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मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

सॉनेट,चिंतन,छंद अमृतध्वनि, दोहे, आँख,ग़ज़ल

सॉनेट
हृदय गगरिया
हृदय गगरिया रीती है प्रभु!
नेह नर्मदा जल छलकाओ।
जो बीती सो बीत गई विभु!
नैन नैन से तनिक मिलाओ।।

राम सिया में, सिया राम में।
अंतर अंतर बिसरा हेरे।
तुम्हीं समाए सकल धाम में।।
श्वास-श्वास तुमको हरि टेरे।।

कष्ट कंकरी मारे कान्हा।
राग-द्वेष की मटकी फोड़े।।
सद्भावों सँग रास रचाए।
भगति जसोदा तनिक न छोड़े।।

चित्र गुप्त जो प्रकट करो प्रभु।
चित्र गुप्त कर शरण धरो प्रभु।।
१८-४-२०२२
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चिंतन १
*
- चमन में अमन के लिए नित नए प्रयास करना रहना उचित ही नहीं, आवश्यक भी है।
- प्रयास की सफलता के लिए नवता, उपयोगिता, समयबद्धता, सटीकता तथा सहभागिता जरूरी है।
नवता
- जो कुछ पहले बार-बार किया जा चुका हो, जिससे कोई स्थायी परिणाम न निकला हो, जो निरुपयोगी रहा हो- वही एक बार और करना निरर्थक है।
बेहतर है कुछ नया सोचें, कुछ नया करें।
उपयोगिता
- अतीत की उपयोगिता उससे सीख लेकर भविष्य को बेहतर बनाना है। अतीतजीवी उन्नति नहीं कर सकता। कब्र खोदें या समाधि, अस्थि पंजर के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। नया इतिहास लिखा नहीं बनाया जाता है।
नया प्रयास करने के पहले आम आदमी और नई पीढ़ी के लिए उसकी उपयोगिता परखिए।
समयबद्धता
- किसी कार्य या कार्यक्रम को निर्धारित समय में पूर्ण करें मरीज मरने के बाद संजीवनी बूटी भी ले आएँ तो किसी काम की नहीं। अभी नहीं तो कभी नहीं, यह सोचकर संकल्प को सिद्धि बनाएँ।
सटीकता
- महाभारत का द्रोणाचार्य-अर्जुन प्रसंग बताता है कि सफलता के लिए सटीकता जरूरी है। लक्ष्य निर्धारित न हो तो बहुदिशायी प्रयास शक्ति, संसाधन तथा समय का अपव्यय मात्र है।
सहभागिता
- सहभागी को सहयोगी होना चाहिए। लंबे समय तक पदों से चिपके, लक्ष्य पाने में विफल रहे, मंच-माला-माइक- चित्र तथा खबरों तक खुद को रखनेवाले सहभागी साधक नहीं, बाधक होते हैं।
किसी कार्ययोजना पर विचार करते समय उक्त बिंदुओं का ध्यान रखा जाना आवश्यक है।
१८-४-२०२२
***
हिंदी छंद : अमृतध्वनि
*
अमृतध्वनि भी कुण्डलिनी का तरह षट्पदी (६ पंक्ति का) छंद है. इसमें प्रत्येक पंक्ति को ८-८ मात्राओं के ३ भागों में बाँटा जाता है. इसमें यमक और अनुप्रास का प्रयोग बहुधा होने पर एक विशिष्ट नाद (ध्वनि) सौन्दर्य उत्पन्न होने से इसका नाम अमृतध्वनि हुआ.
रचना विधान:
१. पहली दो पंक्तियाँ दोहा: १३-११ पर लघु के साथ यति.
२. शेष ४ पंक्तियाँ: २४ मात्राएँ ८, ८, ८ पर लघु के साथ यति.
३. दोहा का अंतिम पद तृतीय पंक्ति का प्रथम पद.
४. दोहा का प्रथम शब्द (शब्द समूह नहीं) छ्न्द का अंतिम शब्द हो.
नवीन चन्द्र चतुर्वेदी :
उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन|
तब मानव मन को मिले, मन-माफिक सुख चैन||
मन-माफिक सुख चैन, अबाधित होंय अनन्‍दित|
भाव सुवासित, जन हित लक्षित, मोद मढें नित|
रंज न किंचित, कोई न वंचित, मिटे अदावत|
रहें इहाँ-तित, सब जन रक्षित, सदा समुन्नत||
पं. रामसेवक पाठक 'हरिकिंकर' :
आया नाज़ुक समय अब, पतित हुआ नर आज.
करता निन्दित कर्म सब, कभी न आता बाज..
कभी न आता, बाज बेशरम, सत भी छोड़ा.
परहित भूला, फिरता फूला, डाले रोड़ा..
जग-दुःख छाया, अमन गँवाया, चैन न पाया.
हर्षित पुलकित, प्रमुदित हुआ न, कुसमय आया..
मनोहर शर्मा 'माया' :
पावस है वरदान सम, देती नीर अपार.
हर्षित होते कृषक गण, फसलों की भरमार..
झर-झर पानी, करे किसानी, कीचड़ सानी.
वारिद गरजे, चपला चमके, टप-टप पानी..
धान निरावे, कजरी गावे, बीते 'मावस.
हर्षित हर तन, पुलकित हर मन, आई पावस..
(दोहे का अंतिम चरण तीसरी पंक्ति का प्रथम चरण नहीं है, क्या इसे अमृतध्वनि कहेंगे?)
संजीव वर्मा 'सलिल'
जलकर भी तम हर रहे, चुप रह मृतिका-दीप.
मोती पाले गर्भ में, बिना कुछ कहे सीप.
सीप-दीप से, हम मनुज तनिक, न लेते सीख.
इसीलिए तो, स्वार्थ में लीन, पड़ रहे दीख.
दीप पर्व पर, हों संकल्पित, रह हिल-मिलकर.
दें उजियारा, आत्म-दीप बन, निश-दिन जलकर.
(दोहे का अंतिम चरण तीसरी पंक्ति का प्रथम चरण नहीं है, किन्तु दोहे का अंतिम शब्द तीसरी पंक्ति का प्रथम शब्द है, क्या इसे अमृतध्वनि कहेंगे?)
***
दोहे आँख के...




कही कहानी आँख की, मिला आँख से आँख.
आँख दिखाकर आँख को, बढ़ी आँख की साख..

आँख-आँख में डूबकर, बसी आँख में मौन.
आँख-आँख से लड़ पड़ी, कहो जयी है कौन?

आँख फूटती तो नहीं, आँख कर सके बात.
तारा बन जा आँख का, 'सलिल' मिली सौगात..

कौन किरकिरी आँख की, उसकी ऑंखें फोड़.
मिटा तुरत आतंक दो, नहीं शांति का तोड़..

आँख झुकाकर लाज से, गयी सानिया पाक.
आँख झपक बिजली गिरा, करे कलेजा चाक..

आँख न खटके आँख में, करो न आँखें लाल.
काँटा कोई न आँख का, तुम से करे सवाल..

आँख न खुलकर खुल रही, 'सलिल' आँख है बंद.
आँख अबोले बोलती, सुनो सृजन के छंद..

***
एक शेर
इन्तिज़ार दिल से करोगे जो पता होता.
छोड़कर शर्मो-हया मैं ही मिल गयी होती.
***
दोहा सलिला :
*
गीता रामायण समझ, जिसे रहा मैं बाँच.
उसे न हीरे की परख, चाह रही वह काँच.

दोहा-चौपाई सरस, गाया मैंने मीत.
नेह निभाने की नहीं, उसे सुहाई रीत.

नहीं भावना का किया, दो कौडी भी मोल.
मौका पाते ही लिया, छिप जेबों को तोल.

केर-बेर का संग यह, कब तक देता साथ?
जुडें नमस्ते कर सकें, अगर अलग हों हाथ.
***
ग़ज़ल
*
चल पड़े अपने कदम तो,मंजिलें भी पायेंगे.
कंठ-स्वर हो साज़ कोई, गीत अपने गायेंगे.

मुश्किलों से दोस्ती है, संकटों से प्यार है.
'सलिल' बनकर नर्मदा हम, सत्य-शिव दुहारायेंगे.

स्नेह की हर लहर हर-हर, कर निनादित हो रही.
चल तनिक अवगाह लें, फिर सूर्य बनकर छायेंगे.

दोस्तों की दुश्मनी की 'सलिल' क्यों चिंता करें.
दुश्मनों की दोस्ती पाकर मरे- जी जायेंगे.

चुनें किसको, तजें किसको, सब निकम्मे एक से.
मिली सत्ता तो ज़मीं से, दूर हो गर्रायेंगे.

दिल मिले न मिलें लेकिन हाथ तो मिलते रहें.
क्या पता कब ह्रदय भी हों एक, फिर मुस्कायेंगे.

स्नेह-सलिला में नहाना, 'सलिल' का मजहब धरम.
सफल हो श्रम साधना, हम गगन पर लहरायेंगे.
१८-४-२००९
***

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