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बुधवार, 6 दिसंबर 2017

navgeet ke dwaar par arun khare

नवगीत के द्वार पर

अरुण अर्णव खरे
आत्मज- स्व० गया प्रसाद खरे
शिक्षा - बी०ई० (मेकेनिकल)
प्रकाशित : काव्यसंग्रह - मेरा चांद और गुनगुनी धूप गीतिका संग्रह -रात अभी स्याह नहीं. खेलों पर छ: पुस्तकें,
आठ साझा संकलनों में सहभागिता.
सम्मान: गुफ़्तगू सम्मान इलाहाबाद.
सम्प्रति:  सेवा निवृत मुख्य अभियंता लो०स्वा०यांत्रिकी विभाग मध्यप्रदेश.
सम्पर्क: डी- १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद रोड, भोपाल (म०प्र०) ४६२०२६
चलभाष: ०९८९३००७७४४, ईमेल: arunarnaw@gmail.com
संयोजक गया प्रसाद स्मृति कला, साहित्य व खेल संवर्द्धन मंच भोपाल, अट्टहास पत्रिका लखनऊ के मध्य प्रदेश पर केन्द्रित अंक का संपादन.
*
नवगीत -१
मेरे गीत अधबुने सही
किन्तु अनमने नहीं तुम्हारे जैसे ।

रंग चोखा करने निकले तुम
न हींग हाथ
न फिटकरी पास ।
कुछ दिन भरमा लिया तुमने
दिखा दिवास्वप्न
यायावरी आस ।
मेरे पाँव रुके-रुके सही
चले ठगने नहीं तुम्हारे जैसे ।

जीवन पहले से बँटा हुआ था
शतरंज सरीखा
चौंसठ खानों में ।
तुमने और बाँट दिया उसको
रेतीली फिसलन भरी
ढलानों में ।
मेरे सपने अपूर्ण सही
पर झुनझुने नहीं तुम्हारे जैसे ।
***
नवगीत - २
साँझ- सकारे उमड़े बादल ।
गरज-गरज कर लौट गए फिर
लगते उखड़े-उखडे बादल ।

सोचा था तुम आओगे तो
देह-देह का ज्वर उतरेगा ।
बूँदों के घुँघरू बाँधे कोई
अंश तुम्हारा पाँव धरेगा ।
कितना छलना सीख गए हो
लेकर दो-दो मुखड़े बादल ।

बनी नदी जो रेख रेत की
पता नहीं कब चल पायेगी ।
गोने की बाट जोहती जो
पता नहीं कब मुसकायेगी ।
अग्नि-वर्षा सी कर जाते हो
होकर सौ-सौ टुकड़े बादल ।

साँस-सॉंस तक क़र्ज़दार है
मौसम के साहूकारों की ।
ख़ून-पसीने का मोल नहीं
मनमर्ज़ी है सरकारों की ।
आश्वासन जैसे कोरे हो
दिखते चिकने-चुपड़े बादल ।
***
नवगीत - ३
कारे-कारे मेघा घुमड़-घिर आए ।
गाँव, अँगना लेकर पानी फिर आए ।

बो गया था देह-देह में,
दिनकर काँटे बबूल के ।
गली-कूचे गढ़ रही थी,

हवा वातचक्र धूल के ।
गमले में सो रही नागफनी में भी,
निकल दसकंधर से ज्यादा सिर आए ।

ज्वर में तपती धरती की,
पीड़ा तनिक सी कम हुई ।
वर्षा की शीतल फुहार,
हर घाव पर मरहम हुई ।
मन को शांती मिली विल्कुल वैसे ही,
वर्षों बाद ज्यों कोई मंदिर आए ।
***
नवगीत - ४
शर-शैय्या पर मिलता है अनुपम आनन्द |
पीड़ा से रिसते हैं जब-जब केसरिया छन्द |
पलकों पर पसरा है
वियोगी अहसास |
अधरों पर रूखापन है
सांसों में संत्रास |
आँखों में चुभते हैं चम्पई मकरन्द |
पीड़ा से रिसते हैं ***
बाहों मे सिमटा है
छुई-मुई सुधियों का तन |
रुई की फाहों से स्पर्श
लुभाते हैं मन |

अधरों से दूर हुए प्रणय-गीत बन्ध |
पीड़ा से रिसते हैं
***
नवगीत - ५
गुलमोहर की पाँखों पर
चुपके से उतर आई भोर |

इतराए अमलतास, चम्पा गंध बिखेरे |
रह-रह अमरबेल को मस्त पवन आ घेरे |
सूरजमुखी विहँस रहे
थामे किरणों की अविरल डोर |

कलियों के फेर में हैं मधु के रसिक भँवरे |
विचलित कब हुए वे देख काँटों के पहरे |
है बसंत जब तलक चलेंगे
अनगिन मधुपान के दौर |

चूमा जिसे तितलियों ने वह कली जवान हुई |
रूप का लावण्य देकर प्रकृति मेहरबान हुई |
झलकने लगा है आँखों में
छुपकर बैठा मन का चोर |

ठहरी-ठहरी नदी विहँसते हुए चलने लगी |
जल्द प्रिए से मिलूँगी, आकांक्षा पलने लगी |
सबको दिल की बात सुना दी
जो गया सागर की ओर |
... अरुण अर्णव खरे,  डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद रोड, भोपाल (म.प्र.) ४६२०२६
e mail : arunarnaw@gmail.com, चलभाष : ९८९३००७७४४   

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