मुरली वाला कृष्ण कन्हैया
साँकरी सी खोर गहवर वन की थी वो
जिसमें सखियों संग राधा चल रही थी
यूँ तो ना ना कर रही थी वह मिलन को
किन्तु मन में आस भी कुछ पल रही थी
नील अम्बर पर घटाएँ छा रही थीं
मेघ वर्षा करने को जुड़ने लगे थे
कोयलें झुण्डों में कोरस ग़ा रही थीं
काले काले केश भी उड़ने लगे थे
ऐसे में मुरली की धुन कानों तक आयी
जिसको सुनते ही सभी ने होश खोये
एक सखी ने बात राधे को बतायी
कृष्ण बैठा है तेरे सपने सँजोये
इससे आगे प्रीत का पथ है सुहाना
जिस को तुम दौनों को मिलकर है सजाना
***
ओढ़कर धानी चुनर एक रोज राधा
संग सखियों के कहीं पर जा रही थी
था गगन में चाँद भी उस रोज आधा
गीत खुशियों के हवा भी ग़ा रही थी
तीर पर यमुना के एक हंसों का जोड़ा
प्रीत के संगीत का रस ले रहा था
उस समय वातावरण भी थोड़ा थोड़ा
संगमन में साथ उनका दे रहा था
दृश्य अनुपम हर किसी के मन को भाया
बस तभी प्रारब्ध ने लीला दिखायी
एक ग्वाला धीरे धीरे पास आया
पास आते ही मधुर मुरली बजायी
ध्यान से देखा तो मुरलीधर खड़े थे
देर तक फिर दौनों के नैना लड़े थे
***
दिख रहा था सब मगर कुछ भी न देखा
गोपियों की सुध कहीं पर खो गयी थी
केश, कपड़े, घर, नगर कुछ भी न देखा
बाँसुरी की धुन बड़ी मोहक लगी थी
छँट रहा था युग युगान्तर का अँधेरा
वे किसी बाती के जैसे जल पड़ी थीं
नाम जिसका याद आया उसको टेरा
और एक अल्हड़ नदी सी चल पड़ी थीं
थम गये आकाश में चंदा सितारे
रास की अभिलाष को मन में सजाये
कुंज गलियों से गुजर कर झुण्ड सारे
राधिका और कृष्ण की महफिल में आये
अप्रतिम आभास की लीला हुई थी
छह महीने रास की लीला हुई थी
***
ज्ञान देने के लिए उद्धव गया जब
गोपियों ने उसके मन की गाँठें खोलीं
ज्ञान की बातें सुनाकर थक गया तब
धैर्य से सब गोपियाँ एक साथ बोलीं
झूठी बातों से हमें भरमा न उद्धव
कौन कहता है किशन मथुरा गया है
देख तेरे पास ही बैठा है केशव
हमको लगता है कि तू पगला गया है
एक दिन क्या छोड़ जायेगा मुरारी
सोच कर जब दिल बहुत घबरा रहा था
कृष्ण ने खुद भाँप कर हालत हमारी
नन्दबाबा की कसम खा कर कहा था
हर घड़ी हर पल बिताऊँगा यहीं में
छोड़ कर ब्रज को न जाऊँगा कहीं मैं
***
जानते थे इसको जाना होगा एकदिन
इसलिये ही तो न अपनी तानते थे
माँ यशोदा थी भले अनजान लेकिन
नन्दबाबा सब हकीकत जानते थे
देवकी वसुदेव के लल्ला को अपना
मानते तो थे मगर संकोच भी था
जानते थे कृष्ण है बस एक सपना
साथ ही इस तथ्य पर संकोच भी था
सामना जब वास्तविकता से हुआ तो
थे मुलायम किन्तु पत्थर बन गये थे
जब यशोदा का कलेजा फट पड़ा तो
नन्दबाबा खुद रफूगर बन गये थे
हूक जब जब भी उठी खुद को ही दाबा
रो नहीं पाये कभी भी नन्दबाबा
***
कल्पना बिन गद्य क्या है पद्य क्या है
कल्पना ने पोत पानी पर चलाये
कल्पना ने ब्रह्म अक्षर को कहा है
कल्पना ने ही गगन में यान उड़ाये
थोड़ा सा बढ़ चढ़ के लिखते ही हैं लेखक
शोलों को शबनम कहा करते हैं शायर
लिखने वाले शाह हो कर भी हैं सेवक
जो नहीं सुनते वे हो जाते हैं फायर
क्या पता दुनिया ही थी तब उस तरह की
ये भी मुमकिन है कि बानक यों बने हो
पाठकों को चाह जिस साहित्य की थी
लेखकों ने लेख वैसे ही लिखे हों
पूर्वजों से जो मिला उसको कबूलें
फिर बना के झूले उन झूलों पै झूलें
***
दर्ज हैं इतिहास में बीसों फसाने
ऐसे ऐसे जिनने दुनिया को सजाया
जब भी अपनी पर उतर आये दीवाने
एक नया रस्ता सभी को है दिखाया
कंस की नजरों में था जो मात्र भोजन
जीविका का वस्तुतः आधार था वह
दूध को मथकर निकलता था जो माखन
ब्रज-जनों के वासते व्यापार था वह
गोप बोले टैक्स की दर तुम करो तय
हम करेंगे भाव तय निज वस्तुओं का
कंस आखिर तक नहीं समझा ये आशय
शत्रु बन बैठा वो जीव और जन्तुओं का
कंस ने ताकत दिखाना ठीक समझा
कृष्ण ने माखन चुराना ठीक समझा
***
दिन निकलता है तो कुछ कारण है उसका
शाम भी कारण बिना ढलती नहीं है
बिन वजह तिनका नहीं उड़ता है कुश का
बिन वजह तो आग भी जलती नहीं है
सृष्टि के आरम्भ में थे व्यक्ति दो ही
मध्य उनके रस्म थी ना रीति कोई
जो मिले खा लेते थे दौनों बटोही
फिर उगाया अन्न अपनाई रसोई
रूप जीवन को मिला है ऐसे ही तो
सभ्यताएँ विश्व में यों ही बढ़ी थीं
सब नहीं कुछ गोपियाँ मासूम थीं जो
स्नान के बारे में कुछ अनभिज्ञ सी थीं
शुभ्र, नैतिक सभ्यता के वासते थी
चीर लीला शिष्टता के वासते थी
***
क्यों भला रणछोड़ का तमगा पहनते
क्यों भला निज नाम पर धब्बा लगाते
चाहते यदि कृष्ण तो पीछे न हटते
युद्ध में कसकर कमर फिर कूद जाते
किन्तु करुणाकर ने सोचा जन्म से ही
मैं तो अपने युद्ध को लड़ ही रहा हूँ
और निश्चित रूप से है सत्य यह भी
शत्रु पर इक्कीस भी पड़ ही रहा हूँ
किन्तु मेरे साथ जो इन्सान हैं वे
भी हमेशा दहशतों में जी रहे हैं
हर घड़ी के कष्ट से हलकान हैं वे
घूँट भर भर आँसुओं को पी रहे हैं
सोच यह करुणेश ने करुणा दिखायी
सिन्धु में जा कर नयी दुनिया बसायी
***
कृष्ण जैसा कौन होगा पूर्णकामा
मुँह किसी से भी कभी मोड़ा नहीं है
हाथ जिसका भी दयासागर ने थामा
अन्त तक थामे रखा छोड़ा नहीं है
एक मधुर मुस्कान से जीता जगत को
प्रेम प्रेम और प्रेम ही उसने किया बस
हार कर खुद को भी जीता है भगत को
जो शरण में आ गया अपना लिया बस
ऐसा होगा तो नहीं होगा वो वैसा
है कठिन तुलना करो तो कर दिखाना
मित्रता के मामले में कृष्ण जैसा
मित्र यदि कोई हुआ हो तो बताना
जिस सुदामा के कभी तांदूल खाये
धोने को उसके चरन आँसू बहाये
***
कृष्ण का जीवन समुन्दर की तरह था
वे सतत टकरा रहे थे साहिलों से
उनके जीवन में बहुत कुछ बेवजह था
फिर भी हँसकर लड़ रहे थे मुश्किलों से
लाख बहलाने से भी जब दिल न बहले
क्या दशा हो जाती है सच सच बताना
माधवन पर टिप्पणी करने से पहले
आईने के सामने कुछ पल बिताना
सच तो ये ही है भटक-भटका के मैं भी
थक गया तो मित्र मोहन को बनाया
नैन मूँदे लब सिले तब जा के मैं भी
कृष्ण मिश्री की डली हैं जान पाया
शब्द की सीमाओं को जो जानते हैं
खामुशी को बस वही पहचानते हैं
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें