लघुकथा:
नीरव व्यथा
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नीरव व्यथा
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बहुत उत्साह से मायके गयी थी वह की वर्षों बाद भाई की कलाई पर राखी बाँधेगी, बचपन की यादें ताजा होंगी जब वे बच्चे थे और एक-दूसरे से बिना बात ही बात-बात पर उलझ पड़ते थे और माँ परेशान हो जाती थी।
उसे क्या पता था कि समय ऐसी करवट लेगा कि उसे जी से प्यारे भाई को न केवल राखी बिना बाँधे उलटे पैरों लौटना पडेगा अपितु उस माँ से भी जमकर बहस हो जायेगी जिसे बचपन से उसने दादी-बुआ आदि की बातें सुनते ही देखा है और अब यह सोचकर गयी थी कि सब कुछ माँ की मर्जी से ही करेगी।
बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक, अकेले और असमय उसे घर के दरवाजे पर देखकर पति, सास-ससुर चौंके तो जरूर पर किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया। ससुर जी ने लपककर उसके हाथ से बच्चे को लिया, पति ने रिक्शे से सामान उतारकर कमरे में रख दिया सासू जी उसे गले लगाकर अंदर ले आईं बोली 'तुम एकदम थक गयी हो, मुँह-हाथ धो लो, मैं चाय लाती हूँ, कुछ खा-पीकर आराम कर लो।'
'बेटी! दुनिया की बिल्कुल चिंता मत करना। हम सब एक थे, हैं और रहेंगे। तुम जब जैसा चाहो बताना, हम वैसा ही करेंगे।' ससुर जी का स्नेहिल स्वर सुनकर और पति की दृष्टि में अपने प्रति सदाशयता का भाव अनुभव कर उसे सांत्वना मिली।
सारे रास्ते वह आशंकित थी कि किन-किन सवालों का सामना करना पड़ेगा?, कैसे उत्तर दे सकेगी और कितना अपमानित अनुभव करेगी? अपनेपन के व्यवहार ने उसे मनोबल दिया, स्नान-ध्यान, जलपान के बाद अपने कमरे में खुद को स्थिर करती हुई वह सामना कर पा रही थी अपनी नीरव व्यथा का।
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