदार।।
.
शब्द भाव रस बिंब लय, अर्थ बिना बेकार।
काव्य कामिनी पा रही, अलंकार सज प्यार।।
.
शब्द-अर्थ संयोग से, अलंकार साकार।
मम कलियों का मोहकर, हरे चित्त हर बार।।
*
*ध्वनि खंड*
कुछ सार्थक उच्चार मिल, बनते हैं ध्वनि खंड।
ध्वनि-खंडों के मिलन से, बनते छंद अखंड।।
*
*छंद*
कथ्य भाव रस बिंब लय, यति पदांत मिल संग।
अलंकार सज मन हरें, छंद अनगिनत रंग।।
*
*पिंगल*
वंदन पिंगल नाग ऋषि, मिला बीन फुँफकार।
छंद-शास्त्र नव रच दिया, वेद-पाद रस-सार।।
*
*पाद*
छंद-पाद हर पंक्ति है, पग-पग पढ़-बढ़ आप।
समझ मजा लें छंद का, रस जाता मन व्याप।।
*
*चरण*
चरण पंक्ति का भाग है, कदम-पैर संबंध।
द्वैत मिटा अद्वैत वर, करें सहज अनुबंध।।
*गण*
मिलें तीन उच्चार जब, तजकर लघु-गुरु भेद।
अठ गण बन मिल-जुल बनें, छंद मिटा दें खेद।।
.
यमत रजभ नस गण लगग, गगग गगल के बाद।
गलग लगल फिर गलल है, ललल ललग आबाद।।
*वाक्*
वाक् मूल है छंद का, ध्वनि-उच्चार स-अर्थ।
अर्थ रहित गठजोड़ से, रचना करे अनर्थ।।
*
*गति*
निर्झर-नीर-प्रवाह सम, तीव्र-मंद हो पाठ।
गति उच्चारों की सधे, कवि जनप्रियता हों ठाठ।।
.
कथ्य-भाव अनुरूप हो, वाक्-चढ़ाव-उतार।
समय कथ्य जन ग्राह्य हो, करतल गूँज अपार।।
*
*यति*
कुछ उच्चारों बाद हो, छंदों में ठहराव।
है यति इसको जानिए, यात्रा-मध्य पड़ाव।।
.
यति पर रुककर श्वास ले, पढ़िए लंबे छंद।
कवित-सवैया का बढ़े, और अधिक आनंद।।
.
श्वास न उखड़े आपकी, गति-यति लें यदि साध।
शुद्ध रखें उच्चार तो, मिट जाए हर व्याध।।
*
*उप यति*
दो विराम के मध्य में, निश्चित जो न विराम।
स्थिर न रहें- जो बदलते, उपरति उनका नाम।।
*
*विराम चिह्न*
मध्य-अंत में पाद के, यति संकेत-निशान।
रखता कवि पाठक सके, उनको झट पहचान।।
*
विस्मय संबोधन कहाँ, कहाँ प्रश्न संकेत।
कहाँ उद्धरण या कथन, चिन्हों का अभिप्रेत।।
१२-७-२०१९
***
एक रचना:
*
मन-वीणा पर चोट लगी जब,
तब झंकार हुई.
रिश्तों की तुरपाई करते
अँगुली चुभी सुई.
खून जरा सा सबने देखा
सिसक रहा दिल मौन?
आँसू बहा न व्यर्थ
पीर कब,
बाँट सका है कौन?
१३-७-२०१८
*
दोहा सलिल- रूप धूप का दिव्य
*
धूप रूप की खान है, रूप धूप का दिव्य।
छवि चिर-परिचित सनातन, पल-पल लगती नव्य।।
*
रश्मि-रथी की वंशजा, या भास्कर की दूत।
दिनकर-कर का तीर या, सूर्य-सखी यह पूत।।
*
उषा-सुता जग-तम हरे, घोर तिमिर को चीर।
करती खड़ी उजास की, नित अभेद्य प्राचीर।।
*
धूप-छटा पर मुग्ध हो, करते कलरव गान।
पंछी वाचिक काव्य रच, महिमा आप्त बखान।।
*
धूप ढले के पूर्व ही, कर लें अपने काम।
संध्या सँग आराम कुछ, निशा-अंक विश्राम।।
*
कलियों को सहला रही, बहला पत्ते-फूल।
फिक्र धूप-माँ कर रही, मलिन न कर दे धूल।।
*
भोर बालिका; यौवना, दुपहर; प्रौढ़ा शाम।
राग-द्वेष बिन विदा ले, रात धूप जप राम।।
*
धूप राधिका श्याम रवि, किरण गोपिका-गोप।
रास रचा निष्काम चित, करें काम का लोप।।
*
धूप विटामिन डी लुटा, कहती- रहो न म्लान।
सूर्य-़स्नान कर स्वस्थ्य हो, जीवन हो वरदान।।
*
सलिल-लहर सँग नाचती, मोद-मग्न हो धूप।
कभी बँधे भुजपाश में, बाँधे कभी अनूप।।
*
रूठ क्रोध के ताप से, अंशुमान हो तप्त।
जब तब सोनल धूप झट, हँस दे; गुस्सा लुप्त।।
*
आशुतोष को मोहकर, रहे मेघ ना मौन।
नेह-वृष्टि कर धूप ले, सँग-सँग रोके कौन।।
*
धूप पकाकर अन्न-फल, पुष्ट करे बेदाम।
अनासक्त कर कर्म वह, माँगे दाम न नाम।।
*
कभी न ब्यूटीपारलर, गई एक पल धूप।
जगती-सोती समय पर, पाती रूप अनूप।।
*
दिग्दिगंत तक टहलती, खा-सो रहे न आप।
क्रोध न कर; हँसती रहे, धूप न करे विलाप।।
१३-७-२०१८
***
कुंडलिया / कुंडली
*
विधान: एक दोहा + एक रोला
अ. २ x १३-११, ४ x ११-१३ = ६ पंक्तियाँ
आ. दोहा का आरंभिक शब्द या शब्द समूह रोला का अंतिम शब्द या शब्द समूह
इ. दोहा का अंतिम चरण, रोला का प्रथम चरण
*
परदे में छिप कर रहे, हम तेरा दीदार।
परदा ऐसा अनूठा, तू भी सके निहार।।
तू भी सके निहार, आह भर, देख हम हँसे।
हँसे न लेकिन फँसे, ह्रदय में शूल सम धँसे।।
मुझ पर मर, भर आह, न कहना कर में कर दे।
होजा तू संजीव, हटाकर आजा परदे।।
१४-७-२०१७
***
हाइकु सलिला
*
कल आएगा?
सोचना गलत है
जो करो आज।
*
लिखो हाइकु
कागज़-कलम ले
हर पल ही।
*
जिया में जिया
हर पल हाइकु
जिया ने रचा।
*
चाह कलम
मन का कागज़
भाव हाइकु।
*
शब्द अनंत
पढ़ो-सुनो, बटोरो
मित्र बनाओ।
*
शब्द संपदा
अनमोल मोती हैं
सदा सहेजो।
*
श्वास नदिया
आस नद-प्रवाह
प्रयास नौका।
*
ध्यान में ध्यान
ध्यान पर न ध्यान
तभी हो ध्यान।
*
मुक्ति की चाह
रोकती है हमेशा
मुक्ति की राह।
*
खुद से ऊब
कैसे पायेगा राह?
खुद में डूब।
***
एक कुण्डलिया
औकात
अमिताभ बच्चन-कुमार विश्वास प्रसंग
*
बच्चन जी से कर रहे, क्यों कुमार खिलवाड़?
अनाधिकार की चेष्टा, अच्छी पड़ी लताड़
अच्छी पड़ी लताड़, समझ औकात आ गयी?
क्षमायाचना कर न समझना बात भा गयी
रुपयों की भाषा न बोलते हैं सज्जन जी
बच्चे बन कर झुको, क्षमा कर दें बच्चन जी
१३-७-२०१७
***
मुक्तक
था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।।
१३-७-२०१६
***
पुस्तक सलिला-
स्व. श्याम़ श्रीवास्तव गीत-नवगीत ‘यादों की नागफनी’
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[पुस्तक परिचय- यादों की नागफनी, गीत संग्रह, स्व. श्याम़ श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, पृष्ठ ६२, मूल्य १५० रु., शैली प्रकाशन, २०सहज सदन, शुभम विहार, कस्तूरबा मार्ग, रतलाम, संपादन- डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव sumanshrivastava2003@yahoo.com ]
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‘यादों की नागफनी’सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर के लाड़ले रचनाकार स्व. श्याम़ श्रीवास्तव की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन है जिसे उनके स्वजनों ने अथक प्रयास कर उनके ७५ वें जन्म दिवस पर प्रकाशित कर उनके सरस-सरल व्यक्तित्व को पुनः अपने बीच महसूसने का श्लाघ्य प्रयास किया। स्व. श्याम ने कभी खुद को कवि, गायक, गीतकार नहीं कहा या माना, वे तो अपनी अलमस्ती में लिखते - गाते रहे। आकाशवाणी ए ग्रेड कलाकार कहे या श्रोता उनके गीतों-नवगीतों पर वाह-वाह करें, उनके लिये रचनाकर्म हमेशा आत्मानंद प्राप्ति का माध्यम मा़त्र रहा। आत्म में परमात्म को तलाशता-महसूसता रचनाकार विधाओं और मानकों में बॅंधकर नहीं लिखता, उसके लिखे में कहाॅं-क्या बिना किसी प्रयास के आ गया यह उसके जाने के बाद देखा-परखा जाता है।
यादों की नागफनी में गीत-नवगीत, कविता तीेनों हैं। श्याम का अंदाज़े-बयाॅं अन्य समकालिकों से जुदा है-
‘‘आकर अॅंधेरे घर में / चौंका दिया न तुमने
मुझको अकेले घर में / मौका दिया न तुमने
तुम दूर हो या पास /क्यों फर्क नहीं पड़ता?
मैं तुमको गा रहा हूॅं / हूॅंका दिया न तुमने
‘जीवन इक कुरुक्षेत्र’ में श्याम खुद से ही संबोधित हैं- "जीवन / इक कुरुक्षेत्र है / मैं अकेला युद्ध लड़ रहा /अपने ही विरुद्ध लड़ रहा ......... शांति / अहिंसा क्षमा को त्याग / मुझमें मेरा बुद्ध लड़ रहा।"
यह बुद्ध आजीवन श्याम की ताकत भी रहा और कमजोरी भी। इसने उन्हें बड़े से बड़े आघात को चुपचाप सहने और बिल्कुल अपनों से मिले गरल को पीने में सक्षम बनांया तो अपने ‘स्व’ की अनदेखी करने की ओर प्रवृत्त किया। फलतः, जमाना ठगकर खुश होता रहा और श्याम ठगे जाकर।
श्याम के नवगीत किसी मानक विधान के मोहताज नहीं रहे। आनुभूतिक संप्रेषण को वरीयता देते हुए श्याम ‘कविता कोख में’ शीर्षक नवगीत में संभवतः अपनी और अपने बहाने हर कवि की रचना प्रक्रिया का उल्लेख करते हैं।
तुमने जब / समर्पण किया
धरती आसमान मुझे / हर जगह क्षितिज लगे।
छुअन - छुअन मनसिज लगे।
कविता आ गई कोख में।
वैचारिक लयता / उगी /मिटटी पगी
राग के बयानों की/भाषा जगी
छंद-छंद अलंकार- पोषित हुए
नव रसों को ले कूदी /चिंतन मृगी
सृष्टि का / अर्पण किया
जनपद की खान मुझे
समकालिक क्षण खनिज लगे।
कथ्य उकेरे स्याहीसोख में।
कविता आ गई कोख में।
श्याम के श्रृंगारपरक गीत सात्विकता के साथ-साथ सामीप्य की विरल अनुभूति कराते हैं। ‘नमाज़ी’शीर्षक नवगीत श्याम की अन्वेषी सोच का परिचायक है-
पूर्णिमा का चंद्रमा दिखा
विंध्याचल-सतपुड़ा से प्रण
पत्थरों से गोरे आचरण
नर्मदा का क्वांरापन नहा
खजुराहो हो गये हैं क्षण
सामने हो तुम कुरान सी
मैं नमाज़ी बिन पढ़ा-लिखा
‘बना-ठना गाॅंव’ में श्याम की आंचलिक सौंदर्य से अभिभूत हैं। उरदीला गोदना, माथे की लट बाली, अकरी की वेणी, मक्का सी मुस्कान, टिकुली सा फूलचना, सरसों की चुनरिया, अमारी का गोटा, धानी किनार, जुन्नारी पैजना, तिली कम फूल जैसे कर्णफूल, अरहर की झालर आदि सर्वथा मौलिक प्रतीक अपनी मिसाल आप हैं। समूचा परिदृश्य श्रोता/पाठक की आॅंखों के सामने झूलने लगता है।
गोरी सा / बना-ठना गाॅंव
उरदीला गोदना गाॅंव।
माथे लट गेहूॅं की बाली
अकरी ने वेणी सी ढाली,
मक्का मुस्कान भोली-भाली
टिकुली सा फूलचना गाॅंव।
सरसों की चूनरिया भारी
पल्लू में गोटा अमारी,
धानी-धानी रंग की किनारी
जुन्नारी पैंजना गाॅंव।
तिली फूल करनफूल सोहे
अरहर की झालर मन मोहे,
मोती अजवाइन के पोहे।
लौंगों सा खिला धना गाॅंव।
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार स्व, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने श्याम की रचनाओं को ‘विदग्ध, विलोलित, विभिन्न आयामों से गुजरती हुई अनुभूति के विरल क्षणों को समेटने में समर्थ, पौराणिक संदर्भों के साथ-साथ नई उदभावनाओं को सॅंजोने में समर्थ तथा भावना की आॅंच में ढली भाषा से संपन्न‘’ ठीक ही कहा है। किसी रचनाकार के महाप्रस्थान के आठ वर्ष पश्चात भी उसके सृजन को केंद्र में रखकर सारस्वत अनुष्ठान होना ही इस बात का परिचायक है कि उसका रचनाकर्म जन-मन में पैठने की सामथ्र्य रखता है। स्व. रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के अनुसार ‘‘कवि का निश्छल सहज प्रसन्न मन अपनम कथ्य के प्रति आश्वस्त है और उसे अपनी निष्ठा पर विश्वास है। पुराने पौराणिक प्रतीकों की भक्ति तन्मयता को उसने अपनी रूपवर्णना और प्रमोक्तियों में नये रूप् में ढालकर उन्हें नयी अर्थवत्ता प्रदान की हैं।’’
श्याम के समकालीन चर्चित रचनाकारों सर्व श्री मोहन शशि, डाॅ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, संजीव वर्मा ‘सलिल’ की शब्दांजलियों से समृद्ध और श्रीमती पुष्पलता श्रीवास्तव, माधुरी श्रीवास्तव, मनोज श्रीवास्तव, रचना खरे तथा सुमनलता श्रीवास्तव की भावांजलियों से रससिक्त हुआ यह संग्रह नयी पीढ़ी के नवगीतकारों ही नहीं तथाकथित समीक्षकों और पुरोधाओं को नर्मदांचल के प्रतिनिधि गीतकार श्याम श्रीवास्तव के अवदान सें परिचित कराने का सत्प्रयास है जिसके लिये शैली निगम तथा मोहित श्रीवास्तव वास्तव में साधुवाद के पात्र हैं।
श्याम सामाजिक विसंगतियों पर आघात करने में भी पीछे नहीं हैं। "ये रामराजी किस्से / जनता की सुख-कथाएॅं / भूखे सुलाते बच्चों को / कब तलक सुनायें", "हम मुफलिस अपना पेट काट / पत्तल पर झरकर परस रहे", "गूँथी हुई पसीने से मजदूर की रोटी, पेट खाली लिये गीत गाता रहा" आदि अनेक रचनाएॅं इसकी साक्षी हैं।
तत्सम-तदभव शब्द प्रयोग की कला में कुशल श्याम श्रीवास्तव हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों को भाव-भंगिमाओं की टकसाल में ढालकर गीत, नवगीत, ग़ज़ल, कविता के खरे सिक्के लुटाते चले गये। समय आज ही नहीं, भविष्य में भी उनकी रचनाओं को दुहराकर आश्वस्ति की अनुभूति करता रहेगा।
.................................
मुक्तिका:
*
जिसे भी देखिये वो बात कर रहा प्रहार की
नहीं किसी को फ़िक्र तनिक है यहाँ सुधार की
सुबह से शाम चीखते ही रह गये न बात की
दूरदर्शनी बहस न आर की, न पार की
दक्षिणा लिये बिना टले न विप्र द्वार से
माँगता नगद न बात मानता उधार की
सियासती नुमाइशें दिखा रही विधायिका
नफरतों ने लीं वसूल कीमतें गुहार की
बाँध बनाने की योजना बना रहे हो तुम
ज़िक्र कर नहीं रहे हो तुम तनिक दरार की
***
1. Water
There is an ocean
In every drop of water.
Can you see it?
There is a life
In every drop of water
Can you live it?
There is a civilization
In every drop of water
Can you save it?
If not:
See by Heart and not through Eyes
You will certainly notice that
There is Past
There is Present
There is Future
There is Culture
In every drop of water.
If You will forget Heart
And will see through Eyes
You will say with fear that
There is flood
There is death
There is an end.
It depend upon you
What do you want to see?
Try to be neat, clean and
Transparent as Water.
Then only You will be
Able to witness
Water in it's reality & totality.
***
विमर्श
शिव, शक्ति और सृष्टि
सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.
शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है.
शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?
वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया.
वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं।
विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती है।
संदर्भ:
१. हिंदी साहित्य कोष, सं. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा, डॉ. धर्मवीर भारती, श्री रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ. रघुवंश
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार,
१३-७-२०१५
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गीतः
सुग्गा बोलो
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
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गीत:
हम मिले…
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हम मिले बिछुड़ने को
कहा-सुना माफ़ करो...
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पल भर ही साथ रहे
हाथों में हाथ रहे.
फूल शूल धूल लिये-
पग-तल में पाथ रहे
गिरे, उठे, सँभल बढ़े
उन्नत माथ रहे
गैरों से चाहो क्योँ?
खुद ही इन्साफ करो...
*
दूर देश से आया
दूर देश में आया
अपनों सा अपनापन
औरों में है पाया
क्षर ने अक्षर पूजा
अक्षर ने क्षर गाया
का खा गा, ए बी सी
सीन अलिफ काफ़ करो…
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नर्मदा मचलती है
गोमती सिहरती है
बाँहों में बाँह लिये
चाह जब ठिठकती है
डाह तब फिसलती है
वाह तब सँभलती है
लहर-लहर घहर-घहर
कहे नदी साफ़ करो...
१३-७-२०१४
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एक कविता:
सीखते संज्ञा रहे...
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सीख पाए हम न संज्ञा.
बन न पाए सर्वनाम.
क्रिया कैसी?
क्या विशेषण?
कहाँ है कर्ता अनाम?
कर न पाए
साधना हम
वंदना ना प्रार्थना.
किरण आशा की लिये
करते रहे शब्द-अर्चना.
साथ सुषमा को लिये
पुष्पा रहे रचना कमल.
प्रेरणा देती रहें
नित भावनाएँ नित नवल.
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१३-७-२०११

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