कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 17 जून 2011

दोहा सलिला: भू को फिरसे हरा कर संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
भू को फिरसे हरा कर
संजीव 'सलिल'

*
अग्नि वृष्टिकर प्रभाकर, देता हमको दंड.
भू को फिरसे हरा कर, रे मानव उद्दंड..

क्यों अम्बर का ईश यह, देख रहा चुपचाप?
बरस, बहा कचरा सकल, 'सलिल' सके जग-व्याप..

जग-ज्योतित कर प्रभाकर, पाए वंदना नित्य.
बागी भी धर्मेन्द्र बन, दे आलोक अनित्य..
 
पूनम सी खिल-खिल हँसे, फिर 'मावस की रात.
समय समय का फेर है- समय समय की बात....
 
आयें पानी आँख में, सक्रिय हों फिर हाथ.
पौध लगा, पानी बचा, ऊंचा हो सर-माथ..
 
अम्बरीश पानी पिला, करे धरा को तृप्त.
हरियाली चूनर पहन, धरा रहे संतृप्त..
 
बागी बनकर रोप दें, परिवर्तन की पौध.
'सलिल' धरा फिर बन सके, हरियाली की सौध..
 
भोग-योग का संतुलन, मेटे सकल विकार.
जग-जीवन आलोक पा, बाँटे-पाए प्यार..
 
मरुथल में कर हरीतिमा, चित्र करें साकार.
धर्म यही है एक अब, भू का करें सिंगार..
 
एक द्विपदी:
वंदना हो वृष्टि की जब, प्रार्थना हो पेड़ की तब.
अर्चना हो आयु की अब, साधना हो साधु सी रब..
*

कोई टिप्पणी नहीं: