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गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

haiku: baans -sanjiv

हाइकु
बाँस
संजीव
.
वंशलोचन
रहे-रखे निरोग
ज़रा मोचन

rola: baans -sanjiv

रोला
बाँस
संजीव
.
हरे-भरे थे बाँस, वनों में अब दुर्लभ हैं
नहीं चैन की साँस, घरों में रही सुलभ है
बाँस हमारे काम, हमेशा ही आते हैं
हम उनको दें काट, आप भी दुःख पाते हैं

soratha: baans -sanjiv

सोरठा
बाँस
संजीव
.
लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े
कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
.
बाँस बने पतवार, फँसे धार में नाव जब
देता है आराम, बखरी में जब खाट हो

doha: baans -sanjiv

बाँस
संजीव
.
दोहा:
महल-भवन पल में गिरा, हँसता है भूचाल
बाँस गिरा पाता नहीं, करती लचक कमाल
.
तीसमारखाँ परेशां, गर चुभ जाए फाँस
हर भव-बाधा पार हो, बने सहारा बाँस
.
.

navgeet : sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
अब तक किसने-कितने काटे
ढो ले गये,
नहीं कुछ बाँटें.
चोर-चोर मौसेरे भाई
करें दिखावा
मुस्का डांटें.
बँसवारी में फैला स्यापा
कौन नहीं
जिसका मन काँपा?
कब आएगी
किसकी बारी?
आहुति बने,
लगे अग्यारी.
उषा-सूर्य की
आँखें लाल.
रो-रो
क्षितिज-दिशा बेहाल.
समय न बदले
बेढब चाल.
ठोंक रहा है
स्वारथ ताल.
ताल-तलैये
सूखे हाय
भूखी-प्यासी
मरती गाय.
आँख न होती
फिर भी नम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.  
करे महकमा नित नीलामी
बँसवट
लावारिस-बेनामी.
अंधा पीसे कुत्ते खायें
मोहन भोग
नहीं गह पायें.
वनवासी के रहे नहीं वन
श्रम कर भी  
किसान क्यों निर्धन?
किसकी कब
जमीन छिन जाए?
विधना भी यह
बता न पाए.
बाँस फूलता
बिना अकाल.
लूटें
अफसर-सेठ कमाल.
राज प्रजा का
लुटते लोग.
कोंपल-कली
मानती सोग.
मौन न रह
अब तो सच बोल
उठा नगाड़ा
पीटो ढोल.
जब तक दम
मत हो बेदम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
*


   

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए

रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए

है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये

संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए

जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए

दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए

कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना

बाँसगुला केश सजा हेरूँ  ऐना  
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना

बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना

बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद

बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना

बगदई मैया पूजूँ,  बगियाना  भूल    
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल  
     
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
***
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना,  बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल,  ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती,  सैना = संकेत,  बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना,  बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना,  बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात,  बिजना = बाँस का पंखा.   

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए

मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए

जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए

बस हाड-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए

तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए

***

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
जो न अपना, न ही पराया है
आप कहते हैं अपना साया है

जो सजा दें, वही क़ुबूल हमें
हमने दिल आपका चुराया है

दिल का लेना हसीं गुनाह तो है
दिल मगर आपने लुटाया है

ज़ुल्म ये है कि आँख फिरते ही
आपने यूँ हमें भुलाया है

हौसला है या जवांमर्दी है
दिल में दिलवर के घर बनाया है

***  

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
.
मान किया, अभिमान किया, अपमान किया- हरि थे मुस्काते
सौंवी न हो गलती यह भी प्रभु आप ही आप रहे चेताते
काल चढ़ा सिर पर न रुका, तब चक्र सुदर्शन कृष्ण चलाते
शीश कटा भू लोट रहा था, प्राण गए हरि में ही समाते
***

kavita: baans sanjiv

कविता 
बाँस
संजीव
.
ज़िन्दगी भर 
नेह-नाते 
रहे जिनसे.
रह गए हैं
छूट पीछे
आज घर में.
साथ आया वह
न जिसकी
कभी भायी फाँस.
उठाया
हाँफा न रोया
वीतरागी बाँस
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
गैर से हमको क्यों गिला होगा?
आइना सामने मिला होगा

झील सी आँख जब भरी होगी
कोई उसमें कमल खिला होगा

गर हकीकत न बोल पायी तो
होंठ उसने दबा-सिला होगा

कब तलक चैट से मिलेगा वह
क्या कभी खत्म सिलसिला होगा

हाय! ऐसे न मुस्कुराओ तुम
ढह गया दिल का हर किला होगा

झोपड़ी खाट धनुष या लाठी
जब बनी बाँस ही छिला होगा

काँप जाते हैं कलश महलों के
नीव पत्थर कोई हिला होगा
***

laghukatha: sanjiv


लघु कथा: 
बाँस 
संजीव
. 
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया. 

आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं. यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते. मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है. 



संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया. आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया.



कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था..

मैंने पुकारा तो वह रुक गया. मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है? 



कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है. तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठाकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है. अच्छा-खासा व्यापार करता था. पिता को किसी से टक्कर मार दी. उनके इलाज में हुए खर्च में लिये कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी. बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये.' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला:'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे. अभी तो मुझे कहीं झुककर, कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं उन्हें जीतना भी है.' और वह तेजी से आगे बढ़ गया. मैं देखता रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
पल में  न दिल में दिल को बसाने की बात कर  
जो निभ सके वो नाता निभाने की बात कर 

मुझको तो आजमा लिया, लूँ मैं भी आजमा
तू अब न मुझसे पीछा छुड़ाने की बात कर 

आना है मुश्किलात को आने भी दे ज़रा 
आ जाए तो महफिल से न जाने की बात कर 

बचना 'सलिल' वो  चाहता मिलना तुझे गले 
पड़ जाए जो गले तो भुलाने की बात कर 

बेचारगी  और तीरगी से हारना न तुम 
यायावरी को अपनी जिताने की बात कर  
...
     

navgeet: sanjiv

नवगीत
संजीव 
.
पूज रहे हैं 
मूरत 
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर में वह
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
.
५.४.२०१४

navgeet: baans sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
नवगीत:
संजीव
.
बाँस हैं हम
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
*

रविवार, 5 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
शिरीष
संजीव

.
क्षुब्ध पहाड़ी
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
Kalkora Mimosa (Albizia kalkora)
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.

कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा पाता बुरा है
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
Kalkora Mimosa (Albizia kalkora)
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो  
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
Kalkora Mimosa (Albizia kalkora)

टिप्पणी: इस पुष्प का नाम शिरीष है। बोलचाल की भाषा में इसे सिरस कहते हैं। बहुत ही सुंदर गंध वाला... संस्कृत ग्रंथों में इसके बहुत सुंदर वर्णन मिलते हैं। अफसोस कि इसे भारत में काटकर जला दिया जाता है शारजाह में  इसके पेड़ हर सड़क के दोनो ओर लगे हैं। स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध शिरीष के फूल है -http://www.abhivyakti-hindi.org/.../lali.../2015/shirish.htm वैशाख में इनमें नई पत्तियाँ आने लगती हैं और गर्मियों भर ये फूलते रहते हैं... ये गुलाबी, पीले और सफ़ेद होते हैं. इसका वानस्पतिक नाम kalkora mimosa (albizia kalkora) है. गाँव के लोग हल्के पीले फूल वाले शिरीष को, सिरसी कहते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है। इसकी फलियां सूखकर कत्थई रंग की हो जाती हैं और इनमें भरे हुए बीज झुनझुने की तरह बजते हैं। अधिक सूख जाने पर फलियों के दोनों भाग मुड़ जाते हैं और बीज बिखर जाते हैं। फिर ये पेड़ से ऐसी लटकी रहती हैं, जैसे कोई बिना दाँतो वाला बुजुर्ग मुँह बाए लटका हो।इसकी पत्तियाँ इमली के पेड़ की पत्तियों की भाँति छोटी छोटी होती हैं। इसका उपयोग कई रोगों के निवारण में किया जाता है। फूल खिलने से पहले (कली रूप में) किसी गुथे हुए जूड़े की तरह लगता है और पूरी तरह खिल जाने पर इसमें से रोम (छोटे बाल) जैसे निकलते हैं, इसकी लकड़ी काफी कमजोर मानी जाती है, जलाने के अलावा अन्य किसी उपयोग में बहुत ही कम लाया जाता है।बडे शिरीष को गाँव में सिरस कहा जाता है। यह सिरसी से ज्यादा बडा पेड़ होता है, इसकी फलियां भी सिरसी से अधिक बडी होती हैं। इसकी फलियां और बीज दोनों ही काफी बडे होते हैं, गर्मियों में गाँव के बच्चे ४-५ फलियां इकठ्ठा कर उन्हें खूब बजाते हैं, यह सूखकर सफेद हो जाती हैं, और बीज वाले स्थान पर गड्ढा सा बन जाता है और वहाँ दाग भी पड जाता है ... सिरस की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसका उपयोग चारपाई, तख्त और अन्य फर्नीचर में किया जाता है ... गाँव में ईंट पकाने के लिए इसका उपयोग ईधन के रूप में भी किया जाता है।गाँव में गर्मियों के दिनों में आँधी चलने पर इसकी पत्ती और फलियां उड़ कर आँगन में और द्वारे पर फैल जाती हैं, इसलिए इसे कूड़ा फैलाने वाला रूख कहकर काट दिया जाता है.

Kalkora Mimosa (Albizia kalkora) bark

शिरीष: एक गीत
आभा सक्सेना 
.
जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्ल्वित हुआ है।

हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ है।


सिंदूरी फूलों से लदकर,
टहनी टहनी गमक रही है।
छटा निराली मन को भाये,
धूप मद भरी लटक रही है।


आओ कवियो तुम सब आओ,
एक नवीन गोष्ठी रचायें।
वृक्ष शिरीष के नीचे हम सब,
एक नयी सी प्रथा बनायें।


गरमी के आने की आहट,
खुद शिरीष ने दे डाली है।
हर रेशा फूलों का कहता,
फिर रंगोली रच डाली है।


जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्लवित हुआ हैं।
हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ है।
....


मैं शिरीष से मिलाने जाऊँ
कल्पना रामानी 
.
सोच रही
इस बार गाँव में
मैं शिरीष से मिलने जाऊँ

बाग सघन वो याद अभी तक
पले बढ़े जिसमें ये जातक
जल न जलाशय जब-जब देते
नम पुरवा बन जाती पालक
उन केसर
सुकुमार गुलों को
सहलाकर बचपन दोहराऊँ
ग्रीष्म-काल के अग्निकुंड से
झाँक रही छाया शिरीष की
लहराते गुल अल्प- दिवस ये
अलबेली माया शिरीष की
कोमल सुमन
बसे नज़रों में, मन
करता फिर नज़र मिलाऊँ
जेठी-धूप जवान हो रही
तन को बन धारा भिगो रही
ऐसे में कविता शिरीष से
कर शृंगार सुजान हो रही
तंग शहर
के ढंग भूल अब
रंग नए कुछ दिन अपनाऊँ
.

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध काव्य करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव.
रचनाओं की हर रामायण
अक्षर-अक्षर मिलकर गढ़ते
कथ्य भाव रस बिम्ब बनाते
क्षर शब्दों की सार्थक दुनिया
.
शब्द-शब्द मिल वाक्य बनाते
वाक्य अनुच्छेदों में ढलते
अनुच्छेद मिल कथा-कहानी
बन जाते तो  सपने पलते
बनते सपने युग के नपने
लगे पतीले ऊपर ढकने
पुरुषार्थी कोशिश कर हारे
लगे राम की माला जपने
दे जाती है साँझ सलोने
सपने लेकिन ढलते-ढलते
नानी के अधरों पर लाती
हँसी शरारत करती मुनिया
.
किसने जीवन यहाँ बिताया
केवल सुख पा, सहा न दुखड़ा
किसने आँसू नहीं बहाये
किसका सुख से खिला न मुखड़ा
किस अंतर में नहीं अंतरा
इश्क-मुश्क का गूँजा कहिए  
सम आकारिक पंक्ति-लहरियाँ
बन नवगीत बह रही गहिए
होते तब जीवंत खिलौने
शिशु-नयनों में पलते-पलते
खेले हास-रास के सँग जब
श्वास-आस की जीवित गुड़िया
.
गीतकार पाठक श्रोता का
नाता होता बहुत अनूठा
पल में खुश हो जाता बच्चा
पल भर पहले था जो रूठा
टटकापन-देशजता रुचती
अधुनातानता भी मन भाती
बन्ना-गारी के सँग डी जे
सुनते-नाचें झूम बराती
दिखे क्षितिज पर देखे चंदा
धवल चाँदनी हँसते-खिलते
घूँघट डाले हनीमून पर
जाती इठलाकर दुलहनिया
४.४.२०१५
...   

navgeet: sanjiv

नवगीत : 
संजीव 
.
खेत उगलते हैं सोना पर 
खेतिहरों का दीवाला है 
.
जो बोये-काटे वह भूखा
जो हथिया ले वही सुखी है
मिल दलाल लें लूट मुनाफा
उत्पादक मर रहा दुखी है
भूमि छीनते हो किसान की
कैसे भूमि-पुत्र हो? बोलो!
जनप्रतिनिधि सोचो-शर्माओ
मत ज़मीर अपना यूं बेचो
निज सुविधा त्यागो, जनगण सा
जीवन जियों, बनो साधारण
तब ही तो कर पाओगे तुम
आमजनों का कष्ट निवारण
गंगा सुखी लोकनीति की
भरा स्वार्थ का परनाला है
.
वनवासी से छीन लिये वन
है अधनंगा श्रमिक शहर में
शिखर मानकों के फेकें हैं
तोड़-तोड़कर सतत गव्हर में
दलहित साध्य हुआ सूरों को
गौड़ देशहित मान रहे हो
जयचंदी है मूढ़ सियासत
घोल कुएँ में भाँग रहे हो
सर्वदली सरकार बनाओ
मतभेदों का शमन करो मिल
भारत पहली विश्वशक्ति हो
भारत माँ की शपथ गहो नित
दीनबन्धु बन पोछों आँसू
दीन-हीन के सँग मेहनत कर
तभी खुलेगा भारत के
उन्नति पथ का लौही ताला है
...