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रविवार, 9 अक्तूबर 2022

व्यंग्य गीत, सॉनेट, वीणा, शरत्चंद्र, नवगीत, हरिगीतिका, लोकगीत, बाल गीत,

व्यंग्य गीत ● हिंदी लिखते डर लगता है शब्द-अर्थ बेघर लगता है खाल बाल की एक निकाले दूजा डाल अक्ल पर ताले खींचेगा बेमतलब टाँग 'शब्द बदल' कर देगा माँग वह गर्दभ का स्वर लगता है हिंदी लिखते डर लिखता है होती आस्था पल में घायल करें सियासत पल पल पागल अच्छा अपना, बुरा और का चिंतन स्वार्थी हुआ दौर का बिखरा उजड़ा घर लगता है हिंदी लिखते डर लगता है पैसे दे किताब छपवाओ हाथ जोड़ घर घर दे आओ पढ़े न कोई, बेचे रद्दी फिर दूजी दो बनकर जिद्दी दस्यु प्रकाशक हर लगता है हिंदी लिखते डर लगता है कथ्य भाव रस से नहिं नाता गति-यति-लय द्रोह रहा मन भाता मठाधीश बन चेले पाले दे-ले अभिनंदन घोटाले लघु रवि बड़ा तिमिर लगता है हिंदी लिखते डर लगता है इसको हैडेक हुआ पेट में फ्रीडमता लेडियाँ भेंट लें 'लिव इन' नया मंच नित भाए सुना चुटकुले कवि कहलाए सूना पूजा-घर लगता है हिंदी लिखते डर लगता है ९-१०-२०२२ ●●●
सॉनेट वीणा ● वीणा की झंकार, मौन सुन आँख मूँद ले पहले पगले! छेड़े मन के तार कौन सुन। सँभल न दुनिया तुझको ठग ले। तू है कौन?, कहाँ से आया? जाना कहाँ न तुझको मालुम करे सफर, सामान जुटाया। मेला-ठेला देख गया गुम। रो-पछता मत, मन बहला ले गिर, रो चुप हो, धीरज धरना लूट न लुटना, खो दे, पा ले। जैसे भी हो बढ़ना-तरना। वीणा-तार कहें क्या सुन ले टूटे तार न सपने बुन ले। ९-१०-२०२२ ●●●
सॉनेट शरत्चंद्र * शरत्चंद्र की शुक्ल स्मृति से मन नीलाभ गगन हो हँसता रश्मिरथी दे अमृत, झट से कंकर हो शंकर भुज कसता सलज उमा, गणपति आहट पा मग्न साधना में हो जाती ऋद्धि-सिद्धि माँ की चौखट आ शीश नवा, माँ के जस गाती हो संजीव सलिल लहरें उठ गौरी पग छू सकुँच ठिठकती अंजुरी भर कर पान उमा झुक शिव को भिगा रिझाकर हँसती शुक्ल स्मृति पायस सब जग को दे अमृत कण शरत्चंद्र का ९-१०-२०२२, १५-४३ ●●●
नवगीत:  
उत्सव का मौसम
*
उत्सव का मौसम
बिन आये ही सटका है...
*
मुर्गे की टेर सुन
आँख मूँद सो रहे.
उषा की रूप छवि
बिन देखे खो रहे.
ब्रेड बटर बिस्कुट
मन उन्मन ने
गटका है.....
*
नाक बहा, टाई बाँध
अंगरेजी बोलेंगे.
अब कान्हा गोकुल में
नाहक ना डोलेंगे..
लोरी को राइम ने
औंधे मुँह पटका है...
*
निष्ठा ने मेहनत से
डाइवोर्स चाहा है.
पद-मद ने रिश्वत का
टैक्स फिर उगाहा है..
मलिन बिम्ब देख-देख
मन-दर्पण चटका है...
*
देह को दिखाना ही
प्रगति परिचायक है.
राजनीति कहे साध्य
केवल खलनायक है.
पगडंडी भूल
राजमार्ग राह भटका है...
*
मँहगाई आयी
दीवाली दीवाला है.
नेता है, अफसर है
पग-पग घोटाला है. 
अँगने  को खिड़की
दरवाजे से खटका है...
***
हरिगीतिका:
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
९-१०-२०११
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
लोकगीत:
हाँको न हमरी कार.....
*
पोंछो न हमरी कार
ओ बलमा!
हाँको न हमरी कार.....
हाँको न हमरी कार,
ओ बलमा!
हाँको न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़,
कहे जग -
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे 'बलम अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, न करियो रार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
***
नव गीत:
कैसी नादानी??...
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
****
बाल गीत / नव गीत:
खोल झरोखा....
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
बाल गीत:
माँ-बेटी की बात
*
रानी जी को नचाती हैं महारानी नाच.
झूठ न इसको मानिये, बात कहूँ मैं साँच..
बात कहूँ मैं साँच, रूठ पल में जाती है.
पल में जाती बहल, बहारें ले आती है..
गुड़िया हाथों में गुड़िया ले सजा रही है.
लोरी गाकर थपक-थपक कर सुला रही है.
मारे सिर पर हाथ कहे: ''क्यों तंग कर रही?
क्यों न रही सो?, क्यों निंदिया से जंग कर रही?''
खीज रही है, रीझ रही है, हो बलिहारी.
अपनी गुड़िया पर मैया की गुड़िया प्यारी..
रानी माँ हैरां कहें: ''महारानी सो जाओ.
आँख बंद कर अनुष्का! सपनों में मुस्काओ.
तेरे पापा आ गए, खाना खिला, सुलाऊँ.
जल्दी उठना है सुबह, बिटिया अब मैं जाऊँ?''
बिटिया बोली ठुमक कर: ''क्या वे डरते हैं?'
क्यों तुमसे थे कह रहे: 'तुम पर मरते हैं?
जीते जी कोई कभी कैसे मर सकता?
बड़े झूठ कहते तो क्यों कुछ फर्क नहीं पड़ता?''
मुझे डाँटती: ''झूठ न बोलो तुम समझाती हो.
पापा बोलें झूठ, न उनको डाँट लगाती हो.
मेरी गुड़िया नहीं सो रही, लोरी गाओ, सुलाओ.
नाम न पापा का लेकर, तुम मुझसे जान बचाओ''..
हुई निरुत्तर माँ गोदी में ले बिटिया को भींच.
लोरी गाकर सुलाया, ममता-सलिल उलीच..
९-१०-२०१० 
***

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