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मंगलवार, 1 अगस्त 2017

navekhan karyashala 1


नवलेखन कार्यशाला:
पाठ १.  
भाषा और बोली 

मुख से उच्चारित होनेवाले सार्थक शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिसके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है, भाषा कहलाता है। अपने मन की अनुभूतियाँ व्यक्त करने के लिए जिन ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है उन्हें स्वन कहते हैं । इन ध्वनियों को व्यवस्थित रूप से प्रयोग करना ही भाषा का प्रयोग करना है। ध्वनियों की अभिव्यक्ति बोलकर की जाती है, इसलिए यह बोली है। बोली को वाणी तथा जुबान भी कहा जाता है। 
भाषा और बोली में अंतर: 
शब्दों को निरंतर बोलने पर उनकी अर्थवत्ता को बढ़ाने तथा विविध मनुष्यों की अभिव्यक्ति में एकरूपता लाने के लिए कुछ बनाये गए नियमों के अनुसार व्यवस्थित रूप से की गयी अभिव्यक्ति को भाषा कहते हैं। भाषा अपने बोलनेवालों की अभिव्यक्ति को एक सा रूप देती है। बोलनेवालों की शिक्षा, क्षेत्र, व्यवसाय, धर्म, पंथ, लिंग या विचार भिन्न होने के बाद भी भाषा में एकरूपता होती है।   
बोली सहज रूप से बोला जानेवाला वाचिक रूप है जबकि भाषा नियमानुसार बोला जानेवाला रूप। सामान्यत: ग्राम्य जन दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले शब्दों को छोटे से छोटा तथा सरल कर बोलते हैं, यह बोली है। बोली के वाक्य छोटे और सरल होते हैं। बड़े तथा कठिन शब्दों को सरल कर लिया जाता है जैसे- मास्टर साहब को मास्साब, हॉस्पिटल को अस्पताल आदि। बोली पर बोलनेवाले के परिवेश, शिक्षा, व्यवसाय आदि की छाप होती है। विश्व विद्यालय के प्राध्यापक और किसान एक ही बात कहें तो उनके द्वारा चुने गये शब्दों में अंतर होना स्वाभाविक है। यही भाषा और बोली का अन्तर है। 
अक्षर / वर्ण  

शाब्दिक अर्थ में अक्षर का अर्थ है जिसका 'क्षरण' (घटाव या विनाश) न हो। दर्शन शास्त्र के अनुसार यह परमात्मा का लक्षण है। भाषा के सन्दर्भ में 'अक्षर' छोटे से छोटी या मूल ध्वनि है, जिसे बोला जाता है तथा व्यक्त करने के लिए विशेष संकेत या आकृति का उपयोग किया जाता है। वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में ४४ वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद स्वर और व्यंजन हैं।  
स्वर- स्वतंत्र रूप से बोले जानेवाले और जो व्यंजनों को बोलने में में सहायक ध्वनियाँ 'स्वर' कहलाती हैं। ये संख्या में ग्यारह हैं: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।

उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गएहैं:
१. ह्रस्व स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
२. दीर्घ स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
विशेष- दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहाँ दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
३. प्लुत स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है। 
मात्रा- स्वरों के समयाधारित स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं:
स्वर       अ     आ       इ      ई      उ      ऊ     ए      ऐ    ओ     औ   ऋ
मात्राएँ     -       ा     ि      ी     ु     ू       े     ै      ो     ौ     ृ 
मात्रा भार १      २       १        २     १       २       २     २      २      २      १   
शब्द      हम   नाम   किन   खीर  गुम   घूम    बेर   तैर    शोर    नौ     कृष  
अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती। 
व्यंजन- जिन ध्वनियों / वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं।  व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में ३३ हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं:
१. स्पर्श- इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है जैसे: कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्, चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्, टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्), तवर्ग- त् थ् द् ध् न् तथा पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्।  
२. अंतःस्थ-  य् र् ल् व्। 
३. ऊष्म- श् ष् स् ह्। 
संयुक्त व्यंजन- जहाँ  दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं। देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन हो जाने के कारण इन तीन को गिनाया गया है। ये दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे-क्ष=क्+ष अक्षर, ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान, त्र=त्+र नक्षत्र कुछ लोग क्ष् त्र् और ज्ञ् को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।
व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं:
क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।
अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं:
क च छ ज झ त थ ध आदि।
अनुस्वार- इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह अक्षर के ऊपर बिंदी (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।
विसर्ग- इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न अक्षर के बगल में एक के ऊपर एक दो बिंदी (ः) है। जैसे-अतः, प्रातः।
अनुनासिक- जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया जाता है। यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे-हँसना, आँख। हिन्दी वर्णमाला में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन गिनाए जाते हैं, परन्तु इनमें ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या ४८ हो जाती है।
हलंत- जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे-विद्यां।
वर्ण का उच्चारण स्थल- मुख के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।
क्रमवर्णउच्चारणश्रेणी
१.अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह्विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भागकंठस्थ
२.इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् शतालु और जीभतालव्य
३.ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष्मूर्धा और जीभमूर्धन्य
४.त् थ् द् ध् न् ल् स्दाँत और जीभदंत्य
५.उ ऊ प् फ् ब् भ् मदोनों होंठओष्ठ्य
६.ए ऐकंठ तालु और जीभकंठतालव्य
७.ओ औकंठ जीभ और होंठकंठोष्ठ्य
८.व्दाँत जीभ और होंठदंतोष्ठ्य 
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