कुल पेज दृश्य

बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

मुक्तिका, रैप सॉन्ग, दोहा मुक्तिका, नवगीत, आरती, लघुकथा,

मुक्तिका
लगने लगे हैं प्यार के बाजार इन दिनों
*
वज़न - २२१२ २२१२ २२१२ १२
बह्र - बह्रे रजज़ मुसम्मन
अर्कान - मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन इलुन
*
लगने लगे हैं प्यार के बाजार इन दिनों।  
चुभने लगे हैं फूल ज्यों हों खार इन दिनों।।

जुमला कहेंगे जीत इलेक्शन, वो वायदा। 
मिलने लगे हैं रात-दिन सरकार इन दिनों।।

इसरार की आदत न थी पर क्या करें हुज़ूर। 
इकरार का हैं कर रहे व्यापार इन दिनों।। 

पड़ते गले वो, बोलते हैं मिल रहे गले। 
करते छिपा के पीठ में वो वार इन दिनों।। 

नजरें मिला के फेरते हैं नजर आप क्यों?
चाहा, हुए क्यों चाह से बेजार इन दिनों? 
१९.१०.२०२३ 
***
लेख : मुक्तिका क्या है?
संजीव 'सलिल'
*
मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-
१. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद समान पदांत तथा तुकांत युक्त होता है।
२. हर पद का पदभार हिंदी वर्ण या मात्रा गणना के अनुसार समान होता है। तदनुसार इसे वार्णिक मुक्तिका या मात्रिक मुक्तिका कहा जाता है। उच्चार के अनुसार समान पदभार रखे जाकर भी मुक्तिका लिखी जा सकती है।
३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं। इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है।
४. हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं या उच्चार के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा, सोरठा मुक्तिका में सोरठा, रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है। ५-७-५ वर्णों को लेकर भी हाइकु मुक्तिका लिखी जाती है।
५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है। एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता।
६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं।
७. मुक्तिका मूलत: हिन्दी व्याकरण-पिंगल नियमों का अनुपालन करते हुए लिखी गयी ग़ज़ल है। इसे अनुगीत, तेवरी, गीतिका, सजल, पूर्णिका आदि भी कहा गया है।
गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है। अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.
तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है किन्तु शिल्प ग़ज़ल का शिल्प का ही है।
हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है। मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है। उर्दू लय खण्डों की पदभार गणना तथा पदांत-तुकांत, फारसी नहीं हिंदी व्याकरण-पिंगल के अनुसार रखे जाते हैं।
१९-१०-२०२१
***
रैप सॉन्ग -
*
हल्ला-गुल्ला,
शोर-शराबा,
मस्ती-मौज,
खेल-कूद,
मनरंजन,
डेटिंग करती फ़ौज.
लेना-देना,
बेच-खरीदी,
कर उपभोग.
नेता-टी.व्ही.
कहते जीवन-लक्ष्य यही.
कोई न कहता
लगन-परिश्रम,
कर कोशिश.
संयम-नियम,
आत्म अनुशासन,
राह वरो.
तज उधार,
कर न्यून खर्च
कुछ बचत करो.
उत्पादन से
मिले सफ़लता
वही करो.
उत्पादन कर मुक्त
लगे कर उपभोगों पर.
नहीं योग पर
रोक लगे
केवल रोगों पर.
तब सम्भव
रावण मर जाए.
तब सम्भव
दीपक जल पाए.
***
दोहा मुक्तिका
*
नव हिलोर उल्लास की, बनकर सृजन-उमंग.
शब्द लहर के साथ बह, गहती भाव-तरंग .
*
हिय-हुलास झट उमगकर, नयन-ज्योति के संग.
तिमिर हरे उजियार जग, देख सितारे दंग.
*
कालकूट को कंठ में, सिर धारे शिव गंग.
चंद मंद मुस्का रहा, चुप भयभीत अनंग.
*
रति-पति की गति देख हँस, शिवा दे रहीं भंग.
बम भोले बम-बम कहें, बजा रहे गण चंग.
*
रंग भंग में पड़ गया, हुआ रंग में भंग.
फागुन में सावन घटा, छाई बजा मृदंग.
*
चम-चम चमकी दामिनी, मेघ घटा लग अंग.
बरसी वसुधा को करे, पवन छेड़कर तंग.
*
मूषक-नाग-मयूर, सिंह-वृषभ न करते जंग.
गणपति मोदक भोग पा, नाच जमाते रंग.
***
संजीव, ७९९९५५९६१८
१९.१०.२०१८, salil.sanjiv@mail.com
***
नवगीत:
लछमी मैया!
पैर तुम्हारे
पूज न पाऊँ
*
तुम कुबेर की
कोठी का
जब नूर हो गयीं
मजदूरों की
कुटिया से तब
दूर हो गयीं
हारा कोशिश कर
पल भर
दीदार न पाऊँ
*
लाई-बताशा
मुठ्ठी भर ले
भोग लगाया
मृण्मय दीपक
तम हरने
टिम-टिम जल पाया
नहीं जानता
पूजन, भजन
किस तरह गाऊँ?
*
सोना-चाँदी
हीरे-मोती
तुम्हें सुहाते
फल-मेवा
मिष्ठान्न-पटाखे
खूब लुभाते
माल विदेशी
घाटा देशी
विवश चुकाऊँ
*
तेज रौशनी
चुँधियाती
आँखें क्या देखें?
न्यून उजाला
धुँधलाती
आँखें ना लेखें
महलों की
परछाईं से भी
कुटी बचाऊँ
*
कैद विदेशी
बैंकों में कर
नेता बैठे
दबा तिजोरी में
व्यवसायी
खूबई ऐंठे
पलक पाँवड़े बिछा
राह हेरूँ
पछताऊँ
*
कवि मजदूर
न फूटी आँखों
तुम्हें सुहाते
श्रद्धा सहित
तुम्हें मस्तक
हर बरस नवाते
गृह लक्ष्मी
नन्हें-मुन्नों को
क्या समझाऊँ?
***
आरती क्यों और कैसे?
*
ईश्वर के आव्हान तथा पूजन के पश्चात् भगवान की आरती, नैवेद्य (भोग) समर्पण तथा अंत में विसर्जन किया जाता है। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। आरती करने ही नहीं, इसमें सम्मिलित होंने से भी पुण्य मिलता है। देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। आरती का गायन स्पष्ट, शुद्ध तथा उच्च स्वर से किया जाता है। इस मध्य शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े , घड़ियाल, मंजीरे, मटका आदि मंगल वाद्य बजाकर जयकारा लगाया जाना चाहिए।
आरती हेतु शुभ पात्र में विषम संख्या (1, 3, 5 या 7) में रुई या कपास से बनी बत्तियां रखकर गाय के दूध से निर्मित शुद्ध घी भरें। दीप-बाती जलाएं। एक थाली या तश्तरी में अक्षत (चांवल) के दाने रखकर उस पर आरती रखें। आरती का जल, चन्दन, रोली, हल्दी तथा पुष्प से पूजन करें। आरती को तीन या पाँच बार घड़ी के काँटों की दिशा में गोलाकार तथा अर्ध गोलाकार घुमाएँ। आरती गायन पूर्ण होने तक यह क्रम जरी रहे। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। आरती पूर्ण होने पर थाली में अक्षत पर कपूर रखकर जलाएं तथा कपूर से आरती करते हुए मन्त्र पढ़ें:
कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।
सदावसन्तं हृदयारवंदे, भवं भवानी सहितं नमामि।।
पांच बत्तियों से आरती को पंच प्रदीप या पंचारती कहते हैं। यह शरीर के पंच-प्राणों या पञ्च तत्वों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव पंच-प्राणों (पूर्ण चेतना) से ईश्वर को पुकारने का हो। दीप-ज्योति जीवात्मा की प्रतीक है। आरती करते समय ज्योति का बुझना अशुभ, अमंगलसूचक होता है। आरती पूर्ण होने पर घड़ी के काँटों की दिशा में अपने स्थान पट तीन परिक्रमा करते हुए मन्त्र पढ़ें:
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर कृतानि च।
तानि-तानि प्रदक्ष्यंती, प्रदक्षिणां पदे-पदे।।
अब आरती पर से तीन बार जल घुमाकर पृथ्वी पर छोड़ें। आरती प्रभु की प्रतिमा के समीप लेजाकर दाहिने हाथ से प्रभु को आरती दें। अंत में स्वयं आरती लें तथा सभी उपस्थितों को आरती दें। आरती देने-लेने के लिए दीप-ज्योति के निकट कुछ क्षण हथेली रखकर सिर तथा चेहरे पर फिराएं तथा दंडवत प्रणाम करें। सामान्यतः आरती लेते समय थाली में कुछ धन रखा जाता है जिसे पुरोहित या पुजारी ग्रहण करता है। भाव यह हो कि दीप की ऊर्जा हमारी अंतरात्मा को जागृत करे तथा ज्योति के प्रकाश से हमारा चेहरा दमकता रहे।
सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
दीपमालिका का हर दीपक,अमल-विमल यश-कीर्ति धवल दे
शक्ति-शारदा-लक्ष्मी मैया, 'सलिल' सौख्य-संतोष नवल दे
***
पुस्तक सलिला –
‘चुप्पियाँ फिर गुनगुनाईं’ गीत की, नवगीत की
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं, यतीन्द्रनाथ राही, गीत-नवगीत संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४३, मूल्य २५०/-, ऋचा प्रकाशन१०६ शुभम, ७ बी. डी. ए. मार्केट, शिवाजी नगर भोपाल १६, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, गीतकार सम्पर्क – ए ५४ रजत विहार, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९४२५०१६१४० ]
*
समय के साथ कदम-दर-कदम चलते गीत-नवगीत की बाँह थामकर अठखेलियाँ करने का सुख पाने और लुटाने के अभ्यस्त श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीत-नवगीतकार श्री यतीन्द्रनाथ ‘राही’ की बारहवीं कृति और दूसरा गीत-नवगीत संग्रह 'चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं 'रस-गंगा में अवगाहन करने के इच्छुक गीत-प्रेमियों को बाँधकर रखने में समर्थ है. ९० वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह और उल्लास की अक्षय पूँजी लिए, जीवट के धनी राही जी गीत रचते नहीं गीतों को जीते हैं.
चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं राही जी की ५१ सरस. सार्थक, सामयिक गीति रचनाओं का पठनीय संग्रह है. नवगीत को सामाजिक विडम्बना, विद्रूपता, दीनता, बिखराव और टकराव का पर्याय माननेवाले संकीर्ण पक्षधरों के विपरीत राही जी नवगीत को सद्भाव, सहिष्णुता, सौहार्द्र, सहयोग और नवजागरण का वाहक मानते हैं. वे सगर्व घोषणा करते हैं-
‘जब तलक हैं / हम /
तुम्हारे पन्थ को / ज्योतित करेंगे...
पंख हैं कमजोर / तो क्या
हौसलों में दम बहुत है
सूर्य के हम वंशधर हैं
क्या करेगा तम बहुत है
पत्थरों को फोड़कर
हमने रचे हैं / पन्थ अपने
राही जी ने उन सबसे बहुत अधिक दुनिया देखी है जो संपन्नता से जीते हुए विपन्नता का रोना रोते रहते हैं अथवा पूँजीपति होते हुए भी बुर्जुआवाद की दुहाई देते हैं. कृति के शीर्षक गीत ‘चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं’ में युगीन तमस में नवाशा के दीपक जलाने का आव्हान करते हुए वे चुप्पियों की गुनगुनाहट सुन पाते हैं-
कान बहके खिड़कियों पर
चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं
झील के उस पार से / उड़कर पखेरू
खुशबुओं की कुछ नयी / सौगात लेकर आ रहे हैं
‘ हम पसीने से लकीरें भाग्य की / धोते रहे हैं’ , ‘कलम में ताकत बहुत है / बदल डालेंगे समय को’ के संकल्प को जीता नवगीतकार पलायनपंथियों से लौट आने का आव्हान करता है- ‘बहुत भटके / कमल लोचन / लौट आओ गाँव अपने... गाँव अपना ही / सरग है ’ क्या धरा है उस नगर में? / रह नहीं पाते जहाँ / बेटा-बहू भी एक घर में /काठ के हैं लोग / सुख-दुःख / कौन, किसके बाँटता है? / भीड़ का रेला सड़क पर / आदमी को हाँकता है... ‘
राही जी! सम-सामयिक परिस्थितियों की न तो अनदेखी करते हैं, न उनमें अतिरेकी दोष देखते हैं, वे पारिस्थितिक जटिलता के सन्नाटे को नवगीतीय कलरवों से तोड़ते हुए नव सृजन के गीत गाते हैं – ‘धूप / कोहरे से लिपटकर / सो रही है, चुप रहो / कुनकुने रोमांच तन में / बो रही है, चुप रहो / झुरमुटों में / चहकते उल्लास / आतुर हैं सुनो’. उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस का प्रतिनिधित्व करते ये नवगीत ‘बाँसुरी बजने लगी / है शाम / ठहरो बात कर लें’....‘टिमटिमाता एक दीपक / आज की सौगात कर लें’ कहते हुए समस्या का समाधान किसी और से या कहीं बाहर से नहीं चाहते अपितु अपने अंदर खोजने का पथ दिखाते हैं. गत पाँच दशकों से नवगीत को मर्सिया बना देने के बौद्धिक षड्यंत्र को बेनकाब करते हुए राही जी कहते हैं – ‘हम जिंदगी से / आज तो कुछ रू-ब-रू हो लें..... दहकते इन पलाशों ने / लगा दी आग सी देखो.... झनकती झाँझरों / मंजीर-कंगन के / रहस खोलें.... उतारो! / फेंक दो / ओढ़े हुए सन्यास के चीवर / करेंगे क्या भला / इस हाल में / सौ साल तक जीकर?.... उठाई पलक / सूखे प्राण में / कुछ प्राण तो ढोलें‘
स्वतंत्रता के पश्चात् सत्ता पर पूंजीवादियों और शिक्षा-संस्थानों पर साम्यवादियों के कब्जे ने सत्य और शुभ की ओर से आँखें फेरकर असत्य और अशुभ की चीख-पुकारकर आम लोगों को आपस में लड़ाकर स्वार्थ साधने का जो खेल खेला है उसे समझकर और उसकी काट बूझकर राही जी परामर्श देते हैं- ‘गुलमुहरों की / घमछैयों में / बैठो! बात करें’ नवगीत के नाम पर वर्गसंघर्ष के बीज बोनेवालों का प्रतिकार करते हुए राही जी असफलता को नकारते नहीं, स्वीकारते हैं- ‘हो गए / सारे निरर्थक / यत्न थे जो बाँधने के / टूट पैमाने गए सब / दूरियों को नापने के.... दर्द की नदिया सदानीरा / मिले ढहते किनारे / हम समय से बहुत हारे’ किन्तु वे असफलता से पारस्परिक द्वेष नहीं सहकार की राह निकलते देखते और दिखाते हैं. निराशा में आशा का संचार करते राही जी के नवगीत पाँच दशकीय दिशा-भ्रम को तोड़ते हुए सर्वथा विपरीत रचनात्मक दिशा का संकेत करते हैं- 'शाम गहराने लगी है / काम की बातें करेंगे / रात काली है / न सहमो / गगन की दीपावली है / जुगनुओं ने खोल दी लो / ज्योति की ग्रंथावली है / झींगुरों के ध्वनन में / यह / पाठ मानस का अखंडित / हो गयी साकार / स्वर की / साधना-आभा विमंडित / यंत्र-ध्वनि से दूर / कुछ / विश्राम को बातें करेंगे’.
राही जी के नवगीत शैल्पिक दृष्टि से ‘कम में अधिक’ कह पाने में समर्थ हैं. शब्द-सामर्थ्य की बानगी हर गीत में अंतर्निहित है. पाषाण, कंटकों, व्यवधान, शब्दायन, दीर्घा, पृष्ठायण, स्वप्नदर्शी, दिग्भ्रांत, संपोषक, परिवेषण, त्राहिमाम, उद्भ्रांत, श्लथ, संवरण जैसे संस्कृत निष्ठ शब्दों के साथ भरम, मुँड़गेरी, परेवा, टेवा, हिरनिया, हिया, डगर, उजारे, हेरते, भांड, सुआ, बिजुरी, मुँड़ेरी आदि देशज शब्द गलबहियाँ डाले हुए उर्दू के आवाज़, सफ़र, फौलाद, दस्तक, निजामों, हालात, कलम, ज़माने, अखबार, शक्ल, कागज़ी आदि शब्दों के साथ बतियाते हुए मिलते हैं. इससे इन नवगीतों की भाषा सीधे मन को छूती है. सोने में सुहागा हैं वे शब्द युग्म जो भाषा को मुहावरेदार मिठास देते हैं- साँझ-सकारे, मदिर-मंथर, लय-विलय, फाग-बिरहा, सुख-दुःख, वृक्ष-लताएँ, नद-निर्झर, झूठ-सच, आगे-पीछे, अच्छे-बुरे, गली-गाँव, लेना-देना आदि. राही जी ने तीन शब्दों के युग्मों का भी बखूबी प्रयोग किया है- रूप-रस-रंग, फूल-फल-पल्लव, कुएँ-बावली-ताल, ताल-पोखरे-नदियाँ, रजा-रंक-फकीर आदि. इनमें से कुछ राही जी की अपनी ईजाद हैं. भावाभिव्यक्ति के लिए राही जी अंग्रेजी शब्दों के मुहताज नहीं हैं किन्तु अपवाद स्वरूप अंग्रेजी के एक शब्द-युग्म ‘टॉवर-बंगले’ तथा उर्दू शब्द-युग्म‘शक्ल-सीरत’ का अनूठा प्रयोगकर चौंकाते हैं. इससे स्पष्ट है कि वे भाषिक संकीर्णता के नहीं किन्तु शुद्धता के पक्षधर हैं.
राही जी की एक विशेषता शब्दों को सामान्य से हटकर नए रूपों में इस तरह प्रयोग करना है कि वे मूल की तरह न केवल सहज अपितु अधिक सारगर्भित प्रतीत होते हैं. रश्मिल, उट्ठी, बरगदिया, हरषो, मसमसाया, हवनगंधी, रणित आदि ऐसे ही कुछ प्रयोग हैं. जाने-अनजाने वचन संबंधी काव्य-दोष कहीं कहीं आ गया है. इसका कारण बहुवचन में कही हिंदी व्याकरण के अनुसार (कंटकों, निजामों, कदमों आदि) तथा कहीं उर्दू व्याकरण के अनुसार (हालात आदि) शब्द-रूप का प्रयोग करना है. इसी तरह तारीख / तारीखों के स्थान पर तवारीख और तवारीखों का प्रयोग है. हो सकता है ये शब्द-रूप लय साधने में सहायक हों किंतु राही जी जैसे समर्थ कवि से अनजाने में ही ऐसी त्रुटि ही सकती है. ‘रेत की सीपियाँ बीन लें’ या ‘रेत पर सीपियाँ बीन लें’ विचारणीय हो सकता है? कृति में परजय ५४ (पराजय), प्रारव्धों ६३ (प्रारब्धों), आत्मश्लाधा ६५ (आत्म श्लाघा), लेबा ६६ (लेवा) आदि टंकण त्रुटियाँ स्वादिष्ट खीर में कंकर की तरह खटकती हैं. पृष्ठ ८८ के पहले और बाद में अक्षरों के आकार में भी अंतर है.
अपने नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ में मैंने ‘सूर्य’ के रूपक के माध्यम से कई बातें कही है. राही जी ने ‘बादल’ को माध्यम बनाकर विविध भावों को अभिव्यक्त किया है- ‘नेह-भीगे / पवनवाही / मेघ नभ में छा रहे हैं (पृष्ठ १५), ये घिरे घन / तमस गहरा / बिजलियों की कौंध (पृष्ठ ३३), झरे अंगारे/ अगन लगी है / बरसो! मेघा बरसो (पृष्ठ ६६), घटाएँ / घिर रही हैं / फिर सुहाने मेघ आये हैं (पृष्ठ ६९), चले आओ / गगन घिरने लगे / बरसात के बादल तथा पलक से रात भर / झरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ७८), हमें तो / प्यास ही धरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ७९), हमें उपहास ही भरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ८०), आकाश झुकाए फिरते हैं / थोथे आश्वासन के बादल (पृष्ठ ११९), नील नभ को / बादलों ने / ढक लिया है इस तरह से / दूर तक छत पर कहीं से / चाँद का दर्शन नहीं है (पृष्ठ १२०) आदि.
दोलिता संवेदनाएँ, बातों के बताशे, नीलकंठी भाग्य, सौध-शिखर, सगुन के सांतिये, सांस की डोली, गुलमुहरों की घमछैयाँ, घंटियों से रणित साँझें, रसवंतिनी धरती जैसी मौलिक अभिव्यक्तियाँ पाठक-मन को भाव-विभोर करती हैं.
इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकार की निर्दोष और मौलिक अभिव्यक्तियाँ सर्वत्र दर्शनीय हैं जिनसे नवोदित नवगीतकार बहुत कुछ सीख सकते हैं. झरनों के कल-कल-छल स्वर, गए कहाँ-कितने थक आदि में छेकानुप्रास अलंकार, हिल गयी साधना से सँवारी जड़ें, न जाने कह रही क्या-क्या आदि में वृत्यानुप्रास अलंकार, यंत्र-शोरों की कहानी, बरगदों के भी जरठ तन में आदि में श्रुत्यनुप्रास अलंकार, गाते गीत बजाते वंशी कितने ऐसे-वैसे में अन्त्यानुप्रास अलंकार तथा दर्द की नदिया सदानीरा में लाटानुप्रास अलंकार दृष्टव्य है.
हवन हो गए आहुति-आहुति (वेंणसगाई अलंकार), सुबह रेलें उगल जातीं / भीड़ के रेले सड़क पर, पर तुम्हारे प्राण को हे प्राण! मैं भाता रहूँगा (यमक अलंकार), चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं (विरोधाभास अलंकार), यह / जूड़े का फूल तुम्हारा / गिरा दिया था / जो अनजाने / या फिर जान-बूझकर ही था कौन तुम्हारे मन की जाने (संदेह अलंकार), माटी का कण-कण बहका है (पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार) आदि ने नवगीतों की सुषमा में चार चाँद लगाये हैं.
राही जी के नवगीतों में ग्राम्यांचलों के प्रति आकर्षण और शहरों के प्रति विकर्षण धूप-छाँव की तरह सम्बद्ध है. छायावादोत्तरी भाषा शैली और प्रसाद गुण संपन्नता ने इन्हें मिठास से सजाया है. राही जी आत्मानुभूति और आत्म-विश्वास के कवि हैं. वे ‘बदला समय / हवाएँ बदली / हम जैसे के तैसे’ कहकर विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग रहते हैं. जब तलक हैं हम / तुम्हारे पन्थ को / ज्योतित करेंगे, नफरतों की आग में / इतना तपे / कुंदन हुए हैं, नक्षत्रों पर / कीर्ति-कथाएँ / लिखने को / उल्लास मच गए. खुशबुओं की कुछ नयी / सौगात लेकर आ रहे हैं, आदि पंक्तियों में अपने आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति करते हैं. उनके अनुसार इन नवगीतों में ‘अभिव्यक्ति को फिर से एक नया आकाश मिला जिसमें विचरती कुछ अतीत की व्यष्टिपरक सुधियों की मोहक सरस मोरपंखी भ्रांतियाँ हैं तो आगत की सुकुमार रंगीन तितलियों के बीच स्थाई रूप से वर्तमान की खुरदरी धरती पर छटपटाती दम तोडती अच्छे दिन की प्यासी मछलियाँ भी हैं.’
राही जी के इन नवगीतों का जितना रसास्वादन किया जाए, प्यास उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है. उम्र के नौवें दशक के पार हो रहे राही जी से अगले नवगीत संग्रह में शतक की अपेक्षा करना अनुचित न होगा. नवगीत के सचिन तेंदुलकर राही जी का हर नवगीत चौए-छक्के की तरह करतल ध्वनि करने को विवश कर देता है, यही उनकी सफलता है .
***
पुस्तक समीक्षा-- काल है संक्रांति का...डा श्याम गुप्त
पुस्तक समीक्षा
समीक्ष्य कृति- काल है संक्रांति का...रचनाकार-आचार्य संजीव वर्मा सलिल...संस्करण-२०१६..मूल्य -२००/- ..आवरण –मयंक वर्मा..रेखांकन..अनुप्रिया..प्रकाशक-समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर.. समीक्षक—डा श्यामगुप्त |
साहित्य जगत में समन्वय के साहित्यकार, कवि हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल | प्रस्तुत कृति ‘काल है संक्रांति का’ की सार्थकता का प्राकट्य मुखपृष्ठ एवं शीर्षक से ही होजाता है | वास्तव में ही यह संक्रांति-काल है, जब सभी जन व वर्ग भ्रमित अवस्था में हैं | एक और अंग्रेज़ी का वर्चस्व जहां चमक-धमक वाली विदेशी संस्कृति दूर से सुहानी लगती है; दूसरी और हिन्दी –हिन्दुस्तान का, भारतीय स्व संस्कृति का प्रसार जो विदेश बसे को भी अपनी मिट्टी की और खींचता है | या तो अँगरेज़ होजाओ या भारतीय –परन्तु समन्वय ही उचित पंथ होता है हर युग में जो विद्वानों, साहित्यकारों को ही करना होता है | सलिल जी की साहित्यिक समन्वयक दृष्टि का एक उदहारण प्रस्तुत है ---गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचानें |
माँ शारदा से पहले, ब्रह्म रूप में चित्रगुप्त की वन्दना भी नवीनता है | कवि की हिन्दी भक्ति वन्दना में भी छलकती है –‘हिन्दी हो भावी जग वाणी / जय जय वीणापाणी’ |
यह कृति लगभग १४ वर्षों के लम्बे अंतराल में प्रस्तुत हुई है | इस काल में कितनी विधाएं आईं–गईं, कितनी साहित्यिक गुटबाजी रही, सलिल मौन दृष्टा की भांति गहन दृष्टि से देखने के साथ साथ उसकी जड़ों को, विभिन्न विभागों को अपने काव्य व साहित्य-शास्त्रीय कृतित्वों से पोषण दे रहे थे, जिसका प्रतिफल है यह कृति|
कितना दुष्कर है बहते सलिल को पन्ने पर रोकना उकेरना | समीक्षा लिखते समय मेरा यही भाव बनता था जिसे मैंने संक्षिप्त में काव्य-रूपी समीक्षा में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“शब्द सा है मर्म जिसमें, अर्थ सा शुचि कर्म जिसमें |
साहित्य की शुचि साधना जो, भाव का नव धर्म जिसमें |
उस सलिल को चाहता है, चार शब्दों में पिरोना ||”
सूर्य है प्रतीक संक्रांति का, आशा के प्रकाश का, काल की गति का, प्रगति का | अतः सूर्य के प्रतीक पर कई रचनाएँ हैं | ‘जगो सूर्य लेकर आता है अच्छे दिन’ ( -जगो सूर्य आता है ) में आशावाद है, नवोन्मेष है जो उन्नाकी समस्त साहित्य में व इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है | ‘मानव की आशा तुम, कोशिश की भाषा तुम’ (-उगना नित) ‘छंट गए हैं फूट के बादल, पतंगें एकता की उडाओ”(-आओ भी सूरज ) |
पुरुषार्थ युत मानव, शौर्य के प्रतीक सूर्य की भांति प्रत्येक स्थित में सम रहता है | ‘उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज’ तथा ‘आस का दीपक जला हम, पूजते हैं उठ सवेरे, पालते या पल रहे तुम ‘(-उग रहे या ढल रहे ) से प्रकृति के पोषण-चक्र, देव-मनुज नाते का कवि हमें ज्ञान कराता है | शिक्षा की महत्ता – ‘सूरज बबुआ’ में, सम्पाती व हनुमान की पौराणिक कथाओं के संज्ञान से इतिहास की भूलों को सुधारकर लगातार उद्योग व हार न मानने की प्रेरणा दी गयी है ‘छुएँ सूरज’ रचना में | शीर्षक रचना ‘काल है संक्रांति का’ प्रयाण गीत है, ‘काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज’ ..सूर्य व्यंजनात्मक भाव में मानवता के पौरुष का,ज्ञान का व प्रगति का प्रतीक है जिसमें चरैवेति-चरैवेति का सन्देश निहित है | यह सूर्य स्वयं कवि भी होसकता है | “
युवा पीढ़ी को स्व-संस्कृति का ज्ञान नहीं है कवि व्यथित हो स्पष्टोक्ति में कह उठता है –
‘जड़ गँवा जड़ युवापीढी, काटती है झाड, प्रथा की चूनर न भाती, फैकती है फाड़ /
स्वभाषा भूल इंग्लिश से लड़ाती लाड |’
यदि हम शुभ चाहते हैं तो सभी जीवों पर दया करें एवं सामाजिक एकता व परमार्थ भाव अपनाएं | कवि व्यंजनात्मक भाव में कहता है ---‘शहद चाहैं, पाल माखी |’ (-उठो पाखी )| देश में भिन्न भिन्न नीतियों की राजनीति पर भी कवि स्पष्ट रूप से तंज करता है..’धारा ३७० बनी रहेगी क्या’/ काशी मथुरा अवध विवाद मिटेंगे क्या’ | ‘ओबामा आते’ में आज के राजनीतिक-व्यवहार पर प्रहार है |
अंतरिक्ष पर तो मानव जारहा है परन्तु क्या वह पृथ्वी की समस्याओं का समाधान कर पाया है यह प्रश्न उठाते हुए सलिल जी कहते हैं..’मंगल छू / भू के मंगल का क्या होगा |’ ’सिंधी गीत ‘सुन्दरिये मुंदरिये ’...बुन्देली लोकगीत ‘मिलती कायं नें’ कवि के समन्वयता भाव की ही अभिव्यक्ति है |
प्रकृति, पर्यावरण, नदी-प्रदूषण, मानव आचरण से चिंतित कवि कह उठता है –
‘कर पूजा पाखण्ड हम / कचरा देते डाल |..मैली होकर माँ नदी / कैसे हो खुशहाल |’
‘जब लौं आग’ में कवि उत्तिष्ठ जागृत का सन्देश देता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है-
‘मोड़ तोड़ हम फसल उगा रये/ लूट रहे व्यौपार |जागो बनो मशाल नहीं तो / घेरे तुमें अन्धेरा |
धन व शक्ति के दुरुपयोग एवं वे दुरुपयोग क्यों कर पा रहे हैं, ज्ञानी पुरुषों की अकर्मण्यता के कारण | सलिल जी कहते हैं हैं---‘रुपया जिसके पास है / उद्धव का संन्यास है /सूर्य ग्रहण खग्रास है |’ (-खासों में ख़ास है )
पेशावर के नरपिशाच..तुम बन्दूक चलाओ तो..मैं लडूंगा ..आदि रचनाओं में शौर्य के स्वर हैं| छद्म समाजवाद की भी खबर ली गयी है –‘लड़वाकर / मामला सुलझाए समाजवादी’ |
पुरखों पूर्वजों के स्मरण बिना कौन उन्नत हो पाया है, अतः सभी पूर्व, वर्त्तमान, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष पुरखों , पितृजनों के एवं उनकी सीख का स्मरण में नवता का एक और पृष्ठ है ‘स्मरण’ रचना में –
‘काया माया छाया धारी / जिन्हें जपें विधि हरि त्रिपुरारी’
‘कलम थमाकर कर में बोले / धन यश नहीं सृजन तब पथ हो |’ क्योंकि यश व पुरस्कार की आकांक्षा श्रेष्ठ सृजन से वंचित रखती है | नारी-शक्ति का समर्पण का वर्णन करते हुए सलिल जी का कथन है –
‘बनी अग्रजा या अनुजा तुम / तुमने जीवन सरस बनाया ‘ (-समर्पण ) | मिली दिहाड़ी रचना में दैनिक वेतन-भोगी की व्यथा उत्कीर्णित है |
‘लेटा हूँ ‘ रचना में श्रृंगार की झलक के साथ पुरुष मन की विभिन्न भावनाओं, विकृत इच्छाओं का वर्णन है | इस बहाने झाडूवाली से लेकर धार्मिक स्थल, राजनीति, कलाक्षेत्र, दफ्तर प्रत्येक स्थल पर नारी-शोषण की संभावना का चित्र उकेरा गया है | ‘राम बचाए‘ में जन मानस के व्यवहार की भेड़चाल का वर्णन है –‘मॉल जारहे माल लुटाने / क्यों न भीड़ से भिन्न हुए हम’| अनियंत्रित विकास की आपदाएं ‘हाथ में मोबाइल’ में स्पष्ट की गयी हैं|
‘मंजिल आकर’ एवं ‘खुशियों की मछली’ नवगीत के मूल दोष भाव-सम्प्रेषण की अस्पष्टता के उदाहरण हैं | वहीं आजकल समय बिताने हेतु, कुछ होरहा है यह दिखाने हेतु, साहित्य एवं हर संस्था में होने वाले विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों, वक्तव्यों, गोष्ठियों, चर्चाओं की निरर्थकता पर कटाक्ष है—‘दिशा न दर्शन’ रचना में ...
‘क्यों आये हैं / क्या करना है |..ज्ञात न पर / चर्चा करना है |’
राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने पर भी अभी हम सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं | वह वास्तविक आजादी कब मिलेगी, कृतिकार के अनुसार, इसके लिए मानव बनना अत्यावश्यक है ....
‘सुर न असुर हम आदम यदि बन जायेंगे इंसान, स्वर्ग तभी होपायेगा धरती पर आबाद |’
सार्वजनिक जीवन व मानव आचरण में सौम्यता, समन्वयता, मध्यम मार्ग की आशा की गयी है ताकि अतिरेकता, अति-विकास, अति-भौतिक उन्नति के कारण प्रकृति, व्यक्ति व समाज का व्यबहार घातक न होजाय-
‘पर्वत गरजे, सागर डोले / टूट न जाएँ दीवारें / दरक न पायें दीवारे |’
इस प्रकार कृति का भावपक्ष सबल है | कलापक्ष की दृष्टि से देखें तो जैसा कवि ने स्वयं कहा है ‘गीत-नवगीत‘ अर्थात सभी गीत ही हैं | कई रचनाएँ तो अगीत-विधा की हैं –‘अगीत-गीत’ हैं| वस्तुतः इस कृति को ‘गीत-अगीत-नवगीत संग्रह’ कहना चाहिए | सलिल जी काव्य में इन सब छंदों-विभेदों के द्वन्द नहीं मानते अपितु एक समन्वयक दृष्टि रखते हैं, जैसा उन्होंने स्वयम कहा है- ‘कथन’ रचना में --
‘गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचाने |’
‘छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता |’
‘विरामों से पंक्तियाँ नव बना / मत कह, छंद हीना / नयी कविता है सिरजनी |’
सलिल जी लक्षण शास्त्री हैं | साहित्य, छंद आदि के प्रत्येक भाव, भाग-विभाग का व्यापक ज्ञान व वर्णन कृति में प्रतुत किया गया है| विभिन्न छंदों, मूलतः सनातन छंदों –दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्ह छंद, लोकधुनों के आधार पर नवगीत रचना दुष्कर कार्य है | वस्तुतः ये विशिष्ट नवगीत हैं, प्रायः रचे जाने वाले अस्पष्ट सन्देश वाले तोड़ मरोड़कर लिखे जाने वाले नवगीत नहीं हैं | सोरठा पर आधारित एक गीत देखें-
‘आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता |
करता नहीं ख़याल, नयन कौन सा फड़कता ||’
कृति की भाषा सरल, सुग्राह्य, शुद्ध खड़ीबोली हिन्दी है | विषय, स्थान व आवश्यकतानुसार भाव-सम्प्रेषण हेतु देशज व बुन्देली का भी प्रयोग किया गया है- यथा ‘मिलती कायं नें ऊंची वारी/ कुरसी हमकों गुइयाँ |’ उर्दू के गज़लात्मक गीत का एक उदाहरण देखें—
‘ख़त्म करना अदावत है / बदल देना रवायत है /ज़िंदगी गर नफासत है / दीन-दुनिया सलामत है |’
अधिकाँश रचनाओं में प्रायः उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है | वर्णानात्मक व व्यंगात्मक शैली का भी यथास्थान प्रयोग है | कथ्य-शैली मूलतः अभिधात्मक शब्द भाव होते हुए भी अर्थ-व्यंजना युक्त है | एक व्यंजना देखिये –‘अर्पित शब्द हार उनको / जिनमें मुस्काता रक्षाबंधन |’ एक लक्षणा का भाव देखें –
‘राधा हो या आराधा सत शिव / उषा सदृश्य कल्पना सुन्दर |’
विविध अलंकारों की छटा सर्वत्र विकिरित है –‘अनहद अक्षय अजर अमर है /अमित अभय अविजित अविनाशी |’ में अनुप्रास का सौन्दर्य है | ‘प्रथा की चूनर न भाती ..’ व उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका |’ में उपमा दर्शनीय है | ‘नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र..’ में रूपक की छटा है तो ‘कुमुद कमल सम आखर मनका’ में श्लेष अलंकार है | उपदेशात्मक शैली में रसों की संभावना कम ही रहती है तथापि ओबामा आते, मिलती कायं नें, लेटा हूँ में हास्य व श्रृंगार का प्रयोग है | ‘कलश नहीं आधार बनें हम..’ में प्रतीक व ‘आखें रहते भी सूर’ व ‘पौवारह’ कहावतों के उदाहरण हैं | ‘गोदी चढ़ा उंगलियाँ थामी/ दौड़ा गिरा उठाया तत्क्षण ‘.. में चित्रमय विम्ब-विधान का सौन्दर्य दृष्टिगत है |
पुस्तक आवरण के मोड़-पृष्ठ पर सलिल जी के प्रति विद्वानों की राय एवं आवरण व सज्जाकारों के चित्र, आचार्य राजशेखर की काव्य-मीमांसा का उद्धरण एवं स्वरचित दोहे भी अभिनव प्रयोग हैं | अतः वस्तुपरक व शिल्प सौन्दर्य के समन्वित दृष्टि भाव से ‘काल है संक्रांति का’ एक सफल कृति है | इसके लिए श्री संजीव वर्मा सलिल जी बधाई के पात्र हैं |
. ----डा श्याम गुप्त
लखनऊ . दि.११.१०.२०१६
विजय दशमी सुश्यानिदी , के-३४८, आशियाना , लखनऊ-२२६०१२.. मो.९४१५१५६४६४
***
मुक्तक कविता की जय कर रहे, अलंकार रह मौन
छंद पूछता,कद्रदां हमसे बढ़कर कौन?
रस परबस होकर लगे, गले न छोड़े हाथ
सलिल-धार में देख मुख, लाल गाल नत माथ
***
लघुकथाः
जेबकतरे :
*
= १९७३ में एक २० बरस के लड़के ने जिसे न अनुभव था, न जिम्मेदारी २८०/- आधार वेतन पर नौकरी आरंभ की। कुल वेतन ३७५/- , सामान्य भविष्य निधि कटाने के बाद ३५०/- हाथ में आते थे जिससे पौने तीन तोले सोना खरीदा जा सकता था। लड़का ही नहीं परिवारजन भी खुश, शादी के अनेक प्रस्ताव, ख़ुशी ही ख़ुशी ।
= ४० साल नौकरी और अधिकतम पारिवारिक जिम्मेदारियों और अनुभव के बाद सेवानिवृत्ति के समय वेतन ३५०००/- जिसमें डेढ़ तोला सोना आता है। पेंशन और कम, अधिकतम योग्यता, कार्य अनुभव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बावजूद क्रय क्षमता में कमी.... ४० साल लगातार जेबकतरे जाने का अहसास अब रूह को कँपाने लगा है, बेटी के लिये नहीं मिलते उचित प्रस्ताव, दाल-प्याज-दवाई जैसी रोजमर्रा की चीजों के दाम आसमान पर और हौसले औंधे मुँह जमीन पर फिर भी पकड़ में नहीं आते जेबकतरे
१९-१०-२०१५
***
विमर्श: सुंदरता और स्वच्छता
सरस्वतीचन्द्र सीरियल नहीं हिंदी चलचित्र जिन्होंने देखा है वे ताजिंदगी नहीं भूल सकते वह मधुर गीत ' चंदन सा बदन चंचल चितवन धीरे से तेरा वो मुस्काना' और नूतन जी की शालीन मुस्कराहट। इससे गीत में 'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर, तू सुंदरता की मूरत है' से विचार आया कि क्या सुंदरता बिना स्वच्छता के हो सकती है?
नहीं न…
तो कवि हमेशा सौंदर्य क्यों निरखता है. स्वच्छता क्यों नहीं परखता?
क्या चारों और सफाई न होने का दोषी कवि भी नहीं है? यदि है तो ऐसा क्यों हुआ? शायद इसलिए कि कवि मानस सृष्टि की रचना कर उसी में निग्न रहता है. इसलिए स्वच्छता भूल जाता है लेकिन स्वच्छता तो मन की भी जरूरी है, नहीं क्या?
'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर' में कवि यह संतुलन याद रखता है किन्तु तन साफ़ कर परिवेश की सफाई का नाटक करनेवाले मन की सफाई की चर्चा भी नहीं करते और जब मन साफ़ न हो तो तन की सफाई केवल 'स्व' तक सीमित होती है 'सर्व' तक नहीं पहुँच पाती।
इस सफाई अभियान को नाटक कहने पर जिन्हें आपत्ति हो वे बताएं कि सफाई कार्य के बाद स्नान-ध्यान करते हैं या स्नान-ध्यान के बाद सफाई? यदि तमाम नेता सुबह उठकर अपने निवास के बहार सड़क पर सफर कर स्नान करें और फिर ध्यान करें तो परिवेश, तन और मन स्वच्छ और सुन्दर होगा, तब इसे नाटक-नौटंकी नहीं कहा जायेगा। खुद बिना प्रसाधन किये सफाई करेंगे तो छायाकार को चित्र भी नहीं खींचने देंगे और तब यह तमाशा नहीं होगा।
क्या आप मुझसे सहमत हैं? यदि हाँ तो क्या इस दीपावली के पहले और बाद अपने घर-गली को साफ़ करने के बाद स्नान और उसके बाद पूजन-वंदन करेंगे? क्या पटाखे फोड़कर कचरा उठाएंगे? क्या पड़ोसी के दरवाजे पर कचरा नहीं फेकेंगे? देखें कौन-कौन पड़ोसी के दरवाज़े से कचरा साफ़ करते हुए चित्र खींचकर फेसबुक पर लगाता है?
क्या हमारे तथाकथित नेतागण अन्य दाल के किसी नेता या कार्यकर्ता के दरवाज़े से कचरा साफ़ करना पसंद करेंगे? यदि कर सकेंगे तो लोकतान्त्रिक क्रांति हो जाएगी। तब स्वच्छता की राह किसी प्रकार का कचरा नहीं रोक सकेगा।
१९-१०-२०१४
***
मुक्तिका सलिला
साधना हो सफल नर्मदा- नर्मदा.
वंदना हो विमल नर्मदा-नर्मदा.
संकटों से न हारें, लडें,जीत लें.
प्रार्थना हो प्रबल नर्मदा-नर्मदा.
नाद अनहद गुंजाती चपल हर लहर.
नृत्यरत हर भंवर नर्मदा-नर्मदा.
धीर धर पीर हर लें गले से लगा.
रख मनोबल अटल नर्मदा-नर्मदा.
मोहिनी दीप्ति, आभा मनोरम नवल.
नाद निर्मल नवल नर्मदा-नर्मदा.
सिर कटाते समर में झुकाते नहीं.
शौर्य-अर्णव अटल नर्मदा-नर्मदा.
सतपुडा विन्ध्य मेकल सनातन शिखर
सोन जुहिला सजल नर्मदा-नर्मदा.
आस्था हो शिला, मित्रता हो 'सलिल'.
प्रीत-बंधन तरल नर्मदा-नर्मदा.
१९-१०-२०१३
* * *

कोई टिप्पणी नहीं: