एक रचना
*
जो पाना था,
नहीं पा सका
जो खोना था,
नहीं खो सका
हँसने की चाहत में मनुआ
कभी न खुलकर कहीं रो सका
*
लोक-लाज पग की बेड़ी बन
रही रोकती सदा रास्ता
संबंधों के अनुबंधों ने
प्रतिबंधों का दिया वास्ता
जिया औपचारिकताओं को
अपनापन ही नहीं बो सका?
जो पाना था,
नहीं पा सका
जो खोना था,
नहीं खो सका
*
जाने कब-क्यों मन ने पाली
चाहत ज्यों की त्यों रहने की?
और करी जिद अनजाने ही
नेह नर्मदा बन बहने की
नागफनी से प्रलोभनों में
फँसा, दाग कब-कभी धो सका?
जो पाना था,
नहीं पा सका
जो खोना था,
नहीं खो सका
*
कंगूरों की करी कल्पना,
नीवों की अनदेखी की है
मन-अभियंता, तन कारीगर
सुरा सफलता की चाही है
इसकी-उसकी नींद उड़ाकर
नैन मूँद कब कभी सो सका
जो पाना था,
नहीं पा सका
जो खोना था,
नहीं खो सका
*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें