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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

सॉनेट,चिंतन,कैसे?,मनरंजन,कुंडलिया,श्री श्री,दोहा,मुक्तक

सॉनेट
मौसम
मौसम करवट बदल रहा है
इसका साथ निभाएँ कैसे?
इसको गले लगाएँ कैसे?
दहक रहा है, पिघल रहा है

बेगाना मन बहल रहा है
रोज आग बरसाता सूरज
धरती को धमकाता सूरज
वीरानापन टहल रहा है

संयम बेबस फिसल रहा है
है मुगालता सम्हल रहा है
यह मलबा भी महल रहा है

व्यर्थ न अपना शीश धुनो
कोरे सपने नहीं बुनो
मौसम की सिसकियाँ सुनो
२२-४-२०२२
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सॉनेट
महाशक्ति
महाशक्ति हूँ; दुनिया माने
जिससे रूठूँ; उसे मिटा दूँ
शत्रु शांति का; दुनिया जाने
चाहे जिसको मार उठा दूँ

मौतों का सौदागर निर्मम
गोरी चमड़ी; मन है काला
फैलाता डर दहशत मातम
लज्जित यम; मरघट की ज्वाला

नर पिशाच खूनी हत्यारा
मिटा जिंदगी खुश होता हूँ
बारूदी विष खाद मिलाकर
बीज मिसाइल के बोता हूँ

सुना नाश के रहा तराने
महाशक्ति हूँ दुनिया माने
२२-४-२०२२
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चिंतन ४
कैसे?
'कैसे' का विचार तभी होता है इससे पहले 'क्यों' और 'क्या' का निर्णय ले लिया गया हो।

'क्यों' करना है?

इस सवाल का जवाब कार्य का औचित्य प्रतिपादित करता है। अपनी गतिविधि से हम पाना क्या चाहते हैं?

'क्या' करना है?

इस प्रश्न का उत्तर परिवर्तन लाने की योजनाओं और प्रयासों की दिशा, गति, मंज़िल, संसाधन और सहयोगी निर्धारित करता है।

'कैसे'

सब तालों की चाबी यही है।

चमन में अमन कैसे हो?

अविनय (अहंकार) के काल में विनय (सहिष्णुता) से सहयोग कैसे मिले?

दुर्बोध हो रहे सामाजिक समीकरण सुबोध कैसे हों?

अंतर्राष्ट्रीय, वैश्विक और ब्रह्मांडीय संस्थाओं और बरसों से पदों को पकड़े पुराने चेहरों से बदलाव और बेहतरी की उम्मीद कैसे हो?

नई पीढ़ी की समस्याओं के आकलन और उनके समाधान की दिशा में सामाजिक संस्थाओं की भूमिका कितनी और कैसे हो?

नई पीढ़ी सामाजिक संस्थाओं, कार्यक्रमों और नीतियों से कैसे जुड़े?

कैसे? कैसे? कैसे?

इस यक्ष प्रश्न का उत्तर तलाशने का श्रीगणेश कैसे हो?
२२•४•२०२२
संजीव, ९४२५१ ८३२४४
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मनरंजन -
आर्य भट्ट ने शून्य की खोज ६ वीं सदी में की तो लगभग ५००० वर्ष पूर्व रामायण में रावण के दस सर की गणना और त्रेता में सौ कौरवों की गिनती कैसे की गयी जबकि उस समय लोग शून्य (जीरो) को जानते ही नही थे।
*
आर्यभट्ट ने ही (शून्य / जीरो) की खोज ६ वीं सदी में की, यह एक सत्य है। आर्यभट्ट ने 0(शून्य, जीरो )की खोज *अंकों मे* की थी, *शब्दों* नहीं। उससे पहले 0 (अंक को) शब्दों में शून्य कहा जाता था। हिन्दू धर्म ग्रंथों जैसे शिव पुराण,स्कन्द पुराण आदि में आकाश को *शून्य* कहा गया है। यहाँ शून्य का अर्थ अनंत है । *रामायण व महाभारत* काल में गिनती अंकों में नहीं शब्दो में होती थी, वह भी *संस्कृत* में।
१ = प्रथम, २ = द्वितीय, ३ = तृतीय, ४ = चतुर्थ, ५ = पंचम, ६ = षष्ठं, ७ = सप्तम, ८ = अष्टम, ९= नवंम, १० = दशम आदि।
दशम में *दस* तो आ गया, लेकिन अंक का ० नहीं।
आया, ‍‍रावण को दशानन, दसकंधर, दसशीश, दसग्रीव, दशभुज कहा जाता है !!
*दशानन मतलव दश+आनन =दश सिरवाला।
त्रेता में *संस्कृत* में *कौरवो* की संख्या सौ *शत* शब्दों में बतायी गयी, अंकों में नहीं।
*शत्* संस्कृत शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ सौ (१००) है। *शत = सौ*
रोमन में १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ०, के स्थान पर i, ii, iii, iv, v, vi, vii, viii, ix, x आदि लिखा-पढ़ा जाता है किंतु शून्य नहीं आता।आप भी रोमन में एक से लेकर सौ की गिनती पढ़ लिख सकते है !!
आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती है।
तब गिनती को *शब्दो में* लिखा जाता था !!
उस समय अंकों का ज्ञान नहीं, था। जैसे गीता,रामायण में अध्याय १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, को प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि लिखा-पढ़ा जाका था।
दशम अध्याय ' मतलब दशवाँ पाठ (10th lesson) होता है !!
इसमे *दश* शब्द तो आ गया !! लेकिन इस दश मे *अंको का 0* (शून्य, जीरो)" का प्रयोग नही हुआ !!
आर्यभट्ट ने शून्य के लिये आंकिक प्रतीक "०" का अन्वेषण किया जो हमारे आभामंड, पृथ्वी के परिपथ या सूर्य के आभामंडल का लघ्वाकार है।
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कुंडलिया
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नारी को नर पूजते, नारी नर की भक्त
एक दूसरे के बिना दोनों रहें अशक्त
दोनों रहें अशक्त, मिलें तो रचना करते
उनसा बनने भू पर, ईश्वर आप उतरते
यह दीपक वह ज्योत, पुजारिन और पुजारी
मन मंदिर में मौन, विराजे नर अरु नारी
२२-४-२०२०
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श्री श्री चिंतन दोहा मंथन
इंद्रियाग्नि:
२४-७-१९९५, माँट्रियल आश्रम, कनाडा
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जीवन-इंद्रिय अग्नि हैं, जो डालें हो दग्ध।
दूषित करती शुद्ध भी, अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
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अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले हो शोक।
अग्नि तुम्हीं जल-जलाते, या देते आलोक।।
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खुद जल; जग रौशन करें, होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेरें, जीव-मित्र भरपूर।।
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निम्न अग्नि तम-धूम्र दे, मध्यम धुआँ-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
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करें इंद्रियाँ बुराई, तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल, जा सुख में तू डूब।।
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करें इंद्रियाँ भलाई, फैला कीर्ति-सुवास।
जहाँ रहें सत्-जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
१२-४-२०१८
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मुक्तक:
*
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो.
*
दिल चुराकर आप दिलवर बन गए.
दिल गँवाकर हम दीवाने बन गए.
दिल कुचलनेवाले दिल की क्यों सुनें?
थामकर दिल वे सयाने बन गए..
*
पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह.
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर..
*
मन मंदिर में जो बसा, उसको भी पहचान.
जग कहता भगवान पर वह भी है इंसान..
जो खुद सब में देखता है ईश्वर का अंश-
दाना है वह ही 'सलिल' शेष सभी नादान..
*
'संबंधों के अनुबंधों में ही जीवन का सार है.
राधा से, मीरां से पूछो, सार भाव-व्यापार है..
साया छोड़े साथ, गिला क्यों?,उसका यही स्वभाव है.
मानव वह जो हर रिश्ते से करता'सलिल'निभाव है.'
२२-४-२०१०
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