पुरोवाक :
'जोगिनी गंध' - त्रिपदिक हाइकु प्रवहित निर्बंध
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा सतत प्रवाहित सलिला की तरह निरंतर परिवर्तनशील होती है। लोकोक्ति है 'बहता पानी निर्मला', जिस नदी में जल स्रोतों से निरंतर ताजा जल नहीं आता और सागर में जल राशि विसर्जित नहीं होती वह नदी सूखकर समाप्त हो जाती है। भाषा और साहित्य भी सतत प्रवाहित नदियों की तरह हैं। जिस भाषा में समयानुकूल नए शब्द नहीं जुड़ते और निरुपयोगी हुए शब्द बाहर नहीं किये जाते, वह मृतप्राय हो जाती है। जिस साहित्य में अन्य भाषाओँ के साहित्य से ग्रहण करने योग्य साहित्य रचने की सामर्थ्य नहीं रहती, वह क्रमश: समाप्त हो।मानव सभ्यता भाषाओँ और साहित्य के सृजन और विनाश की कहानी है। जिस काल में श्रेष्ठ साहित्य रचा गया वह स्वर्णयुग कहलाया जबकि जिस काल में साहित्य का ह्रास हुआ वह पतन काल हुआ। सनातन मूल्यों के संधान और अनुकरण हेतु सजग रहे भारत ने समय-समय पर विविध भाषाओँ का उत्थान और पतन ही नहीं देखा अपितु सुकाल में स्वयं विश्व को ज्ञान प्रदान और दुष्काल में ज्ञान को ग्रहण किया है। भारत में संस्कृत पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, गोंडी, भीली, कोरकू, कौरवी, जैसी अगणित भाषाएँ विकसित हुईं। अधिकाँश काल के गाल में समां गयीं। वर्तमान में लगभग ५०० भाषाएँ-बोलियाँ व्यवहार में हैं। हिंदी भारत में जन्मी हुई नवीनतम भाषा है।
जन्म के साथ ही हिंदी को संस्कृत और अपभृंश की विरासत प्राप्त हुई। हिंदी की समकालिक उर्दू फ़ारसी-अरबी और सीमान्त प्रदेश की भाषाओँ के शब्दों का सम्मिश्रण मात्र होकर रह गयी किन्तु हिंदी ने २० से अधिक भाषाओँ और ५० से अधिक बोलिओं से शब्द संपदा, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, तत्सम-तद्भव शब्द आदि ग्रहणकर खुद को समृद्ध किया। यह क्रिया केवल भारत तक सीमित नहीं रही अपितु पूरे विश्व से आदान-प्रदान हुआ। फलत: हिंदी आज विश्ववाणी बनने की रह पर दिन-ब-दिन आगे बढ़। हिंदी ने केवल शब्द ही ग्रहण नहीं किये अपितु सृजन विधाएँ भी ग्रहण कीं। गद्य में किस्सागोई, निबंध, रिपोर्ताज, यात्रावृत्त आदि तथा पद्य में विविध छंद ग्रहण करने में हिंदी को किंचित भी परहेज नहीं हुआ। फ़ारसी से रुबाई, नज़्म, ग़ज़ल आदि, अंग्रेजी से कप्लेट, सोनेट आदि तथा जापानी से हाइकु, ताँका, बाँका आदि को हिंदी ने केवल ग्रहण ही नहीं किया अपितु उनका भारतीयकरण कर अपने व्याकरण और भाषिक प्रवृत्ति अनुसार नया रूप भी दे दिया। फलत:, मूल भाषा की तुलना में हिंदी में उन छंदों के दो रूप मूल की तरह तथा भारतीय रूप विकसित होने लगे हैं। यह प्रवृत्ति हाइकु लेखन में सहज ही देखी जा सकती है। हिंदी में 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर मुक्तक, गीत, ग़ज़ल, समीक्षा, भूमिका और खंड काव्य का भी माध्यम बने हैं। यहाँ यह उल्लेख अप्रासंगिक न होगा कि संस्कृत से गायत्री, कुकुप आदि तथा पंजाबी से माहिया जैसे त्रिपदिक छंद हाइकु के पहले से ही हिंदी में रचे जाते रहे हैं।
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती हैं। हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं। मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी। पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता। हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है। हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ (haikai no renga) सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है। 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है। हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है। समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल (ध्वनिखंड या उच्चार) के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं।
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना: पारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पंक्तियों में विभक्त होते हैं। अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि, उच्चार) कहते हैं। समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं। अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते हैं जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं। हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है। अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है। अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकु देखें -
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
२. वैचारिक सन्निकटता: हाइकु में दो विचार सन्निकट हों: जापानी शब्द 'किरु' / 'किरेजी' (हिन्दी में विभाजक शब्द) का आशय है कि हाइकु में दो सन्निकट विचार हों जो व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र तथा कल्पना प्रवणता की दृष्टि से भिन्न हों। सामान्यतः जापानी हाइकु 'किरेजी' (विभाजक शब्द) द्वारा विभक्त दो सन्निकट विचारों को समाहित कर एक सीधी पंक्ति में रचे जाते हैं। किरेजी एक ध्वनि पदावली (वाक्यांश) के अंत में आती है। अंग्रेजी में किरेजी की अभिव्यक्ति डैश '-' से की जाती है. बाशो के निम्न हाइकु में दो भिन्न विचारों की संलिप्तता देखें:
how cool / the feeling of a wall / against the feet — siesta
कितनी शीतल / दीवार की अनुभूति / पैर के सामने
आम तौर पर अंग्रेजी हाइकु ३ पंक्तियों में रचे जाते हैं। २ सन्निकट विचार (जिनके लिये २ पंक्तियाँ ही आवश्यक हैं) पंक्ति-भंग, विराम चिन्ह अथवा रिक्त स्थान द्वारा विभक्त किये जाते हैं। अमेरिकन कवि ली गर्गा का एक हाइकु देखें-
fresh scent- ताज़ा सुगंध
the lebrador's muzzle लेब्राडोर की थूथन
deepar into snow गहरे बर्फ में
"किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (१४२०-१५०२) के समय में १८ किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है।
यथा-
आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा [ "या" किरेजि]
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा
३. विषय चयन और मार्मिकता: पारम्परिक हाइकु मनुष्य के परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति पर केंद्रित होता है। हाइकु को ध्यान की एक विधि के रूप में देखें जो स्वानुभूतिमूलक व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण या निर्णय आरोपित किये बिना वास्तविक वस्तुपरक छवि को सम्प्रेषित करती है। जापानी कवि क्षणभंगुर प्राकृतिक छवियाँ यथा मेंढक का तालाब में कूदना, पत्ती पर जल वृष्टि होना, हवा से फूल का झुकना आदि को ग्रहण व सम्प्रेषित करने के लिये हाइकु का उपयोग करते हैं। कई कवि 'गिंकगो वाक' (नयी प्रेरणा की तलाश में टहलना) करते हैं। भारतीय हाइकु प्रकृति से परे हटकर शहरी वातावरण, भावनाओं, अनुभूतियों, संबंधों, उद्वेगों, आक्रोश, विरोध, आकांक्षा, हास्य आदि को हाइकु की विषयवस्तु बना रहे हैं।
४. मौसमी संदर्भ:
जापान में 'किगो' (मौसमी बदलाव, ऋतु परिवर्तन आदि) हाइकु का अनिवार्य तत्व है। मौसमी संदर्भ स्पष्ट या प्रत्यक्ष (सावन, फागुन आदि) अथवा सांकेतिक या परोक्ष (ऋतु विशेष में खिलने वाले फूल, मिलनेवाले फल, मनाये जाने वाले पर्व आदि) हो सकते हैं. फुकुडा चियो नी रचित हाइकु देखें:
morning glory! भोर की दमक
the well bucket-entangled, कूप - बाल्टी गठबंधन
I ask for water मैंने पानी माँगा
५. विषयांतर: हाइकु में दो सन्निकट विचारों की अनिवार्यता को देखते हुए चयनित विषय का परिदृश्य के २ भाग होते हैं। जैसे लकड़ी के लट्ठे पर रेंगती दीमक पर केंद्रित होते समय उस छवि को पूरे जंगल या दीमकों के निवास के साथ जोड़ें। सन्निकटता तथा संलिप्तता हाइकु को सपाट वर्णन के स्थान पर गहराई तथा लाक्षणिकता प्रदान करती हैं. रिचर्ड राइट का यह हाइकु देखें:
A broken signboard banging टूटा साइनबोर्ड तड़का
In the April wind. अप्रैल की हवाओं में
Whitecaps on the bay. खाड़ी में झागदार लहरें
इस पृष्ठभूमि में हिंदी की उदीयमान रचनाकार शशि पुरवार के हाइकु संकलन ''जोगिनी गंध'' को पढ़ने से पूर्व यह जान लें कि शशि जी जापानी ''उच्चार'' को हिंदी में ''वर्ण'' में बदल लेनेवाली पद्धति से हाइकु रचती हैं। शशि जी सुशिक्षित, संभ्रांत, शालीन व्यक्तित्व की धनी होने के साथ-साथ शब्द संपदा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की धनी हैं। वे जीवन और सृष्टि को खुली आँखों से देखते हुए चैतन्य मस्तिष्क से दृश्य का विवेचन कर हिंदी के त्रिपदिक वर्णिक छंद हाइकु की रचना ५-७-५ वर्ण संख्या को आधार बनाकर करती हैं। स्वलिखित भूमिका में शशि जी ने हाइकु की उद्भव और रचना प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कुछ हाइकुकारों के हाइकुओं का उल्लेख किया है। संभवत: अनावश्यक विस्तार भय से उन्होंने लगभग ३ दशक पूर्व से हिंदी में मेरे द्वारा रचित हाइकु मुक्तकों, ग़ज़लों, गीतों, समीक्षाओं आदि का उल्लेख नहीं किया तथापि स्वलिखित हाइकु गीत, हाइकु चोका गीत प्रस्तुत कर इस परंपरा को आगे बढ़ाया है।
'जोगिनी गंध' में शशि जी के हाइकु जोगनी गंध (प्रेम, मन, पीर, यादें/दीवानापन), प्रकृति (शीत, ग्रीष्म व फूल पत्ती-लताएं, पलाश, हरसिंगार, चंपा, सावन, रात-झील में चंदा, पहाड़, धूप सोनल, ठूँठ, जल, गंगा, पंछी, हाइगा), जीवन के रंग (जीवन यात्रा, तीखी हवाएँ, बंसती रंग, दही हांडी, गाँव, नंन्हे कदम-अल्डहपन, लिख्खे तूफान, कलम संगिनी) तथा विविधा (हिंद की रोली, अनेकता में एकता, ताज, दीपावली, राखी, नूतन वर्ष, हाइकु गीत, हाइकु चोका गीत, नेह की पाती, देव नहीं मैं, गौधुली बेला में, यह जीवन, रिश्तों में खास, तांका, सदोका, डाॅ. भगवती शरण अग्रवाल के मराठी में, मेरे द्वारा अनुवादित कुछ हाइकु) शीर्षकों-उपशीर्षकों में वर्गीकृत हैं। शशि जी ने प्रेम को अपने हाइकू में अभिनव दृष्टि से अंकित किया है - सूखें हैं फूल / किताबों में मिलती / प्रेम की धूल।
प्रेम की सुकोमल प्रतीति की अनुभूति और अभिव्यक्ति करने में शशि जी के नारी मन ने अनेक मनोरम शब्द-चित्र उकेरे हैं। एक झलक देखें -
छेड़ो न तार / रचती सरगम / हिय-झंकार।
तन्हा पलों में / चुपके से छेडती / यादें तुम्हारी।
शशि जी हाइकु रचना में केवल प्रकृति दृश्यों को नहीं उकेरतीं। वे कल्पना, आशा-आकांक्षा, सुख-दुःख आदि मानवीय अनुभूतियों को हाइकु का विषय बना पाती हैं-
सुख की धारा / रेत के पन्नों पर / पवन लिखे।
दुःख की धारा / अंकित पन्नों पर / जल में डूबी।
बनूँ कभी मैं / बहती जल धारा / प्यास बुझाऊँ।
हाइकु के शैल्पिक पक्ष की चर्चा करें तो शशि जी ने हिंदी छंदों की पदान्तता को हाइकू से जोड़ा है। कही पहली-दूसरी पंक्ति में तुक साम्य है, कहीं पहली तीसरी पंक्ति में, कहीं दूसरी-तीसरी पंक्ति में, कहीं तीनों पंक्तियों में किन्तु कहीं -कहीं तुकांत मुक्त हाइकु भी हैं-
प्यासा है मन / साहित्य की अगन / ज्ञान पिपासा।
दिल दीवाना / छलकाते नयन / प्रेम पैमाना।
अँधेरी रात / मन की उतरन / अकेलापन।
अनुगमन / कसैला हुआ मन / आत्मचिंतन।
तेरे आने की / हवा ने दी दस्तक / धडके दिल।
शशि जी के ये हाइकु प्रकृति और पर्यावरण से अभिन्न हैं। स्वाभाविक है कि इनमें प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण हो।
स्नेह-बंधन / फूलों से महकते / हर सिंगार।
हरसिंगार / महकता जीवन / मन प्रसन्न।
पत्रों पे बैठे / बारिश के मनके / जड़ा है हीरा।
ले अंगडाई / बीजों से निकलते / नव पत्रक।
काली घटाएँ / सूरज को छुपाए / आँख मिचोली।
प्रकृति के विविध रूपों का हाइकुकरण करते समय बिम्बों, प्रतीकों और मानवीकरण करते समय कृत्रिमता अथवा पुनरावृत्ति का खतरा होता है। शशि के हाइकु इस दोष से मुक्त ही नहीं विविधता और मौलिकता से संपन्न भी हैं।
सिंधु गरजे / विध्वंश के निशान / अस्तित्व मिटा।
नभ ने भेजी / वसुंधरा को पाती / बूँदों ने बाँची।
राग-बैरागी / सुर गाए मल्हार / छिड़ी झंकार ।
धरा-अम्बर / तारों की चूनर का / सौम्य शृंगार।
हाइकू के माध्यम से नवाशा और नवाचार को स्पर्श करने का सफल प्रयास करती हैं शशि-
हौसले साथ / जब बढे़ कदम / छू लो आसमां ।
हरे भरे से / रचे नया संसार / धरा का स्नेह।
संग खेलते / ऊँचे होते पादप / छू ले आंसमा।
शशि का शब्द भंडार समृद्ध है। तत्सम-तद्भव शव्दों के साथ वे आवश्यक अंग्रेजी या अरबी शब्दों का सटीक प्रयोग करती हैं -
रूई सा फाहा / नजरो में समाया / उतरी मिस्ट।
जमता खून / हुई कठिन साँसे / फर्ज-इन्तिहाँ।
हिम-से जमे / हृदय के ज़ज़्बात / किससे कहूँ?
करूँ रास का काव्य से गहरा नाता है। कविता का उत्स मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का बहेलिया द्वारा वध करने पर क्रौंची के चीत्कार को सुनकर आदिकवि वाल्मीकि के मुख से नि:सृत श्लोक से हुआ है। शशि के हाइकु करुण रस से भी संपृक्त हैं।
उड़ता पंछी / पिंजरे में जकड़ा / है परकटा।
दरख्तों को / जड़ से उखडती / तूफानी हवा।
शशि परंपरा का अनुकरण ही करतीं, आवश्यकता होने पर उसे तोड़ती भी हैं। उन्होंने ६-७-५ वर्ण लेकर भी हाइकु लिखा है -
शूलों-सी चुभन / दर्द भरा जीवन / मौन रुदन।
हाइकु के लघु कलेवर में मनोभावों को शब्दित कर पाना आसान नहीं होता। शशि ने इस चुनौती को स्वीकार कर मनोभाव केंद्रित हाइकु रचे हैं -
अवचेतन / लोलुपता की प्यास / ठूँठ बदन।
सूखी पत्तियाँ / बेजार होता तन / अंतिम क्षण।
वर्तमान समय का संकट सबसे बड़ा पर्यावरण का असंतुलन है। शशि का हाइकुकार इस संकट से जूझने के लिए सन्नद्ध है-
कम्पित धरा / विषैली पोलिथिन / मानवी भूल।
जगजननी / धरती की पुकार / वृक्षारोपण।
पर्वत पुत्री / धरती पे जा बसी / सलोना गाँव।
मानुष काटे / धरा का हर अंग / मिटते गाँव।
केदारनाथ / बेबस जगन्नाथ / वन हैं कटे।
सामाजिक टकराव और पारिवारिक बिखराव भी चिंता का अंग हैं -
बेहाल प्रजा / खुशहाल है नेता / खूब घोटाले।
चिंता का नाग / फन जब फैलाये / नष्ट जीवन।
पति-पत्नी में / वार्तालाप सीमित / अटूट रिश्ता।
जोगिनी गंध में नागर और ग्रामीण, वैयक्तिक और सामूहिक, सांसारिक और आध्यात्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक अर्थात परस्पर विरोध और भिन्न पहलुओं को समेटा गया है। गागर में सागर की तरह शशि का हाइकुकार त्रिपदियों और सत्रह वर्णों में अकथनीय भी कह सका है। प्रथम हाइकु संग्रह अगले संकलनों के प्रतिउत्सुकता जाग्रत करता है। पाठकों को यह संकलन निश्चय भायेगा और ख्याति दिलाएगा।
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संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष - ७९९९५५९६१८, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
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साँसे x - सांसें, ख्वावों x -ख्वाबों, सांवरिया x - साँवरिया, उष्णता x - ऊष्णता, तर्फ x इसकी जगह ओर , इन्तिहाँ x - इंतिहा, प्रदुषण x - प्रदूषण,
सुझाव
धोखा पाकर / पहाड़ जैसी बनी / नाजुक कन्या। 'पहाड़' के स्थान पर 'कटार' पर विचार करें।
***
नवगीत :
*
अपने मुँह
अपना यश-गान।
*
अब भी हैं
धृतराष्ट्र धरा पर
आत्म-मोह से ग्रस्त।
जाते जिसके निकट
उसी को
करते हैं संत्रस्त।
अहंकार के
मारे को हो
कैसे सुख-संतोष?
देख न निज के दोष
दूसरों को
देते हैं दोष।
जनगण-जनमत
को ठुकराते
कर-पाते अपमान
अपने मुँह
अपना यश-गान।
*
आधा देखें,
आधा लेखें,
मुँह-देखी बोलें।
विष-रस भरा
कनक-घट दिखता
जब भी मुँह खोलें।
परख रहे
औरों की कृतियाँ,
छिपा रहे हैं
खुद की त्रुटियाँ।
माइक पकड़ें
जमकर जकड़ें
मन माना बोलें।
सीख सयानों की
बिसरादी
बात तनिक तोलें।
क्षमा न करता
समय, कुयश का
कोई नहीं निदान
२७.११.२०१५
***
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