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रविवार, 4 अगस्त 2013

bhasha vividha: sirayaki doha salila -sanjiv

भाषा विविधा:

दोहा सलिला सिरायकी :

संजीव

[सिरायकी (लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी, मूल लिपि लिंडा): पंजाब - पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की लोकभाषा, उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से, सह बोलियाँ मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली. सिरायकी में हिंदी के हर वर्ग का ३ रा व्यंजन (ग,ज,ड, द तथा ब) उच्च घोष में बोला तथा रेखांकित कर लिखा जाता है. उच्चारण में 'स' का 'ह', 'इ' का 'हि', 'न' का 'ण' हो जाता है. सिरायकी में दोहा लेखन में हुई त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]

*

हब्बो इत्था मिलण हे, निज करमां डा फल।

रब्बा मैंनूँ मुकुति दे, आतम पाए कल।।

*

अगन कुंद हे पाप डा, राजनीति हे छल।

जद करणी भरणी तडी, फिर उगणे कूँ ढल।।

*

लुक्का-छिप्पी खेल कूँ, धूप-छाँव अनुमाण।

सुख-दुःख हे चित-पट 'सलिल', सूझ-बूझ वरदाण।।

*

खुदगर्जी तज जिंदगी, आपण हित दी सोच।

संबंधों डी जान हे, लाज-हया-संकोच।।

*

ह्ब्बो डी गलती करे, हँस-मुस्काकर माफ़।

कमजोरां कूँ पिआर ही, हे सुच्चा इन्साफ।।

*

                                         

meri pasand SHABD vijay nikore

मेरी पसंद:
शब्द 
-- विजय निकोर
*
कहे और अनकहे के बीच बिछे
अवशेष कुछ शब्द हैं केवल,
शब्द भी जैसे हैं नहीं,
ओस से टपकते शब्द
दिन चढ़ते ही प्रतिदिन
वाष्प बन उढ़ जाते हैं
और मैं सोचता हूँ... मैं
आज क्या कहूँगा तुमसे ?
 
अनगिनत भाव-शून्य शब्द
इस अनमोल रिश्ते की धरोहर, 
व्याकुल प्रश्न,  अर्थ भी व्याकुल,
मिथ्या शब्दों की मिथ्या अभिव्यक्ति,
एक   ही   पुराने   रिश्ते से   रिसता
रोज़- रोज़ का एक और नया दर्द
बहता नहीं है, बर्फ़-सा
जमा रह जाता है।
 
फिर   भी   कुछ   और   मासूम शब्द
जाने किस तलाश में चले आते हैं
उन शब्दों में ढूँढता हूँ   मैं तुमको
और वर्तमान को भूल जाता हूँ।
तुम्हारी उपस्थिति में हर बार
यह शब्द नि:शब्द हो जाते हैं
और मैं कुछ भी कह नहीं पाता
शब्द उदास लौट आते हैं।
 
तुम्हारी आकृति यूँ ही ख़्यालों में
हर बार, ठहर कर, खो जाती है,
और मैं भावहीन मूक खड़ा 
अपने शब्दों की संज्ञा में उलझा
ठिठुरता रह जाता हूँ।
ऐसे में यह मौन शब्द 
 
असंख्य असंगतियों से घिरे 
मुझको संभ्रमित छोड़ जाते हैं।
 
इन उदासीन, असमर्थ, व्याकुल
शब्दों की व्यथा
भीतर उतर आती है,
सिमट रहा कुछ और अँधेरा
बाकी रात में घुल जाता है,
और उसमें तुम्हारी आकृति की
एक और असाध्य खोज में
यह शब्द छटपटाते हैं ...
तुमसे कुछ कहने को, वह 
जो मैं आज तक कह सका।
 
हाँ, तुमसे कुछ सुनने की
कुछ कहने की जिज्ञासा
अभी भी उसी पुल पर
हर रोज़ इंतजार करती है।
             -------
                                            

navgeet: kaurav kul -Omprakash Tiwari

नवगीत:

कौरव कुल

- ओमप्रकाश तिवारी 

------------
कौन कह रहा
द्वापर में ही
कौरव कुल का नाश हुआ ।

वही पिताश्री
बिन आँखों के
माताश्री
पट्टी बाँधे,
ढो-ढो
पुत्रमोह की थाती
दुखते दोनों
के काँधे ;

उधर न्याय की
आस लगाये
अर्जुन सदा निराश हुआ ।

नकुल और
सहदेव सरीखे
भाई के भी
भाव गिरे,
दुर्योधन जी
राजमहल में
दुस्साशन से
रहें घिरे ;

जिसमें जितने
दुर्गुण ज्यादा
वह राजा का ख़ास हुआ ।

चालें वही
शकुनि की दिखतीं
चौपड़ के
नकली पाशे,
नहीं मयस्सर
चना-चबेना
दूध - मलाई
के झांसे ;

चंडालों की
मजलिस  में जा
सदा युधिष्ठिर दास हुआ ।

भीष्म - द्रोण
सत्ता के साथी
अपने-अपने
कारण हैं,
रक्षाकवच
नीति के सबने
किये बख़ूबी
धारण हैं ;

सच कहने पर
चचा विदुर को
दिखे आज वनवास हुआ ।
--
Om Prakash Tiwari
Chief of Mumbai Bureau
Dainik Jagran
41, Mittal Chambers, Nariman Point,
 Mumbai- 400021

Tel : 022 30234900 /30234913/39413000
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M : 098696 49598
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शनिवार, 3 अगस्त 2013

DOHA in SIRAYAKI : SANJIV

भाषा विविधा:

दोहा सलिला सिरायकी :

संजीव

[सिरायकी पाकिस्तान और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में बोले जानेवाली लोकभाषा है. सिरायकी का उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से हुआ है. इसे लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी आदि भी कहा गया है. सिरायकी की मूल लिपि लिंडा है. मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली इससे मिलती-जुलती बोलियाँ हैं. सिरायकी में दोहा छंद अब तक मेरे देखने में नहीं आया है. मेरे इस प्रथम प्रयास में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है. जानकार पाठकों से त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]

*

बुरी आदतां दुखों कूँ, नष्ट करेंदे ईश।  

साडे स्वामी तुवाडे, बख्तें वे आशीष।।

*

रोज़ करन्दे हन दुआ, तेडा-मेडा भूल 

अज सुणी ई हे दुआं,त्रया-पंज दा भूल।।

*

दुक्खां कूँ कर दूर प्रभु, जग दे रचनाकार।  

डेवणवाले देवता, रण जोग करतार।। 

*

कोई करे तां क्या करे, हे बलाव असूल।   

कायम हे उम्मीद पे, दुनिया कर के भूल

*

शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार।  

लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।

*

शहंशाह हे रियाया, सपणें हुण साकार  

राजा ते हे बणेंदी, नता ते हुंकार।।

*

गिरगिट वां मिन्ट विच, मणुदा रंग  

डूरंगी हे रवायत, ज्यूं लोहे नूँ जंग।।

*

हब्बो जी सफल हे, घटगा गर अलगा। 

खुली हवा आजाद हे, देश- न हो भटकाव।।

*

सिद्धे-सुच्चे मिलण दे, जीवन-पथ आसान।  

खुदगर्जी दी भावणा, त्याग सुधर इंसान ।।

================================                                                           

virasat : rathwan -sw. narendra sharma

https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIT4IwYcPHjyoa2Y2i6pU9R-CObz3ebcePTwExv__h6RgLMAI9nfGY6pC6gyFWnGMKEn61DVifJyYufRI1xZ1QCQs95bkkLZ7tIeH9z102S5M1WdImNWBh81EH90V6fIAuHHVc6NS8wac/s1600/2.jpghttps://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiH1WBFrLztC4bZ8UnfZaJN-pldSGjbwzvKpGFqPjHnvc2nrLqEzRnHZQqrHNI-0JR9bn9Itud_qCyZch1QZ3L-OYQgEUKGP6fhaJMRX1pEAqrEzwBzNLu6qRuVvu3y1S3WDQ5OaaYAvQw/s1600/Lavanya-shah.jpg*विरासत:
रथवान  
स्व. नरेन्द्र शर्मा
साभार : लावण्या शाह 

*
हम रथवान, ब्याहली रथ में,
रोको मत पथ में
हमें तुम, रोको मत पथ में।

माना, हम साथी जीवन के,
पर तुम तन के हो, हम मन के।
हरि समरथ में नहीं, तुम्हारी गति हैं मन्मथ में।
हमें तुम, रोको मत पथ में।


हम हरि के धन के रथ-वाहक,
तुम तस्कर, पर-धन के गाहक 
हम हैं, परमारथ-पथ-गामी, तुम रत स्वारथ में।
हमें तुम, रोको मत पथ में।

दूर पिया, अति आतुर दुलहन,
हमसे मत उलझो तुम इस क्षण।
अरथ न कुछ भी हाथ लगेगा, ऐसे अनरथ में।
हमें तुम, रोको मत पथ में।

अनधिकार कर जतन थके तुम,
छाया भी पर छू न सके तुम!
सदा-स्वरूपा एक सदृश वह पथ के इति-अथ में!
हमें तुम, रोको मत पथ में।

शशिमुख पर घूँघट पट झीना
चितवन दिव्य-स्वप्न-लवलीना,
दरस-आस में बिन्धा हुआ मन-मोती है नथ में।
हमें तुम, रोको मत पथ में। 

हम रथवान ब्याहली रथ में,
हमें तुम, रोको मत पथ में।

***

Pratinidhi Doha Kosh : 10 Varsha Sharma 'Rainy'

ॐ  

प्रतिनिधि दोहा कोष :१० आचार्य संजीव

प्रतिनिधि दोहा कोष :१० आचार्य संजीव

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती,  डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', अर्चना मलैया, सोहन परोहा 'सलिल', साज़ जबलपुरी, श्यामल सुमन तथा शशिकांत गीते के दोहे। आज अवगाहन कीजिए वर्षा शर्मा 'रैनी' रचित दोहा सलिला में : 

*

दोहाकार १० : वर्षा शर्मा 'रैनी'

https://mail-attachment.googleusercontent.com/attachment/u/0/?ui=2&ik=dad2fa7c6e&view=att&th=140d410ec7fd2772&attid=0.1&disp=inline&realattid=f_hkzjdyac0&safe=1&zw&saduie=AG9B_P8iolpeP3f4iPAHowfQMMHF&sadet=1377987529675&sads=2Jnyg5HiMTGW5jDitTyjEnr5Jk0
*

वर्षा शर्मा 'रैनी' : 

जन्म: १६ - ३ - १९८५, गाडरवारा, नरसिंहपुर मध्य प्रदेश।

आत्मजा : श्रीमती रेखा - श्री प्रकाश शर्मा।

शिक्षा: एम. ए. इतिहास, 'स्वामी विवेकानंद के पत्रों और व्याख्यानों में राष्ट्रीय और सामाजिक चिन्तन ' पर शोधरत।

सृजन विधा: गीत, गजल, मुक्तक, भजन, लघु कथा आदि

 प्रकाशित कृति: मन ही मन (गजल, गीत, भजन संग्रह)

संपर्क: सुभाष वार्ड, गाडरवारा, नरसिंहपुर मध्य प्रदेश। चलभाष: ९५७५९०६६६४ 

ईमेल: rsrainysharma@gmail.com

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती,  डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', अर्चना मलैया, सोहन परोहा 'सलिल', साज़ जबलपुरी, श्यामल सुमन तथा शशिकांत गीते के दोहे। आज अवगाहन कीजिए वर्षा शर्मा 'रैनी' रचित दोहा सलिला में :

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

pratinidhi doha kosh 9 - shashikant geete, khandwa


ॐ  

प्रतिनिधि दोहा कोष :9 आचार्य संजीव

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन, प्रणव भारती,  डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', अर्चना मलैया, सोहन परोहा 'सलिल', साज़ जबलपुरी तथा श्यामल सुमन के दोहे। आज अवगाहन कीजिए श्री शशिकांत गीते रचित दोहा सलिला में : 

*

दोहाकार ९ : शशिकांत गीते 

*

जन्म: मध्य प्रदेश।

आत्मजा : गीते।

शिक्षा: एम. ए. ।

सृजन विधा: गीत, गजल, दोहा आदि।

 प्रकाशित कृति:

संपर्क:  मध्य प्रदेश। चलभाष:

ईमेल:

kabeer aur kamaal : doha ka dhamal


दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिट हैं, वह हैं कबीर ( संवत १४५५ - संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कि अनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गज विद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी का संग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।


एक बार सद्‍गुरु रामानंद के शिष्य कबीरदास सत्संग की चाह में अपने ज्येष्ठ गुरुभाई रैदास के पास पहुँचे। रैदास अपनी कुटिया के बाहर पेड़ की छाँह में चमड़ा पका रहे थे। उन्होंने कबीर के लिए निकट ही पीढ़ा बिछा दिया और चमड़ा पकाने का कार्य करते-करते बातचीत प्रारंभ कर दी। कुछ देर बाद कबीर को प्यास लगी। उन्होंने रैदास से पानी माँगा। रैदास उठकर जाते तो चमड़ा खराब हो जाता, न जाते तो कबीर प्यासे रह जाते... उन्होंने आव देखा न ताव समीप रखा लोटा उठाया और चमड़ा पकाने की हंडी में भरे पानी में डुबाया, भरा और पीने के लिए कबीर को दे दिया। कबीर यह देखकर भौंचक्के रह गये किन्तु रैदास के प्रति आदर और संकोच के कारण कुछ कह नहीं सके। उन्हें चमड़े का पानी पीने में हिचक हुई, न पीते तो रैदास के नाराज होने का भय... कबीर ने हाथों की अंजुरी बनाकर होठों के नीचे न लगाकर ठुड्डी के नीचे लगाली तथा पानी को मुँह में न जाने दिया। पानी अंगरखे की बाँह में समा गया, बाँह लाल हो गयी। कुछ देर बाद रैदास से बिदा लकर  कबीर घर वापिस लौट गये और अंगरखा उतारकर अपनी पत्नी लोई को दे दिया। लोई भोजन पकाने में व्यस्त थी, उसने अपनी पुत्री कमाली को वह अंगरखा धोने के लिए कहा। अंगरखा धोते समय कमाली ने देखा उसकी बाँह  लाल थी... उसने देख कि लाल रंग छूट नहीं रहा है तो उसने मुँह से चूस-चूस कर सारा लाल रंग निकाल दिया... इससे उसका गला लाल हो गया। तत्पश्चात कमाली मायके से बिदा होकर अपनी ससुराल चली गयी।

कुछ दिनों के बाद गुरु रामानंद तथा कबीर का काबुल-पेशावर जाने का कार्यक्रम बना। दोनों परा विद्या (उड़ने की कला) में निष्णात थे। मार्ग में कबीर-पुत्री कमाली की ससुराल थी। कबीर के अनुरोध पर गुरु ने कमाली के घर रुकने की सहमति दे दी। वे अचानक कमाली के घर पहुँचे तो उन्हें घर के आँगन में दो खाटों पर स्वच्छ गद्दे-तकिये तथा दो बाजोट-गद्दी लगे मिले। समीप ही हाथ-मुँह धोने के लिए बाल्टी में ताज़ा-ठंडा पानी रखा था। यही नहीं उन्होंने कमाली को हाथ में लोटा लिये हाथ-मुँह धुलाने के लिए तत्पर पाया। कबीर यह देखकर अचंभित रह गये ककि  हाथ-मुँह धुलाने के तुंरत बाद कमाली गरमागरम खाना परोसकर ले आयी।

भोजन कर गुरु आराम फरमाने लगे तो मौका देखकर कबीर ने कमाली से पूछा कि उसे कैसे पता चला कि वे दोनों आने वाले हैं? वह बिना किसी सूचना के उनके स्वागत के लिए तैयार कैसे थी? कमाली ने बताया कि रंगा लगा कुरता चूस-चूसकर साफ़ करने के बाद अब उसे भावी घटनाओं का आभास हो जाता है। तब कबीर समझ सके कि उस दिन गुरुभाई रैदास उन्हें कितनी बड़ी सिद्धि बिना बताये दे रहे थे तथा वे नादानी में वंचित रह गये।

कमाली के घर से वापिस लौटने के कुछ दिन बाद कबीर पुनः रैदास के पास गये... प्यास लगी तो पानी माँगा... इस बार रैदास ने कुटिया में जाकर स्वच्छ लोटे में पानी लाकर दिया तो कबीर बोल पड़े कि पानी तो यहाँ कुण्डी में ही भरा था, वही दे देते। तब रैदास ने एक दोहा कहा-
जब पाया पीया नहीं, था मन में अभिमान.
अब पछताए होत क्या नीर गया मुल्तान.



कबीर ने इस घटना अब सबक सीखकर अपने अहम् को तिलांजलि दे दी तथा मन में अन्तर्निहित प्रेम-कस्तूरी की गंध पाकर ढाई आखर की दुनिया में मस्त हो गये और दोहा को साखी का रूप देकर भव-मुक्ति की राह बताई -

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन माँहि .
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाँहि.

========== 
संत कबीरदास जी से तो हर हिन्दीभाषी परिचित है. कबीर की साखियाँ सभी ने पढी हैं. कबीर पशे से जुलाहे थे किन्तु उनकी आध्यात्मिक ऊँचाई के कारण मीरांबाई जैसी राजरानी भी उन्हें अपना गुरु मानती थीं. जन्मना श्रेष्ठता, वर्णभेद तथा व्द्द्वाता पर घमंड करनेवाले पंडित तथा मौलाना उन्हें चुनौतियाँ देते रहते तथा मुँह की खाकर लौट जाते. ऐसे ही एक प्रकांड विद्वान् थे पद्मनाभ शास्त्री जी.
उन्होंने कबीर को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा तथा कबीर को नीचा दिखने के लिए उनकी शिक्षा-दीक्षा पर प्रश्न किया. कबीर ने बिना किसी झिझक के सत्य कहा-

चारिहु जुग महात्म्य ते, कहि के जनायो नाथ.
मसि-कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ.

अर्थात स्वयं ईश्वर ने उन्हें चारों युगों की महत्ता से अवगत कराया और शिक्षा दी. उन्होंने न तो स्याही-कागज को छुआ ही, न ही हाथ में कभी कलम ली.

पंडित जी ने सोच की कबीर ने खुद ही अनपढ़ होना स्वीकार लिया सो वे जीत गए किन्तु कबीर ने पंडितजी से पूछा कि उन्होंने जो ज्ञान अर्जित किया है वह पढ़कर समझा या समझकर पढ़ा?

पंडित जी चकरा गए, तुंरत उत्तर न दे सके तो दो दिन का समय माँगा लेकिन दो दिन बाद भी उत्तर न सूझा तो कबीर से समझकर पढ़नेवाले तथा पढ़कर समझनेवाले लोगों का नाम पूछा ताकि वे दोनों का अंतर समझ सकें. कबीर ने कहा- प्रहलाद, शुकदेव आदि ने पहले समझा बाद में पढ़ा जबकि युधिष्ठिर ने पहले पढ़ा और बाद में समझा. पंडित जी ने उत्तर की गूढता पर ध्यान दिया तो समझे कि कबीर सांसारिक ज्ञान की नहीं परम सत्य के ज्ञान की बात कर रहे थे. यह समझते ही वे अपना अहम् छोड़कर कबीर के शिष्य हो गए.
  ++++++++++


 1. माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा,मैं रोंदुगी तोहे।।
कबीर कहते हैं कि माटी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे बर्तन बनाने के लिए रोंदता है। परन्तु तू यह सत्य भूल जाता है कि एक दिन तू मुझ में ही मिल जाएगी। तब मैं तुझे इसी तरह से रोंदूगी। अर्थात हर मनुष्य को मरने के पश्चात मिट्टी में ही मिलना होता है।
2. चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।।
कबीर कहते हैं कि वह चक्की को देखकर दुखी होकर रोने लगते हैं। क्योंकि मनुष्य चक्की के समान मोह-माया के बंधनों में पीस जाता है। इस तरह से पिसी हुआ मनुष्य कभी सदगति को प्राप्त नहीं होता और दुखी होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
3. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।।
कबीर कहते हैं कि मैं संसार के लोगों में बुराई खोजने निकला था। परन्तु जब मैंने अपने अंदर झाँकना आरंभ किया, तो मुझे इस संसार में अपने से बुरा और कोई नहीं मिला। अर्थात् दूसरों की बुराई करने से पहले स्वयं के ह्दय में देखना चाहिए हमें पता चल जाएगा कि हम स्वयं भी बुराई से सने पड़े हैं।
4. माया मरी ना मन मरा, मर मर गये शरीर,
आशा त्रिश्ना ना मरी, कह गये दास कबीर।
कबीर कहते हैं कि कवि का मन और माया कभी नहीं मरते हैं। अर्थात् मन उसे विषय वासनाओं में भटकता है और माया उसे भ्रमित करती हैं। इन दोनों के नियंत्रण में मनुष्य युगों से बंधा रहा है। शरीर मर जाते हैं परन्तु मनुष्य की त्रिशंना कभी नहीं मरती है।
5. दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोये
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होये।
कबीर के अनुसार मनुष्य जब दुखी होते हैं, तो भगवान को याद करते हैं। वह उसे याद करके रोते हैं। परन्तु जैसे ही दुख समाप्त हो जाता है और सुख आ जाता है, तो वह उसी ईश्वर को याद करना भूल जाते हैं। कबीर कहते हैं, जो मनुष्य सुख में ही प्रभू को याद करना आरंभ कर दें, तो उन्हें कभी दुख सता नहीं सकता है।
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन माँहि .
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाँहि.


कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.


काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
पल में परलय होयेगी, बहुरि करैगो कब्ब.

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर.
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर.



दोहा करे कमाल 

कबीर जुलाहा थे। वे जितना सूत कातते, कपडा बुनते उसे बेचकर परिवार पालते लेकिन माल बिकने पर मिले पैसे में से साधु सेवा करने के  बाद बचे पैसों से घर के लिए सामान खरीदते. सामान कम होने से गृहस्थी चलाने में माँ लोई को परेशान होते देखकर कमाल को कष्ट होता। लोई के मना करने पर भी कबीर 'यह दुनिया माया की गठरी' मान कर 'आया खाली हाथ तू, जाना खाली हाथ' के पथ पर चलते रहे। 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया' कहने से बच्चों की थाली में रोटी तो नहीं आती। अंतत: लोई ने कमाल को कपड़ा बेचने बाज़ार भेजा। कमाल ने कबीर के कहने के बाद भी साधुओं को दान नहीं दिया तथा पूरे पैसों से घर का सामान खरीद लिया। कमाल की भर्त्सना करते हुए कबीर ने कहा-


बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल।।

चलती चाकी  देखकर, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय।।
कमाल कबीर की दृष्टि में भले ही खरा न रहा हो पर था तो कबीर का ही पूत... बहुत सुनने के बाद उसके मुँह से भी एक दोहा निकल पड़ा-
 
चलती चाकी देखकर , दिया कमाल ठिठोंय।
जो कीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय।।

कबीर यह गूढ़ दोहा सुनकर अवाक रह गए और बोले की तू
कहने को कह गया लेकिन कितनी बड़ी बात कह गया तुझे खुद नहीं पता।

कबीर-कमाल के इन दोहों के दो अर्थ हैं। एक सामान्य- कबीर ने कहा कि चलती हुई चक्की को देखकर उन्हें रोना आता है कि दो पाटों के घूमते रहने से उनके बीच सब दाने पिस गये कोई साबित नहीं बचा। कमाल ने उत्तर दिया कि चलती हुई चक्की देखकर उसे हँसी आ रही है क्योंकि जो दाना बीच की कीली से चिपक गया उसे पाट चलते रहने पर भी कोई हानि नहीं पहुँच सके, वे दाने बच गये।

इन दोहों का गूढ़ अर्थ समझने योग्य है- 
कबीर ने दूसरे दोहे में कहा ' इस संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कबीर रो रहा है क्योंकि स्वार्थ और परमार्थ के दो पाटों के बीच में सब जीव नष्ट हो रहे हैं, कोई भी बच नहीं पा रहा।

कमाल ने उत्तर में कहा- संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कमाल हँस रहा है क्योंकि जो जीव ब्रम्ह रूपी कीली से लग गया उसका सांसारिक भव-बाधा कुछ नहीं बिगाड़ सकी। उसकी आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर ब्रम्ह में लीन हो गयी।

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फूल सूखकर झर हुए, बिलख शाख से दूर।
रहा आखिरी सांस तक काँटा संग हुजूर।।
*
खून जलाया ढेर सा, देख फूल पर फूल।
खून बूँद भर देखकर, तड़प उठा है शूल।।     
कालजयी रचना:                              
सर्वात्मका सर्वेश्वरा
http://deodatusblog.files.wordpress.com/2013/01/kusumagraj.jpgशब्द: वि. वा. शिरवाडकर (कवि कुसुमाग्रज)                  
संगीत व स्वर: पं. जितेंद्र अभिषेकी
राग: भैरवी
नाटक: ययाति आणि देवयानी (१९६६)
*

सर्वात्मका सर्वेश्वरागंगाधरा शिवसुंदरा
जे जे जगी जगते तया
माझे म्हणा, करूणा करा ||


 
आदित्य या तिमिरात व्हा
ऋग्वेद या हृदयात व्हा
सृजनत्व द्या, द्या आर्यता
अनुदारिता, दुरिताहरा ||
=========
अंग्रेजी अनुवाद:  लावण्या शाह
*

 'Sarvātmakā Sarveshwarā' was written by
 noted Marathi poet V. V. Shirwadkar alias - Kusumāgraj. 
 photo Lavanya.jpgThis poem is a prayer which urges the supreme being for the enlightenment and upliftment of one's self and it is rendered by Kach, the son of Bruhaspati, 
on behalf of Devayāni in the play "Yayāti āNi Devayāni" (1966). 

The play is based on a famous tale from Mahābhārata.
 This prayer is a fallout of an incident as portrayed in the climax of the play when Yayātee, having lost his youth and vitality due to a curse by Devayāni, is lying weak and pale on the ground.

 Kach urges Devayāni to reconcile her anger and in turn
 makes her agree to forgive Yayāti and to give him back his youth.
Kach prays:                                                                 

Oh, you the one, who is infinitely wise
One, whom each mortal being worships
One, who bears holy Ganga upon his head
Oh my magnificent and divine Shiva, I pray to you.

I am a small element living in this universe
This universe is your kingdom and you are the ruler
You are the one who owns all its living creatures
I pray to you to look at them, have mercy at them
They may be doing good, they may be doing bad
Own them, and their ignorance, and save them.

Today the darkness has surrounded this universe
Oh Shiva, how can you see such sorrow and the plight?
I pray to you to be the Sun to show me the light
Enlighten me by teaching the principles and values of life
By the way of reinstating them in my heart
Give me the ability to do good and see good
Give me the courage, the strength and the power
And in turn make me a virtuous living being.

Oh, you the one who has conquered the evil
And the irrationals and the selfish and the cruel
Oh, you the one who has always sided with the good over the bad
I pray to you.
 
Nameste
http://lavanyam-antarman.blogspot.com/

SANSKRIT : Bramh Vani Dr. Mridul Kirti



संस्कृत ब्रह्म वाणी क्यों है? – डॉ.मृदुल कीर्ति


अपरा और परा का संयोग ही सकल जगत का बीज है.
http://www.mridulkirti.com/graphics/mridul_kirti1.jpgबीजं माम सर्व भूतानाम ———–गीता ७/१०
सब प्राणियों का अनादि बीज मुझे ही जान.
आठ भेदों वाली– पञ्च तत्त्व, मन, बुद्धि, अहम् यह मेरी अपरा प्रकृति है.–गीता ७–४/५
पञ्च तत्वों की तन्मात्राओं में ही इस जिज्ञासा के सूत्र छिपे हैं कि संस्कृत ब्रह्म वाणी क्यों है?
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पांच स्थूल तत्व हैं. रूप ,गंध, रस,स्पर्श और ध्वनि यह पांच इनकी तन्मात्राएँ हैं.
 इन्हें सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं. इन पाँचों तत्वों में आकाश का ध्वनि तत्व अन्य सभी तत्वों में समाहित है. 
आकाश सर्वत्र है, क्योंकि ज्यों-ज्यों जड़ता घटती है, त्यों-त्यों गति उर्ध्व गामी होती है. 
आकाश की तन्मात्रा ( निहित विशेषता ) नाद है.
 नाद अर्थात ध्वनि, ध्वनि अर्थात स्वर.संस्कृत में ‘र’ का अर्थ प्रवाह होता है, ‘स्व’ अर्थात अपना मूल तत्त्व. ‘नाद’ आकाश की तन्मात्रा है जो
आकाश की मूल तत्व शक्ति है, अपना मूल ध्वनि प्रवाह है. 
अतः आदि शक्ति का स्वर स्रोत, भूमा की ध्वनि है, तब ही उद्घोषित है कि ‘नाद ही ब्रह्म है.’
नाद –आकाश की वह तन्मात्रा है, जो ब्रह्म की तरह ही शाश्वत, विराट, अगम्य, अथाह और आत्म-भू है.
आकाश सर्वत्र है अतः नाद भी सर्वत्र है.
वाणी — नाद- शक्ति, ही वाणी की ऊर्जा है और वाणी का सार्थक रूप शब्दों में ही रूपांतरित होता है.       
http://www.mridulkirti.com/graphics/ishadinopanishad.bmpशब्द अक्षरों से बने हैं.. अतः मन जिज्ञासु होता है कि अक्षरों का मूल स्रोत्र क्या है?
अक्षरों का मूल स्रोत
वासुदेव का उदघोष
“अक्षरानामकारोस्मि” —-गीता १०/ ३३
अक्षरों में अकार मैं ही हूँ और बिना आखर के शब्द संसार की रचना नहीं हो सकती.
कदाचित अक्षर नाम इसीलिये हुआ कि ‘क्षर’ (नाश) ‘अ’ (नहीं) जिसका विनाश नहीं होता वह अक्षर है.
 अतः बोला हुआ कुछ भी नाश नहीं होता. सो जैसे ब्रह्म अविनाशी है वैसे ही अक्षर भी अविनाशी हैं. अतः ” शब्द और ब्रह्म” सहोदर है गर्भा शब्द
ब्रह्मा की नाभी से अक्षरों का निःसृत माना जाना इसी तथ्य की पुष्टि है.
देह विज्ञान और आध्यात्म संयोजन के बिंदु संयोजन की जब बात होती है तो मूलाधार से सहस्त्रधार तक के बिन्दुओं में 
तीसरा बिंदु ‘मणिपुर’ क्षेत्र का है, जो ‘नाभी’ से प्रारंभ होता है. 
नाभी क्षेत्र दिव्य ऊर्जा से पूर्ण है और सृजन का भी स्रोत बिंदु है. 
गर्भस्थ शिशु को भोजन नाभि से ही मिलता है. वेदों में मूल स्रोत्र के सन्दर्भ में “हिरण्य गर्भा ” शब्द प्रयुक्त हुआ है.
 ब्रह्मा की नाभी से निःसृत होने का यही संकेत है. यहीं पर ‘कुण्डलिनी’ है जो अनंत दिव्य मणियों से पूरित है. 
यहीं से आखर का उच्चारण भी आरम्भ होता है. 
पुष्टि के लिए आप ‘अ ‘ अक्षर का उच्चारण करें तो ‘नाभि’ क्षेत्र स्पंदित होता है. नाभि क्षेत्र को छुए बिना आप ‘अ ‘ बोल ही नहीं सकते. अतः
‘अकारो विष्णु रूपात’ - स्वयं सिद्ध है.
अ से म तक की अक्षर यात्रा ही ‘ओम’ का बोध कराती है, क्योंकि ‘ओइम’ में व्योम की सारी नाद शक्ति समाहित है.
सबसे अधिक ध्यान योग्य तथ्य है कि ओम के कोई रूप नहीं होते. परब्रह्म के एकत्व का प्रमाण भाषा विज्ञानं के माध्यम से भी है.
बिना अकार के कोई अक्षर नहीं होता अर्थात बिनाब्रह्म शक्ति के किसी आखर का अस्तित्व नहीं है. 
http://www.mridulkirti.com/graphics/bhagawadgita.bmpआप ‘क’ बोलें तो वह क +अ = क ही है. यही ‘ अक्षरों में ब्रह्म के अस्तित्व की अकार रूप में प्रमाणिकता है.अक्षरों का प्राण तत्व ब्रह्म ही है.
यही वह बिंदु है जहॉं से वेद निःसृत हुए है क्योंकि नाद का श्रुति से सम्बन्ध है और हम श्रुति परंपरा के वाहक भी तो हैं. 
ब्रह्मा द्वारा ऋषि मुनियों को ध्वनि संचेतना से ही ज्ञान संवेदित हुए. ये अनुभूति क्षेत्र की उर्जा से ही अनुभव में उजागर होकर वाणी द्वारा व्यक्त हुए.
पाणिनि अष्टाध्यायी में लिखा है कि ‘पाणिनी व्याकरण’ शिव ने उपदिष्ट की थी.
‘वेद’ सुनकर ही तो हम तक आये हैं. तब ही वेदों को श्रुति’ भी कहते है.
जैसे ब्रह्म अविनाशी है वैसे ही वाणी भी अविनाशी है. 
तब ही उपदिष्ट किया जाता है कि ‘दृष्टि, वृत्ति और वाणी ‘ सब प्रभु में जोड़ दो, क्योकि वाणी कई जन्मों तक पीछा करती है. 
वाणी की प्रतिक्रिया से प्रारब्ध भी बनते है, इसकी ऊर्जा से वर्तमान और भविष्य भी बनते हैं.
संस्कृत भाषा की विशेषताएं
संस्कृत भाषा का मूल भी दिव्यता से ही निःसृत है.——————-
सम और कृत दो शब्दों के योग से संस्कृत शब्द बना है.
 सम का अर्थ सामायिक अर्थात हर काल, युग में एक सी ही रहने वाली.विधा. 
http://www.mridulkirti.com/graphics/samveda.bmpसमय के प्रभाव से परे अर्थात कितना ही काल बीते इसके मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं होता.
जो स्वयं में ही पूर्ण और सम्पूर्ण है. कृ क्रिया ‘कृत’ के लिए प्रयुक्त हुआ है.
संस्कृत में सोलह स्वर और छत्तीस व्यंजन हैं.
 ये जब से उद्भूत हुए तब से अब तक इनमें अंश भर भी परिवर्तन नहीं हुए हैं. सारी वर्ण माला यथावत ही है.
मूल धातु (क्रिया) में कोई परिवर्तन नहीं होता यह बीज रूप में सदा मूल रूप में ही प्रयुक्त होती है. 
जैसे ‘भव’ शब्द है सदा भव ही रहेगा, पहले और बाद में शब्द लग सकते हैं जैसे अनुभव , संभव , भवतु आदि.
संस्कृत व्याकरण में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता.
जैसे ब्रह्म अविनाशी वैसे ही संस्कृत भी अविनाशी है.
नाद की परिधि में आते ही ‘अक्षर’ ‘अक्षर’ हो जाते हैं, महाकाश में समाहित ब्रह्ममय हो जाते हैं.
सूक्ष्म और तत्व मय हो जाते हैं. इस पार गुरुत्वमय तो उस पार तत्वमय , नादमय और ब्रह्ममय क्षेत्र का पसारा है.
डॉ.मृदुल कीर्ति