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सोमवार, 13 जनवरी 2020

हस्तिनापुर की बिथा-कथा भूमिका सुमनलता श्रीवास्तव

भूमिका
हस्तिनापुर की बिथा-कथा

बुन्देलखण्ड के बीसेक जिलों में बोली जाबे बारी बोली बुंदेली कित्ती पुरानी है, कही नईं जा सकत। ई भासा की माता सौरसैनी प्राकृत और पिता संस्कृत हैं, ऐसी मानता है। मनों ई बूंदाबारी की अलग चाल है, अलग ठसक है, अलग कथनी है और अलगइ सुभाव है। औरंगजेब और सिबाजी के समय, हिन्दू राजाओं के लानेंं सरकारी सन्देसे, बीजक, राजपत्र और भतम-भतम के दस्ताबेज बुन्देली मेंइं लिखे जात ते। गोंड़ राजाओं की सनदें ऐइ भासा में धरोहर बनीं रखीं हैं।

बुन्देली साहित्य कौ इतिहास सात सौ साल पुरानौ है। ई में मुलामियत भी है और तेज भी; ललितपनौ भी है और बीर रस की ललकार भी। पग पग पे संस्कृति और जीबन-दरसन की छाप है। रचैताओं में प्रसिद्ध नाम हैं - केशवदास, पद्माकर, प्रबीनराय, ईसुरी, पंडत हरिराम ब्यास और कितेक।

सबसें पहलो साहित्य जगनिक के रचे भये महाकाब्य ‘आल्हखंड’ खों मानने चइये। ए कौ लिखित रूप ने हतौ, मनों मौखिक परम्परा में जौ काब्य आज लौं खूब चल रओ। चौदवीं सताब्दी में बिश्नुदास नें सन १४३५ में महाभारत और १४४३ में रामायन की कथा गद्यकाब्य के रूप में लिखी। जइ परम्परा डाक्टर मुरारीलाल जी खरे निबाह रय। २०१२ में रामान की कथा लिखी और अब २०१९ में महाभारत की कथा आपके सामनें ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ नांव सें आ रइ है।

महाकाब्य के लच्छनों में पहली बात कही जात है कै कथानक ऐतिहासिक होय कै होय इतिहासाश्रित। ई में मानब जीबन कौ पूरौ चित्र, पूरौ बैभव और पूरौ बैचित्र्य दिखाई देबै। महाकाब्य ब्यक्ति के लानें नईं, समस्टि के लानें रचौ जाय, बल्कि कही जाय तौ ई में पूरे रास्ट्र की चेतना सामिल रहै।

संस्कृत बारे साहित्यदर्पण के रचैता विश्वनाथ के कहे अनुसार महाकाब्य में आठ, नांतर आठसे जादा सर्ग रहनें चइए। मुरारीलाल जी के महाकाब्य कौ आयाम ऐंसौ है कै ई में नौ अध्याय दय हैं -

१. हस्तिनापुर कौ राजबंस, २ . कुबँरन की सिक्षा और दुर्योधन की ईरखा, ३. द्रौपदी स्वयंबर और राज्य कौ बँटबारौ, ४. छल कौ खेल और पाण्डव बनबास, ५. अग्यातबास में पाण्डव, ६. दुर्योधन को पलटबौ और युद्धके बदरा, ७. महायुद्ध (भाग-१) पितामह की अगुआई में , ८. महायुद्ध (भाग-२) आखिरी आठ दिन, ९. महायुद्ध के बाद।

सर्गों कौ बँटबारौ और नामकरन ऐंसी सोच-समझ सें करौ गओ है कै पूरौ कथानक और कथा की घटनाओं कौ क्रम स्पस्ट हो जात है और कथा कौ सिलसिलौ निरबाध रहौ आत है। अध्याय समाप्त होत समय कबि अगले अध्याय की घटना कौ आभास देत चलत हंै। कबि नें हर अध्याय में प्रसंग और घटनाओं के माफिक उपसीर्सक भी दय हैं। जैंसे - पाण्डु की मौत, धृतराष्ट्र भए सम्राट, दुर्योधन की कसक और बैमनस्य, भीम खौं मारबे के जतन .......। एक तौ कथानक बिकास-क्रम सें बँधो है, और दूसरे कथा खों
ग्राह्य बनाओ गओ है। असल कथा मानें अधिकारिक कथा और बाकी प्रकरनों में ‘उपकार्य-उपकारक’ भाव बनौ रहत है। महाभारतीय ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बीच-बीच के प्रसंग ऐंसे गुँथे हैं कै मूल कथा खों बल देत हैं और ‘फिर का भओ ?’ कौ कुतूहल भी बनौ रहत है।

महाकाब्य में चाय एक नायक होबै, चाय एक सें जादा, मनों उच्च कोटि के मनुस्य, देवताओं के समान ऊँचे चरित्र बारे भओ चइये, जो जनसमाज में आदर्स रख सकें और चित्त खों ऊँचे धरातल पै लै जाबें। नायक होय छत्रिय, महासत्त्व, गंभीर, छमाबन्त, स्थिरमति, गूढ़ और बात कौ धनी। ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में भीष्म पितामह हैं, धर्मराज युधिष्ठिर घाईं सत्य पै प्रान देबै बारे पांडव तो हैंइं, सबसे बड़कें हैं स्रीकृष्ण। जे सब धीरोदात्त गुनों सें परिपूरन हैं। बात के पक्के की बात करें, तो राजा सान्तनु के पुत्र देबब्रत तो अपनी प्रतिग्या के कारनइ भीष्म कहाय गय -

ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा पै रिषि मुनि सुर बोले ‘भीष्म-भीष्म’।
आसमान सें फूल बरस गए, सब्द गूँज गओ ‘भीष्म-भीष्म’।।

काव्यालंकार लिखबे बारे रुद्रट ने अपेक्छा करी है कै प्रतिनायक के भी कुल कौ पूरौ बिबरन भओ चइये, सो ई रचना में प्रतिनायक कौरव और उनकौ संग दैबे बारों के जन्म, उनके कुल और उनकी मनोबृत्ती कौ बिस्तार में बरनन करौ गओ है।

काव्यादर्श में दण्डी को कहबौ है - ‘आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्।’ मानें आंगें आशीरबाद, नमस्कार जौ सब लिखौ जाबै, नईं तौ बिशयबस्तु को निरदेस दऔ जाबै। डॉ. मुरारीलाल खरे जी नें अपनें ग्रन्थ के सीर्सक कौ औचित्य भी बताओ है। कैसी बिथा ? ईकौ मर्म कैंसें धर में बरत दिया की लौ भड़क परी और ओई सें घर में आग लग गई, पाच छंदों में सुरुअइ में समझा दओ है -

कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबर्त्त गओ।।

बीर महाकाब्य कौ गुन कहात है कै आख्यान भी होबै, भाव भी होबैं आरै ओज भरी और सरल भासा होबै। आख्यान खों गरओ और रोचक बनाबे के लानें संग-साथ में उपाख्यान भी चलत रहैं, जी सें मूल कथानक खों बल मिलत रहै, चरित्र सोई उभर कें सामनें आत रहैं और पड़बे-सुनबे बारे के मन में प्रभाव जमत रहै। चोट खाई अम्बा कौ भीष्म खों साप दैबौ और सिखंडी के रूप में जनम लैकें भीष्म की मृत्यु कौ कारन बनबौ; कै फिर उरबसी के शाप सें अर्जुन कौ सिखंडी के भेस में रहबौ ऐंसेइ उपाख्यान डारे गए हैं। खरे जी ने बड़ी साबधानी बरती है कै बिरथां कौ बिस्तार नें होय। ई की सफाई बे खुदई ‘अपनी
बात’ में दै रय कै महाभारत की बड़ी कथा खों छोटौ करबे में कैऊ प्रसंग छोड़ने परे हैं।

अरस्तू महाकाब्य खों त्रासदी की तर्ज पै देखत हैं कै ई में चार चीजें अवस्य भओ चइये - कथावस्तु, चरित्र, विचारत्त्व और पदावली मानें भाषा। चरित्र महाभारत में जैंसे दय गए हैं, ऊँसइ खरे जी ने भी उतारे हैं। भीष्म पितामह कौ तेज, बीरभाव, दृढ़चरित्र, प्रताप और परिबार के लानें सबकौ हित चिन्तन सबसें ऊपर रचौ गओ है। दुर्योधन के मन में सुरु से ईरखा, जलन, स्वारथ की भावना है, जौन आगें बढ़तइ गई। युधिष्ठिर धर्म के मानबे बारे, धीर-गंभीर, भइयन की भूलों पै छमा करबे बारे हैं। द्रोणाचार्य उत्तम धनुर्बिद्या सिखाबे बारे हैं, मनों द्रुपद सें बैर पाल लेत हैं, अर्जुन सें छल करकें अपने पुत्र खों जादा सिखाबो चाहत हैं, एकलब्य सें अन्याय करत हैं, कर्ण खों छत्रिय नें होबे के कारण विद्या नइं देत हैं, अभिमन्यु खों घेर कें तरबार टोर डारत हैं। सुख होत है कै राजा पांडु खों खरे जी ने हीन और दुर्बल नइं बताकें कुसल राजा बताओ है। धृतराष्ट्र पुत्र के लानें मोह में पड़े रहत हैं।

श्रीकृष्ण राजनीति, धर्मनीति, युद्धनीति के महा जानकार ठहरे। बे भी युद्ध नईं चाहत ते। मनों जब बिपक्छी बेर-बेर नियम टोरै, तौ बेइ अर्जुन खों नियम टोरबे की सिक्छा दैन लगे -

सुनो, नियम जो नईं मानत, ऊके लानें कायको नियम ?

‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बिचारतत्त्व देखें, तौ कबि को मानबो है -

जब जब घर में फूट परत, तौ बैर ईरखा बड़न लगत।
स्वारथ भारी परत नीति पै, तब तब भइयइ लड़न लगत।।

जब जब अनीति भइ है, कबि ने चेता दओ है। महाप्रतापी राजा सान्तनु को राज सुख सें चल रओ तौ मनों ‘सरतों पै ब्याओ सान्तनु ने करौ।’ इतइं अनीति हो गई -

पर कुल की परम्परा टूटी, बीज अनीति कौ पर गओ।

और फिर -

आगें जाकें अंकुर फूटे, बड़ अनीति बिष बेल बनी।
जीसें कुल में तनातनी भइ, भइयन बीच लड़ाई ठनी।।

फिर एक अनीति भीष्म ने कर लइ। कासिराज की कन्याओं कौ हरन करौ अपने भइयों के लयं। हरकें उनें ल्याओ जो बीर, बौ नइं उनकौ पति हो रओ; जा अनीति जेठी अंबा खौं बिलकुल नईं स्वीकार भई।’ और बाद में ‘बिडम्बना’ बड़त गई।

गान्धारी ब्याह कैं आईं, तौ आँखों पै पट्टी बाँध लई। बे मरम धरम कौ जान न पाईं। आँखें खुली राख कें अंधे की लठिया नइं भईं। आगें जाकें भइ अनर्थ कौ कारन ऊ की नासमझी।

माता गान्धारी ने नियोग की ब्यवस्था करी-

लेकिन ई के लानें मंसा बहुअन की पूंछी नईं गइ।
आग्या नईं टार पाईं बे, एक अनीति और हो गइ।।

‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में जइ बिथा है कै अनीति पे अनीति होत रइ और परिनाम ? -

कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबर्त्त गओ।।

महाकाब्य कौ फल मनुस्य के चार पुरुसार्थों में से एक भओ चइये। इतै अन्त में सिव और सत्य की स्थापना करत भय धरम को झंडा फहराओ गओ है। युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ कराओ गओ। पन्द्रह बरस बाद धृतराष्ट्र गान्धारी, कुन्ती, संजय और बिदुर के संगै बन में निबास करबै ब्यास-आश्रम पौंचे और इतै हस्तिनापुर में राज पाण्डव सुख सें करत रयै। ‘प्रसादात्मक शैली; में जौ पूरौ महाकाब्य लिखौ गओ है। मनों दो अध्यायों में युद्ध को बर्नन चित्रात्मक शैली में ऐंसो करौ है कै पूरो दृस्य सामने खिंच जात है। देखें -

कैंसे जगा जगा जोड़ी बन गईं आपस में भओ दुन्द उनमें।

द्रोणाचार्य-बिराट, भीष्म-अर्जुन, संगा-द्रोण, युधिष्ठिर-स्रुतायुस, सिखंडी-अश्वत्थामा, धृष्टकेतु-भूरिश्रवा, भागदत्त-घटोत्कच, सहदेव नकुल-सल्य की जोड़िएँ सातएँ दिना की लड़ाई में भिड़ परीं। कुरुच्छेत्र में कहाँ का हो रऔ, सब खूब समजाकें लिखो गओ है। कितेक अस्त्रों के नाम - अग्नि अस्त्र, बारुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, ऐन्द्रेयास्त्र, मोहनी अस्त्र, प्रमोहनास्त्र, नारायणास्त्र, भार्गबास्त्र, नागास्त्र और कितेक व्यूहों के नाम दए गए हैं - बज्रव्यूह, क्रौंचव्यूह, मकरव्यूह, मण्डलव्यूह, उर्मिव्यूह, शृंगतकव्यूह, सकटव्यूह, चक्रव्यूह। गांडीव धनुष भी चलौ और क्षुर बाण भी। भीष्म के गिरबे कौ चित्र देखबे जोग हैं -

हो निढाल ढड़के पीछे खौं, गिरे चित्त होकें रथ सें।
धरती पीठ नईं छू पाई, अतफर टँग रए बानन सें।।

सब्दों, मुहाबरों और कहनावतौं (सूक्तियों) कौ प्रयोग बुंदेली जानबे बारों के मन में गुदगुदी कर देत हैं - ताईं, बल्लरयियन, खुदैया, दुभाँती, अतफर, लड़वइयन, मुरका कें, नथुआ फूले, टूंका-टूंका, मुड्ड-मुड्ड, पुटिया लओ, बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गये, बैर पतंग और ऊपर चड़ गई, एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए।

कबि ने सिल्प की अपेक्छा कहानी के धाराप्रबाह पै जादा जोर दओ है। कहौ जा सकत है कै भासा कौ बहाव गंगा मैया घाईं सान्त और समरस नइं, बल्कि अल्हड़ क्वाँरी रेबा घाईं बंधन-बाधा की परबाह नें करकैं बड़त जाबे बारौ है। कहुँ गति ढीली नइं परी।

महाकाब्य में चार रसों में से एक प्रधान भओ चइये - सिंगार, बीर, सान्त और करुन। ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ कौ मुख्य रस सान्त है। पूरे कथानक की परिनति है -धरम की स्थापना। सीख मिलत है -

छल प्रपंच और अत्याचार होत अन्यायी के बिरथा।
ऐसी बात बता रइ राज हस्तिनापुर की बिथा-कथा।।

दूसरे रसों कौ भी समाबेस देखो जा सकत है। जैंसें -

सिंगार -
हिरन नें घायल कर पाए ते, इतै खुदइ हो गए घायल।
देखो रूपवती नारी के नैनन के बानन कौ बल।।

वात्सल्य -
सोने के झूला में झूलो, धाय के दूध पै पलो।
औरन की ओली में खेलो, ऐसें दिन दिन बड़त चलो।।

हास्य -
फिर देखकें खुलौ दरबाजौ, जैसइं घुसन लगे भीतर।
माथो टकरा गओ भींत सें, ऊपै गूमड़ आओ उभर।।

करुण -
किलकत तो जो नगर खुसी में, लगन लगो रोउत जैंसौ।
चहल-पहल गलियन की मिट गइ, पुर हो गओ सोउत जैंसौ।।

वीर -
तरबारें चमकीं, गदाएँ खनकीं, बरछा भाला छिद गए।
सरसरात तीरन सें कैऊ बीरन के सरीर भिद गए।।

रौद्र -
तब गुस्सा सें घटोत्कच पिल परो सत्रु की सैना पै।
भौतइ उग्र भओ मानों कंकाली भइ सवार ऊ पै।।

भयानक -
दोऊ तरफ के लड़वइयन की भौतइ भारी हानि भई।
मानों रणचण्डी खप्पर लएँ युद्धभूमि में प्रगट भई।।

वीभत्स -
ऊपै रणचण्डी सवार भइ, नची नोंक पै बानन की।
पी गइ सट सट लोऊ, भींत पै भींत उठा दइ लासन की।।

अद्भुत -
चमत्कार तब भओ, चीर ना जानें कित्तौ बड़ौ भओ।
खेंचत खेंचत थको दुसासन, अंत चीर कौ नईं भओ।।

भक्ति -
जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाकौ अहित कभउँ नइँ होत।
दुख के दिन कट जात और अंत में जै सच्चे की होत।।

आज भी कइअक घरों में महाभारत को ग्रन्थ रखबौ-पड़बौ बर्जित है। नासमझ दकियानूसी जनें कहन लगत हैं - ‘आहाँ, घरों में महाभारत की किताब नैं रखौ। रखहौ, तो महाभारत होन लगहै।’ बे नइं समझत कै का सीख दइ है ब्यासजू महाराज नें। अब जा सीदी-सरल भासा में लिखी भइ महाभारत की कथा ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ के नांव सें घरों में प्रबेस पा लैहै और महिलाएँ भी ईकौ लाभ उठा सकहैं।

जा पूरी रचना गेय है मानें लय बाँधकें गाबे जोग है। हमाइ तो इच्छा होत है कै बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में तिरपालों में उम्दा गायकों की गम्मत जमै और नौ दिनां में डॉ. मुरारीलाल जी खरे के रचे महाकाब्य के नौ अध्यायों कौ पाठ कराओ जाए, जी सें पांडव-कौरव की गाथा सबके मन में समा जाए और जनता समजै कै एक अनीति कैंसे समाज में और अनीतिएँ करात जात हैं -

जो अनीति अन्याय करत है, दुरगत बड़ी होत ऊ की।
जो अधर्म की गैल चलत है, हानि बड़ी होत ऊ की।।

पांडव भइयों कौ आपसी मेल-प्रेम, महतारी और गुरुओं के लानें सम्मान-भाव, उनकी आग्या कौ पालन भारतीय संस्कृति को नमूनौ है। उननें भगवान कृष्ण की माया नइं लइ, सरबसर कृष्णइ खों अपने पक्छ में रक्खौ और उनइं के कहे पै चलत रय, जी सें बिजय पाइ। गीता कौ उपदेस है -

है अधिकार कर्म पै अपनौ फल पै कछु अधिकार नईं।
बुद्धिमान जन कर्म करत हैं, फल की इच्छा करत नईं।।

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डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव
१०७, इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर
सम्पर्क : ९८९३१०७८५१



रविवार, 12 जनवरी 2020

भगवती प्रसाद देवपुरा

भगवती प्रसाद जी हिंदी के हित आये
*
भारत की जन वाणी हिंदी, बने विश्व की वाणी हिंदी
वाग-ईश्वरी की वीणा से , प्रगटी शुभ कल्याणी हिंदी
सात समंदर पार ध्वजा हिंदी लहराये
भगवती प्रसाद जी हिंदी के हित आये
*
श्री जी की अनुकम्पा पाई , दर पर धूनी बैठ रमाई
हिंदी गद्य-पद्य की समिधा, संपादन की ज्योति जलाई
अष्ट छाप कवियों के चरित लुभाये
भगवती प्रसाद जी हिंदी के हित आये

*
तरह अक्टूबर उन्नीस सौ सत्ताईस को प्रगटे
रत्न कुँवर-लक्ष्मीचंद्र
    

बाल नवगीत

बाल नवगीत:
संजीव
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.

यूनान कल से आज

यूनान कल से आज 
प्रागैतिहासिक सभ्यता
यूनान की मुख्य भूमि और उसके द्वीप लगभग ४००० वर्ष ईसा पूर्व बस चुके थे। ई.पू. दूसरी सहस्त्राब्दी तक यहाँ ईजियाई सभ्यता थी जहाँ से लोगों के मिस्र और एशिया माइनर से संबंध सुगम थे। १७ वीं शताब्दी ई.पू. में बाल्कन क्षेत्र की ओर से ग्रीस और पेलोपोनसस्‌ पर आक्रमण हुए। सभी आक्रमणकारी जातियाँ- एकियाई, आर्केडी, इपोलियन, अपोली और आयोनी- ग्रीक भाषाओं से परिचित थीं। ई.पू. १५०० वर्ष तक मिनोई प्रभाव में एकियाई जाति ने ग्रीस में सभ्यता का विकास किया। माइसीनी युग, हीरो युग और होमर युग इस काल के नाम हैं। एकियाई तथा अन्य ग्रीसवासियों के बीच ई.पू. १२ वीं शती में हुए ट्रोजन युद्ध, की कथा पर होमर ने अपने विश्वप्रसिद्ध काव्य 'इलियड और ओडिसी' लिखे। ई.पू. ११०० में डोरियाई जाति ने ग्रीस पर आक्रमण कर पुरानी सभ्यता नष्ट कर, अपना केंद्र पेलोपोनेसस्‌ बनाया। एकियाई लोगों में से कुछ उत्तरी पश्चिमी यूरोप की ओर भागे, कुछ ने दासवृत्ति अपना ली। आयोनी और अपोली, ईजियाई द्वीपसमूह और एशिया माइनर की ओर चले गए। ई.पू. १००० तक संपूर्ण ईजियाई क्षेत्र में ग्रीक भाषी बस चुके थे।
हेलेनिक राज्य
१०००-४९९ ई.पू. में ग्रीक नगर-राज्यों की स्थापना और जातिभेद चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। राजा शासित हेलेनिक राज्य शनै: शनै: राजतंत्र में परिवर्तित हुए। कुलीनतंत्र में राजनीतिक समानता प्राय: नहीं थी। ६५० ई.पू. में सामाजिक और राजनतिक संघर्षों ने कुलीन तंत्र को उखाड़ फेंका और अधिनायकवादी शासन की स्थापना हुई। केवल स्पार्टी में कुलीन तंत्र बन सका। कुछ अधिनायकवादी शासकों ने कला, साहित्य, व्यापार और उद्योग की उन्नति की। अधिनायकवाद जनपीड़न कर ई.पू. ५०० तक मिट गया। ई.पू. ७५०-५०० तक व्यापारिक और राजनीतिक कारणों से इटली तथा सिसली के कई भागों में ग्रीकों ने उपनिवेश बसाए। इनके उपनिवेश व्यापार के प्रसार की दृष्टि से स्पेन और फ्रांस तक भी फैले। कुछ दिन तक ग्रीकों का प्रसार मिस्त्र की ओर रुका रहकर, किन्तु ७ वीं शताब्दी ई.पू. में व्यापार सुगम हो गया। वहाँ ग्रीकों ने 'नाक्रेतिस' नगर बसाया। इसके बाद थ्रोस आदि कई उपनिवेश बसे। ये उपनिवेश अपने मुख्य राज्य से केवल भावात्मक संबंध रखते हुए, राजनीतिक रूप से स्वतंत्र थे। केवल कुछ, जैसे एपिडाम्नस, पेलोपोनिया, अंब्रासिय आदि कोरिंथ के उपनिवेश, राजनीतिक रूप से स्वतंत्र नहीं थे। सिराक्यूज़ और बैजंटियम अत्यंत संपन्न उपनिवेश थे। सामान्य धार्मिक भावना के कारण सारे उपनिवेशों में एकता कायम रही। डेल्फी में अपोलो ग्रीकों का मुख्य धार्मिक केंद्र था। ७-६ शती ई.पू. का काल सांस्कृतिक विकास और बौद्धिक जागरण का काल था।
स्पार्टा
५०० ई.पू. तक स्पार्टा और एथेंस ग्रीस के दो बड़े नगरराज्य बने। स्पार्टा का शासन प्राचीन परिपाटीवाले कुलीनों के हाथ में था। एथेंस के शासक मध्यवर्गीय और प्रजातांत्रिक थे। ई.पू. ७ वीं शताब्दी तक स्पार्टा में संस्कृति, काव्य और कला की प्रचुर उन्नति हुई। वहाँ की शासनपद्धति अत्यंत कठोर थी। शिशु के उत्पन्न होते ही, राज्य उसे अपने संरक्षण में लेकर युद्ध की शिक्षा देता था। लाइकर्गस स्पार्टा का संविधान निर्माता था। शासनसूत्र के संचालन के लिये दो सदन होते थे, जिनके अध्यक्ष दो राजा होते थे। अंतिम निर्णय का अधिकार निम्न सदन को था। पाँच न्यायाधीशों (एफर) द्वारा कार्यकारिणी समिति, न्याय और अनुशासन का संचालन होता था। वे राजाओं की गतिविधि पर भी नियंत्रण रखते थे। सैनिक शक्ति द्वारा स्पार्टा ने पेलीपोनेसस्‌ के संपूर्ण नगर अपने अधिकार में कर लिए और पेलोपोनेशियाई संघ के नेता के रूप में इस नगर ने अधिकृत नगरराज्यों को भी कुलीन तंत्र स्वीकार करने को बाध्य किया। स्पार्टा की सामाजिक व्यवस्था और विधान के निर्माता लाइकगर्स ने ९०० ईपू मे स्पर्ता की संस्थाओ का विकास किया।
एथेंस
ई.पू. ६८३ में एथेंस से राजतंत्र का समूलोच्छेदन हुआ। 'सोलन पिसिस्ट्राटस' ने कुछ सीमा तक जनमत का सम्मान किया, इसके बाद इसागोरस (अभिजाततंत्रवादी) और क्लेइस्थेनीज (जनतंत्रवादी) के नेतृत्व में संघर्ष के बाद जनतांत्रिक पद्धति की विजय हुई। स्पार्टा ने एथेंस के प्रजातंत्र को उखाड़ फेंकने के अनेक प्रयत्न किए, किंतु एथेंस ज्यों का त्यों रहा। ४९९-६३८ ई.पू. में फारस से युद्ध और नगरराज्यों में परस्पर संघर्ष आदि प्रमुख घटनाएँ हुईं। ग्रीस के कई नगरराज्यों ने अपना स्थान बहुत प्रभावशाली बना लिया।
फारस से युद्ध
एशिया माइनर और कुछ द्वीपों के नगर लीडिया के सम्राट् क्रिसस के प्रभाव में आ गए थे। वह हेलेनिक संस्कृति का पोषक और एक उदार शासक था। उसने नगरवासियों की आर्थिक और बौद्धिक उन्नति में योग दिया। ५४६ ई.पू. में फारस के तत्कालीन भ्रासट साइरस ने क्रिसस के अधिकार से सारे ग्रीक नगर छीन लिए। ५१२ ई.पू. में उसका उत्तराधिकारी दारायुश (Darius) एशिया माइनर के अन्य नगरों को जीतता हुआ ग्रीस के निकट तक चढ़ आया। लेकिन एरिट्रीया और एटिका (अत्तिका) को जीतने के पश्चात्‌ एथेंस की सेना से मराथन के युद्ध में पराजित हुआ। ४८० ई.पू. में पारसी सम्राट् जरक्सीज ने पुन: ग्रीस पर आक्रमण किया। एथंस, स्पार्टा और पेलोपोनेशियाई संघ के संयुक्त प्रतिरोध के बावजूद भी ग्रीस हार गया। किंतु ग्रीस की जलसेना से फारस की सेनाओं को पीछे लौटने को बाध्य किया। एक वर्ष पश्चात्‌ ४७९ ई.पू. में ग्रीकों ने प्रत्याक्रमणकर फारस की सारी सेनाओं को पीछ्र खदेड़ दिया। यह युद्ध दीर्घकाल तक चलता रहा। इसकी समाप्ति चतुर्थ शती ई.पू. में सिकंदर की फारस पर विजय के साथ हुई।
एथेनी राज्य
अब तक एथेंस नगर ग्रीक सभ्यता का केंद्र बन चुका था। आयोनी ग्रीकों ने स्पार्टा के अधिकार से मुक्त होकर एथेंस का नेतृत्व स्वीकार किया। ४६१ ई.पू. में पेरिक्लीज ने जनतंत्र को बढ़ाया। यह जनतंत्र मूल यूनानी जनता के लिये सीमित था। शेष लोग दासों की कोटि में थे। पेरिक्लीज के नेतृत्वकाल में एथेंस की राजनतिक-आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी।
पेलोपोनेशियाई युद्ध
स्पार्टा और एथेंस के विचारों में बहुत भेद था। एथेंस मूलत: व्यापारिक शक्तिसंचय की प्रवृत्तिवाला उपनिवेशवादीसाम्राज्यवादी राज्य था और स्पार्टा ग्रीस के सभी नगरराज्यों का राजनीतिक नेतृत्व चाहता था। फलत: नेतृत्व के लिये इन दोनों तथा इनसे सबंधित नगर राज्यों में १० वर्ष से भी अधिक समय तक युद्ध हुआ। दोनों ओर धन जन की अपार हानि हुई। ४२१ ई.पू. में कुछ काल के लिये शांति संधि हुई, किंतु तीन वर्ष बाद दोनों पक्षों में पुन: युद्ध हुआ। इस बार एथेंस की भंयकर पराजय हुई, उसका अस्तित्व महत्वहीन हो गया। कोरिंथ और थीबीज जैसे नगरराज्य स्पार्टा से मिल गए। कुछ समय बाद स्पार्टा की नीति से क्षुब्ध होकर कोरिंथ, थीबीज और अर्गसि ने एथेंस से मिलकर स्पार्टा के विरुद्ध संधि की। किंतु स्पार्टा के फारस से संधि करने के फलस्वरूप एथेंस की संधि भंग हो गई और एशिया माइनर के ग्रीक नगर फारस के अधिकार में चले गए। ३७१ ई.पू. में स्पार्टा ने थीबीज के विरुद्ध युद्ध छेड़ा, किंतु हार कर इतिहास से मिट गया। थीबीज की शक्ति बढ़ने लगी थी। उसने भी अन्य नगरों के प्रति कठोर नीति से काम लिया। स्पार्टा एथेंस के बीच संधि हुई। ३६२ ई.पू. के बाद थीबीज का महत्व समाप्त सा हो गया।
यूनानी संस्कृति - दास प्रथा
युद्ध और अशांति के वातावरण में भी ई.पू. ५ वीं शताब्दी में एथेंस के नेतृत्व में ग्रीस में कला और साहित्य की प्रशंसनीय उन्नति हुई। पाथेंनान, प्रोलिया और हेफिस्टस के मंदिर आदि समृद्ध वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने उसी युग में प्रस्तुत हुए। फिदियस, मिरन और पॉलीक्ट्सि आदि प्रसिद्ध वास्तुकलाकार थे। चिकित्साजगत्‌ में हिपाक्रिटस के अन्वेषणों ने अनेक चिकित्साशास्त्रियों का मार्गदर्शन कराया। हिरैक्लिट्स, एंपिडाक्लीज और डिमाक्रिट्स (दिमोक्रितस) आदि दार्शनिकों ने तत्वचिंतन में महत्वपूर्ण योग दिया। शताब्दी के अंत में विश्व के महान्‌ दार्शनिक सुकरात का जन्म हुआ। क्रांतिकारी विचारों के कारण एथेंसवालों ने उन्हें ३९९ ई.पू. में विष दे दिया । हिरोडोटस को इतिहास का पिता कहा जाता है। थ्यूसीदाइदीज़ दूसरा महान्‌ इतिहासकार था, उसने पेलोपोनेशियन युद्ध का विस्तृत वृत्तांत प्रामाणिक रूप से लिखा। एक्लिज, सोफोक्लीज, यूरीपिदीज और अरिस्ताफेनीज के दु:खांत और सुखांत नाटक इसी समय लिखे गए । पिंडार और बकाइलिदीज ने राष्ट्रनायकों की प्रशस्ति में काव्यग्रंथ लिखे। इस युग में एथेंस ग्रीस में कला और साहित्य का नेता था। प्राचीन ग्रीस मुख्यत: एथेंस के इतिहास में दासप्रथा उल्लेखनीय है। इस संदर्भ में प्रजातांत्रिक पद्धति और दूसरी शासन पद्धतियों में विशेष भेद नहीं था। वर्तमान राजनीतिक सिद्धांत में 'श्रम के महत्व' को मुख्य स्थान प्राप्त हैं। प्राचीन सिद्धान्तों में 'श्रम' राजनीतिक अधिकारों की अयोग्यता का परिचायक था। कृछ काल तक तो हस्तकलाविदों की भी दासों की कोटि में रखा गया था। फिर भी अन्यराज्यों की अपेक्षा एथेंस में दासों की स्थिति अच्छी थी। एथेंस में इनके प्रति कुछ न्याय भी था।
मकदूनिया, सिकंदर और हेलेनी राज्य
इसी समय उत्तर ग्रीस में मकदूनिया नाम का एक शक्तिशाली राज्य उभर रहा था। ई.पू. ३५९ में फिलिप वहाँ का सम्राट् हुआ (दे. फिलिप द्वितीय)। अन्य ग्रीकी नगर राज्यों से मकदूनिया विजयी हुआ। कोरिंथ और थीबीज सैनिक अड्डे बन गए। फिलिपकी हत्या के बाद उसका पुत्र सिकंदर महान्‌ मकदूनिया का सम्राट् हुआ। सिकंदर ने ३३८ - १४५ ई.पू. सारे बिखरे हुए ग्रीस को अपने झंडे के नीचे एकत्र कर लिया। वह अन्य राज्यों की जीतता हुआ पंजाब (भारत) आकर लौट गया। ३२३ ई.पू. में बैबिलोन (बाबुल) में उसकी मृत्यु हुई। वह संपूर्ण विश्व में एक राज्य और एक संस्कृति देखने का इच्छुक था। सिकंदर की मृत्यु से उसका विस्तृत साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया। संघर्षो की लंबी श्रृखंला में तीन शक्तिशाली हेलेनी राज्य- ऐंटोगोनस्‌ के नेतृत्व में मकदूनिया, सेल्यूकिदों के नेतृत्व में एशिया माइनर तथा सीरिया और तोल्मियों के नेतृत्व में मिस्त्र उदित हुए। ई.पू. दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में एपिसर के सम्राट् पाइसर ने रोमनों के विरुद्ध इटली पर आक्रमण किया। मकदूनिया के सम्राट् फिलिप ने इस युद्ध में हस्तक्षेप किया था। इस घटना को प्रथम मकदूनियाई युद्ध कहा जाता है। द्वितीय मकदूनियाई युद्ध (२०१-१९७ ई.पू.) में फिलिप की पराजय हुई। ग्रीस के अन्य राज्य रोमनों ने फिलिप के अधिकार से मुक्त करवा दिए। ई.पू. १९२ से १८९ तक स्थिति बदल गई। इतालियों और रोमनों के बीच युद्ध में फिलिप ने रोमनों का साथ दिया। परिस्थितियाँ इस प्रकार उत्पन्न होती गईं कि मकदूनियाँ ने दो युद्ध और लड़े। ई.पू. १४६ में यह रोम से भी पराजित हुआ। रोम से सारे ग्रीस को केंद्रित कर मकदूनिया में शासक नियुक्त किया।
रोमन काल (१४६ ई.पू.)
रोम ने ग्रीस और मकदूनिया पर आधिपत्य के साथ सिकंदर द्वारा विजित पूर्वी प्रदेशों पर भी अधिकार जमा लिया। एथेंस में कला और संस्कृति की उन्नति रोमनों के काल में ज्यों की त्यों रही। जस्तिनियन ने एथेंस के बौद्धिक उन्नयन में हस्तक्षेप कर सिकंदरिया को दार्शनिक शिक्षाओं का केंद्र बनाया। इससे रोम ने भी ग्रीस कला और संस्कृति से बहुत कुछ लिया। कुस्तुंतुनिया राजधानी बनी। थिडोसियस की मृत्यु के पश्चात्‌ पूरा साम्राज्य दो भागों में बँटा। पश्चिमी ग्रीस के पतन (१७६) के पश्चात्‌ पूर्वार्ध भाग बैजंटाइन साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। किंतु जब मुसलमानों ने कुस्तुंतुनिया पर अधिकार किया तो यह राज्य भी समाप्त हो गया।
बैंजंटाइन साम्राज्य
यह राज्य नौकरशाही से आरंभ हुआ। इस साम्राज्य का पूरा इतिहास, अपनी रक्षा के लिये बाल्कन, दक्षिणी इटली और एशिया माइनर से हुए युद्धों का इतिहास है। विजीगोथिक, गोथिक और बल्गोरियन जातियों के भी आक्रमण हुए। सम्राट् जस्तिनियन ने वह भूमि फिर पाने का प्रयत्न किया। धार्मिक मतभेदों के कारण सन्‌ ८०० में, जब चार्लमैन रोम का सम्राट् हुआ, कुस्तुंतुनिया और रोम अलग अलग हो गए । नवीं शताब्दी के अंत में सम्राट निकेफोरस फोकास द्वितीय और जोन जिमिसेस ने राज्य को किसी प्रकार बचाने की चेष्टा की।' इसके बाद सेलजुक तुर्को के आक्रमणों ने राज्य को अतिशय शक्तिहीन बना दिया। १३ वीं शताब्दी से लेकर १५ वीं शताब्दी के आरंभ तक इस साम्राज्य में बड़ी उथल पुथल हुई। अंत में आटोमन (उस्मानी) तुर्कों ने १४५३ में कुस्तुंतुनिया पर अधिकार कर लिया। शनै: शनै: संपूर्ण ग्रीस पर उनका अधिकार हो गया।
आधुनिक यूनान
फ्रांस की क्रांति और तुर्क शासन के क्रमिक पतन आदि की घटनाओं से और अन्य देशों में बसे ग्रीकी लोगों की समृद्धि से ग्रीस के नेताओं में तुर्कों से अपने देश को मुक्त कराने की इच्छा जगी। रूस, ब्रिटेन और फ्रांस के उत्साहित करने पर वहाँ की जनता ने तुर्को के विरुद्ध सन्‌ १८२१ से १८२९ तक संघर्ष कर ग्रीस को एक स्वतंत्र राष्ट्र बना लिया। बवारिया का राजकुमार आथो सन्‌ १८३२ में ओटो प्रथम के नाम से सम्राट् बनाया गया। दो वर्ष पश्चात्‌ एथेंस नगर देश की राजधानी बना। सम्राट् ओटो की व्यक्तिगत नीतियों से क्षुब्ध होकर वहाँ की जनता ने सन्‌ १८४३ में उसके विरुद्ध आंदोलन करके संसदीय परंपरा कायम की। २० मार्च १८४४ को जनतंत्रवादी ग्रीस का पहला संविधान बना। इसमें सम्राट् पद की पूर्णतया समाप्ति नहीं थी। डेनमार्क का राजकुमार विलियम जार्ज १८६३ में ओटो का उत्तराधिकारी हुआ। दूसरी बार के बने संविधान में सारी राजनीतिक शक्ति सम्राट् के हाथ से निकलकर जन प्रतिनिधियों के हाथ में केंद्रित हो गई। १८६९ में ब्रिटिश सरकार ने आयोनी द्वीपों को भी ग्रीस राज्य में मान लिया। १८९७ में ग्रीस, क्रीट पर आधिपत्य जमाने के लोभ में टर्की से पराजित हुआ। कुछ बड़ी शक्तियों के हस्तक्षेप से क्रीट स्वायत्त शासन की इकाई बना और टर्की का आधिपत्य समाप्त हो गया। कुछ सैन्य अधिकारियों के ग्रीस की साम्राज्यवृद्धि की नीति के विरुद्ध विद्रोह को तत्कालीन प्रधान मंत्री एलूथीरिथस बेनीजेलास ने कुशलता से दबा दिया।

प्रथम विश्वयुद्ध में ग्रीस तटस्थ रहा। सम्राट् अलेक्जंडर की मृत्यु (१९२०) के बाद संसदीय निर्वाचन में बेनीजेलास दल की हार हुई। १९२२ में सम्राट् कांस्टैंटिन ने एशिया माइनर के अल्पसंख्यक ग्रीक नगरों को मुक्त कराने के लिये टर्की के विरुद्ध युद्ध किया, किंतु पराजित हुआ। बाद में परस्पर नगरों की अदला बदली हो गई। बेनीजेलास दल के आंदोलन ने १९२४ से 1935 तक जनतंत्र कायम रखा किंतु १९३५ में पुन: राजशाही की विजय हुई। १९३६ में जनतांत्रिक पद्धति का समूलोच्छेदन हुआ और वाक्स्वातंत््रय, जनसभाओं और राजनीतिक संगठनों पर रोक लगा दी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यहाँ भी राष्ट्रीय समाजवादी जर्मनी की तरह अधिनायकवाद था। दोनों विश्वयुद्धों के बीच ग्रीस बाल्कन राष्ट्रों में सहयोग के लिये सक्रिय था। १९३०में पहला बाल्कन सम्मेलन एथेंस में हुआ। १९४० में इटली को युद्धसंबंधी सुविधा न प्रदान करने पर इटली ने ग्रीस पर आक्रमण कर दिया। प्रारंभिक असफलताओं के बाद ग्रीस ने इटालियन सेनाओं को अल्बानिया में खदेड़ दिया और लगभग २०,००० सैनिक बंदी बना लिए। ग्रेट ब्रिटेन ने उसे अल्बानिया छोड़कर हट जाने के लिये बाध्य किया। जर्मनी ने ब्रिटेन और ग्रीस का संबंध देखकर ग्रीस को रौंद डाला और दो सप्ताह में क्रीट पर भी जर्मनी का झंडा फहरा गया। सन्‌ १९४१ ओर उसके बाद ग्रीस में अनेक छोटे बड़े राजनीतिक संगठन हुए। इनमें बहुतों के पास कोई निश्चय कार्यक्रम नहीं था ब्रिटिश प्रतिनिधियों के साथ १९४३ में राजनीतिक दलों के नेताओं ने तय किया कि स्वस्थ जनमत तैयार होने के पूर्व तक सत्ता के अधिकार के लिये सम्राट् की नियुक्ति होनी चाहिए। राजनीतिक संगठनों ने सम्राट् को अपना सहयोग दिया। किंतु आगे चलकर इन दोनों में सत्ता के लिये संघर्ष हुआ। संघर्ष के लंबे काल में ब्रिटिश सेनाओं को हस्तक्षेप करना पड़ा। शक्तिशाली दल 'नेशनल लिबरेशन फ्रंट' का भी प्रभाव बहुत क्षीण हो गया। फिर भी संघर्ष कम नहीं हुए। एथेंस में रक्तरंजित क्रांति हुई। अंततोगत्वा सोफोलिस के निर्देशन में सारे केंद्रीय गुटों की सम्मिलित सरकार बनी। मार्च, १९४६ में आम चुनाव हुए, संसद् में अनदार दल का बहुमत हुआ। सम्राट् जार्ज द्वितीय की मृत्यु पर उसका भाई पाल प्रथम शासनाध्यक्ष हुआ। वह बहुत अंशों तक प्रभावशाली सिद्ध हुआ, यहाँ तक कि कुछ उदारदलीय भी उसके पक्ष में सम्मिलित हो गए। तत्कालीन ग्रीक सरकार के विरुद्ध १९४७ में गृहयुद्ध छिड़ा। विद्रोही जनता सरकार का संगठन जनरल मारकास वाफिया दीस की अध्यक्षता में चाहती थी। इनकी अल्बानिया, यूनोस्लाविया और बल्गेरिया से सहायता मिलती थी। मार्च, १९४८ में यह विद्रोह दबाया जा सका, किंतु इससे धन जन की अपार क्षति हुई।

इस समय ग्रीस में औद्योगिक प्रगति कुछ अंशों में हुई, किंतु राजनीतिक और सामाजिक स्थिति निराशापूर्ण रही। सितंबर, १९४७ से नवंबर, १९४९ तक दस सरकारें बदलीं। पैपागस के नेतृत्व में रैली दल के बहुमत में आने पर कुछ जन अधिकारों में वृद्धि हुई और राजनीति में स्थिरता आई। संयुक्त राज्य अमरीका की सहायता में न्यूनता की गई। फिर भी देश की अच्छी उन्नति हुई। रूसी गुट से निकलने के बाद यूगोस्लाविया से उसके संबंध अच्छे हुए। १९५२ में टर्की के साथ ग्रीस नाटो (नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी आर्गेनाइजेशन) का सदस्य हुआ। फरवरी, १९५३ में यूगोस्लाविया टर्की और ग्रीस में पारस्परिक सहयोग और सुरक्षा की संधि हुई। १९५२ में ग्रीस और बल्गेरिया के बीच सीमा विवाद हुआ, किंतु ग्रीस ने अपनी आंतरिक राजनीति में साम्यवाद को कभी पनपने नहीं दिया। १९५४ में एथेंस और साइप्रस में ब्रिटिश हस्तक्षेप के विरुद्ध विद्रोह भड़का। अंत में, ब्रिटिश हस्तक्षेप का मामला संयुक्त राष्ट्रसंघ में विचारार्थ पेश किया गया। १९५९ में लंदन-ज्यूरिख समझौते के अनुसार साइप्रस समस्या के प्रस्ताव द्वारा तुर्की और ग्रीस के संबंधों में स्थिरता आई। नवंबर, १९६२ में ग्रीस यूरोपीय सम्मिलित बाजार में शामिल हुआ।
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सरस्वती वंदना - मोहन शशि

सरस्वती वंदना
मोहन शशि

















जन्म - १ अप्रैल १९३७, जबलपुर।
आत्मज - स्मृति शेष छाब्रनि देवी - स्मृतिशेष कालीचरण यादव।
जीवन संगिनी - श्रीमती राधा यादव।
संप्रति - प्रखर पत्रकार दैनिक नवभारत, दैनिक भास्कर जबलपुर, सूत्रधार मिलन।
प्रकाशन - काव्य संग्रह सरोज, तलाश एक दाहिने हाथ की, राखी नहीं आई, हत्यारी रात, शक्ति साधना, दुर्गा महिमा, अमिय, देश है तो सुनो, जान हैं बेटियाँ, बेटे से बेटी भली, जगो बुंदेला जगे बुंदेली।
उपलब्धि - वर्ल्ड यूथ कैंप युगोस्लाविया में सचिव, हिंदी काव्य पथ पर सुवर्णिक पदक, जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंद परकारिता पुरस्कार प्रथम विजेता, शताधिक साहित्यिक सम्मान।
संपर्क - गली २, शांति नगर, दमोह नाका, जबलपुर ४८२००२ मध्य प्रदेश।
चलभाष - ९४२४६५८९१९।
*
माँ वाणी मधुमय कर वाणी।
जय जय जय माँ वीणापाणी।।

जयति-जयति जय सुर की सागर,
मात ज्ञान की भर दो गागर।
बुद्धि विवेक ज्ञान दो माता!,
जई-जयति सुख-शांति प्रदाता।
टेर सुनो माँ! जग कल्याणी!
जय जय जय माँ वीणापाणी।।

चाह नहीं तुलसी बन जाऊँ,
न 'कबीर' निर्गुण पथ पाऊँ।
न 'दिनकर' , न बनूँ 'निराला',
जुगनू सा मन भरो उजाला।
मात! विराजो 'शशि' की वाणी
जय जय जय माँ वीणापाणी।।
***

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
दर्पण का दिल देखता
कहिए, जग में कौन?
.
आप न कहता हाल
भले रहे दिल सिसकता
करता नहीं खयाल
नयन कौन सा फड़कता?
सबकी नज़र उतारता
लेकर राई-नौन
.
पूछे नहीं सवाल
नहीं किसी से हिचकता
कभी न देता टाल
और न किंचित ललकता
रूप-अरूप निहारता
लेकिन रहता मौन
.
रहता है निष्पक्ष
विश्व हँसे या सिसकता
सब इसके समकक्ष
जड़ चलता या फिसलता
माने सबको एक सा
हो आधा या पौन

(मुखड़ा दोहा, अन्तरा सोरठा)