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रविवार, 5 नवंबर 2023

हंसवाहिनी, लघुकथा, भूगोलीय मुक्तक, मुक्तिका, नवगीत, बाल कविता

हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी, अम्ब विमल मति दे......
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे।
वह बल विक्रम दे ।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे ।।१।।
साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे।
स्वाभिमान भर दे ।।२।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा माँ,
फिर घर-घर भर दे।
फिर घर-घर भर दे ।।३।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
***
लघुकथा
मुस्कुराहट
*
साहित्यकारों की गोष्ठी में अखबारों तथा अंतर्जाल पर नकारात्मक समाचारों के बाहुल्य पर चिंता व्यक्त की गई। हर अखबार और चैनल की वैचारिक प्रतिबद्धता को स्वतंत्र चेतना हेतु घातक बताते हुए सभी विचारधाराओं और असहमत जनों के प्रति सहिष्णुता पर बल दिया गया।
नेताओं पर अपने विचारों के पिंजरे में कैद रहने की प्रवृत्ति की कटु आलोचना करते हुए, विविध विचारों के समन्वय पर बल दिया गया।
एक साहित्यकार ने पटल पर कुछ अन्य साहित्यकारों द्वारा भिन्न विधा संबंधी शंका-समाधान पर प्रश्न उठाते हुए निंदा प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया। प्रश्नकर्ता कहता ही रह गया कि एक विधा मुख्य होते हुए भी भिन्न विधाओं की चर्चा करना, जानकारी लेना-देना अपराध नहीं है। सब विधाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं किंतु आपत्तिकर्ता शांत होने के स्थान पर अधिकाधिक उग्र होते गए। विवश संयोजक ने शांति स्थापित करने हेतु एक को छोड़कर अन्य विधाओं को प्रतिबंधित कर दिया।
कोने में रखी, मकड़जाल में कैद सरस्वती प्रतिमा के अधरों पर विचार और आचार के विरोधाभास को देख, झलक रही थी व्यंग्यपरक मुस्कुराहट।
५-११-२०१९
***
भूगोलीय मुक्तक
*
धरती गोल-गोल हैं, बातें धत्तेरे की।
वादे-पर्वत पोले, घातें धत्तेरे की।।
लोकहितों की नदिया, करे सियासत गंदी
अमावसी पूनम की रातें धत्तेरे की।।
*
आसमान में ग्रह-उपग्रह करते हैं दंगा।
बने नवग्रह-पति जो नाचे होकर नंगा।।
दावानल-बड़वानल पक्ष-विपक्ष बने हैं-
भाटा-ज्वार समुद-संसद में लेते पंगा।।
*
पत्रकारिता भूकंपी सनसनी बन गई।
ज्वालामुखी सियासत जनता झुलस-भुन गई।।
धूमकेतु बोफोर्स-रफाल न पिंड छूटता-
धर्म-ध्वजा झुक काम-लोभ के पंक सन गई।।
*
महासागरी तूफानों सा जनाक्रोश है।
आइसबर्गों सम पिघलेगा किसे होश है?
दिग-दिगंत काँपेंगे, जब प्रकृति रौंदेगी-
तिनके सम मिट जाएगा जो उठा जोश है।।
*
सूर्य-चंद्र नैतिक मूल्यों पर लगा ग्रहण है।
आय और आवश्यकता में भीषण रण है।।
सच अभिमन्यु शहीद, स्वार्थ-संशप्तक विजयी-
तंत्र-प्रशासन दांव सम्मुख मानव तृण है।।
५.११.२०१८
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मुक्तिका:
*
ज़िंदगी जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
होंठ हँस सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
क्या कहे? कैसे कहें? किससे कहें? बहरा समय
अश्रु चुप पीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
तुहिन, ओले, आग, बरखा, ठंड, गर्मी या तुषार
झेलते रीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
मिल तो अंगूर मीठे, ना मिले खट्टे हुए
फेंकते तीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
सत्य से साक्षात् कर ये ज़िंदगी दूभर हुई
राम तज सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
नहीं अबला, ना बला, सबला लगाते पार हम
पल नहीं बीते रहे हम पुस्तकों के बीच में?
.
माँगकर जिनको लिया, लौटा रहे नाहक ईनाम
जीत को जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
५-११-२०१५
***
द्विपदियाँ :
मैं नर्मदा तुम्हारी मैया, चाहूँ साफ़ सफाई
माँ का आँचल करते गंदा, तुम्हें लाज ना आई?
भरो बाल्टी में जल- जाकर, दूर नहाओ खूब
देख मलिन जल और किनारे, जाओ शर्म से डूब
कपड़े, पशु, वाहन नहलाना, बंद करो तत्काल
मूर्ति सिराना बंद करो, तब ही होगे खुशहाल
पौध लगाकर पेड़ बनाओ, वंश वृद्धि तब होगी
पॉलीथीन बहाया तो, संतानें होंगी रोगी
दीपदान तर्पण पूजन, जलधारा में मत करना
मन में सुमिरन कर, मेरा आशीष सदा तुम वरना
जो नाले मुझमें मिलते हैं, उनको साफ़ कराओ
कीर्ति-सफलता पाकर, तुम मेरे सपूत कहलाओ
जो संतानें दीन उन्हें जब, लँहगा-चुनरी दोगे
ग्रहण करूँगी मैं, तुमको आशीष अपरिमित दूँगी
वृद्ध अपंग भिक्षुकों को जब, भोजन करवाओगे
तृप्ति मिलेगी मुझको, सेवा सुत से तुम पाओगे
पढ़ाई-इलाज कराओ किसी का, या करवाओ शादी
निश्चय संकट टल जाये, रुक जाएगी बर्बादी
पथवारी मैया खुश हो यदि रखो रास्ते साफ़
भारत माता, धरती माता, पाप करेंगी माफ़
हिंदी माता की सेवा से, पुण्य यज्ञ का मिलता
मात-पिता की सेवा कर सुत, भाव सागर से तरता
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मुक्तिका:
अवगुन चित न धरो
*
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार
कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार
मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार
सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार
ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'
वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार
अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई न पारावार
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नवगीत:
धैर्य की पूँजी
न कम हो
मनोबल
घटने न देना
जंग जीवट- जिजीविषा की
मौत के आतंक से है
आस्था की कली कोमल
भेंटती शक-डंक से है
नाव निज
आरोग्य की
तूफ़ान में
डिगने न देना
मूल है किंजल्क का
वह पंक जिससे भागते हम
कमल-कमला को हमेशा
मग्न हो अनुरागते हम
देह ही है
गेह मन का
देह को
मिटने न देना
चिकित्सा सेवा अधिक
व्यवसाय कम है ध्यान रखना
मौत के पंजे से जीवन
बचाये बिन नहीं रुकना
लोभ को,
संदेह को
मन में तनिक
टिकने न देना
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मुक्तिका:
हाथ मिले
माथ उठे
मन अनाम
देह बिके
कौन कहाँ
पत्र लिखे?
कदम बढ़े
बाल दिये
वसन न्यून
आँख सिके
द्रुपद सुता
सती रहे
सत्य कहे
आप दहे
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बाल कविता
हम बच्चे हैं मन के सच्चे सबने हमें दुलारा है
देश और परिवार हमें भी सचमुच लगता प्यारा है
अ आ इ ई, क ख ग संग ए बी सी हम सीखेंगे
भरा संस्कृत में पुरखों ने ज्ञान हमें उपकारा है
वीणापाणी की उपासना श्री गणेश का ध्यान करें
भारत माँ की करें आरती, यह सौभाग्य हमारा है
साफ-सफाई, पौधरोपण करें, घटायें शोर-धुआं
सच्चाई के पथ पग रख बढ़ना हमने स्वीकारा है
सद्गुण शिक्षा कला समझदारी का सतत विकास करें
गढ़ना है भविष्य मिल-जुलकर यही हमारा नारा है
५-११-२०१४
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