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शनिवार, 3 सितंबर 2016

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लेख -
वर्तमान संक्रांतिकाल में सामाजिक समरसता   
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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             साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में राजनैतिक नेतृत्व के प्रति जनमानस की आस्था डगमगाना चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। आत्मोत्सर्ग और बलिदान के पथ से स्वातँत्र्योपासना करनेवाले बलिपंथियों के सिरमौर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अदृश्य होने, जबलपुर तथा मुम्बई में भारतीय सेना की इकाइयों द्वारा विद्रोह करने, द्वितीय विश्वयुध्द पश्चात् इंग्लैण्ड की डाँवाडोल होती परिस्थिति ने ब्रिटेन को भारत से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह देश के स्वतंत्र होने का श्रेय कोंग्रेस को मिला जिसने गाँधी-नेहरू की अयथार्थवादी-आत्मकेंद्रित विचार धारा को शासन प्रणाली का केंद्र बना कर कश्मीर को गाँव दिया जबकि अन्य रियासतों को सरदार पटेल ने येन-केन-प्रकारेण बचा लिया। 
             
             देश के विभाजन से जनमानस पर लगे घावों के भरने के पूर्व ही गाँधी-हत्या ने राष्ट्रवादी हिन्दू शक्तियों को हाशिये पर डाल दिया। हिन्दू महासभा और जनसंघ बहुमत नहीं पा सके, समाजवादी वैचारिक बिखराव के शिकार होकर आपस में ही टकराते रहे, साम्यवादी अतिरेकी और एकतरफा क्रांति की भ्रांति में उलझे रह गए और कोंग्रस सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार की इबारतें गढ़ती रही। फलत:, सामाजिक संरचना सतत क्षतिग्रस्त होती रही। विनोबा भावे ने सर्वोदय के माध्यम से सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनास्था जगाने का प्रयास किया किन्तु वह तूफ़ान में दिए की लौ की तरह टिमटिमाता रह गया। १९६२ में चीन के विश्वासघात पूर्ण आक्रमण तथा नेहरू की मृत्यु ने पराभव की जो कालिमा देश के चेहरे पर पोती उससे निजात लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पटकनी देकर तथा इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के एक हिस्से को बांग्ला देश बनवाकर दिलाई। 

             सामाजिक समरसता भंग हुई आपातकाल की घोषणा के साथ। कारावास में विविध विचारधारा के नेताओं का मोहभंग हुआ और समन्वय बिना मुक्ति की राह अवरुद्ध देखकर, सब नेता और दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आ खड़े हुए। केर-बेर का संग या चूं-चूं का मुरब्बा बहुत दिन टिक नहीं सका और आम आदमी की आशाओं पर तुषारापात करते दल फिर बिखराव की राह पर चल पड़े। राजनैतिक घटाटोप के स्वातंत्र्योत्तर काल में गुरु गोलवलकर, सत्य साईं बाबा, महर्षि महेश योगी, ओशो, आचार्य श्री राम शर्मा, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, रविशंकर आदि ने धर्म-दर्शन के आधार पर सामाजिक समरसता को बचाने-बढ़ाने का कार्य किया जिसे सरकारों से कोई सहयोग नहीं मिला। कोंग्रेस सरकारों द्वारा प्रताड़ना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र-धर्म की ज्योति न केवल जलाये रखी अपितु संकट काल में समर्पण भाव से जनसेवा के मापदण्ड भी बनाये। 

             सामाजिक समरसता के समर्थक गुरु गोलवलकर के चिंतन का मूलाधार सत्य के प्रति आस्था, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आम आदमी से जुड़ाव, आध्यात्म तथा वैश्विकता था। निर्भयता तथा निर्वैर्यता का वरण कर सबको समान समझने और सबके काम आने की विचारधारा देश के कोने-कोने में ही स्वयं सेवकों की अपराजेय वाहिनी नहीं खड़ी की अपितु अगणित स्वयंसेवकों को विविध देशों में प्रवासी बनाकर भेजा और भारतीय राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे विश्ववाद का पर्याय बना दिया। गुरूजी ने 'हिंदू' शब्द को पंथ या संप्रदाय के स्थान पर सनातन मानव सभ्यता, मनुष्यता और वैश्विकता के पर्याय रूप में परिभाषित किया। उन्होंने हिंदू समाज के पतन को राष्ट्र के पराभव का कारण मानकर राष्ट्रोन्नति हेतु समाजोन्नति तथा समाजोन्नति हेतु भेद-भाव को भुलाकर एकात्मता, एकरसता तथा समरसता की स्थापना को अपरिहार्य बताया।

             सनातन सभ्यता और समन्वयवादी सभ्यता के जनक भारत ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और वर्तमान कलियुग में आतताइयों का उद्भव, आतंक, संघर्ष और पराभव बार-बार देखा है। देश की माटी साक्षी है कि सत-शिव-सुंदर जीवन-मूल्यों पर कितने ही विकट संकट आयें, अंतत: समाप्त हो ही जाते हैं। अक्षय, अजर, अमर, अटल, अचल  अमिट सत-चित-आनंद ही है।  आधुनिक काल में भी विविध देशों में कई विचारकों और पंथ गुरुओं ने सामाजिक समरसता के स्वप्न देखे किंतु उन्हीं के अनुयायियों ने उन स्वप्नों को साकार न होने दिया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगंबर और कार्ल मार्क्स ने आदर्श समाज, नर-नारी सद्भाव, सर्व मानव समानता, शांति, सुख, सहकार आदि की कामना की किन्तु उन्हीं के अनुयायियों ने न केवल अन्य पंथों और देशों के अगणित लोगों को तो मारा ही, उसके पहले अपने ही देश में सहयोगियों को लूटा-मारा। गुरूजी ने नया पंथ स्थापित न कर अपने अनुयायियों को भटकने और मारने-मरने से विरत कर राष्ट्र-धर्म की उपासना और राष्ट्र-निर्माण के महायज्ञ में लगाये रखा। इसका परिणाम पाश्चात्य जीवन-पद्धति और शिक्षा-प्रणाली के प्रति अंध मोह के बावजूद सनातन-सात्विक-सद्भावपरक मूल्यों का पराभव न होने के रूप में हमारे सामने है। यह स्थिति तब है जब कि स्वतंत्रता-पश्चात् शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा ही नहीं की, दमन भी किया। यदि सनातन धर्म प्रणीत सामाजिक समरसता को भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने स्थानीय निकायों के माध्यम से क्रियान्वित किया होता तो वर्तमान में भारत विश्व का सिरमौर होता।    
                         
             अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सामाजिक जीवन में व्याप्त केंद्रीय भाव के आधार पर मानव सभ्यता का ४ युगों में काल विभाजन किया जाना इसका प्रमाण है। मानव मात्र में समानता, संपत्ति पर सबके सामूहिक अधिकार, हर एक को अपनी आवश्यकतानुसार संसाधनों के उपयोग था। कर्तव्य पालन को धर्म की संज्ञा दी गयी। अपने धर्म का पालन राजा-प्रजा सब के लिए अनिवार्य था। समाज की समन्वित धारणा (सुचारु कार्य विभाजन हेतु वर्ण व्यवस्था, सबके उन्नयन हेतु विप्रों (विद्वानों) को परामर्श / शिक्षा दान का कार्य दिया गया।  बाह्य तथा आतंरिक विघ्न संतोषियों से आम जान की रक्षा हेतु समर्थ क्षत्रियों को सैन्य दल गठित कर रक्षा कार्य क्षत्रियों को सौंप गया। दैनन्दिन आवश्यकताओं और अकाल, जलप्लावन, तूफ़ान आदि आपदाओं या आक्रमण काल के समय उपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान और क्रय-विक्रय का दायित्व वैश्यों ने सम्हाला। आतंरिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु शेष सेवा कार्य शूद्रों ने जिम्मे किया गया। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप दण्डनीय था। शम्बूक को इसी आधार पर दण्डित किया गया। वह शूद्र के साथ राजन्य वर्ग का अनाचार नहीं निर्धारित रीति का पालन मात्र था। शूद्र उपेक्षित और शोषित होते तो एक धोबी जन प्रतिनिधि के आरोप पर राजमहिषि सीता को वनवास न जाना पड़ता। बाली, रावण, कंस और कौरवों को राजा होते हुए भी मर्यादा भंग करने पर सत्ता ही नहीं प्राण भी गँवाने पड़े।  

             समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है। वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं। उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा।  उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं।’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)

           समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र्य, समता और बंधुता इन तीन तत्वों को साधा जा सकता है। दुर्भाग्य से हिन्दू समाज की रचना इन तीन तत्वों के आधार पर नहीं हुई है। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हों, वही समाज रचना श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं होते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था। 
           निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसे भेद या विषमता नहीं माना गया। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन काया से सब एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: बुध्दि, रंग,  कद, शक्ति, रूचि, गुण, स्वभाव आदि  में भिन्नता, स्वाभाविक है। निसर्गत: मानव ही नहीं अन्य जीवों में भी गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। जन्मत: असमानता, विषमता नहीं है। यह परम चैतन्य शक्ति का विविधतापूर्ण आविष्कार है। आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है - सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत'
             भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है।  संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है।  गुरु गोलवलकर समरस समाज जीवन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' वसुधैव कुटुम्बकम, वैश्विक नीडं, सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्तियॉं प्रमाण हैं कि भारत में असमानता नहीं थी।   

             ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा, असमानता, शोषण, अन्याय आदि कलियुग की पहचान हैं। 'आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयार हैं। आत्मौपम्य बुध्दि घटी है। धर्म की न्यूनता के कारण जीवन में दु:ख, दैन्य और अशांति है। आदर्श समाज की रचना केवल भाषण देने, कविता लिखने, चुनाव लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पड़ेंगे। संपूर्ण समाज की एकात्मता, पूर्ण राष्ट्र की सेवा, देशवासियों हेतु सर्वस्वार्पण करना होगा।सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर करना होगा। 'समरसता' दिखावे का शब्द नहीं, जीवन व्यवहार का दर्शन बनाना होगा। कलियुग में हर व्यक्ति अपने परिवार, पेशे और लाभ का लक्ष्य लेकर अन्यों हेतु निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास करेगा इसलिए टकराव होगा। 'समानों में समानता' (ईक्विटी अमंग्स्ट ईकवल्स) तथा 'विधि के शासन' (रूल ऑफ़ लॉ) हेतु  आरक्षण का प्रावधान समता, समानता और साम्यता पाने-देने के लिए आवश्यक है किन्तु  क्रमश: कम कर विलोपित करने की नीति अन्यों में असन्तोष न होने देगा। 

             गुरु जी के सुयोग्य उत्तराधिकारी डॉ. मोहन भागवत के अनुसार 'हमारे समाज में विविधता है स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक है। भाषा, खान-पान, देवी-देवता, पंथ संप्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता है  पर यह विविधता कभी हमारी आत्मीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करती। विविध प्रकार के लोगों का समूह होने के बावजूद हम सब एक हैं। समान व्यवहार, समता का व्यवहार होने से यह विविधता भी समाज का अलंकार बन जाती है। सामाजिक जीवन में जातिभेद के कारण विषमता और संघर्ष होता है, इसलिए जातिभेद को दूर करना होगा।  जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक आरक्षण भी रहे। हमारा मन निर्मल हो, वचन दंशमुक्त हो, व्यवहार मित्र बनाने वाला हो तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।

             साम्यवादी चिंतन से उपजे सामाजिक विघटनात्मक नक्सलवाद, समाजवादी विचारधारा के व्यक्तिपरक चिन्तन से उपजे विखण्डन, मुस्लिम साम्प्रदायिकता से उत्पन्न आतंकवाद, तमिलनाड व असम में नसलीय टकराव जनित हिंसा और कश्मीर से पण्डितों के पलायन के बाद भी देश कमजोर न होना यह दर्शाता है कि ऊपरी टकराव के बाद भी सामाजिक समरसता कम नहीं हुई है। डॉ. सुवर्णा रावल के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ एक श्रेष्ठ तत्व है।  भारत के संविधान में समानतायुक्त समाज रचना तथा विषमता निर्मूलन को प्राथमिकता दी गयी है।
                   निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है। समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ि   के रूप में प्रतिस्थापित होती है। भारतीय समाज ने समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर मान्यता भी दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहा। ‘समता’ को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ का व्यावहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है।  समरसता में ‘बंधुभाव’ की असाधारण महत्ता है।  
                     भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया।  राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों ने  अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुँची सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अपार है। डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता ही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है।  स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती।’’
                   आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग अत्यल्प है। बहुजन वर्ग वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज आदि अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है। स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों पहली शिक्षा और दूसरी सेवा की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार ‘‘साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक। हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुँचा, इसका कारण विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में रहना है। इसमें राजाओं का समर्थन होने से साधारण जनता निरी गँवार रह गयी और देश विनाश के रास्ते पर बढ़ा।  इस स्थिति में से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है। 

                       सामाजिक समरसता पर इस्लाम का विशेष आग्रह है। इस्लाम बहुदेववाद को नहीं मानता लेकिन मनुष्य के धार्मिक व्यवहार सहित दैनिक आचार में वह निश्चित रूप से सहिष्णुता का हिमायती रहा है। इसके लिए वह आस्था बदलना जरूरी नहीं समझता। समाज में जिस तरह सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा है, उसे देखकर सामाजिक जीवन के एक अंतर्निहित गुण के रूप में आज धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। आम धारणा के विपरीत  सामाजिक सौहार्द का प्रतिपादन करता है। क़ुरान के अनुसार 'जो इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का अनुयायी होगा, उसे अल्लाह स्वीकार नहीं करेंगे और वह इस दुनिया में आकर खो जाएगा'  की बहुधा गलत व्याख्या की गई है। क़ुरान में साफ-साफ कहा गया है - यहूदी, ईसाई, (प्राचीन साबा राजशाही के मूल निवासियों का धर्म) सभी आस्तिक हैं, जो खुदा और क़यामत में विश्वास रखते हैं और जो सही काम करते हैं, अल्लाह उन्हें इनाम देगा। उन्हें न तो डरने की जरूरत है और न पश्चाताप करने की।' इस्लाम के पैमाने से मोक्ष व्यक्ति के अपने आचरण पर निर्भर करता है न कि किसी खास धार्मिक समूह से संबंधित होने पर। यह समझदारी धार्मिक समरसता के लिए निहायत जरूरी है। इस्लाम ईश्वर या सच्चाई की अनेकता में नहीं, एकता में विश्वास करता है जबकि दुनिया में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। तब उनमें  समरसता कैसे हो? इस्लाम विचारधारात्मक मतभेदों को स्वीकार करलोगों के दैनिक जीवन में सहिष्णुता और एक-दूसरे के धर्म को आदर देने की वकालत करता है। क़ुरान घोषणा करता है कि धार्मिक मामलों में जोर-जबर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। क़ुरान किसी भी दूसरे धर्म की निंदा करने को गैरवाजिब बताता है।

                            इस्लाम धार्मिक समरसता के बदले धार्मिक लोगों की समरसता पर ज्यादा जोर देता है। सामाजिक समरसता  मतभिन्नता के बावजू्‌द एकता पर आधारित होती है, न कि बिना मतभेद की एकता पर। मुहम्मद साहेब के जीवन काल में ही यहूदी, और इस्लाम के धर्मगुरुओं ने उच्च विचार और धार्मिक समरसता के महान उद्देश्यों के लिए याथ्रिब शहर में बहस की थी। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता से काम लेना ही काफी नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के रोज-रोज के आचार-व्यवहार का हिस्सा होनी चाहिए। इस्लाम की आज्ञा है कि अगर प्रार्थना के समय मुसलमान के अलावा कोई अन्य धर्म का अनुयायी भी मस्जिद में आ जाए तो उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा करने में स्वतंत्र महसूस करना चाहिए औऱ वह मस्जिद में ही ऐसा कर सकता है। इतिहास के हर दौर में सहिष्णुता इस्लाम का नियम रहा है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इसका इतने बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। इस्लाम ने किसी धर्म को मिटाया नहीं। धार्मिक सहिष्णुता लोगों की आस्था को बदलकर नहीं  की जा सकती। इसका एकमात्र रास्ता यही है कि लोगों को दूसरे धर्म के मानने वालों के प्रति आदर भाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और व्यवहार में हमेशा लागू किया जाए।
                  भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुँच सकें हों तो शिक्षा उन तक पहुँचे। दुर्बलों की सेवा ही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है। लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस हो तो मुट्ठीभर लोग भी सारी दुनिया में क्रांति कर सकते हैं। समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व अपरिहार्य है। ‘आरक्षण’ सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं। यह ध्यान रखना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर का धर्म पर गहरा विश्वास रथा।धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी। धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है।  धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया।  बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया। निस्संदेह सामाजिक समरसता, सहिष्णुता  और बंधुत्व ही आधुनिक युग का मानव धर्म  है। 

                     भारत ही नहीं विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में अग्रगण्य नरेन्द्र मोदी जी प्रणीत स्वच्छता अभियान केवल भौतिक नहीं अपितु मानसिक कचरे की सफाई की भी प्रेरणा देता है। जब तक देश और विश्व में हर व्यक्ति को शिक्षा, धन, धर्म, वाद, पंथ, क्षेत्र, लिंग आदि अधरों पर बिना किसी भेदभाव के 'मन की बात' करने और कहने का अवसर न मिले, वह अपने मन के 'मेक इन'  और 'मेड इन' को सबके साथ बाँट न सके सामाजिक समरसता बेमानी है। सामाजिक समरसता का महामंत्र विश्व में सर्वत्र बार-बार गुंजित हो रहा है। इसे अपने जीवन में उतारकर हम मानववाद की अनादि-अनंत श्रंखला से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर सकते हैं।  
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संपर्क- समन्वयं, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, चललेख salil.sanjiv@gmail.com 
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नवगीत

नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है 
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता 
विचलित मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
*

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

laghukatha

लघुकथा
ताबीज़
*
मज़ार से निकालता देख उस्ताद ने टोंक यहाँ क्या कर रहा है? अखाड़े नहीं गया? जा ही रहा हूँ उस्ताद। कहता हुआ वह अखाड़े की ओर बढ़ गया और पहुँचते ही कपड़े उतार कर कुश्ती करने लगा। आज वह उस पहलवान से भी हार रहा था जिससे सामान्यत:जीता करता था।
उस्ताद ने देख कर अनदेखा कर दिया। बाद में रोककर समझाया कुश्ती में सही समय पर सही दाँव काम आता है और कुछ नहीं।
अगले दिन वह फिर अपने रंग में था किन्तु बाँह पर नहीं था ताबीज़।
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laghukatha

लघुकथा
रीढ़ की हड्डी
*
बात-बात में नीति और सिद्धांतों की दुहाई देने के लिए वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। तनिक ढील या छूट देना उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता। ब्राम्हण परिवार में जन्मने के कारण वे खुद को औरों से श्रेष्ठ मानकर व्यवहार करते।

समय सदा एक सा नहीं रहता, बीमार हुए, खून दिया जाना जरूरी हो गया, नाते-रिश्तेदार पीछे हट गए तो चिकित्सकों ने रक्त समूह मिलाकर एक अनजान लड़के का खून चढ़ा दिया। उन्होंने धन्यवाद देने के लिए रक्तदाता से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो उसे बुलाया गया, देखते ही उनके पैरों तले से जमीन खिसक गयी, वह सफाई कर्मचारी का बेटा था।

आब वे पहले की तरह ब्राम्हणों की श्रेष्ठता का दावा नहीं कर पाते, झुक गयी है रीढ़ की हड्डी
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बधावा

एक रचना
*
आज प्रभु श्री कृष्ण के जन्म का छटवाँ दिन 'छटी पर्व' है। बुंदेलखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मालवा आदि में यह दिन लोकपर्व 'पोला' के रूप में मनाया जाता है। पशुओं को स्नान कराकर, सुसज्जित कर उनका पूजन किया जाता है। इन दिन पशुओं से काम नहीं लिया जाता अर्थात सवैतनिक राजपत्रित अवकाश स्वीकृत किया जाता है। पशुओं का प्रदर्शन और प्रतियोगिताएँ मेले आदि की विरासत क्रमश: समापन की ओर हैं। विक्रम समय चक्र के अनुसार इसी तिथि को मुझे जन्म लेने का सौभाग्य मिला। माँ आज ही के दिन हरीरा, सोंठ के लड्डू, गुलगुले आदि बनाकर भगवन श्रीकृष्ण का पूजन कर प्रसाद मुझे खिलाकर तृप्त होती रहीं। अदृश्य होकर भी उनका मातृत्व संतुष्ट होता रहे इसलिए मेरी बड़ी बहिन आशा जिज्जी और धर्मपत्नी साधना आज भी यह सब पूरी निष्ठां से करती हैं।  बड़भागी, अभिभूत और नतमस्तक हूँ तीनों के दिव्य भाव के प्रति। आज बाँकेबिहारी की 'छठ' पूजना तो कलम का धर्म है कि बधावा गाकर खुद को धन्य करे- 
***
नन्द घर आनंद है 
गूँज रहा नव छंद है 
नन्द घरा नंद है
*
मेघराज आल्हा गाते 
तड़ित देख नर डर जाते 
कालिंदी कजरी गाये 
तड़प देवकी मुस्काये 
पीर-धीर-सुख का दोहा 
नव शिशु प्रगट मन मोहा 
चौपाई-ताला डोला 
छप्पय-दरवाज़ा खोला 
बंबूलिया गाये गोकुल 
कूक त्रिभंगी बन कोयल 
बेटा-बेटी अदल-बदल
गया-सुन सोहर सम्हल-सम्हल 
जसुदा का मुख चंद है 
दर पर शंकर संत है 
प्रगटा आनँदकंद है 
नन्द घर आनंद है 
गूँज रहा नाव छंद है 
नन्द घरा नंद है
*
काल कंस पर  मँडराया 
कर्म-कुंडली बँध आया 
बेटी को उछाल फेंका 
लिया नाश का था ठेका 
हरिगीतिका सुनाई दिया 
काया कंपित, भीत हिया
सुना कबीरा गाली दें 
जनगण मिलकर ताली दें
भेद न वासुदेव खोलें 
राई-रास चरण तोलें 
गायें बधावा, लोरी, गीत
सुना सोरठा लें मन जीत 
मति पापी की मन्द है 
होना जमकर द्वन्द है 
कटना भव का फंद 
नन्द घर आनंद है 
गूँज रहा नाव छंद है 
नन्द घरा नंद है
***
१-९-२०१६ 


laghukatha

लघुकथा
पैबंद
*
कल तक एक दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे वे दोनों। वर्षों से उन्हें साथ देखने की आदत थी लोगों को।
चुनाव की घोषणा, कुछ क्षेत्र महिलाओं और दलितों के लिए आरक्षित हुए तो एक के सामने अपना क्षेत्र बदलने की बाध्यता उत्पन्न हो गयी। सहयोगियों ने कान भरे की उसे धोखा दिया गया है। शंका पनपते ही मित्रता का आधार डगमगा गया। अन्य दलों ने अवसर का लाभ लिया और दोनों हार गए तो आँखों के आगे से पर्दा हटा। दोनों फिर साथ हुए पर मित्रता की चादर में लग चुका था पैबंद।
***

laghukatha

लघुकथा
अवतार
*
संसद में एक दूसरे पाए आरोप लगाते नेता, भीषण जलप्लावन में डूबते लोग, कश्मीर में लगातार कर्फ्यू, शहर में महामारी नकारात्मक समाचारों से परेशान होकर कृष्ण जी को छट का भोग लगाकर उसने ध्यानमग्न हो प्रार्थना की- हे प्रभु! परिस्थितियाँ बहुत खराब हैं, अब तो अवतार ले लो।

जब तक यशोदा मैया की तरह गैर की सन्तान को बचाने के लिये अपनी सन्तान को दाँव पर लगानेवाली यशोदा जैसी माँ, अपने प्राण संकट में डालकर भी छोटे भाई को बचानेवाला बलदाऊ सा बड़ा भाई, बिना शंका सलाह मानकर आचरण करने वाला अर्जुन सा सखा, बिना स्वार्थ प्यार करने वाले ग्वाल-बाल न होंगे तब तक अकेला कृष्ण भी कुछ नहीं कर सकता। पहले तुम सब अपना आचरण सुधारो, तभी सार्थक हो सकेगा अवतार।
***

laghukatha

लघुकथा
आनंद पथ
*
हर साल ३-४ बार उसे डाक से कुष्ठाश्रम का पत्र मिलता, वह एक सरसरी नज़र डालकर उसे फेंक देता और सोचता यह सब ठगने का तरीका है। एक दिन उसकी पत्नी ने परेशानी बताई कि फिर से बरौनी खोजना होगी। उसने कारण पूछा तो पता चला बरौनी के पैरों में कुष्ठ के घाव हो गए हैं और उसके बच्चे गरीबी के कारण इलाज भी ठीक से नहीं करा पा रहे। सरकारी अस्पताल से कभी दवाई मिलती है, कभी नहीं।
वह कोई उपाय सोचता रहा, अचानक कुष्ठाश्रम का पत्र याद आया। पुराने अख़बारों के बीच दबाया हुआ पत्र उसने खोज लिया और दूरभाष से संपर्क कर बरौनी के रहने और इलाज की व्यवस्था कर, बरौनी को खबर देने उसकी झोपड़ी की ओर गया।
बरसात के पानी से बने गड्ढे और ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर कीचड से पैंट गन्दी होने लगी, उसने सोचा बुरा फँसा, बेहतर होता खबर भेजकर बरौनी को बुलाता लेकिन फिर लगा देर करना ठीक नहीं।

अपनी झोपडी में उसे देख बरैनी की ख़ुशी का ठिकाना न रहा, वह कुछ बोलता उससे पहले ही बरौनी ने बताया कि उसने अपनी बेटी को उसके घर काम करने को राजी कर लिया है। उसने बरौनी को इलाज की व्यवस्था के बारे में बताया तो वह औए उसके बच्चे पैर छूने लगे। वह राह खर्च के लिए पैसे देकर लौटा तो वही पगडंडी लग रही थी आनंद पथ।
***

laghukatha

लघुकथा
जन्म कुंडली
*
'आपकी गृह दशा ठीक नहीं है, महामृत्युंजय मन्त्र का सवा लाख जाप कराना होगा। आप खुद करें तो श्रेष्ठ अन्यथा मेरे आश्रम में पंडित इसे संपन्न करेंगे, आप नित्य ८ बजे आकर देख सकते हैं। यह भी न सध सके तो आरम्भ और अंत में पूजन में अवश्य सम्मिलित हों। यह सामग्री और अन्य व्यय होगा' कहते हुए पंडित जी ने यजमान के हाथ में एक परचा थमा दिया जिस पर कुछ हजार की राशि का खर्च लिखा था। यजमान ने श्रद्धा से हाथ जोड़कर लिखी राशि में पांच सौ और जोड़कर पंडित के निकट रखी गणेश प्रतिमा के निकट रखकर चरण स्पर्श किये और प्रसाद लेकर चले गए।
वहाँ उपस्थित अन्य सज्जन आश्रम से बाहर आने पर कुंडली और ग्रहों के नाम पर जाप करने से संकट टालने के विरुद्ध बोलते हुए इसे पाखण्ड बताते रहे। कुछ दिन पश्चात् उनका पुत्र सड़क दुर्घटना में घायल हो गया। अब वे स्वयं आश्रम में पण्डित जी को दिखा रहे थे पुत्र की जन्मकुंडली।
***

बुधवार, 31 अगस्त 2016

dwipadiyaan

द्विपदियों में कल्पना
*
कल्पना की विरासत जिसको मिली
उस सरीखा धनी दूजा है नहीं
*
कल्पना की अल्पना गृह-द्वार पर
डाल देखो सुखों का हो सम्मिलन
*
कल्पना की तूलिका, रंग शब्द के
भाव चित्रों में झलकती ज़िन्दगी
*
कल्पना उड़ चली फैला पंख जब
सच कहूँ?, आकाश छोटा पड़ गया
*
कल्पना कंकर को शंकर कर सके
चाह ले तो कर सके विपरीत भी
*
कल्पना से प्यार करना है अगर
आप अवसर को कभी मत चूकिए
*
कल्पना की कल्पना कैसे करे?
प्रश्न का उत्तर न खोजे भी मिला
*
कल्पना सरिता बदलती रूप नित
कभी मन्थर, चपल जल प्लावित कभी
*
कल्पना साकार होकर भी विनत
'सलिल' भट नागर यही है, मान लो
*
कल्पना की शरण जा कवि धन्य है
गीत दोहे ग़ज़ल रचकर गा सका
*
कल्पना मेरी हक़ीक़त हो गयी
नर्मदा अवगाह कर सुख पा लिया
*
कल्पना को बाँह में भर, चूमकर
कोशिशों ने मंज़िलें पायीं विहँस
*
कल्पना नाचीज़ है यह सत्य है
चीज़ तो बेजान होती है 'सलिल'
*
३१-८-२०१६


मंगलवार, 30 अगस्त 2016

navgeet

नवगीत -
*
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा निजाम जिसमें
दो दूनी
तीन-पाँच ही होता है।
जो काट रहा है पौधों को
वह हँसिया
फसलें बोता है।
कीचड़ धोता है दाग
रगड़कर
कालिख गोर चेहरे पर।
अंधे बैठे हैं देख
सुनयना राहें रोके पहरे पर।
ठुमकी दे उठा, गिराते हो
खुद ही पतंग
दे रहे ढील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा मजहब जिसमें
भक्तों की
जेब देख प्रभु वर देता?
कैसा मलहम जो घायल के
ज़ख्मों पर
नमक छिड़क देता।
अधनँगी देहें कहती हैं
हम सुरुचि
पूर्ण, कपड़े पहने।
ज्यों काँटे चुभा बबूल कहे
धारण कर
लो प्रेमिल गहने।
गौरैया निकट बुलाते हो
फिर छोड़ रहे हो
कैद चील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
****
३०-८-२०१६

रविवार, 28 अगस्त 2016

purowak

 पुरोवाक-

जीवनमूल्यों से समृद्ध 'हरि - दोहावली '
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

                        संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'। हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। सार यह कि दोहा मुक्तक छंद है। 

                        घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है । 

                        पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय या द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय या त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय या चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय या षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है 

                        छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है। जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है दोहा (विषम चरण १३ मात्रा, सम चरण ११ मात्रा) प्रमुख अर्ध सम मात्रिक  छंद है। लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हैं । 

                        दोहा छंदों का राजा है। मानव जीवन को जितना प्रभावित दोहा ने किया उतना किसी भाषा के किसी छंद ने कहीं-कभी नहीं किया।  दोहा छंद लिखना बहुत सरल और बहुत कठिन है। केवल दो पंक्तियाँ लिखना दूर से आसान प्रतीत होता है किन्तु जैसे-जैसे निकटता बढ़ती है दोहे की बारीकियाँ समझ में आती हैं, मन दोहे में रमता जाता है। धीरे-धीरे दोहा आपका मित्र बन जाता है और तब दोहा लिखना नहीं पड़ता वह आपके जिव्हाग्र पर या मस्तिष्क में आपके साथ आँख मिचौली खेलता प्रतीत होता है। दोहा आपको आजमाता भी है. 'सजगता हटी, दुर्घटना घटी' यह उक्ति दोहा-सृजन के सन्दर्भ में सौ टंच खरी है। 

                        दोहा का कथ्य सामान्यता में विशेषता लिये होता है। दोहे की एक अर्धाली (चरण) पर विद्वज्जन घंटों व्याख्यान या प्रवचन करते हैं। दोहा गागर में सागर, बिंदु में सिन्धु या कंकर में शंकर की तरह कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी बात कहता है। 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' तथा प्रभुता से लघुता भली' में दोहा के लक्षण वर्णित है।   


                        दोहा के कथ्य के ३ गुण १. लाक्षणिकता, २. संक्षिप्तता तथा ३. बेधकता या मार्मिकता हैं। 

१. लाक्षणिकता: दोहा विस्तार में नहीं जाता इंगित से संकेत कर अपनी बात कहता है। 'नैनन ही सौं बात' अर्थात बिना कुछ बोले आँखों के संकेत से बोलने का लक्षण ही दोहे की लाक्षणिकता है। जो कहना है उसके लक्षण का संकेत ही पर्याप्त होता है।  

२. संक्षिप्तता: दोहा में गीत या गजल की तरह अनेक पंक्तियों का भंडार नहीं होता किन्तु वह व्रहदाकारिक रचनाओं का सार दो पंक्तियों में ही अभिव्यक्त कर पाता है।  अतीत में जब पत्र लिखे जाते थे तो समयाभाव तथा अभिव्यक्ति में संकोच के कारण प्रायः ग्राम्य वधुएँ कुछ वाक्य लिखकर 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर अपनी विरह-व्यथा का संकेत कर देती थीं. दोहा संक्षिप्तता की इसी परंपरा का वाहक है। 
३. बेधकता या मार्मिकता: दोहा बात को इस तरह कहता है कि वह दिल को छू जाए।  मर्म की बात कहना दोहा का वैशिष्ट्य है। 

                        दोहा दुनिया में अपना संकलन लेकर पधार रहे श्री हरि प्रकाश श्रीवास्तव 'हरि' फ़ैज़ाबादी रचित प्रस्तुत दोहा संकलन तरलता, सरलता, सहजता तथा बोधगम्यता के चार स्तंभों पर आधृत है। पारंपरिक आस्था-विश्वास की विरासत पर अभिव्यक्ति का प्रासाद निर्मित करते दोहाकार सम-सामयिक परिवर्तनों और परिस्थितियों के प्रति भी सजग रह सके हैं। 

देखो तुम इतिहास में, चाहे धर्म अनेक। 

चारों युग हर काल में, सत्य मिलेगा एक।।   
*
लन्दन पेरिस टोकियो, दिल्ली या बगदाद। 
खतरा है सबके लिए, आतंकी उन्माद।।

                        राम-श्याम की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त अवध-ब्रज अंचल की भाषा हरि जी के मन-प्राण में समायी है। वे संस्कृतनिष्ठ, हिंदी, देशज, उर्दू तथा आंग्ल शब्द पूर्ण सहजता के साथ प्रयोग में लाते हैं। ज्योतिर्मय, जगजननी, बुद्धि विनायक, कृपानिधान, वृद्धाश्रम, चमत्कार, नश्वर, वृक्ष, व्योम, आकर्षण, पाषाण, ख्याति, जीवन, लज्जा, अनायास, बचपना, बुढ़ापा, सुवन, धनुही, दिनी, बेहद, रूहानी, अंदाज़, आवाज़, रफ्तार, ख़िलाफ़, ज़बान, लब,  तक़दीर, पिज़्ज़ा, बर्जर, पेस्ट्री, हॉट, डॉग, पैटीज़, सी सी टी व्ही, कैमरा आदि शब्द पंक्ति-पंक्ति में गलबहियाँ डाले हुए, भाषिक समन्वय की साक्ष्य दे रहे हैं। 

                        शब्द-युग्म का सटीक प्रयोग इस संग्रह का वैशिष्ट्य है। ये शब्द युग्म ८ प्रकार के हैं। प्रथम जिनमें एक ही शब्द की पुनरावृत्ति अपने मूल अर्थ में है, जैसे युगों-युगों, कण-कण, वक़्त-वक़्त, राधे-राधे आदि। द्वितीय जिनमें दो भिन्नार्थी शब्द संयुक्त होकर अपने-अपने अर्थ में प्रयुक्त होते हैं यथा अजर-अमर, सुख-दुःख, सीता-राम, माँ-बाप, मन्दिर-मस्ज़िद, दिल-दिमाग, भूत-प्रेत, तीर-कमान, प्रसिद्धि-सम्मान, धन-प्रसिद्धि, ऐश-आराम, सुख-सुविधा आदि। तृतीय जिनमें दो शब्द संयुक्त होकर भिन्नार्थ की प्रतीति कराते हैं उदाहरण राम-रसायन, पवन पुत्र, खून-पसीने, सुबहो-शाम, आदि। चतुर्थ सवाल-जवाब, रीति -रिवाज़, हरा-भरा आदि जिनमें दोनों शब्द मूलार्थ में संयुक्त मात्र होते हैं।  पंचम जिनमें दो समानार्थी शब्द संयुक्त हैं जैसे शादी-ब्याह आदि। षष्ठम जिनमें प्रयुक्त दो शब्दों में से एक निरर्थक है यथा देर-सवेर में सवेर। सप्तम एक शब्द का दो बार प्रयोग कर तीसरे अर्थ का आशय जैसे जन-जन का अर्थ हर एक जन होना, रोम-रोम का अर्थ समस्त रोम होना, हम-तुम आशय समस्त सामान्य जान होना आदि। अष्टम जिनमें तीन शब्दों का युग्म प्रयुक्त है देखें ब्रम्हा-विष्णु-महेश, राम चरित मानस, कर्म-वचन-मन, पिज़्ज़ा-बर्जर-पेस्ट्री, लन्दन-पेरिस-टोकियो आदि। शब्द-युग्मों का प्रयोग दोहों की रोचकता में वृद्धि करता है। 

                        समासों का यथावसर उपयोग दोहों की पठनीयता और अर्थवत्ता में वृद्धि करता है। कायस्थ, चित्रगुप्त,  बुद्धि विनायक, जगजननी, कृपानिधान, दीनानाथ, अवधनरेश, द्वारिकाधीश, पवनपुत्र, राजनीति,   रामभक्त जैसे सामासिक शब्दों का सम्यक प्रयोग दोहों को अर्थवत्ता देता है। 

                         हरी जी मुहावरोंऔर लोकोक्तियों का प्रयोग करने से भी नहीं चूके हैं। उदाहरण- 

राजनीति भी हो गयी, अब बच्चों का खेल। 
पलकें झगड़ा-दुश्मनी, पल में यारी-मेल।। 

कल दिन तेरे साथ था, आज हमारी रात।
किसी ने है यही, वक़्त-वक़्त की बात।।  

                        नीति के दोहे रचकर वृन्द, रहीम, कबीर आदि कालजयी हैं, इनसे प्रेरित हरि जी ने भी अपने नीति के दोहे संग्रह में सम्मिलित किये हैं। दोहों में निहित कुछ विशेषताएं इंगित करना पर्याप्त होगा- 

प्रेम वफ़ा इज्जत दगा, जो भी देंगे आप। 
लौटेगा बनकर वही, वर या फिर अभिशाप।।  -जीवन मूल्य 

कण-कण में श्री राम हैं, रोम-रोम में राम। 
घट-घट उनका वास है, मन-मन में है धाम।।  -प्रभु महिमा, अनुप्रास अलंकार, पुनरावृत्ति अलंकार  

चित्रगुप्त भवन को, शत-शत बार प्रणाम। 
उनसे ही जग में हुआ, कायस्थों का नाम।।  -ईश स्मरण, पुनरावृत्ति अलंकार  

इच्छा फिर से हो रही, होने की नादान। 
काश मिले बचपन हमें, फिर वो मस्त जहान।।  -मनोकामना   

जितना बढ़ता जा रहा, जनसंख्या का रोग। 
तनहा होते जा रहे, उतने ही अब लोग।।        - सामयिक सत्य, विरोधाभास अलंकार 

भाता है दिल को तभी, आल्हा सोहर फाग। 
घर में जब चूल्हा जले, बुझे पेट की आग ।।  - सनातन सत्य, मुहावरा 

कहाँ लिखा है चीखिये, करिये शोर फ़िज़ूल। 
गूँगों की करता नहीं, क्या वो दुआ क़ुबूल।।   - पाखंड विरोध 

पैरों की जूती रही, बहुत सहा अपमान। 
पर औरत अब चाहती, अब आदर-सम्मान।।  -स्त्री विमर्श, मुहावरा  

                        सारत:, हरि जी के इन दोहों में शब्द-चमत्कार पर जीवन सत्यों को, शिल्प पर अर्थ को, श्रृंगारिकता पर सरलता को वरीयता दी गयी है। किताबी विद्वानों को भले ही इनमें आकर्षणक आभाव प्रतीत हो किन्तु जीवन मूल्यों को अपरोहरी माननेवालों के मन को ये दोहे भायेंगे। पूर्व में एक ग़ज़ल संग्रह रच चुके हरि जी से भविष्य में अन्य विधाओं में भी कृतियाँ प्राप्त हों।  शुभकामनायें। 

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सम्पर्क- समन्वयम , २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ 
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शनिवार, 27 अगस्त 2016

vyangya lekh

व्यंग्य लेख 
दही हांडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
                              दही-हांडी की मटकी बाँधता-फोड़ता और देखकर आनंदित होते आम आदमी के में भंग करने का महान कार्य कर खुद को जनहित के प्रति संवेदनशील दिखनेवाला निर्णय सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज जाने की तरह शांतिप्रिय सनातनधर्मियों के अनुष्ठान में अयाचित और अनावश्यक हस्तक्षेप करने के कदमों की कड़ी है। हांड़ी की ऊँचाई उन्हें तोड़ने के प्रयासों को रोमांचक बनाती है। ऊँचाई को प्रतिबंधित करने के निर्णय का आधार, दुर्घटनाओं को बताया गया है कइँती यह कैसे सुनिश्चित किया गया कि निर्धारित ऊँचाई से दुर्घटना नहीं होगी? इस निर्णय की पृष्ठभूमि किसी प्राण-घातक दुर्घटना और जान-जीवन की रक्षा कहा जा रहा है। यदि न्यायलय इतना संवेदनशील है तो मुहर्रम में जलाते अलावों पर चलने, मुंह में छेदना, उन पर कूदने और अपने आप पर घातक शास्त्रों से वार करने की परंपरा हानिहीन कैसे कही जा सकती है? क्या बकरीद पर लाखों बकरों का कत्ल अधिक जघन्य नहीं है? न्यायालय यह जानता नहीं या इसे प्रतिबन्धयोग्य मानता नहीं या सनातन धर्मियों को सॉफ्ट टारगेट मानकर उनके धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप करना अपना जान सिद्ध अधिकार समझता है?  सिख जुलूसों में भी शस्त्र तथा युद्ध-कला प्रदर्शनों की परंपरा है जिससे किसी की हताहत होने को सम्भावना नकारी नहीं जा सकती।  

                              वस्तुत: दही-हांड़ी का आयोजन हो या न हो? हो तो कहाँ हो?, ऊँचाई कितनी हो?, कितने लोग भाग लें?, किस प्रकार मटकी फोड़ें? आदि प्रश्न न्यायालय नहीं प्रशासन हेतु विचार के बिंदु हैं। भारत के न्यायालय बीसों साल से लंबित लाखों वाद प्रकरणों, न्यायाधीशों की कमी, कर्मचारियों में व्यापक भ्रष्टाचार, वकीलों की मनमानी आदि समस्याओं के बोझ तले कराह रहे हैं। दम तोडती न्याय व्यवस्था को लेकर सर्वोच्च न्यायाधिपति सार्वजनिक रूप से आँसू बहा चुके हैं। लंबित लाखों मुकदमों में  फैसले की जल्दी नहीं है किन्तु सनातन धर्मियों के धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े मामले में असाधारणशीघ्रता और जन भावनाओं के निरादर का औचित्य समझ से परे है।  न्यायलय को आम आदमी की जान की इतनी ही चिता है तो दीपा कर्माकर द्वारा प्रदर्शित जिम्नास्ट खेल में निहित सर्वाधिक जान का खतरा अनदेखा कैसे किया जा सकता है? खतरे के कारण ही उसमें सर्वाधिक अंक हैं। क्या न्यायालय उसे भी रोक देगा? क्या पर्वतारोहण और अन्य रोमांचक खेल (एडवेंचर गेम्स) भी बन्द किये जाएँ? यथार्थ में यह निर्णय उतना ही गलत है जितना गंभीर अपराधों के बाद भी फिल्म अभिनेताओं को बरी किया जाना। जनता ने न उस फैसले का सम्मान किया, न इसका करेगी। 

इस  सन्दर्भ में विचारणीय है कि-

१. विधि निर्माण का दायित्व संसद का है।  न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) अत्यंत ग़ंभीऱ और अपरिहार्य स्थितियों में ही अपेक्षित है। सामान्य प्रकरणों और स्थितियों में इस तरह के निर्णय संसद के अधिकार क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है। 

२. कार्यपालिका का कार्य विधि का पालन करना और कराना है। किसी विधि का हर समय, हर स्थिति में शत-प्रतिशत पालन नहीं किया जा सकता। स्थानीय अधिकारियों को व्यावहारिकता और जन-भावनाओं का ध्यान भी रखना होता है। अत:, अन्य आयोजनों की तरह इस संबंध में भी निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय प्रशासन के हाथों में देना समुचित विकल्प होता। 
  
३. न्यायालय की भूमिका सबसे अंत में विधि का पालन न होने पर दोषियों को दण्ड देने मात्र तक सीमित है, जिसमें वह विविध कारणों से असमर्थ हो रहा है। असहनीय अनिर्णीत वाद प्रकरणों का बोझ, न्यायाधीशों की अत्यधिक कमी, वकीलों का अनुत्तरदायित्व और दुराचरण, कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ती न्याय व्यवस्था खुद में सुधार लाने के स्थान पर अनावश्यक प्रकरणों में नाक घुसेड़ कर अपनी हेठी करा रही है। 

                              मटकी फोड़ने के मामलों में स्वतंत्रता के बाद से अब तक हुई मौतों के आंकड़ों का मिलान, बाढ़ में डूब कर मरनेवालों, दंगों में मरनेवालों, समय पर चिकित्सा न मिलने से मरनेवालों, सरकारी और निजी अस्पतालों में चिकित्सकों के न होने से मरनेवालों के आँकड़ों के साथ किया जाए तो स्थिति स्पष्ट होगी यह अंतर कुछ सौ और कई लाखों का है। 

                              यह कानून को धर्म की दृष्टि से देखने का नहीं, धर्म में कानून के अनुचित और अवांछित हस्तक्षेप का मामला है। धार्मिक यात्राएँ / अनुष्ठान ( शिवरात्रि, राम जन्म, जन्माष्टमी, दशहरा, हरछट, गुरु पूर्णिमा, मुहर्रम, क्रिसमस आदि) जन भावनाओं से जुड़े मामले हैं जिसमें दीर्घकालिक परंपराएँ और लाखों लोगों की भूमिका होती है। प्रशासन को उन्हें नियंत्रित इस प्रकार करना होता है कि भावनाएँ न भड़कें, जान-असन्तोष न हो, मानवाधिकार का उल्लंघन न हो। हर जगह  प्रशासनिक बल सीमित होता है। यदि न्यायालय घटनास्थल की पृष्भूमि से परिचित हुए बिना कक्ष में  बैठकर सबको एक डंडे से हाँकने की कोशिश करेगा तो जनगण के पास कानून की और अधिकारियों के सामने कानून भंग की अनदेखी करने के अलावा कोई चारा शेष न रहेगा। यह स्थिति विधि और शांति पूर्ण व्यवस्था की संकल्पना और क्रियान्वयन दोनों दृष्टियों से घातक होगी। 

                              इस निर्णय का एक पक्ष और भी है। निर्धारित ऊँचाई  की मटकी फोड़ने के प्रयास में मौत न होगी क्या न्यायालय इससे संतुष्ट है? यदि मौत होगी तो कौन जवाबदेह होगा? मौत का कारण सिर्फ ऊँचाई कैसे हो सकती है। अपेक्षाकृत कम ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में दुर्घटना और अधिक ऊँचाई की मटकी बिना दुर्घटना फोड़ने के से स्पष्ट है की दुर्घटना का कारण ऊँचाई नहीं फोडनेवालों की दक्षता, कुशलता और निपुणता में कमी होती है। मटकी फोड़ने संबंधी दुर्घटनाएँ न हों, कम से कम हों, कम गंभीर हों तथा दुर्घटना होने पर न्यूनतम हानि हो इसके लिए भिन्न आदेशों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता है -

१. मटकी स्थापना हेतु इच्छुक समिति निकट रहवासी नागरिकों की लिखित सहमति सहित आवेदन देकर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी से अनुमति ले और उसकी लिखित सूचना थाना, अस्पताल, लोक निर्माण विभाग, बिजली विभाग व नगर निगम को देना अनिवार्य हो। 

२. मटकी की ऊँचाई समीपस्थ भवनों की ऊँचाई, विद्युत् तारों की ऊँचाई, होर्डिंग्स की स्थिति, अस्पताल जैसे संवेदनशील और शांत स्थलों से दूरी आदि देखकर प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की समिति तय करे। 

३. तय की गयी ऊँचाई के परिप्रेक्ष्य में अग्नि, विद्युत्, वर्षा, तूफ़ान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं तथा गिरने की संभावना का पूर्वाकलन कर अग्निशमन यन्त्र, विद्युत् कर्मचारी, श्रमिक, चिकित्साकर्मी आदि की सम्यक और समुचित व्यवस्था हो अथवा व्यवस्थाओं के अनुसार ऊँचाई निर्धारित हो। 

४. इन व्यवस्थों को करने में  समितियों का भी सहयोग लिया जाए।  उन्हें मटकी स्थापना-व्यवस्था पर आ रहे खर्च की आंशिक पूर्ति हेतु भी नियम बनाया जा सकता है। ऐसे नियम हर धर्म, हर सम्प्रदाय, हर पर्व, हर आयोजन के लिये सामान्यत: सामान होने चाहिए ताकि किसी को भेदभाव की शिकायत न हो। 

५. ऐसे आयोजनों का बीमा काबरा सामियितों का दायित्व हो ताकि मानवीय नियंत्रण के बाहर दुर्घटना होने पर हताहतों की क्षतिपूर्ति की जा सके। 

                               प्रकरण में उक्त या अन्य तरह के निर्देश देकर न्यायालय अपनी गरिमा, नागरिकों की प्राणरक्षा तथा सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक व्यावहारिकताओं के प्रति संवेदनशील हो सकता था किन्तु वह विफल रहा। यह वास्तव में चिता और चिंतन का विषय है। 

                              समाचार है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना कर सार्वजनिक रूप से मुम्बई में ४४ फुट ऊँची मटकी बाँधी और फोड़ी गयी। ऐसा अन्य अनेक जगहों पर हुआ होगा और हर वर्ष होगा। पुलिस को नेताओं का संरक्षण करने से फुरसत नहीं है। वह ग़ंभीऱ आपराधिक प्रकरणों की जाँच तो कर नहीं पाती फिर ऐसे प्रकरणों में कोई कार्यवाही कर सके यह संभव नहीं दिखता। इससे आम जान को प्रताड़ना और रिश्वत का शिकार होना होगा। अपवाद स्वरूप कोई मामला न्यायालय में पहुँच भी जाए तो फैसला होने तक किशोर अपराधी वृद्ध हो चुका होगा। अपराधी फिल्म अभिनेता,  नेता पुत्र या महिला हुई तब तो उसका छूटना तय है। इस तरह के अनावश्यक और विवादस्पद निर्णय देकर अपनी अवमानना कराने का शौक़ीन न्यायालय आम आदमी में निर्णयों की अवहेलना करने की आदत डाल रहा है जो घातक सिद्ध होगी। बेहतर हो न्यायालय यह निर्णय  वापिस ले ले।  
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लेखक संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४ 
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बुधवार, 24 अगस्त 2016

vyangya lekh

व्यंग्य लेख
अफसर, नेता और ओलंपिक 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                               ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल कुंभ होता है। सामान्यत:, अफसरों और नेताओं की भूमिका गौड़ और खिलाडियों और कोचों की भूमिका प्रधान होना चाहिए। अन्य देशों में ऐसा होता भी है पर इंडिया में बात कुछ और है। यहाँ अफसरों और नेताओं के बिना कौआ भी पर नहीं मार सकता। अधिक से अधिक अफसर सरकारी अर्थात जनगण के पैसों पर विदेश यात्रा कर सैर-सपाट और मौज-मस्ती कर सकें इसलिए ज्यादा से ज्यादा खिलाड़ी और कोच चुने जाने चाहिए। मतलब यह कि खेल-खिलाडी साधन और अफसर-नेताओं की मौज साध्य और एकमेव अंतिम लक्ष्य होता है। खिलाडी ऑलंपिक स्तर के न भी हों तो कोच और अफसर फर्जी आँकड़ों से उन्हें ओलंपिक स्तर का बता देंगे, उनकी सुविधाओं के नाम भर राशि का प्रावधान कर बंदरबाँट कर लेंगे।

                               हमारी 'वसुधैव कुटुम्बकम' की मान्यता तभी पूरी होती है जब अफसर पूरी वसुधा पर सैर-सपाटा कर अपने कुटुंब के लिए खरीदी कर सकें, 'विश्वैक नीड़ं' का सिद्धांत तभी पूर्णता पाता है जब विश्व के हर देश को अपना नीड़ मानकर अफसर सुरा-सुंदरी पा सके। अपने दोनों लक्ष्यों की पूर्ति जरूरी होती है, साथ में गये खिलाड़ी उछल-कूद कर लें, चित्र खिंचा लें, दूरदर्शन और अखबार उनके चित्र और चटपटी ख़बरें परोस कर पेट पाल लें तो कोई हर्ज़ नहीं। रह गयी जनता जनार्दन तो पेट भरने से ही फुरसत नहीं है, जिन निकम्मों का समय नहीं काटता वे खिलाड़ियों पर छपी मनगढ़ंत खबरें चटखारे ले-लेकर पढ़ने और 'बाप न मारे मेंढकी बेटा तीरंदाज' का मुहावरा सच  करने में ज़िन्दगी सार्थक कर लेते हैं। धन और भूमि की आसुरी हवस को जी रहे धन्नासेठ और अभिनेता काली कमाई  को सफेद करने के उपाय खेल संघों के प्रमुख और प्रतियोगिताएं के प्रायोजक बनकर निकाल ही लेते हैं। यदि आप असहमत हों तो आप ही कहें कि इन सुयोग्य अफसरों और कोचों के मार्गदर्शन में जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर श्रेष्ठ प्रदर्शन और ओलंपिक मानकों से बेहतर प्रदर्शन कर चुके खेलवीर वह भी एक-दो नहीं सैंकड़ों  ओलंपिक में अपना प्रदर्शन दुहरा क्यों नहीं पाते?

                               खेल हमारा राष्ट्रीय उद्योग और कुटीर व्यवसाय दोनों है। संसद में बैठे खिलाडियों की कलाबाजी, मतदाताओं से किये वायदों को जुमलीबाजी, प्रवेश परीक्षाओं में फर्जीवाड़े, नौकरी देने से पेशी बढ़वाने तक में लेन-देन, धर्म के नाम पर आम आदमी के शोषण, त्याग और वैराग की महिमा बखानते आश्रमों, कौम की भलाई के ठेकेदार बनते मदरसों, खातूनों की फोकर में दुबले होकर मौलिक अधिकारों से वंचित कर तीन तलाकों के ताबूत में दफनाते धर्माचार्यों की प्रतियोगिता हो तो स्वर्ण, रजत और कांस्य तीनों ही पदक भारत की झोली में आना सुनिश्चित है।  

                               कोई खिलाड़ी ओलंपिक तक जाकर सर्वश्रेष्ठ न दे यह नहीं माना जा सकता। इसका एक ही अर्थ है कि अफसर अपनी विदेश यात्रा की योजना बनाकर खिलाडियों के फर्जी आँकड़े तैयार करते हैं जिसमें इन्डियन अफसरशाही को महारत हासिल है।  ऐसा करने से सबका लाभ है, अफसर, नेता, कोच और खिलाड़ी सबका कद बढ़ जाता है, घटता है केवल देश का कद। बिके हुई खबरिया चैनल किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाते हैं ताकि उनकी टी आर पी बढ़े, विज्ञापन अधिक मिलें और कमाई हो। इस सारे उपक्रम में आहत होती हैं जनभावनाएँ, जिससे किसी को कोई मतलब नहीं है।    

                               रियो से लौटकर रिले रेस खिलाडी लाख कहें कि उन्हें पूरी दौड़ के दौरान कोई पेय नहीं दिया गया, वे किसी तरह दौड़ पूरी कर अचेत हो गईं। यह सच सारी दुनिया ने देखा लेकिन बेशर्म अफसरशाही आँखों देखे को भी झुठला रही है। यह तय है कि सच सामने लानेवाली खिलाड़ी अगली बार नहीं चुनी जाएगी। कोच अपना मुँह बंद रखेगा ताकि  अगली बार भी उसे ही रखा जाए। केर-बेर के संग का इससे बेहतर उदाहरण और कहाँ मिलेगा? अफसरों को भेजा इसलिए जाता है कि वे नियम-कायदे जानकर खिलाडियों को बता दें, आवश्यक व्यवस्थाएँ यथा समय कर दें ताकि कोच और खिलाडी सर्वश्रेष्ठ दे सकें पर इण्डिया की अफसरशाही आज भी खुद को खुदमुख्तार और शेष सब को गुलाम समझती है। अफसर खिलाडियों के सहायक हों तो उनकी बिरादरी में हेठी हो जाएगी। इसलिए, जाओ, खाओ, घूमो, फिरो, खरीदी करो और घरवाली को खुश रखो ताकि वह अन्य अफसरों की बीबियों पर रौब गांठ सके। 

                               रियो ओलंपिक में 'कोढ़ में खाज' खेल मंत्री जी ने कर दिया। एक राजनेता को ओलंपिक में क्यों जाना चाहिए? क्या अन्य देशों के मंत्री आते है? यदि नहीं, तो इंडियन मंत्री का वहाँ जाना, नियम तोडना, चेतावनी मिलना और बेशर्मी से खुद को सही बताना किसी और देश में नहीं हो सकता। व्यवस्था भंग कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की दयनीय मानसिकता देश और खिलाड़ियों को नीचा दिखाती है पर मोटी चमड़ी के मंत्री को इस सबसे क्या मतलब?  

                               रियो ओलंपिक के मामले में प्रधानमंत्री जी को भी धोखे में रख गया। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने खिलाडियों का हौसला बढ़ाने के लिये उनसे खुद पहल कर भेंट की। यदि उन्हें बताया जाता कि इनमें से किसी के पदक जीतने की संभावना नहीं है तो शायद वे ऐसा नहीं करते किन्तु अफसरों और पत्रकारों ने ऐसा माहौल बनाया मानो भारत के खलाड़ी अब तक के सबसे अधिक पदक जीतनेवाले हैं। झूठ का महल कब तक टिकता? सारे इक्के एक-एक कर धराशायी होते रहे। 

                               अफसरों और कर्मचारियों की कारगुजारी सामने आई मल्ल नरसिह यादव के मामले में। दो ही बातें हो सकती हैं। या तो नरसिंह ने खुद प्रतिबंधित दवाई ली या वह षड्यन्त्र का शिकार हुआ। दोनों स्थितियों में व्यवस्थापकों की जिम्मेदारी कम नहीं होती किन्तु 'ढाक के तीन पात' किसी के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया गया और देश शर्मसार हुआ। 

                               असाधारण लगन, परिश्रम और समर्पण का परिचय देते हुए सिंधु, साक्षी और दीपा ने देश की लाज बचाई। उनकी तैयारी में कोई योगदान न करने वाले नेताओं में होड़ लग गयी है पुरस्कार देने की। पुरस्कार देना है तो अपने निजी धन से दें, जनता के धन से क्यों? पिछले ओलंपिक के बाद भी यही नुमाइश लगायी गयी थी। बाद में पता चला कई घोषणावीरों ने खिलाड़ियों को घोषित पुरस्कार दिए ही नहीं। अत्यधिक धनवर्षा, विज्ञापन और प्रचार के चक्कर में गत ओलंपिक के सफल खिलाडी अपना पूर्व स्तर भी बनाये नहीं रख सके और चारों खाने चित हो गए।  बैडमिंटन खिलाडी का घुटना चोटिल था तो उन्हें भेजा ही क्यों गया? वे अच्छा प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकीं लंबी शल्यक्रिया के लिये विवश भी हो गयीं। 

                               होना यह चाहिये कि अच्छा प्रदर्शन करनेवाले खिलाडी अगली बार और अच्छा प्रदर्शन कर सकें इसके लिए उन्हें खेल सुविधाएँ अधिक दी जानी चाहिए। भूखण्ड, धनराशि और फ़्लैट देने से खेल नहीं सुधरता। हमारा शासन-प्रशासन परिणामोन्मुखी नहीं है। उसे आत्मप्रचार, आत्मश्लाघा और व्यक्तिगत हित खेल से अधिक प्यारे हैं। आशा तो नहीं है किन्तु यदि पूर्ण स्थिति पर विचार कर राष्ट्रीय खेल-नीति बनाई जाए जिसमें अफसरों और नेताओं की भूमिका शून्य हो। हर खेल के श्रेष्ठ कोच और खिलाड़ी चार सालों तक प्रचार से दूर रहकर सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करें तो अगले ओलंपिक में तस्वीर भिन्न नज़र आएगी।  हमारे खिलाड़ियों में प्रतिभा और कोचों में योग्यता है पर गुड़-गोबर एक करने में निपुण अफसरशाही और नेताओं को जब तक खेलों से बाहर नहीं किया जायेगा तब तक खेलों में कुछ बेहतर होने की उम्मीद आकाश कुसुम तोड़ने के समान ही है। मिशनरी भावना रहित खेल मिशन क्या-क्या गुल (खिलायेगा) यह देखने और ताली बजने के लिए दोल को दीवार की तरह मजबूत बना लीजिये क्योंकि रोटी मिले न मिले पदक की आस में निवाले छिनने का खेल कहलाने की माहिर नौकरशाही और नेतागिरी की पाँचों अँगुलियाँ घी और सिर कढ़ाई में रहना सुनिश्चित है।  

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समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४