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शनिवार, 12 मई 2012

सआदत हसन मंटो





 

विशेष आलेख- 
 सियाह-क़लम मंटो और सियाह-हाशिये
-बलराम अग्रवाल
धरती का हर आदमी अपने आप में कुछ खूबियों और कुछ खराबियों से चालित है। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में—‘सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।1 अर्थात, अच्छाई और बुराई हर व्यक्ति के अन्तर में निहित हैं। अब, अच्छे या बुरे, जिस भाव का आधिक्य जिसमें नजर आने लगता है, वैसा ही वह कहलाने लगता है। लेकिन व्यक्ति के भीतर के अच्छेपन या बुरेपन का आकलन करने वाली नजर का इस योग्य होना अनिवार्य है, हर आदमी के बूते का यह आकलन नहीं है। 
 
सियाह हाशिये की लघुकथाओं पर बात करने से पहले बेहतर होगा कि हम उसके रचनाकार उर्दू कथाकार सआदत हसन मंटो के बारे में दो-चार ज़रूरी बातें जान लें। मंटो उम्रभर अपने खिलाफ ऐसे तंग-दिलोदिमाग लोगों की कारगुजारियों से टकराते और आहत होते रहे, जो उनके काम का आकलन करने के योग्य कभी थे ही नहीं। एक जगह मुहम्मद हसन असकरी ने मंटो के कम शिक्षित होने का जिक्र यों किया हैअब इसे क्या कहें कि आठवीं और नवीं दहाई के अफ़सानानिगारों के सीमित ज्ञान का पता न तो आलोचकों को है, न खुद अफसानानिगारों को; कि जिस बरस अपने अफसाने लिखने शुरू करते हैं, उसी बरस पुस्तक छपवा लेते हैं और उसी बरस अपनी अफ़सानानिगारी पर दो-तीन लेख लिखवा लेते हैं; उसी बरस किसी उर्दू ऐकेडमी से इनाम हासिल कर लेते हैं और फिर उसी बरस मर जाते हैं।
 
क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि इन मुहम्मद हसन असकरी ने ही हाशिया आराई शीर्षक से सियाह हाशिए की भूमिका लिखी थी।
 
मंटो का जन्म लुधियाना जिले के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1912 को एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में हुआ था। वह अपने पिता की दूसरी बीवी की आखिरी सन्तान थे। उनके तीन सौतेले भाई भी थे जो उम्र में उनसे काफी बड़े थे और विलायत में तालीम पा रहे थे। वह उनसे मिलना और बड़े भाइयों जैसा सुलूक पाना चाहते थे, लेकिन यह सुलूक उन्हें तब मिला जब वह साहित्य की दुनिया के बहुत बड़े स्टार बन चुके थे।3 अपने बड़े भाइयों से एकदम उलट, मंटो का मन स्कूली-पढ़ाई में बिल्कुल भी नहीं लगता था। यही वजह थी कि मेट्रिक में लगातार तीन बार फेल होने के बाद उसे वह सन 1931 में पास कर सके, यानी कि 19 बरस की पकी उम्र में।
 
आल इंडिया रेडियो में काम करते हुए वह दिल्ली में रहे और उस दौरान उन्होंने लगभग 100 रेडियो-नाटक लिखे। अगस्त 1942 में, करीब 19 माह दिल्ली में रहने के बाद वह बंबई पहुँच गए।4 और बंबई को मंटो ने इस कदर जिया कि 28 अक्टूबर, 1951 को अपने ऊपर आक्षेप के जवाब में अपने एक बयान में उन्होंने कहा था—‘वहाँ(बंबई में) बारह बरस रहने के बाद जो कुछ मैंने सीखा, यह उसी का बायस है कि मैं यहाँ पाकिस्तान में मौजूद हूँ। यहाँ से कहीं और चला गया तो वहाँ भी मौजूद रहूँगामैं चलता-फ़िरता बंबई हूँ। मैं जहाँ भी क़याम करूँगा, वहीं मेरा अपना जहान आबाद हो जाएगा।
 
               यह वाकई गौर करने वाला बयान है। दिल्ली से बंबई पहुँचे मंटो ने बंबई को समझा और (खुद) चलता-फिरता बंबई बन गया। यह बात पाकिस्तान के नागरिकों की समझ में न आ सकी।6 एक इंसान के तौर पर मंटो की परेशानी शायद यह रही कि विभाजन के बाद उन्होंने अपने आपको महज मुसलमान महसूस किया और पाकिस्तान को ही उन्होंने अपना मुल्क समझा। वहाँ की आबो-हवा में वह असंगत विचारों को भी सहज ही स्वीकार लेने वाला भारतीय संस्कार तलाशते रहे। पाकिस्तान पहुँचकर वह प्रगतिशीलता का नकाब पहनकर साहित्य की जमीन पर जमे बैठे कट्टरपंथियों में इंसानियत से सरोकारों के अंकुर तलाशते रहे और ताउम्र असफल रहे।  उन्हें बार-बार यह सफाई पेश करनी पड़ी कि मुझे आप अफ़सानानिगार की हैसियत से जानते हैं और अदालतें एक फ़हशनिगार(अश्लील लेखक) की हैसियत से। हुकूमत कभी मुझे कम्युनिस्ट कहती है और कभी मुल्क का बहुत बड़ा अदीब।…मैं पहले भी सोचता था और अब भी सोचता हूँ कि मैं क्या हूँ और इस मुल्क में, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी सल्तनत कहा जाता है, मेरा क्या मकाम(स्थान) है, मेरा क्या मस्रिफ़(उपयोग) है।…आप इसे अफ़साना कह लीजिए, मगर मेरे लिए, यह एक तल्ख हक़ीक़त(कड़वी सच्चाई) है कि मैं अभी तक खुद अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं और जो मुझे बहुत अज़ीज़ है, अपना सही मकाम तलाश नहीं कर सका। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। यही वजह है कि मैं कभी पागलखाने में और कभी हस्पताल में होता हूँ।7
 
अपनी इस बेचैनी की एक खास वजह बताते हुए वह लिखते हैं—‘हमारी हुकूमत मुल्लाओं को भी खुश रखना चाहती है और शराबियों को भी। मज़े की बात यह है कि शराबियों में कई मुल्ला मौजूद हैं और मुल्लाओं में अक्सर शराबी।8
 
एक लेखक के तौर पर मंटो की विशेषता यह है कि  अहसास के शुरुआती छोर से लेकर उसके आखिरी छोर तक वह न तो मुसलमान है, न हिन्दू, न कश्मीरी और न पंजाबी; इंसान है, सिर्फ़ इंसान। अपराध और दंड, अच्छाई और बुराई की वे तमाम धारणाएँ जो सदियों से हमारे समाज में प्रचलित रही हैं, मंटो उन्हें रद्द करता है।…मंटो की चेतना में मनुष्यों की समानता की एक ताक़तवर लहर उस चेतना की जीवन-रेखा के रूप में हमेशा सक्रिय रही। वह जीवन के किसी भी अनुभव, मानव-अस्तित्व की किसी भी अभिव्यक्ति से न तो कभी भयभीत होता है और न ही उससे घृणा और ऊब का प्रदर्शन करता है।9
 
अदबे-लतीफ़(नया साहित्य) के वार्षिकांक(1944) में प्रकाशित 1 जनवरी, 1944 को लिखित अपने लेख अदबे-जदीद(आधुनिक साहित्य) में मंटो ने लिखा है:जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया(जोड़ा जाता) है, दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स हैमैं हंगामापसंद नहीं। मैं लोगों के खयालातो-जज़्बात में हैजान(उबाल) पैदा करना नहीं चाहता।10 मैं तहज़ीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूँगा जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं, दर्जियों का है। लोग मुझे सियाह-क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख्ता-ए-सियाह की सियाही और-भी ज़्यादा नुमायाँ हो जाए।11
 
बहुत कम लोग जानते होंगे कि सियाह हाशिये पर प्रगतिशील उर्दू लेखकों व आलोचकों के कड़वे रवैयों ने मंटो को अंतहीन दिमागी तकलीफ़ दी और उसमें बेहिसाब गुस्सा पैदा किया। उस तकलीफ़ और उस गुस्से को जाने बिना मंटो और उनके सियाह हाशिये को समझना लगभग असम्भव है। अपनी बारहवीं किताब यज़ीद की भूमिका ज़ैबे-कफ़न(क़फ़न का गला) में इस तकलीफ़ और गुस्से का उन्होंने काफी खुलासा किया है। वह लिखते हैं—‘मुल्क के बँटवारे से जो इंकिलाब बरपा हुआ, उससे मैं एक अरसे तक बाग़ी रहा और अब भी हूँ…मैंने उस खून के समन्दर में गोता लगाया और चंद मोती चुनकर लाया अर्के-इन्फ़िआल(लज्जित होने पर छूटने वाले पसीने) के और मशक़्क़त(श्रम) के, जो उसने अपने भाई के खून का आखिरी क़तरा बहाने में सर्फ़(खर्च) की थी; उन आँसुओं के, जो इस झुँझलाहट में कुछ इंसानों की आँखों से निकले थे कि वह अपनी इंसानियत क्यों खत्म नहीं कर सके! ये मोती मैंने अपनी किताब सियाह हाशिये में पेश किए।…यकीन मानिए कि मुझे उस वक्त दुख हुआ, बहुत दुख हुआ, जब मेरे चंद हमअस्रों(समकालीनों) ने मेरी इस कोशिश(सियाह हाशिये) का मज़हका उड़ाया(निंदा की, उपहास किया)। मुझे लतीफ़ाबाज या वा गो(हाय-हाय चिल्लानेवाला), सनकी, नामाकूल(अशिष्ट) और रज़अतपसंद(जिसके विचारों में प्रगतिशीलता न हो) कहा गया। मेरे एक अज़ीज़ दोस्त ने तो यहाँ तक कहा कि मैंने लाशों की जेबों में से सिगरेट के टुकड़े, अँगूठियाँ और इसी किस्म की दूसरी चीजें निकाल-निकालकर जमा की हैं।… मैं इंसान हूँ। मुझे गुस्सा आया।…
 
मुझे गुस्सा था कि इन लोगों को क्या हो गया हैयह कैसे तरक्कीपसन्द हैं, जो तनज्जुल(पतन) की ओर जाते हैं; यह इनकी सुर्खी(लाली) कैसी है जो सियाही की तरफ दौड़ती है…
 
मुझे गुस्सा था, इसलिए कि मेरी बात कोई भी नहीं सुनता थातक़सीमे-मुल्क़ के बाद मुल्क(यानी पाकिस्तान) में इफ़्रातो-तफ़्रीत(तारतम्य बैठाने) का आलम था। जिस तरह लोग मकान और मिलें अलाट करवा रहे थे, उसी तरह वह बुलंद मकामों पर भी कब्ज़ा करने की जद्दोजहद में मसरूफ़ थे।12
 
 
उर्दू प्रगतिशीलों के हाथों सियाह हाशिये की फ़जीहत का दर्द मंटो ने अपने कहानी-संग्रह चुग़द की भूमिका में भी उँड़ेला है—‘मेरी किताब सियाह हाशिये तरक़्क़ीपसंदों ने सिर्फ़ इसलिए नापसंद की कि इस पर दीबाचा(भूमिका) हसन असकरी का थाचुनांचे अली सरदार ने हस्बे-मामूल बड़े खुसूस और मुहब्बत के साथ मुझे लिखा: यहाँ लाहौर से मेरे पास एक खबर आई है कि तुम्हारी किसी नई किताब पर हसन असकरी मुक़दमा(भूमिका) लिख रहे हैं। समझ में नहीं आ सका, तुम्हारा और हसन असकरी का क्या साथ है? मैं हसन असकरी को बिलकुल मुख्लिस(निश्छल) नहीं समझता।
 
तरक़्क़ीपसन्दों की खबर-रसानी का सिलसिला और इंतजाम काबिले-दाद है। यहाँ की खबरें खेतवाड़ी के क्रेमलिन में बड़ी सेहत से यूँ चुटकियों में पहुँच जाती हैंअली सरदार को यहाँ से जो खबर मिली, बड़ी मोतबर(विश्वसनीय) थी; चुनांचे नतीजा यह हुआ कि सियाह हाशिए प्रेस की सियाही लगने से पहले(यानी कि छपने से पहले) ही रूसियाह(काला मुँह) करके रजअतपसंदी(प्रतिक्रियावाद) की टोकरी में फेंक दी गई।13
 
अब जरा सियाह हाशिये के इस समर्पण पर गौर फ़रमाएँ:
उस आदमी के नाम
जिसने अपनी खूँरज़ियों का ज़िक्र करते हुए कहा:
जब मैंने एक बुढ़िया को मारा तो मुझे ऐसा लगा,
मुझसे क़त्ल हो गया है!
 
सियाह हाशिये की अधिकतर रचनाओं को पढ़ने के बाद पता चलता है कि मंटो के इंसानी सरोकार और अनुभव केवल उच्छृंखल मर्दों और गिरी हुई औरतों की नीच भावनाओं तक सीमित नहीं हैं।14 हाँ, इतना ज़रूर है कि सियाह हाशिये की सभी 32 कथाएँ, यहाँ तक कि उसका समर्पण भी, भारत-विभाजन के वक़्त हुई घिनौनी घटनाओं पर ही आधारित हैं। शायद इसीलिए सआदत हसन मंटो दस्तावेज़ के संपादकद्वय ने उन सबको एक ही अफ़सानचा माना है।15 एक पूरी पुस्तक में सिर्फ़ एक अफ़साना हो, यह सम्भव है; लेकिन 32 अलग-अलग कहानियों को एक ही कहानी मानना बिल्कुल वैसा ही तकलीफ़देह है जैसाकि मंटो के जीवित रहते उर्दू-प्रगतिशीलों द्वारा इस पुस्तक को नकारने की साजिश रचना था।
 
सियाह हाशिये की कितनी और कौन-कौन-सी रचनाएँ लघुकथा के पैमाने पर खरी उतरती हैं, यह अलग बात है; महत्वपूर्ण बात यह है कि कथाकार की दृष्टि से मंटो लघुकथा के सिर्फ़ डाइग्नोस सिद्धान्त का मजबूत पैरोकार है। वह कहता है: हम मर्ज़ बताते हैं, लेकिन दवाखानों के मुहतमिम(प्रबंधक) नहीं हैं…
 
मंटो मनोवैज्ञानिक वास्तविकताओं के वर्णन की मर्यादाओं से अच्छी तरह परिचित थे और यह जानते थे कि सच्चाई केवल सतह पर तैरती हुई वास्तविकताओं की खोज तक सीमित नहीं होती।…मोपासां की तरह मंटो को भी इस बात में मज़ा आता था कि इंसान की वहशियाना भावनाएँ इस तरह नंगी की जाएँ कि पढ़ने वाला चौंक उठे।16 लघुकथा में चौंक का छौंक लगाने के हिमायती आज भी अनगिनत हैं; लेकिन समकालीन लघुकथा को स्तरीयता और प्रभावपूर्णता प्रदान करने वाले तत्वों में चौंक का स्थान गौण ही है, प्रमुख नहीं। सियाह हाशिये की रचनाओं के माध्यम से आप मंटो के मानवीय-सरोकार और मानव-मनोविज्ञान संबंधी उनकी समझ का आकलन भी काफ़ी हद तक कर सकते हैं।
 
अधिकतर, होता यह है कि लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। सामान्य जीवन में कुछ-और होते हैं और लेखकीय जीवन में कुछ-और। मंटो की विशेषता यह है कि वह, सामान्य और सृजनात्मक, दोनों प्रकार के जीवन को एक संतुलन के साथ मिलाकर जीते हैं। शायद यही कारण है कि अपने सामान्य जीवन में सृजनात्मकता के कारण उन्हें कई कष्ट भी झेलने पड़े। अस्तित्व की एकता में उनका विश्वास इतना पक्का था और उस परिवेश के प्रति जिसमें वह पले-पढ़े और बढ़े, उनमें इतना लगाव भरा हुआ था कि जिंदगी के आखिरी सात बरसों में मंटो ने हमेशा पंजाबी में बात की। मंटो कहता था: जब मैं उर्दू में बोलता हूँ तो लगता है, झूठ बोल रहा हूँ… और …जब मैं उर्दू बोलता हूँ तो मेरा जबड़ा दुखने लगता है।17 क्या यह बयान मंटो का अपने जन्मस्थान, अपनी मातृभाषा के प्रति असीम लगाव से लबालब नहीं है?
 
दस्तावेज़ के संपादकद्वय ने सियाह हाशिये को एक कहानी मानते हुए मक़्तल(क़त्ल करने की जगह) शीर्षक तले संग्रहीत किया है। जबकि सियाह हाशिये पाकिस्तान में बस जाने के बाद मंटो की तीसरी किताब थी जो मकतबा-ए-जदीद से प्रकाशित हुई। सन 1951 तक यह उनकी सातवीं किताब थी। विभाजन की त्रासदी को निहायत ईमानदार गहराई के साथ व्यक्त करने वाली उनकी विश्वस्तरीय कहानी टोबा टेक सिंह भी इसी दौरान लिखी गई। वीभत्सता, उलझन, बेज़ारी, नफ़रत, दुख और क्रोध की बजाय मंटो कहीं-कहीं तो थोड़े दुख-भरे मसखरेपन के साथ मानव की दुरावस्था का तमाशा देखता है और इस दुरावस्था में छिपे सच की ताक़त के ऐसे बोध का प्रमाण देता है, जिसे किसी दूसरे बाहरी सहारे की जरूरत नहीं होतीछोटी-छोटी बातों में वह एक गहरी मानवीय-त्रासदी का पता लगाता है।…एक ऐसे दौर में, जब इंसान वहशी बन गया था और निहत्थे कमजोर बच्चे, बूढ़े, औरतें जानवरों की तरह ज़िबह किए जा रहे थे, केवल रक्तपात और विनाश के वर्जन या उनके विश्लेषण के आधार पर सच्ची कहानियाँ नहीं लिखी जा सकती थीं। उस त्रासदी की सच्चाई तक पहुँचने और उसे एक रचनात्मक सच्चाई का रूप देने के लिए, अपने अस्तित्व और अपने परिवेश के बीच एक दूरी, अपनी तबीयत में एक निढालपन की जगह एक संगीनी(गंभीरता) पैदा करने की जरूरत थी।18
 
विभाजन से पहले का सामाजिक और मानसिक वातावरण, फिर विभाजन के बाद का वातावरण, दंगों, साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक दंगों में उलझी हुई हिन्दू-मुस्लिम राजनीतिइन सब की तरफ़ मक़्तल की कहानियों में कहीं स्पष्ट तो कहीं धुँधले इशारे मिलते हैं।…मंटो के अपने सरोकार राजनीति और अराजनीतिक के फेर में पड़ने की बजाय अपने गहरे मानव-प्रेम और नैतिक क्षेत्र के माध्यम से एक विशिष्ट-बोध को अभिव्यक्त करते हैं। मंटो हर यथार्थ को बिना किसी फेर-बदल के एक नया यथार्थ बना देते हैं।…ब्रिटिश-भारत के अंतिम चरण, फिर स्वतंत्रता, विभाजन और दंगों की भयावहता और उस पूरे युग के त्रासद तत्वों का प्रेक्षण मंटो ने इतिहास की प्रयोगशाला के रूप में नहीं किया था।…कोई भी राजनीतिक घटना मंटो के लिए केवल राजनीतिक नहीं थी। मंटो ने मानवीय-अस्तित्व और उसके फैलाव में समाई हुई सच्चाइयों की समग्रता के साथ-साथ एक सच्चे मानव-प्रेमी साहित्यकार के विज़न की व्यपकता के मानदण्ड को हमेशा सामने और सुरक्षित रखा। ऐसा न होता तो सियाह हाशिये के अँधेरों से उजाले की किसी भी लकीर का फूटना असम्भव था। विभाजन ने मंटो के दिलो-दिमाग को इस बुरी तरह झकझोरा था कि उन्होंने जब कभी 1947 का जिक्र किया, वतन की आज़ादी के ताल्लुक से नहीं किया। उन्होंने हमेशा 1947 का ज़िक्र तक़सीम और बँटवारे के ताल्लुक से किया।19
 
मंटो के लेखकीय चरित्र को समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि पहला अफ़साना उसने बउनवान तमाशा लिखा, जो जलियाँवाले बाग के खूनी-हादिसे से मुतअल्लिक था। यह अफ़साना उसने अपने नाम से न छपवाया। यही वज़ह है कि वह पुलिस की दस्तबुजी(हत्थे चढ़ने) से बच गया।20 अपने आखिरी बरसों में मंटो ने बेतहाशा लिखा।21
 
सच्चा साहित्य तो उसी स्थिति में लिखा जा सकता है, जब लिखने वाला हिन्दू-जुल्म, मुसलमान-जुल्म, या कांग्रेस की राजनीति और मुस्लिम लीग की राजनीति, या हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के फेर में पड़े बिना, उस अनुभव पर हाथ डाल सके जिसका सरोकार इस सवाल से हो कि सामूहिक पागलपन के उस युग में इंसान के हाथों इंसान पर क्या बीती? उस इंसान का नाम और धर्म और सम्प्रदाय, ये सारी बातें गौण हैं।22
और अंत में, मैं 18 अगस्त, 1954 को लिखी उनकी एक ऐसी रचना का जिक्र करना बहुत मुनासिब समझता हूँ जिसको अक्सर उनकी रचनाओं में गिना ही नहीं जाता है; और जो उनकी जिन्दादिली का अनुपम नमूना है:
786
कत्बा
यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़न है।
उसके सीने में फ़न्ने-अफ़सानानिगारी के
सारे अस्रारो-रमूज़ दफ़्न हैं
वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है
कि वह बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा।
सआदत हसन मंटो
18 अगस्त, 1954
क्या यह चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि यह कत्बा लिखने के ठीक 5 माह बाद  18 जनवरी, 1955 को सुबह साढ़े-दस बजे मंटो को लेकर एंबुलेंस जब लाहौर के मेयो अस्पताल के पोर्च में पहुँची; डाक्टर लपकेलेकिन…शरीर को मनों मिट्टी के नीचे दफ़्न कर देने की खातिर मंटो की पवित्र-आत्मा उसे छोड़कर बहुत दूर जा चुकी थी
संदर्भ:
1 रामचरितमानस:सुन्दरकाण्ड:39/5
2 सआदत हसन मंटो दस्तावेज़-1 : पृष्ठ 469
3 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 178
4 दस्तावेज़-5, पृष्ठ 117
5 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 164
6 दस्तावेज़-5, पृष्ठ 15
7 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 282
8 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 357
9 दस्तावेज़-1 पृष्ठ 24
10 सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए   दुष्यंत
11 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 27
12 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 164-165
13 दस्तावेज़-4, पृष्ठ 155
14 दस्तावेज़-1 पृष्ठ 239
15 दस्तावेज़-2 पृष्ठ 452                 
16 दस्तावेज़-1 पृष्ठ 240
17 दस्तावेज़-5 पृष्ठ 55
18 दस्तावेज़-2 पृष्ठ 178-179
19 दस्तावेज़-3 पृष्ठ 359
20 दस्तावेज़-4 पृष्ठ 178
21 दस्तावेज़-1 पृष्ठ 469
22 दस्तावेज़-2 पृष्ठ 178
बलराम अग्रवाल
मोब. नं. ०८८६०००१५९४
०९९६८०९४४३१

लघुकथा: एकलव्य --संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
एकलव्य

संजीव 'सलिल'
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
-सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.इन

शुक्रवार, 11 मई 2012

गीत: ओ मेरे मन... संजीव 'सलिल'

गीत:
ओ मेरे मन...

संजीव 'सलिल'
*
धूप-छाँव सम सुख-दुःख आते-जाते रहते.
समय-नदी में लहर-भँवर प्रति पल हैं बहते.
राग-द्वेष से बच, शुभ का कर चिंतन.
ओ मेरे मन...
*
पुलक मिलन में, विकल विरह में तपना-दहना.
ऊँच-नीच को मौन भाव से चुप हो सहना.
बात दूसरों की सुन, खुद भी कर मन-मंथन.
ओ मेरे मन...
*
पीर-व्यथा अपने मन की मत जगसे कहना?
यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना.
दुनियावालों! दुनियादारी करती उन्मन.
ओ मेरे मन...
*
हम सब कठपुतली, सुदूर वह सूत्रधार है.
जिसके वश में हर चरित्र हर कलाकार है.
'सलिल' चाहता वह जैसा, तू करना मंचन.
ओ मेरे मन...
*
वह विराम-अविराम, श्याम-अभिराम वही है.
सुनाता सबकी, किससे उसने व्यथा कही है?
उसस बन जा नेह नर्मदा में कर मज्जन.
ओ मेरे मन...
*



Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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गुरुवार, 10 मई 2012

गीत: खो बैठे पहचान... --संजीव 'सलिल'

गीत:
खो बैठे पहचान...
संजीव 'सलिल'
*

*
खो बैठे पहचान
हाय! हम भीड़ हो गये...
*
विधि ने किया विचार
एक से सृज अनेक दूँ.
करूँ सृष्टि संरचना
संवेदन-विवेक दूँ.

हो अनेक से एक
सृजें सब अपनी दुनिया.
जुडें एक से एक
तजें हँस अपनी दुनिया.

समय हँसा, घर नहीं रहा
हम नीड़ हो गये...
*
धरा-बीज से अंकुर फूटे,
पल्लव विकसे.
मिला शाख पर आश्रय
पंछी कूके-विहँसे.

कली-पुष्प बन सुरभि
बिखेरी- जग आनंदित.
चढ़े ईश-चरणों में
बनकर हार सुवंदित.

हुई जीत मनमीत
अहं जड़, पीड़ हो गये...
*
छिना मायका, मिला
सासरा- स्नेह नदारत.
व्यर्थ हुईं साधना
वंदना प्रेयर आयत.

अमृत छकने गये,
हलाहल हर पल पाया.
नीलकंठ हो सके न
माया ने भरमाया.
बाबुल खोया सजन
न पाया- हीड़ हो गये...
*
टीप: हीड़ना बुन्देली शब्द = मन-प्राण से याद करना.
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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बुधवार, 9 मई 2012

गीत: लिखें कहानी... संजीव 'सलिल'

गीत:
लिखें कहानी...
संजीव 'सलिल'
*
सुनी कही कई बार,
आओ! अब लिखें कहानी.
समय कहे भू पर आये
इंसां वरदानी...
*
छिद्रित है ओजोन परत,
कुछ फिक्र कहीं हो.
घातक पराबैंगनी किरणें,
ज़िक्र कहीं हो.
धरती माँ को पहनायें
मिल चूनर धानी...
*
वायु-प्रदूषण से दूभर
सांसें ले पाना.
दूषित पानी पी मुश्किल
जिंदा रह पाना.
शोर कम करो,
मौन वरो कहते हैं ज्ञानी...
*
पुनः करें उपयोग,
समेटें बिखरा कचरा.
सुंदर-स्वच्छ स्वर्ग सी
सुंदर हो वसुंधरा.
गरल पियें अमृत बाँटें,
हो मीठी बानी...
****


Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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गीत: जितनी ऑंखें उतने सपने... --संजीव 'सलिल'

दोहा गीत:
जितनी ऑंखें उतने सपने...
संजीव 'सलिल'
*
*
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
मैंने पाये कर कमल, तुमने पाये हाथ.
मेरा सिर ऊँचा रहे, झुके तुम्हारा माथ..

प्राणप्रिये जब भी कहा, बना तुम्हारा नाथ.
हरजाई हो चाहता, सात जन्म का साथ..

कितने बेढब मेरे नपने?
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
घड़ियाली आँसू बहा, करता हूँ संतोष.
अश्रु न तेरे पोछता, अनदेखा कर रोष..

टोटा जिसमें टकों का, ऐसा है धन-कोष.
अपने मुँह से खुद किया, अपना ही जय-घोष..

लगते गैर मगर हैं अपने,
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
गोड़-लात की जड़ें थीं, भू में गहरी खूब.
चरणकमल आधार बिन, उड़-गिर जाते डूब..

अपने तक सीमित अगर, सांसें जातीं ऊब.
आसें हरियातीं 'सलिल', बन भू-रक्षक दूब..

चल मन-मंदिर हरि को जपने,
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*****
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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मंगलवार, 8 मई 2012

दोहा सलिला: अमलतास है धन्य... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
अमलतास है धन्य...
संजीव 'सलिल'
*

*
चटक धूप सह खिल रहा, अमलतास है धन्य.
गही पलाशी विरासत, सुमन न ऐसा अन्य..
*
मौन मौलश्री संत सम, शांत लगाये ध्यान.
भीतर जो घटता निरख, सत-शिव-सुंदर जान..
*
देवदारु पछता रहा, बनकर भू पर भार.
भू जल पी मरुथल बना, जीवन जी निस्सार..
*
ऊँचा पेड़ खजूर का, एकाकी बिन बाँह.
श्रमित पथिक अकुला रहा, मिली  न तिल भार छाँह..
*
आम्र बौर की पालकी, शहनाई है कूक.
अंतर में ऋतुराज के, प्रकृति मिलन की हूक..
*
कदली पत्रों से सजा, मंडप-बंदनवार.
कचनारी वधु ने किया, केसर-धवल सिंगार..
*
पवन झंकोरे झुलाते झूला, गाकर छंद.
प्रेम पींग जितना बढ़े, उतना ही आनंद..
*
शिशु रवि प्राची से रहा, अपलक रूठ निहार.
धरती माँ ने गोद से, नाहक दिया उतार..
*
जनक गगन के गाल पर, मलती उषा गुलाल.
लाड़ लड़ाती लडैती, जननी धरा निहाल..
*
चहक-चहक पंछी करें, कलरव चारों ओर.
पर्ण डाल पर झूमते होकर भाव-विभोर..
*
शैशव हँसता गोद में, बचपन करे किलोल.
गति किशोर, मति जवानी, प्रौढ़ शांति का ढोल..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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सोमवार, 7 मई 2012

नीर-क्षीर दोहा यमक: मन राधा तन रुक्मिणी... --संजीव 'सलिल'

नीर-क्षीर दोहा यमक:
मन राधा तन रुक्मिणी...
संजीव 'सलिल'
*

*
मन राधा तन रुक्मिणी, मीरां चाह अनाम.
सूर लखें घनश्याम को, जब गरजें घन-श्याम..
*
अ-धर अधर पर बाँसुरी, उँगली करे प्रयास.
लय स्वर गति यति धुन मधुर, श्वास लुटाये हास..
*
नीति देव की देवकी, जसुमति मृदु मुस्कान.
धैर्य नन्द, वासुदेव हैं, समय-पूर्व अनुमान..
*
गो कुल का पालन करे, गोकुल में गोपाल.
धेनु रेणु में लोटतीं, गूँजे वेणु रसाल..
*
मार सकी थी पूत ना, मरी पूतना आप.
जयी पुण्य होता 'सलिल', मिट जाता खुद पाप..
*
तृणावर्त के शस्त्र थे, अनगिन तृण-आवर्त.
प्रभु न केंद्र-धुरि में फँसे, तृण-तृण हुए विवर्त..
*
लिए वेणु कर-कालिया, चढ़ा कालिया-शीश.
कूद रहा फन को कुचल, ज्यों तरु चढ़े कपीश..
*
रास न आया रचाना, न ही भुलाना रास.
कृष्ण कहें 'चल रचा ना' रास, न बिसरा हास..
*
कदम-कदम जा कदम चढ़, कान्हा लेकर वस्त्र.
त्रस्त गोपियों से कहे, 'मत नहाओ निर्वस्त्र'..
*
'गया कहाँ बल दाऊ जू?', कान्हा करते तंग.
सुरा पिए बलदाऊ जू, गिरे देख जग दंग..
*
जल बरसाने के लिए, इंद्र करे आदेश.
बरसाने की लली के, प्रिय रक्षें आ देश..
*

रविवार, 6 मई 2012

झलक : चित्रगुप्त जयंती 2012 रायपुर छत्तीसगढ़







 झलक  : चित्रगुप्त जयंती 2012 रायपुर छत्तीसगढ़  





 














































रचना और रचनाकार: जनकवि बाबा नागार्जुन

रचना और रचनाकार:

जन कवि बाबा नागार्जुन


मूल नाम: वैद्यनाथ मिश्र, अन्य नाम: यात्री, मूल ग्राम तरौनी, दरभंगा बिहार. 
जन्म: ३० जून १९११, ननिहाल ग्राम सतलखा, जिला मधुबनी, बिहार.
निधन: ५ नवम्बर १९९८, ख्वाजा सराय, जिला दरभंगा, बिहार.
सृजन विधाएँ: कविता, निबंध, यात्रा वृत्त, उपन्यास.
रचना काल: १९३० - १९९४.
जीवन संगिनी:अपराजिता देवी. संतान: ६.
पुरस्कार: 'पत्रहीन नंगा गाछ' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार १९६९, उत्तर प्रदेश शासन द्वारा साहित्यिक अवदान हेतु १९८३ में भारत भारती पुरस्कार, साहित्य अकादमी फैलोशिप १९९४.



जन्मना ब्राम्हण कालांतर में बौद्ध मतावलम्बी. ३ वर्ष की अल्पायु में माँ निधन. छात्रवृत्ति तथा रिश्तेदारों की सहायता से संस्कृत पाठशाला में अध्ययन प्रारंभ हुआ. तत्पश्चात संस्कृत, पाली तथा प्राकृत का अध्ययन वाराणसी तथा कलकत्ता में. न्स्कृत में साहित्य आचार्य की उपाधि प्राप्त की. १९३० में यात्री उपनाम से मैथिली तथा हिंदी में काव्य लेखन. कुछ समय सहारनपुर उत्तर प्रदेश में शिक्षक. १९३५ में बौद्ध धर्म का अध्ययन करने हेतु केलनिया श्रीलंका में नागार्जुन नाम धारण कर बौद्ध भिक्षु बने. १९३८ में लेनिनवाद और मार्क्सवाद का अध्ययन कर किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद द्वारा आयोजित राजनैतिक पथशाला में भाग लिया. मूलतः यायावरी वृत्ति के नागार्जुन १९३० से १९४० के मध्य भारत के विविध अंचलों का भ्रमण करते रहे. उन्होंने जन जागरण के अनेक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की. १९३९ से १९४२ के मध्य किसान आन्दोलन के लिये अंग्रेजों ने उन्हें कारावास दिया. स्वतंत्र भारत में वे लंबे समय तक पत्रकार रहे. १९७५ - ७७ की समयावधि में वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण प्रणीत सम्पूर्ण क्रांति में प्राण-प्राण से समर्पित रहे तथा ११ महा का कारावास भी काटा.

उनकी रचनाओं में प्रगाढ़ जन संवेदना, आम आदमी का दर्द, सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति आक्रोश, सामयिक-राजनैतिक परिवेश के लिये घोर प्रताड़ना के भाव अन्तर्निहित हैं. उनकी प्रसिद्ध रचना 'बादल को घिरते देखा है' में उनकी यायावरी वृत्ति, 'मंत्र' में समूचे जनमानस के मनोभावों की अभिव्यक्ति, 'आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी' में रानी एलिज़ाबेथ के भारत आगमन पर पं. नेहरु द्वारा स्वागत जनि विद्रूपता के प्रति जनाक्रोश की अभिव्यक्ति है. उन्होंने मादा सूअर पर 'पैंने दांतोंवाली' कविता लिखी. 'कटहल' जैसे अपारंपरिक विषय पर कविता श्रंखला की रचना उन्हीं के वश की बात थी. निराला के पश्चात् झोपडी से महलों तक अपनी कविताओं के माध्यम से पैठने का बूटा नागार्जुन में ही था. वे बांग्ला भाषा तथा पत्रकारिता से भी जुड़े थे. उन्होंने कंचन कुमारी को मलय रोय चौधरी की लम्बी काव्य रचना 'ज़ख़्म' के हिंदी अनुवाद में सहायता की थी. म. गाँधी की हत्या के पश्चात् लिखी गयी उनकी कविता को सरकार ने अशांति फैलने के भय से प्रतिबंधित कर दिया था. १९६२ में भारत पर चीन के हमले के बाद बाबा का साम्यवादियों से मोहभंग हो गया था.

साहित्यिक रचनाएँ:

प्रथम रचना: १९३० यात्री नाम से, १९३५ नागार्जुन नाम से.

पद्य: युगधारा, सतरंगे पंखोंवाली, तालाब की मछलियाँ, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, हजार-हजार बांहोंवाली, पुरानी जूलियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबारे की छाया में, ये दन्तुरित मुस्कान, मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोडा, रत्नगर्भा, ऐसे भी हम क्या, भूल जाओ पुराने सपने, अपने खेत में चंदना.

उपन्यास: रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, नई पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, कुन्भी पाक, पारो और आसमान में चंदा तरे, अभिनन्दन, इमरतिया.

निबन्ध संग्रह: अंत हीनं क्रियानं, बम भोलेनाथ, अयोध्या का राजा.

मैथिली रचनाएँ: काव्यसंग्रह पत्रहीन नंगा गाछ, सितारा. उपन्यास पारो, नव तुरिया, बलचनमा .

सांस्कृतिक लेख: देश दशकम, कृषक
दशकम.

अपने सिद्धांतों के प्रति अडिग रहनेवाले बाबा ने सत्ता से सदा दूरी बना कर रखी. उन्होंने ३ बार बिहार विधान परिषद् तथा १ बार राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किए जाने के प्रस्तावों को पूरी निस्पृहता से ठुकरा दिया.

 


नागार्जुन जमीं से जुड़े रहनेवाले तथा अभिन्न अंतरंगता को जीनेवाले जीवट के धनी व्यक्ति थे, प्रस्तुत चित्र में बाईं ओर बाबा के पुत्र शोभाकांत की पत्नि तथा दायीं ओर कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना की पत्नि ललिता अस्थाना बाबा से कान खिंचवाकर स्नेह सलिला में अवगाहन का दुर्लभ सुख ले-दे रहे हैं.

दमा रोग से पीड़ित बाबा का जीवन अर्थाभाव से ग्रस्त रहा. उनके अंतिम दिनों में ज्येष्ठ पुत्रवधू ने हिंदीप्रेमियों से बाबा की चिकित्सा हेतु सहायता हेतु अनुरोध भी किया था किन्तु अपने अपने में मगन रहनेवाले कुछ न कर सके.   .

बाबा की कलम से :

जी हाँ, लिख रहा हूँ ...

बहुत कुछ ! बहोत बहोत !!

ढ़ेर ढ़ेर सा लिख रहा हूँ !

मगर, आप उसे पढ़ नहीं पाओगे ...

देख नहीं सकोगे, उसे आप !

दरअसल बात यह है कि

इन दिनों अपनी लिखावट

आप भी मैं कहॉ पढ़ पाता हूँ

नियोन-राड पर उभरती पंक्तियों की

तरह वो अगले कि क्षण गुम हो जाती हैं

चेतना के 'की-बोर्ड' पर वो

बस दो-चार सेकेंड तक ही टिकती है ....

कभी-कभार ही अपनी इस लिखावट को कागज़ पर नोट कर पाता हूँ

स्पन्दनशील संवेदन की क्षण-भंगुर लड़ियाँ

सहेजकर उन्हें और तक पहुँचाना !

बाप रे , कितना मुश्किल है !

आप तो 'फोर-फिगर' मासिक -वेतन वाले उच्च-अधिकारी ठहरे,

मन-ही-मन तो हसोंगे ही,

कि भला यह भी कोईकाम हुआ , कि अनाप-शनाप ख़यालों की

महीन लफ्फाजी ही करता चले कोई - यह भी कोई काम हुआ भला !
*****




शनिवार, 5 मई 2012

गीत: सँग समय के... --संजीव 'सलिल'

गीत:
सँग समय के...
संजीव 'सलिल'
*
सँग समय के चलती रहती सतत घड़ी.
रहे अखंडित काल-चक्र की मौन कड़ी...
*
छोटी-छोटी खुशियाँ कैसे जी पायें?
पीर-दर्द सह, आँसू कैसे पी पायें?
सभी युगों में लगी दृगों से रही झड़ी...
*
अंकुर पल्लव कली फूल फल बीज बना.
सीख न पाया झुकना तरुवर रहा तना.
तूफां ने आ शीश झुकाया, व्यथा बड़ी...
*
दूब ड़ूब जाती पानी में हरियाती.
जड़ें जमा माटी-रक्षक बन मुस्काती.
बरगद बब्बा बोलें रखना जड़ें गड़ी... 
*
वृक्ष मौलश्री किसको हेरे एकाकी.
ध्यान लगा खो गया, न कुछ भी है बाकी.
ओ! सो मत ओशो कहते 'तज सोच सड़ी'...
*
शैशव-यौवन सँग बुढ़ापा टहल रहा.
मचल रही अभिलाषा देखे बहल रहा.
रुक-झुक-चुक मत आगे बढ़, ले 'सलिल' छडी...
***
Sanjiv verma 'Salil'
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मुक्तिका: --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
*
राह ताकते उम्र बितायी, लेकिन दिल में झाँक न पाये.
तनिक झाँकते तो मिल जाते, साथ सलिल यादों के साये..

दूर न थे तो कैसे आते?, तुम ही कोई राह बताते.
क्या केवल आने की खातिर, दिल दिल के बाहर दिल पाये?

सावन में दिल कहीं रहे औ', फागुन में दे साथ किसी का.
हमसे यही नहीं हो पाया, तुमको लगाते रहे पराये..

तुमने हमको भुला दिया तो शिकवा-गिला करें क्यों बोलो?
अर्ज़ यही मत करो शिकायत हमने क्यों संबंध निभाये..

'सलिल' विरह के अँधियारे भी हमको अपने ही लगते हैं.
घिरकर इनमें स्मृतियों के हमने शत-शत दीप जलाये..

********


Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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मुक्तिका: साहब --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
साहब
संजीव 'सलिल'

*
कुछ पसीना बहाइए साहब.
रोटियाँ तब ही खाइए साहब..

बैठे-बैठे कमायें क्यों लाखों?
जो मिला वह पचाइए साहब..

उसकी लाठी में आवाज़ नहीं.
वक़्त से खौफ खाइए साहब.

साँप जब निकल जाए तब आकर
लट्ठ जमकर चलाइए साहब..

गलतियाँ क्यों करें? टालें कल पर.
रस्म रस्मी चलाइए साहब..

हर दरे-दिल पे न दस्तक देना.
एक दिल में समाइये साहब..

शौक तो शगल है अमीरों का.
फ़र्ज़ हँसकर निभाइए साहब..

नाम बदनाम का भी होता है.
रह न गुमनाम जाइए साहब..

अंत होता है अँधेरे का 'सलिल'.
गीत खुशियों के गाइए साहब..

शुक्रवार, 4 मई 2012

गीत: तू नहीं और सही... --संजीव 'सलिल'









व्यंग्य गीत:
तू नहीं और सही...
संजीव 'सलिल'
*
तू नहीं और सही,  
और नहीं और सही...
*
ताकती टुकुर-टुकुर 
चिड़िया फिरंगन बैठी।
खेल कुर्सी का रचा 
देख रही है ऐंठी।

कौन किसका है यहाँ?
कौन बताये किसको?
एक आता  है तुरत 
दूसरा कहता खिसको।

हाय सरदार असरदार है 
बिलकुल भी नहीं...
*
माया ममता या जया,
हाथ न आनेवाली।
उमा आये भी तो जल्दी ही 
ही है जाने वाली।

देख सुषमा को न मोहित हो 
उगलती ज्वाला।
याद नानी न दिला दे 
तो बताना लाला।

राबडी दूध छटी का 
दे दिला याद रही...
*
जया-रेखा भी अखाड़े में 
उतर आयी हैं।
सिलसिला यादों का ले 
दुनिया तमाशाई है।

खाता स्विस बैंक का 
मांगें न क्यों नक्सलवादी?
देश की देश के वासी 
ही करें बर्बादी। 

चेतो सम्हलो ये  'सलिल' ने 
है खरी बात कही...

*************

 
 


गीत: पानी-पानी हो गये --संजीव 'सलिल'

गीत:
पानी-पानी हो गये
संजीव 'सलिल'
*



सत्य कहा जब स्नेह से
युग की बानी हो गये.
खोकर पानी आंख का,
पानी-पानी हो गये...
*
प्यासा है सारा जगत,
कौन बुझाये प्यास.
बनें न कान्हा-राधिका
चाह रचायें रास.
महलों ने निश-दिन दिये
झोपड़ियों को त्रास.
श्रम के अधर न पा सके
तनिक प्रतिष्ठा-हास.

रुपये लूट पैसे लुटा
डाकू दानी हो गये...
*
सत्ता ने हरदम दिया
सीता को वनवास.
जन-प्रतिनिधि धोबी करें-
सतत सत्य-उपहास.
बहते आँसू में लखें
पत्रकार अनुप्रास.
जोरू हुई गरीब की
जनता सह परिहास.

जो लायक अपमान के
वे ही मानी हो गये...
*
आँख न आँखों में बसी,
कैसे रुचे उजास?
आँख आँख से लड़-मिली
झुककर हुई हुलास.
आँख तरेरे प्राणप्रिय,
आँख चुराए दास.
आँख रचे, लिख आँख दे-
आँखों का इतिहास.

बंजर-ऊसर ह्रदय के
सपने धानी हो गये...
*****





गुरुवार, 3 मई 2012

गीत: देख नज़ारा दुनिया का... --संजीव 'सलिल'

गीत:
देख नज़ारा दुनिया का...
संजीव 'सलिल'
*
देख नज़ारा दुनिया का...
*
कौन स्नेह में पगा नहीं है।
किसने किसको ठगा नहीं है।
खाता  और खिलाता कसमें-
इन्सा भूला दगा नहीं है।
जला रहे अपनों को अपने-
कोई किसी का सगा नहीं है।

ओ ऊपरवाले जादूगर!
देख पिटारा दुनिया का...
*
दर-दरवाज़ा अगर न हो 
तो कैसे टूटेगा ताला?
खालू अगर दहेज़ न माँगे,
तो क्यों रोयेगी खाला?
जाने की तैयारी कर ले
जोड़ रहा धन क्यों लाला?

ओ नीचेवाले नटनागर!
अजब पसारा दुनिया का...
*
तन को बार बार धोते हैं.
मन पर मन बोझा ढोते हैं.
चले डुबाने औरों को पर
बीच धार खाते गोते हैं.
राम सीखकर मरा जप रहे
पिंजरे में बंदी तोते हैं.
बेपेंदी की फूटी गागर!
सदृश खटारा दुनिया का...
***
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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गर्मी के दोहे --आनंद कृष्ण



गर्मी के दोहे 

आनंद कृष्ण 
*
भीषण गर्मी पड़ रही है ......... इस मौके पर सात दोहे प्रस्तुत हैं. ये सभी दोहे अपने आप में स्वतंत्र हैं किन्तु समेकित रूप में ये ग्रीष्म ऋतु के एक पूरे दिन का चित्रण करने का प्रयास हैं...... प्रयास की सफलता का मूल्यांकन आप  करेंगे ना-??????


निकल पड़ा था भोर से पूरब का मजदूर.
दिन भर बोई धूप को लौटा थक कर चूर.
 
पिघले सोने सी कहीं बिखरी पीली धूप.
कहीं पेड़ की छाँव में इठलाता है रूप.
 
तपती धरती जल रही, उर वियोग की आग.
मेघा प्रियतम के बिना, व्यर्थ हुए सब राग.
 
झरते पत्ते कर रहे, आपस में यों बात-
जीवन का यह रूप भी, लिखा हमारे माथ.
 
क्षीणकाय निर्बल नदी, पडी रेट की सेज.
"आँचल में जल नहीं-" इस, पीडा से लबरेज़.
 
दोपहरी बोझिल हुई, शाम हुई निष्प्राण.
नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे वितान.
 
उजली-उजली रात के, अगणित तारों संग.
मंद पवन की क्रोड़ में, उपजे प्रणय-प्रसंग.

सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर
मोबाइल : 09425800818

एक कविता: उसकी और उनकी --अवनीश तिवारी

एक कविता:
उसकी और उनकी 
अवनीश तिवारी
*
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उसकी कोमल चाह ,
उनकी कठोर मांगों तले दब ,
किसी कोने में अकेले रोती है |
उसके नन्हे - नन्हे सपने ,
उनकी बड़ी महत्वाकांक्षाओं से टकरा,
टूट बिखर जाते हैं |
उसकी आस की नदिया,
उनकी योजनाओं के सागर में मिल,
अपना अस्तित्व खो देती है |
उसकी ममता के अंकुर,
उनके संबंधों के बरगद की छाँव में ,
घुट - घुट पनपते है |
इसतरह ...
उसके गर्भ की संतान,
बेटा ना होने के परिणाम से डर,
पल रही है, बढ़ रही है |

गीत: हमें जरूरत है --संजीव 'सलिल'

गीत:  
हमें जरूरत है...  
--संजीव 'सलिल'
*
हमें जरूरत है लालू की...
*
हम बिन पेंदी के लोटे हैं.
दिखते खरे मगर खोटे हैं.
जिसने जमकर लात लगाई
उसके चरणों में लोटे हैं.
लगा मुखौटा हर चेहरे पर
भाये आरक्षण कोटे हैं.
देख समस्या आँख मूँद ले
हमें जरूरत है टालू की...
*
औरों पर उँगलियाँ उठाते.
लेकिन खुद के दोष छिपाते.
नहीं सराहे यदि दुनिया तो
खुद ही खुद की कीरति गाते.
तन से तन की चाह हमेशा
मन से मन को मिला न पाते.
देख चढ़ाव भागते पीछे
हमें जरूरत भू ढालू की...
*
दिखती है लंबी छाया पर-
कद से हम सचमुच बौने हैं...
लेट पालने, चूस अँगूठा
चाह रहे होते गौने हैं.
शेर-मांद में डाल रहे सिर
मन भटकाते मृग छौने हैं.
जो कहता हो ठाकुरसुहाती
हमें जरूरत उस चालू की...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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बुधवार, 2 मई 2012

राजस्थानी मुक्तिकाएँ : संजीव 'सलिल'

राजस्थानी मुक्तिकाएँ :
संजीव 'सलिल'
*

१. ... तैर भायला

लार नर्मदा तैर भायला.
बह जावैगो बैर भायला..

गेलो आपून आप मलैगो.
मंजिल की सुण टेर भायला..

मुसकल है हरदां सूँ खडनो.
तू आवैगो फेर भायला..

घणू कठिन है कविता करनो.
आकासां की सैर भायला..

सूल गैल पै यार 'सलिल' तूं.
चाल मेलतो पैर भायला..

*

२. ...पीर पराई

देख न देखी पीर पराई.
मोटो वेतन चाट मलाई..

इंगरेजी मां गिटपिट करल्यै.
हिंदी कोनी करै पढ़ाई..

बेसी धन स्यूं मन भरमायो.
सूझी कोनी और कमाई..

कंसराज नै पटक पछाड्यो.
करयो सुदामा सँग मिताई..

भेंट नहीं जो भारी ल्यायो.
बाके नहीं गुपाल गुसाईं..

उजले कपड़े मैले मन ल्ये.
भवसागर रो पार न पाई..

लडै हरावल वोटां खातर.
लोकतंत्र नै कर नेताई..

जा आतंकी मार भगा तूं.
ज्यों राघव ने लंका ढाई..

***
टीप: राजस्थानी पर मेरा अधिकार नहीं है, यह एक प्रयास मात्र हैं. जानकार पाठकों से सुधार हेतु निवेदन है.
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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