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गुरुवार, 9 जुलाई 2020

यौन और ध्यान : ऊर्जा संतुलन

यौन  ऊर्जा को सामान्य व्यक्ति बिल्कुल नहीं समझता। कोई समझाने का प्रयत्न करता है, तो उसको 'यौन गुरु' कह दिया जाता है। व्यापारिक यौन गुरु इसे व्यवसाय बनाकर ठगते हैं। प्रत्यक्ष और सहज रूप में अध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझकर इस दुविधा से  मुक्त होना आवश्यक है। धर्म और सामाजिक मान्यताएँ कहती हैं सेक्स से बचो,‌  दूसरी ओर हमारा शरीर और मन को यौन की भूख निरंतर सताती है। इंसान सेक्स करे तो अपराध भाव से पीड़ित है और ना करे तो प्रकृति पागल कर देती है और फिर इस पागलपन से कई अपराध उत्पन्न होते हैं। इंसान की हालत एक  प्रेशर कुकर जैसी है - एक ऐसा प्रेशर कुकर जिसके नीचे आग सुलगाकर ऊपर सीटी लगा दी गई है और उस सीटी को एक अत्यंत वजनदार वस्तु से दबा दिया गया है। प्रकृति की आग है और सांसारिक और धार्मिक मान्यताएँ वजनदार वस्तुएँ ऊर्जा को बहने से रोकती हैं। इस दबाव के कारण जो ऊर्जा प्रकृति अनुसार सेक्स सेंटर से बहनी थी, वह क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, हिंसा आदि के रूप में बाहर आती है।
यौन इच्छाओं से ऊपर उठने की बात इसलिए की गई थी कि इंसान स्वत: शांत और उल्लास पूर्ण हो सके परंतु जो हो रहा है वह उसका बिल्कुल उल्टा है। कुछ तो गलती हुई है इस यौन को समझने में। अगर यौन पाप है तो इस पूरी दुनिया का जन्म पाप से ही है और पूरी दुनिया तो परमात्मा का ही रूप है। तो परमात्मा को भी हमने पापी बना दिया। यौन शब्द इंसान के मन पर हावी है। मैं यह नहीं कहता कि इंसान सेक्स की तरफ अग्रसर है। मैं यह कहता हूं कि या तो इंसान बहुत ही कामोत्तेजक है या फिर यौन का अत्यंत दमित है। दोनों  अवस्थाओं में इंसान बहुत ऊर्जा व्यर्थ करता है। बहुत अजीब है कि यौन के दमन अथवा काम उत्तेजना में जितनी ऊर्जा व्यर्थ जाती है, उसके सामने सेक्स कर लेने में बहुत ही नाममात्र ऊर्जा इस्तेमाल होती है। यौन एक ऊर्जा है जो कि आपके मूलाधार पर केंद्रित है। यह आटे की तरह है जिससे आप पूरी, रोटी,‌ परांठे  बहुत कुछ बना सकते हैं, जिसमें आटा मूल तत्व है और उससे उत्पन्न होने वाली वस्तु एक सुंदर रूपांतरण है। इस उत्तर को सही अर्थों में समझने के लिए यौन को पाप की तरह नहीं, एक ऊर्जा की तरह देखना होगा। धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठकर धर्म सत्य में क्या कहना चाहता है, उसे समझना होगा। जान लीजिए कि अध्यात्म यौन के विरुद्ध नहीं है।  
यौन इच्छाओं पर काबू पाना ही क्यों है? एक ओर तो धर्म प्रचारक यौन न करने की बात करते हैं और दूसरी ओर पूरा विश्व यौन करता चला जाता है। समाज यौन को समझने में असमर्थ रहा है। बचपन से ही आपको यह सिखा दिया गया कि यौन बुरा है, उससे बचना है क्योंकि वह पाप अथवा अशुद्ध है। अत्यंत ही दुख की बात है कि जिस क्रीड़ा से जीवन इस पृथ्वी पर बहता है, उसी को पाप कह दिया गया। ऐसी भूल अज्ञानता वश की जा रही है। यह बात एक बच्चे के कोमल मन में इतनी गहराई से उतार दी जाती है कि वह युवावस्था में पहुँचने के बाद अपराध भाव से ग्रस्त रहता है।सही समझ ना मिलने के कारण यह दुख जीवन भर बना रहता है, बुढ़ापे में भी।मान्यताओं उन पर प्रश्न करनेसे आपको ऊर्जा के विज्ञान को समझने में सहायता मिलेगी।
दूसरी बात यह समझनी होगी कि यौन इच्छाओं को काबू करने का सिलसिला कैसे हुआ। हमारे कई महान् ऋषि-मुनियों ने जाना कि ऊर्जा का स्रोत हमारे मूलाधार चक्र पर ही है जिसे कुंडलिनी भी कहते हैं। अगर इसको जगा कर रूपांतरित किया जा सके या इसको ऊपर की ओर निर्देशित किया जा सके तो यही ऊर्जा प्रेम शांति और आनंद हो जाती है। तो बात इतनी सरल है। किसी भी महर्षि ने यौन शक्ति के दमन की बात नहीं की। केवल और केवल ऊर्जा रूपांतरण और ऊर्जा प्रवाह को निर्देशित करने की बात की है। धर्म के शिक्षक इस स्तर पर नहीं है कि इस ऊर्जा को पूर्णतया जान सके, इसके बारे में बहुत भ्रांतियाँ फैला दी गई। वह ऊर्जा जो जीवन का स्रोत है, वह तो जीवन का एक उपहार है। यह जान लेने के बाद कि सेक्स तो केवल एक ऊर्जा है, न्यूट्रल है, उसको रूपांतरण करने करने की जिम्मेदारी हम पर है। बहुत लोग हैं जो कह देते हैं कि ध्यान कहीं और लगाओ, स्वयं को कार्य में व्यस्त रखो अथवा कुछ। यह उपाय कुछ ही दिनों में खंड-खंड हो जाते हैं क्योंकि उद्देश्य सेक्स के दमन का है।
सबसे जरूरी और तीसरी बात - अगर सेक्स के प्रति अपराध भाव है, तो सेक्स इच्छाओं से मुक्ति नहीं पाई जा सकती, केवल दमन हो सकता है जो अक्सर विनाशकारी होता है। अगर इच्छाओं पर काबू पाना चाहते हो, तो पहले सेक्स के प्रति अपराध भाव को त्यागना होगा। उसको एक ऊर्जा की भांति देखना होगा, समझना होगा। केवल और केवल ऊर्जा के विज्ञान को समझ कर इस ऊर्जा का श्रेष्ठ इस्तेमाल किया जा सकता है। सेक्स की इच्छा की उत्पत्ति इतनी तीव्र है ही इसलिए क्योंकि हमने सेक्स का बहुत दमन कर दिया। इसको इस तरह समझिए- जब भूख लगती है तो क्या आप यह कहते हुए फिरते हैं कि कुछ खाने की इच्छा है, मैं इसे किस तरह काबू करूं? लेकिन सेक्स के लिए आप यह कहते फिरते हैं जबकि शारीरिक स्तर पर यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। गौर कीजिए, ऐसा क्यों है और सेक्स के साथ ही क्यों, भोजन के साथ क्यों नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं जिन्हें खुद ही ज्ञान नहीं, उन्होंने आपको बहुत कुछ सिखा दिया? 
शक्ति तो जीवनदायिनी है - केवल भीतर शक्ति का रूपांतरण कर शिव तक पहुंचा जा सकता है, शक्ति का निरादर कर नहीं। अब शक्ति के रूपांतरण की बात करते हैं। जैसा मैंने पहले कहा, रूपांतरण पूर्णत: तभी संभव है जब सेक्स के प्रति अपराध भाव से व्यक्ति मुक्त है। शुरुआत की जा सकती है अपराध भाव होते हुए भी लेकिन अंत तभी हो पाएगा या यूं कह लीजिए की रूपांतरण तभी पूर्ण हो पाएगा जब सेक्स के प्रति अपराध भाव पूरा समाप्त हो जाए। इस उत्तर में मैं जो भी विद्या लिख रहा हूं वह एक आम व्यक्ति के लिए है। हो सकता है कि कोई साधक किसी ऐसे सत्यगुरु के पास हो जो सेक्स ना करने को कहता हूं और वह उसके लिए अपने शिष्य को कुछ विधियाँ बताए। लेकिन ऐसी विद्या केवल बहुत ही कम लोगों के लिए होती है और यह संसार से दूर रहकर अर्जित की जाती है। संसारी को अगर संसार में रहते हुए ही योग करना है, तो उसमें उचित है कि सरल मार्ग से चला जाए।
तो इस विद्या का पहला मुख्य उपाय है यह समझना कि सेक्स शरीर से संबंधित है। उसे मन पर हावी नहीं होने देना। सेक्स मन पर तब हावी होता है या तीव्र इच्छाओं के रूप में तब प्रकट होता है जब शरीर को सेक्स ना मिले अथवा मिले परंतु साथ ही अपराध भाव भी मिले, जिससे संतुष्टि हो नहीं पाती। तो पहली बात, अगर सेक्स कर ही रहे हो,‌ तो पूर्णतया करो। उसमें अपराध भाव मत लाओ। जितनी ऊर्जा सेक्स पर लगाओगे उससे कई गुना अधिक ऊर्जा सेक्स की इच्छाओं में व्यर्थ करोगे, अगर शरीर के स्तर पर तृप्ति नहीं है तो।
एक संसारी के लिए यह वह आधार है जिस पर खड़े हो ऊर्जा का रूपांतरण सही अर्थों में शुरू किया जा सकता है। बात को समझिए - सेक्स के दमन से आप मन के स्तर पर सेक्स ऊर्जा से इतनी दूर हो गए हैं की ऊर्जा पर काम ही नहीं हो पाता। जब आप खाना बनाते हैं तो क्या दूर से रहकर ही खाना बन जाएगा? नहीं, सब्जियाँ काटनी होंगी, पकानी होंगी। खाना बनाने के लिए मूल वस्तुओं पर काम करना ही पड़ेगा और वह दूर रहकर हो नहीं सकता। इसी प्रकार सेक्स ऊर्जा के रूपांतरण के लिए सेक्स उर्जा को समझ कर उस पर काम करना होगा। जिसे रूपांतरण करना चाहते हो, उसे प्रेम से अपनाना होगा। अगर यह मूल समझ में आ गया तो अब रूपांतरण की बात की जा सकती है। रूपांतरण के लिए बहुत सी क्रियाएँ और साधन उपलब्ध है। मैं एक सरल मार्ग की बात करूँगा जो कि एक आम व्यक्ति जीवन में अपना सकता है।
इस मार्ग के दो स्तंभ समझिए- हृदय विकास और ध्यान। हमें सेक्स के दमन या उसकी ओर काम करने की जरूरत कम और ध्यान और हृदय विकास की तरफ काम करने की जरूरत ज्यादा है। कहने की कोशिश यह है की उल्टी उंगली से कान पकड़ा जाएगा। अत्याधिक दमन के कारण सेक्स ऊर्जा के ऊपर सीधा सीधा काम करना एक आम व्यक्ति के लिए बहुत मुश्किल है। इसलिए सेक्स जैसा चलता है ठीक है, पर्याप्त है - वह इस प्रक्रिया का केंद्र है ही नहीं। हमारा केंद्र है ह्रदय विकास और ध्यान। इस प्रकार सेक्स की इच्छाएँ धीरे-धीरे स्वयं से ही गिरनी शुरू हो जाती हैं। क्योंकि वही उर्जा जो सेक्स में जानी थी अब ह्रदय और ध्यान पर जाने लगे हैं। जितना हृदय का विकास होगा उतनी ही ऊर्जा मूलाधार से ह्रदय की ओर प्रस्थान करने लगेगी।  हृदय और ध्यान की प्रक्रिया के लिए यह उपाय हैं:
१) जो भी काम रचनात्मक या सेवाभाव युक्त होता है वह हृदय से संबंधित होता है। तो एक बच्चे की तरह अगर किसी को गाना, बजाना, खेलना, नृत्य, संगीत,‌चित्रकारी, काव्य रचना, सेवा भाव जैसे खाना पकाना, अन्न बाँटना या इस तरह के कार्य अच्छे लगे उसमें पूर्ण रुचि से शामिल हों। पशु पक्षियों और प्रकृति के साथ रहने में भी हृदय का विकास होता है और ध्यान में भी सहायता मिलती है। जितना रचनात्मक कार्य बढ़ेगा, उतनी ही उर्जा स्वयं से ही हृदय की तरफ आकर्षित होती चली जाएगी इसमें कुछ वक्त लग सकता है परंतु होगा यही।
२) जीवन में ध्यान को स्थान दीजिए ।बहुत ही सुंदर ध्यान विधियाँ आजकल यूट्यूब और कई जगह पर उपलब्ध है। इसमें भी वह विधि जो हृदय का विकास करे ज्यादा लाभकारी सिद्ध हो सकती है -जैसे हार्टफुलनेस। सुंदर होगा अगर आप किसी ऐसे संगठन या सत्संगति में जाते हैं जहाँ ध्यान पर जोर हो सेक्स के दमन पर नहीं। सेक्स तो मन से निकाल ही दीजिए जैसा चल रहा है ठीक है- हम इस प्रक्रिया में सेक्स के दमन या सेक्स को खत्म करने पर जोर दे ही नहीं रहे। पूरे का पूरा काम ऊर्जा को ह्रदय और ध्यान की ओर प्रेरित करने के लिए है। फल स्वरूप, जो सेक्स के साथ होना है वह स्वयं से होता रहेगा।
३) यह आवश्यक है की एक गुरु जीवन में हो जो आपको ऊर्जा के रहस्य से अवगत करा सके। एक सही समझ दे सके जो कि आपके जीवन के अनुसार हो। जिस समझ का अनुसरण कर आप अपने जीवन को खूबसूरत बना सकें।
बस इतना सा ही है - अगर यह उपाय उत्तम जीवन में पूर्ण रूप से उतार लिए गए तो सेक्स पर काम स्वयं से ही हो जाएगा। ना ही अपराध भाव की जरूरत है, ना ही प्रताड़ित होने की। यह एक आम व्यक्ति के लिए अति सुंदर व सरल मार्ग है। जिस तरह जीवन में कक्षा को पास करने के लिए समय लगता है उसी तरह इसमें भी कुछ समय लगेगा।

बुधवार, 8 जुलाई 2020

मन के दोहे

दोहा सलिला:
मन के दोहे
*
मन जब-जब उन्मन हुआ, मन ने थामी बाँह.
मन से मिल मन शांत हो, सोया आँचल-छाँह.
*
मन से मन को राह है, मन को मन की चाह.
तन-धन हों यदि सहायक, मन पाता यश-वाह.
*
चमन तभी गुलज़ार हो, जब मन को हो चैन.
अमन रहे तब जब कहे, मन से मन मृदु बैन.
*
द्वेष वमन जो कर रहे, दहशत जिन्हें पसंद.
मन कठोर हो दंड दे, मिट जाए छल-छंद.
*
मन मँजीरा हो रहा, तन कीर्तन में लीन.
मनहर छवि लख इष्ट की, श्वास-आस धुन-बीन.
*
नेह-नर्मदा सलिल बन, मन पाता आनंद.
अंतर्मन में गोंजते, उमड़-घुमड़कर छंद.
*
मन की आँखें जब खुलीं, तब पाया आभास.
जो मन से अति दूर है, वह मन के अति पास.
*
मन की सुन चेता नहीं, मनुआ बेपरवाह.
मन की धुन पूरी करी, नाहक भरता आह.
*
मन की थाह अथाह है, नाप सका कब-कौन?
अंतर्मन में लीन हो, ध्यान रमाकर मौन.
*
धुनी धूनी सुलगा रहा, धुन में हो तल्लीन.
मन सुन-गुन सुन-गुन करे, सुने बिन बजी बीन.
*
मन को मन में हो रहे, हैं मन के दीदार.
मन से मिल मन प्रफुल्लित, सर पटके दीवार.
*
८.७.२०१८, ७९९९५५९६१८.

राजस्थानी सणगार : कौशल कौशलेन्द्र

=====-: पैली बार राजस्थानी सणगार :-=====
कौशल कौशलेन्द्र
काम री कमाण काया रंग चाँदी रो छै पाणी,
बाजूड़ा तो गोरा-गोरा फूलाँ की सी डाळ छै।
नीला नैण मीठा बैण छायो डील मँ बसन्त,
होठ कचनार गालाँ रूप री उछाळ छै।
रूणक-झुणक चा ल गोरी गजगामणी सी,
साँस री सुगन्ध जाण मीठी-मीठी भाळ छै।
साँवळी सहेल्याँ बीच बतळाव मुसकाव,
बादळाँ र बीच जाणँ चाँद रो उजाळ छै।
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एक मुक्तकी राम-लीला, एक श्लोकी रामायण

एक मुक्तकी राम-लीला
*
राम जन्मे, वन गए, तारी अहल्या, सिय वरी।
स्वर्णमृग-बाली वधा, सुग्रीव की पीड़ा हरी ।।
सिय हरण, लाँघा समुद,लड़-मार रावण को दिया-
विभीषण-अभिषेक, गद्दी अवध की शोभित करी।।
*
८-७-२०१६
रामकथा
* एक श्लोकी रामायण *

अदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणम्।
वालि निग्रहणं समुद्र तरणं लंका पुरी दास्हम्।
पाश्चाद् रावण कुंभकर्ण हननं तद्धि रामायणम्।

यदि इसे भी रामायण माने तो यह विश्व की सबसे छोटी एक श्लोकी रामायण है. इसे रचने वाले कवि गोस्वामी तुलसीदास माने जाते हैं .
'रामायण' का विश्लेषित रुप 'राम का अयन' है जिसका अर्थ है 'राम का यात्रा पथ', क्योंकि अयन यात्रापथवाची है। इसकी अर्थवत्ता इस तथ्य में भी अंतर्निहित है कि यह मूलत: राम की दो विजय यात्राओं पर आधारित है जिसमें प्रथम यात्रा यदि प्रेम-संयोग, हास-परिहास तथा आनंद-उल्लास से परिपूर्ण है, तो दूसरी क्लेश, क्लांति, वियोग, व्याकुलता, विवशता और वेदना से आवृत्त। विश्व के अधिकतर विद्वान दूसरी यात्रा को ही रामकथा का मूल आधार मानते हैं। एक श्लोकी रामायण में राम वन गमन से रावण वध तक की कथा ही रूपायित हुई है।

बुन्देली मुक्तिका: बखत बदल गओ

बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
संजीव
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
*

दुर्मिला छंद

छंद सलिला:
दुर्मिला छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-१४, पदांत गुरु गुरु, चौकल में लघु गुरु लघु (पयोधर या जगण) वर्जित।

लक्षण छंद:
दिशा योग विद्या / पर यति हो, पद / आखिर हरदम दो गुरु हों
छंद दुर्मिला रच / कवि खुश हो, पर / जगण चौकलों में हों
(संकेत: दिशा = १०, योग = ८, विद्या = १४)
उदाहरण:
१. बहुत रहे हम, अब / न रहेंगे दू/र मिलाओ हाथ मिलो भी
बगिया में हो धू/ल - शूल कुछ फू/ल सरीखे साथ खिलो भी
कितनी भी आफत / आये पर भू/ल नहीं डट रहो हिलो भी
जिसको जो कहना / है कह ले, मुँह / मत खोलो अधर सिलो भी

२. समय कह रहा है / चेतो अनुशा/सित होकर देश बचाओ
सुविधा-छूट-लूट / का पथ तज कद/म कड़े कुछ आज उठाओ
घपलों-घोटालों / ने किया कबा/ड़ा जन-विश्वास डिगाया
कमजोरी जीतो / न पड़ोसी आँ/ख दिखाये- धाक जमाओ

३. आसमान पर भा/व आम जनता/ का जीवन कठिन हो रहा
त्राहिमाम सब ओ/र सँभल शासन, / जनता का धैर्य खो रहा
पूंजीपतियों! धन / लिप्सा तज भा/व् घटा जन को राहत दो
पेट भर सके मे/हनतकश भी, र/हे न भूखा, स्वप्न बो रहा
----------
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिभंगी, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दुर्मिला, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, समान, सरस, सवाई, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

दृष्टांत कथा गुरु क्यों?

पारंपरिक लघु कथा : दृष्टांत कथा 
गुरु क्यों?
*
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की खेती सुनकर तरुण नरेन्द्र ने एक दिन उनसे कहा, " स्वामीजी! मैं रामायण जानता हूँ , भगवद्गीता जानता हूँ, सारे वेद पढ़े हैं और हर विषय पर अच्छा व्याख्यान दे लेता हूँ, फिर मुझे गुरु की आवश्यकता क्यों ?"
परमहंस ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिर्फ मुस्कुरा दिए। 
कुछ दिनों बाद परमहंस ने नरेन्द्र को बुलवाया, कुछ सामान और मान-पते की एक पर्ची देकर कहा, " इसे नदी के पार इनको कल दे आओ।"
नरेन्द्र ने सामान ले लिया। दूसरे दिन सवेरे उस गाँव की तरफ निकल पड़े ताकि जल्दी से देकर वापस आ सकें। रास्ते में एक नदी पड़ती थी जहाँ नाव तैयार थी, नाविक उन्हें लेकर चल पड़ा। नदी के पार उतर कर उन्होंने देखा कि घाट से कई सारे रास्तेे, कई गाँवों की तरफ जाते हैं। उन्होंने नाविक से पूछा, "भैया ! इस गाँव तक पहुँचने का रास्ता कौन सा है ? 
नाविक ने कहा, "मुझे नहीं मालुम। "
नरेन्द्र असमंजस में पड़ गए।  अब क्या करें ? यहाँ तो कई रास्ते हैं,  किससे जाएँ कि बिना भटके सही गाँव में पहुँच जाएँ। काफी देर तक देखते रहे, कोइ अन्य जानकार नहीं आया तो नाववाले से बोले, "भैया, मुझे वापस ले चलो।  बिना रास्ता जाने ही चला आया। इस बार पूछ कर आऊँगा।"
वापस आकर नरेन्द्र स्वामी परमहंस के पास रास्ता पूछने गए तो उन्होंने रास्ता बताने के स्थान पर सामान वापिस ले लिया और कहा की अब पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है यह तो तुम्हारे उस दिन के प्रश्न का उत्तर है।  गंतव्य स्थान पर जाने के लिए तुम्हारे पास माध्यम (नाव) है, संसाधन (नाविक) है, यह भी मालूम है कि क्या करना है (सामान देना है), कहाँ जाना है, लेकिन रास्ता नहीं मालूम ! बिना मार्गदर्शन के किस रास्ते से भटकते रह जाएगा। 
नरेंद्र समझ गए कि गुरु मार्गदर्शक होता है। उसे पता होता है कि किस शिष्य को कौन सा सामान देना है, कौन सी राह बतानी है? 
***

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

हाइकू गीत

हाइकू गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*

साहित्य जगत के विलक्षण साधक –संजीव वर्मा 'सलिल'

साहित्य जगत के विलक्षण साधक –संजीव वर्मा 'सलिल'
डॉ. पुष्पा जोशी
*
मंडला( मध्य प्रदेश ) में जन्मे संजीव वर्मा ‘सलिल” जी, आधुनिक मीरा महादेवी वर्मा के भतीजे हैं। संजीव जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ट्रू मीडिया राष्ट्रीय पत्रिका में जब विशेषाँक निकालने की बात चली तो मुझे लगा कि बेशक संजीव जी के महादेवी वर्मा जी से रक्त सम्बंध हैं परंतु हमसे भी उनके शब्द सम्बंध तो हैं ही । इसी सम्बंध के चलते लगा उनके विषय में कुछ लिखूँ । संजीव जी की शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविलअभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एल.एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.न के साथ-साथ न जाने कितनी ही भारी भरकम डिग्रियाँ उनके पास हैं।
मुझे याद आ रहा 11 जनवरी 2018 का वह दिन जब विश्व पुस्तक मेले में लेखक मंच पर ऋत फाउंडेशन एवं युवा उत्कर्ष साहित्य्क मंच के तत्वाधान में पुस्तक लोकार्पण एवं साहित्यिक परिचर्चा में मुख्य अतिथि के आसन पर संजीव जी विराजमान थे । मैं सभी के समक्ष लेखक मंच से साहित्य और राज्याश्रय परिचर्चा विषय पर बोल रही थी। मंच से क्रमश: जब सलिल जी का बोलने का समय आया तो उन्होंने सबसे पहले मंच से बोलने वालों पर छोटी-छोटी कविताएं सुना डाली। बस तभी उनकी काव्य क्षमता का अनुमान लग गया था.......भला भात तैयार हो गया यह जानने केलिए एक दो चावल के दाने ही तो पतीली से निकाल कर दबाकर तसल्ली कर ली जाती है । बस वो ही अभी तक की मुलाकात है हमारी ।
यहाँ पर आपकी भाव-तीव्रता का सहज स्वाभाविक समावेश हुआ है।
बना मंदिर नया,दे दिया तीर्थ है ,
नया जिसे कहें सभी गौरव कथा ।
महामानव तुम्हीं, प्रेरणा स्त्रोत हो ,
हमें उजास दो गढें किस्मत नयी।
खडे हैं सुर सभी , देवतालोक में
प्रशस्ति गा रहे , करें स्वागत सभी।
संजीव जी आजकल सवैया छंद पर काम कर रहे हैं। मुझे लगता है नवान्वेषित सवैये उन्हें साहित्याकाश की ऊँचाईयों पर ले जाएंगे। आईये ! देखते हैं एक सवैया –
तलाशते रहे कमी, न खूबियाँ
निहारते , प्रसन्नता कहाँ मिले ?
विरासते रहें हमीं, न और को
पुकारते, हँसी – खुशी कहाँ मिले?
बटोरने रहे सदा , न रंक बंधु हो
सके, न आसमां – जमें मिले ।
निहारते रहे छिपे , न मीत प्रीत पा
सके , मिले – कभी नही मिले।
समसामयिक रचनाओं में भी आपका कोई सानी नही ।
सांत्वना है ‘ सलिल ‘ इतनी लोग
सच सुन समझते
मुखौटा हर एक नेता है चुनावी
मास का
माँ नर्मदा के भक्तिरस में डूबे साहित्य सागर संजीव वर्मा ‘ सलिल ‘ से साहित्य की कोई विधा इनसे अछूती नही है जिस प्रकार सागर में गोते लगाकर रत्न हाथ लगते हैं उसी प्रकार् इनके साहित्य साग्र में गोता लगाने पर कोई न कोई विधा हाथ लग जाती है।
कवि हृदय लेकर कल्पना के सप्तरंगी आकाश में आसन जमाकर इन्होंने जिस काव्य का सृजन किया है, वह घर-घर पहुँचे। अपनी अन्तर्मुखी मनोवृत्ति एवं साहित्य सुलभ गहरे अनुभवों के कारण आपके द्वारा रचित काव्य में वेदना एवं सूक्ष्म अनुभूतियों के कोमल भाव मुखरित हुए हैं। आपके काव्य में संगीतात्मकता एवं भाव-तीव्रता का सहज स्वाभाविक समावेश हुआ है।
साहित्य के विलक्षण साधक आप निरंतर साहित्य –पथ पर अग्रसर रहें, युगों-युगों तक आपका यश गान हो। शुभकामनाओं सहित मैं …………….
डॉ. पुष्पा जोशी
सह- संपादक ट्रू मीडिया
नोएडा एक्सटैंशन यू.पी.

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़

अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
*
छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत

छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - 
यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)
*
सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन 
- श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
*
कहा 'पहन लो चूड़ियाँ', तो हो क्यों नाराज?
कहा सुहागिन से गलत, तुम्हें न आती लाज? 
- श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)
*
वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास 
- लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
*


दया-दफीना दे दिया, दस्तफ्शां को दान
दरा-दमामा दाद दे, दल्कपोश हैरान
(दरा = घंटा-घड़ियाल, दफीना = खज़ाना, दस्तफ्शां = विरक्त, दमामा = नक्कारा, दल्कपोश = भिखारी)
*
दर पर था दरवेश पर, दरपै था दज्जाल
दरहम-बरहम दामनी, दूर देश था दाल
(दर= द्वार, दरवेश = फकीर, दरपै = घात में, दज्जाल = मायावी भावार्थ रावण, दरहम-बरहम = अस्त-व्यस्त, दामनी = आँचल भावार्थ सीता, दाल = पथ प्रदर्शक भावार्थ राम )
*
दिलावरी दिल हारकर, जीत लिया दिलदार
दिलफरेब-दीप्तान्गिनी, दिलाराम करतार

(दिलावरी = वीरता, दिलफरेब = नायिका, दिलदार / दिलाराम = प्रेमपात्र)
*
अधिक कोण जैसे जिए, नाते हमने मीत।
न्यून कोण हैं रिलेशन, कैसे पाएँ प्रीत।।
*
हाथ मिला; भुज भेंटिए, गले मिलें रह मौन।
किसका दिल आया कहाँ बतलायेगा कौन?
*
रिमझिम को जग देखता, रहे सलिल से दूर।
रूठ गया जब सलिल तो, उतरा सबका नूर।।
*
माँ जैसा दिल सलिल सा, दे सबको सुख-शांति।
ममता के आँचल तले, शेष न रहती भ्रांति।।
*
वाह, वाह क्या बात है, दोहा है रस-खान।
पढ़; सुन-गुण कर बन सके, काश सलिल गुणवान।।
*
आप कहें जो वह सही, एक अगर ले मान।
दूजा दे दूरी मिटा, लोग कहें गुणवान।।
*
यह कवि सौभाग्य है, कविता हो नित साथ।
चले सृजन की राह पर, लिए हाथ में हाथ।।
*
बात राज की एक है, दीप न हो नाराज।
ज्योति प्रदीपा-वर्तिका, अलग न करतीं काज।।
*
कभी मान-सम्मान दें, कभी लाड़ या प्यार।
जिएँ ज़िंदगी साथ रह, करें मान-मनुहार।।
*
साथी की सब गलतियाँ, विहँस कीजिए माफ़।
बात न दिल पर लें कभी, कर सच्चा इंसाफ।।
*
साथ निभाने का यही, पाया एक उपाय।
आपस में बातें करें, बंद न हो अध्याय।।
*
खुद को जो चाहे कहो, दो न और को दोष।
अपना गुस्सा खुद पियो, व्यर्थ गैर पर रोष।।
*
सबक सृजन से सच मिला, आएगा नित काम।
नाम मिले या मत मिले, करे न प्रभु बदनाम।।
*
जो न सके कुछ जान वह, सब कुछ लेता जान।
जो भी शब्दातीत है, सत्य वही लें मान।।
*
ममता छिप रहती नहीं, लिखा न जाता प्यार।
जिसका मन खाली घड़ा, करे शब्द-व्यवहार।।
*
७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा सलिला: दिल

दोहा सलिला:
*
दिल ने दिल को दे दिया, दिल का लाल सलाम।
दिल ने बेदिल हो कहा, सुनना नहीं कलाम।।
*
दिल बुजदिल का क्या हुआ, खुशदिल रहा न आप।
था न रहा अब जवां दिल, गीत न सुन दे थाप।।
*
कौन रहमदिल है यहाँ?, दिल का है बाज़ार।
पाया-खोया ने किया, हर दिल को बेज़ार।।
*
दिलवर दिल को भुलाकर, जब बनता दिलदार।
सह न सके तब दिलरुबा, कैसे हो आज़ार।।
*
टूट गया दिल पर न की, किंचित भी आवाज़।
दिल जुड़ता भी किस तरह, भर न सका परवाज़।।
*
दिल दिल ने ले तो लिया , दिया न दिल क्यों बोल?
दिल ही दिल में दिल रहा, मौन न बोले बोल।।
*
दिल पल-पल दुखता रहा, दिल चल-चल बेचैन।
थक-थककर दिल रुक गया, दिल ने पाया चैन।।
*
दिल के हाथों हो गया, जब-जब दिल मजबूर।
दिल ने अनदेखी करी, दिल का मिटा गुरूर।।
*
दिल के संग न संगदिल, का हो यारां साथ।
दिल को रुचा न तंगदिल, थाम न पाया हाथ।।
***
७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

कुण्डलिया का वृत्त है दोहा-रोला युग्म

छंद परिचय
कुण्डलिया का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[लेखक परिचय: जन्म: २०-८-१०५२, मंडला मध्य प्रदेश। शिक्षा: डी. सी. ई., बी. ई. एम्. आई. ई., एम्. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकरिता। प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव भक्ति गीत, २. भूकंप के साथ जीना सीखें लोकोपयोगी तकनीकी, ३. लोकतंत्र का मकबरा कवितायेँ, ४. मीत मेरे कवितायेँ, ५. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत, ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य, काव्यानुवाद: सौरभ:, यदा-कदा। संपादित: ९ पुस्तकें, १६ स्मारिकाएँ, ८ पत्रिकाएँ। ३६ पुस्तकों में भूमिका लेखन, ३०० से अधिक समीक्षाएँ, अंतरजाल पर अनेक ब्लॉग, फेसबुक पृष्ठ ६००० से अधिक रचनाएँ, हिंदी में तकनीकी शोध लेख, छंद शास्त्र में विशेष रूचि। मेकलसुता पत्रिका में दोहा के अवदान पर पर ३ वर्ष तक लेखमाला, हिन्दयुग्म.कोम में छंद लेखन पर २ वर्ष तथा साहित्यशिल्पी.कोम में ८० अलंकारों पर लेखमाला। वर्तमान में साहित्यशिल्पी में 'रसानंद है छंद नर्मदा' लेखमाला में ८० छंद प्रकाशित। संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
*
कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३ पर यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण, रोला का प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंद हैं। इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उदाहरण:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है, है वहीं, सच मानो अंधेर।।
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
करें देश हित कार्य, सियासत भूल हर समय।।
*
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
दोहा:
समय-समय की बात है
१११ १११ २ २१ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
समय-समय का फेर।
१११ १११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
जहाँ देर है, है वहीं
१२ २१ २ १२ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
सच मानो अंधेर
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
रोला:
सच मानो अंधेर (दोहा के अंतिम चरण का दोहराव)
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
मचा संसद में हुल्लड़
१२ २११ २ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु [प्रभाव गुरु गुरु] के साथ यति
हर सांसद को भाँग
११ २११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
पिला दो भर-भर कुल्हड़
१२ २ ११ ११ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु (प्रभाव गुरु गुरु) के साथ यति
भाँग चढ़े मतभेद
२१ १२ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दूर हो, करें न संशय
२१ २ १२ १ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु के साथ यति
करें देश हित कार्य
करें देश-हित कार्य = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
सियासत भूल हर समय
१२११ २१ ११ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु के साथ यति
उदाहरण -
०१. कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
०२. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०३. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०४. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०५. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०६. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०७. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०८. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०९. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
१०. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।

हरिगीतिका सलिला अभियांत्रिकी, तकनीक, भारत, अभियान

हरिगीतिका सलिला
अभियांत्रिकी, तकनीक, भारत, अभियान
संजीव
*
(छंद विधान: १ १ २ १ २ x ४, पदांत लघु गुरु, चौकल पर जगण निषिद्ध, तुक दो-दो चरणों पर, यति १६-१२ या १४-१४ या ७-७-७-७ पर)
*
कण जोड़ती, तृण तोड़ती, पथ मोड़ती, अभियांत्रिकी
बढ़ती चले, चढ़ती चले, गढ़ती चले, अभियांत्रिकी
उगती रहे, पलती रहे, खिलती रहे, अभियांत्रिकी
रचती रहे, बसती रहे, सजती रहे, अभियांत्रिकी
*
नव रीत भी, नव गीत भी, संगीत भी, तकनीक है
कुछ हार है, कुछ प्यार है, कुछ जीत भी, तकनीक है
गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी, तकनीक है
श्रम मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है
*
यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है
कर दें सभी मिल देश का, निर्माण यह अभियान है
गुणयुक्त हों अभियांत्रिकी, श्रम-कोशिशों का गान है
परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com

अभियंता

स्वागतम
*
अभियंता मिलन का परिणाम शुभ हो
जो हुआ सो हुआ, अब कुछ काम शुभ हो
सिरे बातें ही न हों, कुछ योजना हो

प्रकृति-पर्यावरण सँग अंजाम शुभ हो
*
आप आये हैं शहर को याद करने
शहर को हो याद यह क्षण, क्या करेंगे ?
क्या मिलन के पल महज मस्ती करेंगे?
या बने स्मार्ट कैसे, पथ वरेंगे?
*

शिव वन्दना: गोस्वामी तुलसीदास

शिव वन्दना:
गोस्वामी तुलसीदास
*
नमामी शमीशान निर्वाण रूपमम् ।
विभुम् व्यापकम् ब्रह्म वेदस्सवरूपम् ।।
निजम् निर्गुणम् निर्विकल्पम् निरीहम् ।
चिदाकाशमाकाश वासं भजेहम् ।। १ ।।
निराकार ऊँकार मूलम् तुरीयम् ।
गिराग्यान गोतीश मीशम् गिरीशम् ।।
करालं महाकाल कालम् कृपालम् ।
गुणगार संसार पारम् नतोsहम् ।। २ ।।
तुषाराद्री संकाश गौरं गंभीरम् ।
मनोभूत कोटी प्रभा श्रीशरीरम् ।
स्फुरनमौली कल्लोलिनी चारू गंगा ।
लसत भालु बलेन्दु कंठे भुजंगा ।। ३ ।।
चलत कुण्डलम् भ्रू त्रिनेतरम् विशालम् ।
प्रसन्नानम् नील कंठम् दयालम् ।।
मृगाधीश चर्मामबरम् मुण्डमालम् ।
प्रिय शंकरम् सर्व नाथम् भजामी ।। ४ ।।
प्रचण्डम् प्रखंडम् प्रगलभम् परेशम् ।
अखंडम् अजम्भानु कोटी प्रकाशम् ।।
त्रिय शूल निर्मूलनम् शूलपाणी ।
भजेहम् भवानी पतिम् भाव गम्यम् ।। ५ ।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी ।
सदा सच्चिदान्नद दाता पुरारी ।।
चिदान्नद संदोह मोहापहारी ।
प्रसीद प्रसीद प्रभो मनमथारी ।। ६ ।।
ना यावत उमानाथ पादार विन्दम् ।
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।।
न तावत सुखम् शान्ति संताप नाशम् ।
प्रसीद प्रभो सर्व भूतादिवासम् ।। ७ ।।
ना जानामी योगं जपम् नैव पूजा ।
नsतोहम् सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्् ।।
ज़रा जन्म दुखोःध्य ता तप्यमानम् ।
प्रभो पाहीशापन नमामीश शंभो ।। ८ ।।
*
साभार: रामचरित मानस

कविता

कविता
संजीव 'सलिल'
*
जिसने कविता को स्वीकारा, कविता ने उसको उपकारा.
शब्द्ब्रम्ह को नमन करे जो, उसका है हरदम पौ बारा..
हो राकेश दिनेश सलिल वह, प्रतिभा उसकी परखी जाती-
होम करे पल-पल प्राणों का, तब जलती कविता की बाती..
भाव बिम्ब रस शिल्प और लय, पञ्च तत्व से जो समरस हो.
उस कविता में, उसके कवि में, पावस शिशिर बसंत सरस हो..
कविता भाषा की आत्मा है, कविता है मानव की प्रेरक.
राजमार्ग की हेरक भी है, पगडंडी की है उत्प्रेरक..
कविता सविता बन उजास दे, दे विश्राम तिमिर को लाकर.
कविता कभी न स्वामी होती, स्वामी हों कविता के चाकर..
कविता चरखा, कविता चमडा, कविता है करताल-मंजीरा.
लेकिन कभी न कविता चाहे, होना तिजोरियों का हीरा..
कविता पनघट, अमराई है, घर-आँगन, चौपाल, तलैया.
कविता साली-भौजाई है, बेटा-बेटी, बाबुल-मैया..
कविता सरगम, ताल, नाद, लय, कविता स्वर, सुर वाद्य समर्पण.
कविता अपने अहम्-वहम का, शारद-पग में विनत विसर्जन..
शब्द-साधना, सताराधना, शिवानुभूति 'सलिल' सुन्दर है.
कह-सुन-गुन कवितामय होना, करना निज मन को मंदिर है..
******************************
७-७-२०१७
*

रचना -प्रति रचना राकेश खडेलवाल - संजीव

रचना -प्रति रचना
राकेश खडेलवाल - संजीव
***
गीत
कोई सन्दर्भ तो था नहीं जोड़ता, रतजगे पर सभी याद आते रहे
*
नैन के गांव से नींद को ले गई रात जब भी उतर आई अंगनाई में
चिह्न हम परिचयों के रहे ढूँढते थरथराती हुई एक परछाईं में
दृष्टि के व्योम पर आ के उभरे थे जो, थे अधूरे सभी बिम्ब आकार के
भोर आई बुहारी लगा ले गई बान्ध प्राची की चूनरिया अरुणाई में
राग तो रागिनी भाँपते रह गये और पाखी हँसे चहचहाते रहे
*
अधखुले नैन की खिड़कियों पे खड़ी थी थिरकती रही धूप की इक किरण
एक झोंका हवा का जगाता रहा धमनियों मे पुनः एक बासी थकन
राह पाथेय पूरा चुरा ले गई पांव चुन न सके थे दिशाएं अभी
और फिर से धधक कर भड़कने लगी साँझ जो सो गई थी हदय की अगन
खूंटियों से बंधे एक ही वृत्त मे हम सुबह शाम चक्कर लगाते रहे
*
यों लगा कोई अवाज है दे रहा किंतु पगडंडियां शेष सुनी रही
मंत्र स्वर न मिले जो जगाते इसे सोई मन में रमी एक धूनी रही
याद के पृष्ठ जितने खुले सामने बिन इबारत के कोरे के कोरे मिले
एक पागल प्रतीक्षा उबासी लिए कोई आधार बिन होती दूनी रही
उम्र की इस बही में जुड़ा कुछ नहीं पल गुजरते हुए बस घटाते रहे
***
प्रतिगीत
कोई सन्दर्भ तो था नहीं जोड़ता, रतजगे पर सभी याद आते रहे
*
'हार की जीत' में, 'ताई' की प्रीत में, मन भटकता रहा मौन 'कुड़माई' में
कुछ कहा अनकहा, कुछ सुना अनसुना, छवि न धूमिल हुई किंतु तनहाई में
मन-पटल पर लिखा, फिर मिटाया गया, याद साकार थी पल निराकार में
मति चकित कुछ भ्रमित, बावली खो गयी, चन्द्रमा देख पूनम की जुनहाई में
भाव लय ताल स्वर हाँफते रह गये, बिम्ब गीतों का दर खटखटाते रहे
*
नित्य 'चंदन' 'सुधा' बिन अधूरा रहा, श्वास ने आस तज, त्रास का कर वरण
मुँह प्रथा का सिला, रीतियाँ चुप रहीं, पीर ओढ़े रही, शांति का आवरण
भ्रांति पलती रही, क्रांति टलती रही, कर्ण से जा मिला था सुयोधन तभी
चंद पाँसे फिंके, चंद आहें उठीं, चीर खिंचते बचा, रह गयी लट खुली
बाँसुरी-शंख भी, गांडिवी तीर भी, मिट गए पर न बदला तनिक आचरण
आदमी आदमी को परेशान कर, आदमीयत की जय ही मनाते रहे
*
इंकलाबी जुनूँ, मजहबी जोश बन, बिजलियों सा गिरा, आह कर अनसुनी
मुक्त पंजे से करना कमल चाहता, हाथियों की दिशाहीन माया धुनी
लालटेनें बुझीं, साइकिल रुक गयी, हाथ हँसिया हथौड़ा रहे अनमिले
तृण न वटवृक्ष हो हाय! मुरझा रहा, मैं गुणी शेष दुनिया सभी अवगुणी
स्वार्थ-सत्ता सियासत ने साधे 'सलिल', हाथ अपनों के जनगण ठगाते रहे
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७-७-२०१६

द्विपदी

द्विपदी 
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जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
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परिचर्चा : "ग्रामीण संस्कृति - नागर संस्कृति"

परिचर्चा : "ग्रामीण संस्कृति - नागर संस्कृति"
आज की परिचर्चा का विषय "ग्रामीण संस्कृति - नागर संस्कृति" बहुत समीचीन और सामयिक विषय है। "भारत माता ग्रामवासिनी" कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था।
क्या आज हम यह कह सकते हैं? क्या हमारे ग्राम अब वैसे ग्राम बचे हैं जिन्हें ग्राम कहा जाए? गाँव की पहचान पनघट, चौपाल, खलिहान, घुंघरू, पायल, कंगन, बेंदा, नथ, चूड़ी, कजरी, आल्हा, जस, राई, होरी आदि अब कहाँ बचे हैं?
इनके बिना गाँव-गाँव नहीं रहे। गाँव शरणार्थी होकर शहर की ओर आ रहा है।
शहर क्या है? जिसके बारे में अज्ञेय लिखते हैं -
"साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
शहर में बसना तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूं?
उत्तर दोगे?
डसना कहाँ से सीखा,
जहर कहाँ से पाया?"
तो शहर में आदमी आदमी को डसना सीखता-सिखाता है। गाँव जो पुरवइया और पछुआ से संपन्न था, जो अपनेपन से सराबोर था, जो रिश्ते-नातों को जीना जानता था, जहाँ एक कमाता छह खा लेते थे, वह भागकर शहर आ रहा है।
शहर में जहाँ छह कमाकर भी एक को नहीं पाल सकते, जहाँ साँस लेने के लिए ताजी हवा नहीं है, जहाँ रिश्तों की मौत हो रही है, जहाँ माता-पिता के लिए वृद्ध आश्रम बनाए जाते हैं, जहाँ नौनिहालों के लिए अनाथालय बनाए जाते हैं, जहाँ अबलाओं के लिए महिला आश्रम, बेसहारों के लिए रैन बसेरे बनाना गर्व की बात समझी जाती है। यह कोई नहीं समझता की वह समाज ही श्रेष्ठ होगा जहाँ "घर'' के बाहर वृद्ध, निर्बल, अबला को न जाना पड़े।
क्या हम शहरों को वैसा बना पाएंगे जहाँ कोई राधा किसी कृष्ण के साथ रास रचा पाए? क्या यह शहर कभी ऐसे होंगे जहां किसी मीरा को कृष्ण का नाम लेने पर विषपान न करना पड़े? क्या शहरों में कोई पार्वती किसी शंकर के लिए तप कर सकेगी? हम अपनों को ऐसा शहर कब और कैसे बना सकते हैं?
हम अपने गाँव को शहर की ओर भागने से कैसे रोक सकते हैं? यह हमारे चिंतन और चिंता दोनों का विषय होना चाहिए। हमारी सरकारें लोकतंत्र के नाम पर तंत्र द्वारा लोक का गला घोट रही हैं, जनतंत्र के नाम पर जनमत को कुचल रही हैं, हमारे 'तंत्र' की दृष्टि में 'जन' केवल गुलाम है।
आप किसी भी सरकारी कार्यालय में जाकर देखें आपको एक मेज और कुर्सी मिलेगी। कुर्सी पर बैठा व्यक्ति मेज के सामने खड़े व्यक्ति को क्या अपना अन्नदाता समझता है? कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की तनखा खड़े व्यक्ति द्वारा दिए गए कर से दी जाती है लेकिन कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने आपको राजा समझता है, सामने खड़े व्यक्ति को गुलाम।
पराधीनता काल में हम इतने पराधीन नहीं थे जितने अब हैं। हमारे गाँव स्वतंत्रतापूर्व इतने बेबस नहीं थे, जितने अब हैं। स्वतंत्रता के पूर्व हमारे आदिवासी का वनों पर अधिकार था, जो अब नहीं है। पहले वह महुआ तोड़-बेच कर पेट पाल सकता था। अब वह वनोपज तोड़ नहीं सकता, वह वन विभाग की संपत्ति है। पहले सरकारी जमीन पर आप बीज बोएँ तो जमीन भले सरकार की हो, पेड़ की फसल पर आपका मालिकाना हक होता था, अब नहीं होता। पहले किसान फसल उगाता था घर के बण्डों में भर लेता था, बीज बना लेता था, जब जितने पैसे की जरूरत होती उतनी फसल निकालकर घर-घर जाकर बेचता था और अपना काम चलाता था। अब किसान बीज नहीं बना सकता, अपनी फसल नहीं बेच सकता। वह बँधुआ मजदूर की तरह कृषि उपज मंडी में ले जाने के लिए विवश है जहाँ उसे फसल को तौलने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है, जहाँ रिश्वत देने पर घटिया अनाज के ज्यादा दाम लग जाते हैं, जहाँ रिश्वत न देने पर अच्छे अनाज के दाम कम मिलते हैं।
गाँधी ने चाहा था की हमारे गाँव आत्मनिर्भर हों, विनोबा ने सर्वोदय की बात की, दीनदयाल उपाध्याय ने अंत्योदय की बात की लेकिन इन्हीं के चेलों ने कुर्सी पाकर गाँवों को ऐसा कुछ नहीं दिया। गाँव को कुटीर उद्योगों चाहिए, गाँव आत्मनिर्भर हो तो गाँव के बेटे शहर में जाकर अपना पसीना बहाकर सेठ-साहूकारों उद्योगपतियों के गुलाम न हों। इस कोरोना काल ने यह दिखा दिया कि गाँव के बेटे जिन शहरवासियों को अरबपति बनाते हैं वे संकट आने पर अपने अन्नदाताओं को कुछ महीने भी सहारा नहीं सकते।
गाँव के बेटे को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर भूखे-प्यासे गाँव लौटे हैं। वे गाँव में रोजी-रोटी न होने के कारण ही शहर गए थे। तब जवान थे, अब जवानी गँवाकर उम्र के ढलान पर लौटे हैं। उन्हें क्या काम मिलेगा? क्या वे उनके बच्चे गाँव में खप सकेंगे? कठिन है लेकिन मुझे विश्वास है गाँव के मन में उदारता है, गाँव उन्हें अपना लेगा यदि वे भी गाँव को अपनाना चाहें। संपन्न शहर में कृपणता है, विपन्न गाँव में उदारता है। शहर में जटिलता है, गाँव में सरलता है।
आओ! शहर में गाँव बनायें, रिश्तों का गाँव, अपनत्व का गाँव, सहजता का गाँव, एक-दूसरे को सहायता करने का गाँव। वाट्स ऐप के शहर में ऐसा गाँव ही तो है यह विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान। इस गाँव को कृत्रिम चमक-दमक से मुक्त रखें। यहाँ कट-पेस्ट की बनावटी गुड़ मॉर्निंग/ईवनिंग न हो। यहाँ विचार की पुरवैया बहे, यहाँ सृजन की पछुआ चले, यहाँ सीखने के चबूतरे पर सुबह-साँझ सिखानेवाले ढोलक-मंजीरा बजाएँ। यहाँ विमर्श के नुक्कड़ पर अपनत्व के विचार खिलखिलाएँ। यहाँ भाषा और बोली में विवाद न हो। यहाँ स्वदेशी और परदेसी/विदेशी का सतत संवाद हो। यहाँ रस-गंगा बहे, यहाँ नेह-नर्मदा की कलकल सतत सुनाई दे, यहाँ विचारों के पंछी रचना संसार के गगन में नित्य उडान भरें। हम शहर में गाँव को जिएँ, गाँव में शहर की अच्छाइयों को जिन्दा रखें। गाँव से अन्धविश्वास को निकालें, छुआछूत को देशनिकाला दें। गाँव को शहर, शहर को गाँव बनाएँ, दोनों की संस्कृति का अंतर् मिटाएँ, दाल-भात से खिचड़ी बनायें और पूरे देश को एकत्व के गीत सुनाएँ।

सोमवार, 6 जुलाई 2020

चिंतन ज्योतिष : विज्ञान या कल्पना?

चिंतन 
ज्योतिष : विज्ञान या कल्पना?
इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल 
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विज्ञान और कल्पना परस्पर विरोधी नहीं है। 
हर वैज्ञानिक शोध के मूल में एक कल्पना होती है जिसे परिकल्पना या हायपोथीसिस कहते हैं। यह आकाशकुसुम या शेखचिल्ली की गप्प की तरह निराधार कपोलकल्पना तो नहीं होती पर कुछ तथ्यों और पूर्वज्ञान को आधार बनाकर की गयी कल्पना ही होती है। इस कल्पना के परीक्षण हेतु आधार तय किये जाते हैं, उन पर प्रयोग किये जाते हैं, प्रयोगों से मिले परिणामों का विश्लेषण किया जाता है। इस आधार पर  परिकल्पना में वांछित पपरिवर्तन किये जाते हैं, फिर प्रयोग, विश्लेषण और फिर प्रयोग जब तक अंतिम निष्कर्ष न मिल जाए। यह निष्कर्ष परिकल्पना के अनुकूल भी हो सकता है, प्रतिकूल भी। 
ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र  का अंग है जिसका मुख्य उद्देश्य भविष्य को जानना और बताना है। भविष्य का पूर्वानुमान करने के कई आधार हैं, जिनसे संबंधित विधाएँ अपने आपमें बहुत महत्वपूर्ण हैं। नक्षत्र विज्ञान, जन्म कुंडली शास्त्र, हस्त रेखा विज्ञान, मानव शरीर के अंगोपांगों (मस्तक, पेअर, कंठ, आँखें, वक्ष, नितंब, चर्म, वंश परंपरा आदि) का अध्ययन, रत्न विज्ञान, आत्मा से साक्षात्कार, पशु-पक्षियों द्वारा भविष्यवाणी आदि अनेक विधाएँ / विषय ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत हैं। निस्सन्देह इस विधाओं का विधिवत अध्ययन जिसने कभी नहीं किया वः बिना पर्याप्त अध्ययन के हम इन विषयों के बारे हम सही मत कैसे दे सकता है? 
मैंने इन विषयों की कुछ पुस्तकें पढ़ी हैं। निस्संदेह इन सभी विषयों का आरंभ कल्पना से हुआ होगा। सदियों तक अनुभव के पश्चात् इनके ग्रन्थ लिखे गए। सैंकड़ों सालों तक प्रचलन में रहकर भी ये समाप्त नहीं हुए, यही इस बात का प्रमाण है कि  ये विषय कपोलकल्पना नहीं हैं। अगणित भविष्यवाणियाँ की गयीं हैं। अनेक सही हुईं, अनेक गलत हुईं। गलत भविष्यवाणियाँ विषय का नहीं, विषय का अध्ययन करनेवाले का दोष हैं। किसी डॉक्टर के सब रोगी न तो ठीक होते हैं, न सब रोगी दिवंगत होते हैं। रोगी मर जाए तो चिकित्सा शास्त्र  को झूठा नहीं कहा जाता पर भविष्यवाणी के गलत होते ही ज्योतिष शास्त्र के औचित्य को  नकारा जाने लगता है। नकारने का काम वे करते हैं जिन्होंने कभी ज्योतिष शास्त्र की किसी विधा का अध्ययन ही नहीं किया।
ज्योतिष के  सही होने का सबसे बड़ा प्रमाण इसका गणना पक्ष है। पंचांग में ज्योतिष सिद्धांतों द्वारा की गयी काल गणना विज्ञान की कसौटी पर हमेशा सही प्रमाणित होती है। इसकी पुष्टि सूर्य - चंद्र ग्रहण की काल गणना तथा ग्रहों-नक्षत्रों की दूरियों आदि से की जा सकती है।वस्तुत: ज्योतिष शास्त्र कल्पना, शोध, गणना, विश्लेषण और देश-काल-परिस्थिति अनुसार परिणाम का पूर्वानुमान करने का शास्त्र है। यह विज्ञान और कला दोनों है। ज्योतिष शास्त्र के सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि यह केवल भारत में नहीं है अपितु वैज्ञानिक दृष्टि से विश्व के सर्वाधिक  उन्नत देशों में भी इसकी मान्यता है।  
आज आवश्यकता इस बात की है कि विश्व के विविध देशों, सभ्यताओं और जातियों में प्रचलित ज्योतिष विधाओं के ज्ञान को एकत्र कर उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। इस हेतु विविध विश्व विद्यालयों में विभाग आरंभ कर पारंपरिक और वैज्ञानिक विधियों से अध्ययन और परीक्षण किया जाना आवश्यक है। ज्योतिष के क्षेत्र में अधकचरी जानकारी के आधार पर भविष्यवाणी करनेवालों पर रोक आवश्यक है ताकि जन सामान्य धोखाधड़ी से बच सके।
विज्ञानं द्वारा नए ग्रहों-उपग्रहों की खोज के प्रकाश में पारंपरिक ९ ग्रहों के आधार पर की जा रही गणनाओं पर प्रभाव का अध्ययन आवश्यक है। इसी प्रकार पर्यावरण, जलवायु, खान-पान, जीवन यापन की परिस्थितियों के कारण मनुष्य शरीर में आ रहे परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में ह्यूमन एनाटॉमी का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है। रमन एस्ट्रोलॉजी, गत्यात्मक ज्योतिष (विद्या सागर महथा द्वारा आरंभ) आदि अनेक नई अध्ययन पद्धतियों में संगणक की सहायता से गणनाएँ और परिणामों का विश्लेषण किया जा रहा है। ज्योतिषियों के पारस्परिक मतभेदों और अवधारणाओं का विज्ञान सम्मत परीक्षण भी आवश्यक है। ज्योतिष के संदर्भ में अंधे विश्वास और अंधे विरोध दोनों अतियों से बचकर स्वस्थ्य अध्ययन ही ज्योतिष विज्ञान के उन्नयन और प्रामाणिकता हेतु एकमात्र राह है।    
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