हिंदी में तकनीकी शिक्षा
यह संघर्ष आज से लगभग ५० बर्ष पूर्व डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में आरंभ किया था। स्व. रामकिशोर दत्त दिल्ली, स्व. ब्रह्मदत्त दिल्ली, स्व. जयशंकर सिंह, स्व. शिवप्रसाद वशिष्ठ उज्जैन, इंजी. अमरनाथ लखनऊ, इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर, इंजी. रमाकांत शर्मा भोपाल, इंजी. सतीश सक्सेना ग्वालियर आदि प्रमुख संघर्षकर्ता थे। यह संघर्ष कई स्तरों पर था। सबसे पहले अभियांत्रिकी संस्थाओं में, फिर पॉलिटेक्निक में, फिर अभियांत्रिकी महाविद्यालय में हिंदी लाने के लिए शासन-प्रशासन से निरंतर संपर्ष और संघर्ष। तब आज का प्रमुख दल विपक्ष में था और उसके सांसद-विधायक डिप्लोमा अभियंता संघ के मांगपत्र का समर्थन करते थे, हड़ताल के समय समर्थन देते थे।
अभियंताओं की सबसे अधिक धनाढ्य और अंग्रेजीभक्त संस्था इंस्टीट्यशन ऑफ़ इंजीनियर्स (इण्डिया) हिंदी की सर्वाधिक विरोधी रही। लंबे संघर्ष के बाद उसने हिंदी केवल एक वार्षिकांक प्रकाशित करना स्वीकारा किया जिसमें तकनीकी लेख हिंदी में दिए जाएँ। हिंदी में तकनीकी लेख लिखने के लिए न अभियांत्रिकी महाविद्यालयों के प्राध्यापकों ने, न सेवारत उपाधिधारी अभियंताओं ने रूचि दिखाई। मैंने अभियंता कवियों के दो काव्य संकलन 'निर्माण के नूपुर' तथा 'नींव के पत्थर' संयोजित, संपादित प्रकाशित किए। डिप्लोमा अभियंता संघों के सम्मेलनों में स्मारिकाओं में हिंदी में तकनीकी लेख लिखे-लिखवाए।
तब हिंदी में तकनीकी लेख डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने खुद लिखे। सब दिन जाट न एक समान, क्रमश: हिंदी में तकनीकी शिक्षा की माँग को जन समर्थन बढ़ता गया। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक समिति ने यह रिपोर्ट दी कि विश्व से सर्वाधिक उन्नत देश सर्वोच्च शिक्षा मातृभाषा में देते हैं जबकि सर्वाधिक पिछड़े देश अन्य भाषा (अंग्रेजी मैं)। इस रिपोर्ट ने हिंदी में तकनीकी शिक्षा की माँग को संपुष्ट किया। मनोवैज्ञानिकों ने भी मातृभाषा को शिक्षा का सर्वोत्तम माध्यम बताया।
तकनीकी शिक्षा हिंदी में दिए जाने की रह में सबसे बड़ी बाधा थी किताबोब तथा हिंदी में पढ़ा सकनेवाले प्राध्यापकों की। फिर डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने मोर्चा सम्हाला और हिंदी में तकनीकी पुस्तकें लिखीं। डिप्लोमाा अभियंता शिवानंद कामड़े ने पॉलिटेक्निक के पाठ्यक्रम को लेकर हिंदी में कई पुस्तकें लिखीं, कुछ मेरे संग्रह में अब तक हैं। पॉलिटेक्निक छात्र संघ ने प्रांतव्यापी हड़ताल की। तब त्रिवर्षीय पॉलिटेक्निक में हिंदी में पढ़ने-लिखने की अनुमति मिली। यह प्रथम विजय थी। देश में मध्य प्रदेश ऐसा करनेवाला प्रथम राज्य था।
संघर्ष जारी रहा। निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय आरंभ होने पर उन्हें अधिकांश विद्यार्थी ग्रामीण अंचल से मिले जी अंग्रेजी से अनभिज्ञ थे। परीक्षा परिणाम ख़राब होने पर उनके बंद होने की नौबत आने लगी। ऐसे अधिकांश विद्यालयों के संचालक विविध राजनैतिक दलों से जुड़े थे। समस्या शासन तह गई। समाधान बी.ई./ बी.टेक. शिक्षण तथा परीक्षाओं में हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाओँ का प्रयोग करने के रूप में मिला। राजीव गाँधी प्रौद्यौगिकी विश्वविद्यालय भोपाल ने दोनों भाषाओँ में प्रश्नपत्र देने आरंभ कर दिए। एम्.ई./एम्. टेक. की मौखिक परीक्षाओं में पर्यवेक्षक के रूप में मैंने खुद हिंदी का प्रयोग होते देखा। हिंदी में तकनीकी भाषा के विकास में आईसेक्ट भोपाल के महत्वपूर्ण योगदान को भी सराहा जाना चाहिए जो 'इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए' पत्रिका के माध्यम से यह कार्य कर रहा है।
निस्संदेह मध्य प्रदेश शासन ने अटल बिहारी महाविद्यालय की स्थापना कर हिंदी में तकनीकी शिक्षा की मुहीम को अपना कर आगे बढ़ाया किन्तु इसके मूल में रही संस्थाओं और व्यक्तियों के संघर्ष को भुला दिया गया।
हिंदी भाषी सभी राज्यों की सरकारें किसी भी दल की हों उन्हें केवल नीतिगत निर्णय लेकर क्रियान्वित करना है कि अभियांत्रिकी तथा आयुर्विज्ञान की शिक्षा तथा परीक्षा में हिंदी का उपयोग किया जा सकेगा। पुस्तकें आदि मध्य प्रदेश से ले ली जाएँ तो देश में एक सी मानक तकनीकी हिंदी प्रचलन में आ जाएगी। हिंदी भाषाई राज्यों की सरकारें हिंदी में तकनीकी शिक्षा लागू करें। केंद्र भूल से भी इस मुद्दे पर कुछ न करे अन्यथा दक्षिण में विरोध आरंभ हो जाएगा।
भारत की तकनीकी संस्थाओं इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स (इंडिया), इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी अदि पूरी तरह अंग्रेजी की गुलाम हैं। इन्हें अपना चरित्र बदलना होगा। मैं इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर का चैयरमैन होने के नाते संस्था में संघर्षरत हूँ कि हिंदी को प्रवेश मिल सके।
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