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सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

सॉनेट, भोर, बारिश, भारत आरती, लघुकथा, मुक्तिका, नवगीत, अश'आर, दिल, अभियंता, त्रिभंगी छंद

सॉनेट

भोर
*
भोर भई जागो रे भाई!
बिदा करो, अरविंद जा रहा।
सुनो प्रभाती, सूर्य आ रहा।।
प्राची पर छाई अरुणाई।।
गौरैया मुँडेर पर चहकी।
फल कुतरे झट झपट गिलहरी।
टिट् टिट् मिलती गले टिटहरी।।
फुलबगिया मुस्काई-महकी।।
चंपा पर रीझा है गेंदा।
जुही-चमेली लख सकुँचाई
सदा सुहागिन सोहे बेंदा।।
नेह नर्मदा कूद नहाएँ
चपल रश्मियाँ छप् छपाक् कर
सोनपरी हो लहर सिहाए।।
३०-१०-२०२२, ९•११
●●●
सॉनेट
बारिश तुम फिर
१.
बारिश तुम फिर रूठ गई हो।
तरस रहा जग होकर प्यासा।
दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।
मुरझाई हो ठूठ गई हो।।
कुएँ-बावली बिलकुल खाली।
नेह नर्मदा नीर नहीं है।
बेकल मन में धीर नहीं है।।
मुँह फेरे राधा-वनमाली।।
दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।
अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।
झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।
बीरबहूटी हुई लापता।
गर्मी सबको रही है सता।
जंगल काटे, मनुज की खता।।
*
२.
मान गई हो, बारिश तुम फिर।
सदा सुहागिन सी हरियाईं।
मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।
बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।
आसमान में बिजली चमकी।
मन भाई आधी घरवाली।
गिरी जोर से बिजली तड़की।।
भड़क हुई शोला घरवाली।।
तन्वंगी भीगी दिल मचले।
कनक कामिनी देह सुचिक्कन।
दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।
अनगिन सपने देखे साजन।।
सुलग गई हो बारिश तुम फिर।
पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।
*
३.
क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।
सघन अँधेरा आया घिर घिर।।
बरस रही हो, गरज-मचल कर।
ठाना रख दो थस-नहस कर।।
पर्वत ढहते, धरती कंपित।
नदियाँ उफनाई हो शापित।।
पवन हो गया क्या उन्मादित?
जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।
प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।
रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।
थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।
जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।
भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।
शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।
३०-१०-२०२२
***
भारत आरती
संजीव
*
आरती भारत माता की
पुण्य भू जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें शृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान
इंडिया भारत देश महान
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
३०-१०-२०२०
***
लघुकथा
कौन जाने कब?
*
'बब्बा! भाग्य बड़ा होता है या कर्म?' पोते ने पूछा।
''बेटा! दोनों का अपना-अपना महत्व है, दोनों में से किसी एक को बड़ा और दूसरे को छोटा नहीं कहा जा सकता।''
'दोनों की जरूरत ही क्या है? क्या एक से काम नहीं चल सकता?'
''तुम्हारे पापा-मम्मी का बैंक में लॉकर है न?''
'हाँ, है।'
''लॉकर की क्या जरूरत है?''
'मम्मी ने बताया था कि घर में रखने से कीमती सामान की चोरी हो सकती है। इसलिए बैंक में सुरक्षित स्थान लेकर वहाँ कीमती सामान रखते हैं।'
'' शाबाश! लॉकर की चाबी किसके पास होती हैं?''
'पापा से पूछा था मैंने। पापा ने बताया कि लॉकर में दो ताले होते हैं। एक की चाबी बैंक के प्रबंधक तथा दूसरी की लॉकर खोलने वाले के पास होती है।'
''ऐसा क्यों?''
'क्या बब्बा! आपको कुछ भी नहीं मालूम क्या?, मैं आपसे पूछने आया था आप मुझसे ही पूछते जा रहे हो।'
''तुम इस सवाल का जवाब बताओ, फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।''
'ठीक है, सवाल जरूर बताना। यह यह नहीं कि मुझसे पूछ लो और फिर मेरे सवाल का जवाब न बताओ।'
''नहीं, तुम्हारे सवाल का जवाब जरूर बताऊँगा।''
'ठीक है, फिर सुनों। मम्मी-पापा जब लॉकर खोलने जाते हैं, तब मैनेजर पहले अपनी चाबी लगाकर एक ताला खोलता है और चला जाता है, तब मम्मी-पापा अपनी चाबी से दूसरा ताला खोलकर सामान रखते-निकालते हैं, फिर लॉकर बंद कर देते हैं। तब मैनेजर अपनी चाबी से दूसरा लॉकर बंद करता है।'
''वाह, तुम तो बहुत होशियार हो। अब आखिरी प्रश्न का उत्तर दो। दो ताले क्यों जरूरी हैं?''
'इसलिए कि मम्मी-पापा सामान रख दें तो मैनेजर या कोई दूसरा चुपचाप निकल न सके। दूसरी तरफ कोइ ग्राहक चुपचाप सामान निकालकर बैंक पर चोरी का आरोप लगाकर सामान न माँगने लगे।'
''क्या बात है? अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तुमने ही दे दिया है।''
'वह कैसे?'
''वह ऐसे कि बैंक मैनेजर के पास जो चाबी है वह है भाग्य। तुम्हारे मम्मी-पापा के पास जो चाबी है, वह है कर्म। कर्म और भाग्य दोनों चाबी एक साथ लगाए बिना लॉकर नहीं खुलता।''
'यह तो आप ठीक कह रहे हैं, पर मेरा सवाल?'
''यही तो तुम्हारे सवाल का जवाब है। तुम्हारी तुम जो पाना चाहते हो वह है लॉकर, मेहनत एक चाबी है जो तुम्हारे पास है और भाग्य दूसरी चाबी है जो भगवान या किस्मत के पास है। चाहत का लॉकर खोलने के लिए दोनों चाबियाँ लगाना जरूरी है। भगवान या किस्मत अपनी चाबी कब लगाएगी तुम्हें नहीं मालूम। तुम उनसे चाबी लगवा भी नहीं सकते। लेकिन जब वह चाबी लगे तब भी चाहत का लॉकर नहीं खुलेगा यदि तुम्हारी कोशिश की चाबी न लगी हो।''
'समझ गया, समझ गया। आप कह रहे हो कि मैं चाहत का लॉकर खोलने के लिए, कोशिश की चाबी बार-बार लगाता रहूँ। जैसे ही किस्मत की चाबी लगेगी, चाहत का लॉकर खुल जाएगा। समझ गया, अच्छा बब्बा चलता हूँ।'
''कहाँ चल दिए?''
'और कहाँ?, अपना बस्ता लेकर गणित का सवाल हल करने की कोशिश करने। परीक्षा परिणाम का लॉकर खोलना है न। खुलेगा ही लेकिन कौन जाने कब?'
***
लघु कथा:
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
नव प्रयोग
*
छंद सूत्र: य न ल
*
मुक्तक-
मिलोगी जब तुम,
मिटेंगे तब गम।
खिलेंगे नित गुल
हँसेंगे मिल हम।।
***
मुक्तिका -
हँसा है दिनकर
उषा का गह कर।
*
कहेगी सरगम
चिरैया छिपकर।
*
अँधेरा डरकर
गया है मरकर।
*
पियेगा जल नित
मजूरा उठकर।
*
न नेता सुखकर
न कोई अफसर।
*
सुसिंधु सलिलज
सुमेघ जलधर।
*
कबीर सच कह
अमीर धन धर।
३०-१०-२०१८
***
:नवगीत:
राम रे!
*
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भोर-साँझ लौ
गोड़ तोड़ रै
काम चोर बे कैते
पसरे रैत
ब्यास गादी पे
भगतन संग लपेटे
काम-पुजारी
गीता बाँचे
हेरें गोप निहाल।
आँधर ठोकें ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
झिमिर-झिमिर-झम
बूँदें टपकें
रिस रए छप्पर-छानी
मैली कर दई रैटाइन की
किन्नें धोती धानी?
लज्जा ढाँपे
सिसके-कलपे
ठोंके आप कपाल
मुए हाल-बेहाल
राम रे!
कैसा निर्दय काल?
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भट्टी-देह न देत दबाई
पैले मांगें पैसा
अस्पताल मा
घुसे कसाई
ठाणे-अरना भैंसा
काले कोट
कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल
नेता भए बबाल
राम रे!
लूट बजा रए गाल
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
३०-१०-२०१५
***
चंद अश'आर
दिल
*
इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया
*
दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मरा
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ
*
दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ
*
दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठा है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया
*
नवगीत:
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम
जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता
मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम
नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है
खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?
साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है
थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
***
नवगीत:
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित
खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है
बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित
कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी
सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित
पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी
आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित
शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
***
नवगीत:
हर चेहरा है
एक सवाल
शंकाकुल मन
राहत चाहे
कहीं न मिलती.
शूल चुभें शत
आशा की नव
कली न खिलती
प्रश्न सभी
देते हैं टाल
क्या कसूर,
क्यों व्याधि घेरती,
बेबस करती?
तन-मन-धन को
हानि अपरिमित
पहुँचा छलती
आत्म मनोबल
बनता ढाल
मँहगा बहुत
दवाई-इलाज
दिवाला निकले
कोशिश करें
सम्हलने की पर
पग फिर फिसले
किसे बताएं
दिल का हाल?
***
संजीवनी अस्पताल, रायपुर

२९-११-२०१४ 

***
गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.
जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
३०-१०-२०१३
***

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