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रविवार, 9 जुलाई 2023

सुमेरु छंद, छंद इन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा सवैया, दोहा, जान, गुरु, मोहन छंद, साहित्यकारी दोहे

स्नेहिल सलिला सवैया ​​ : १.
द्वि इंद्रवज्रा सवैया
सम वर्ण वृत्त छंद इन्द्रवज्रा (प्रत्येक चरण ११-११ वर्ण, लक्षण "स्यादिन्द्र वज्रा यदि तौ जगौ ग:" = हर चरण में तगण तगण जगण गुरु)
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तगण तगण जगण गुरु गुरु
विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः, प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः।
लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो, सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥
उदाहरण-
०१. माँगो न माँगो भगवान देंगे, चाहो न चाहो भव तार देंगे। होगा वही जो तकदीर में है, तदबीर के भी अनुसार देंगे।। हारो न भागो नित कोशिशें हो, बाधा मिलें जो कर पार लेंगे।
माँगो सहारा मत भाग्य से रे!, नौका न चाहें मँझधार लेंगे।
०२ नाते निभाना मत भूल जाना, वादा किया है करके निभाना।
या तो न ख़्वाबों तुम रोज आना, या यूँ न जाना करके बहाना। तोड़ा भरोसा जुमला बताया, लोगों न कोसो खुद को गिराया।
छोड़ो तुम्हें भी हम आज भूले, यादों न आँसू हमने गिराया।
_ ८.७.२०१९
***
एक मुक्तिका:
महापौराणिक जातीय, सुमेरु छंद
विधान: १९ मात्रिक, यति १०-९, पदांत यगण
*
न जिंदा है; न मुर्दा अधमरी है.
यहाँ जम्हूरियत गिरवी धरी है.
*
चली खोटी; हुई बाज़ार-बाहर
वही मुद्रा हमेशा जो खरी है.
*
किये थे वायदे; जुमला बताते
दलों ने घास सत्ता की चरी है.
*
हरी थी टौरिया; कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है.
*
हवेली गाँव की; हम छोड़ आए.
कुठरिया शहर में, उन्नति करी है.
*
न खाओ सब्जियाँ जो चाहता दिल.
भरा है जहर दिखती भर हरी है.
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है.
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कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।। -सोहन परोहा 'सलिल'
मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव।
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।।
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही।
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
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दोहा सलिला:
जान जान की जान है
*
जान जान की जान है, जान जान की आन.
जहाँ जान में जान है, वहीं राम-रहमान.
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पड़ी जान तब जान में, गई जान जब जान.
यह उसके मन में बसी, वह इसका अरमान.
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निकल गई तब जान ही, रूठ गई जब जान.
सुना-अनसुना कर हुई, जीते जी बेजान.
*
देता रहा अजान यह, फिर भी रहा अजान.
जिसे टेरता; रह रहा, मन को बना मकान.
*
है नीचा किरदार पर, ऊँचा बना मचान.
चढ़ा; खोजने यह उसे, मिला न नाम-निशान.
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गया जान से जान पर, जान देखती माल.
कुरबां जां पर जां; न हो, जब तक यह कंगाल.
*
नहीं जानकी जान की, तनिक करे परवाह.
आन रहे रघुवीर की, रही जानकी चाह.
*
जान वर रही; जान वर, किन्तु न पाई जान.
नहीं जानवर से हुआ, मनु अब तक इंसान.
*
कंकर में शंकर बसे, कण-कण में भगवान.
जो कहता; कर नष्ट वह, बनता भक्त सुजान.
*
जान लुटाकर जान पर, जिन्दा कैसे जान?
खोज न पाया आज तक, इसका हल विज्ञान.
*
जान न लेकर जान ले, जो है वही सुजान.
जान न देकर जान दे, जो वह ही रस-खान.
*
जान उड़ेले तब लिखे, रचना रचना कथ्य.
जान निकाले ले रही, रच ना; यह है तथ्य.
*
कथ्य काव्य की जान है, तन है छंद न भूल.
अलंकार लालित्य है, लय-रस बिन सब धूल.
*
९.७.२०१८

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दोहे साहित्यकारों पर
*
नहीं रमा का, दिलों पर, है रमेश का राज.
दौड़े तेवरी कार पर, पहने ताली ताज.
*
आ दिनेश संग चंद्र जब, छू लेता आकाश.
धूप चांदनी हों भ्रमित, किसको बाँधे पाश.
*
श्री वास्तव में साथ ले, तम हरता आलोक.
पैर जमाकर धरा पर, नभ हाथों पर रोक.
*
चन्द्र कांता खोजता, कांति सूर्य के साथ.
अग्नि होत्री सितारे, करते दो दो हाथ.
*
देख अरुण शर्मा उषा, हुई शर्म से लाल.
आसमान के गाल पर, जैसे लगा गुलाल.
*
खिल बसन्त में मंजरी, देती है पैगाम.
देख आम में खास तू, भला करेंगे राम.
*
जो दे सबको प्रेरणा, उसका जीवन धन्य.
गुप्त रहे या हो प्रगट, है अवदान अनन्य.
*
वही पूर्णिमा निरूपमा,जो दे जग उजियार
चंदा तारे नभ धरा, उस पर हों बलिहार
*
श्वास सुनीता हो सदा, आस रहे शालीन
प्यास पुनीता हो अगर, त्रास न कर दे दीन
*
प्रभा लाल लख उषा की, अनिल रहा है झूम
भोर सुहानी हो गई क्यों बतलाये कौन?
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दोहा सलिला:
*
गुरु न किसी को मानिये, अगर नहीं स्वीकार
आधे मन से गुरु बना, पछताएँ मत यार
*
गुरु पर श्रद्धा-भक्ति बिन, नहीं मिलेगा ज्ञान
निष्ठा रखे अखंड जो, वही शिष्य मतिमान
*
गुरु अभिभावक, प्रिय सखा, गुरु माता-संतान
गुरु शिष्यों का गर्व हर, रखे आत्म-सम्मान
*
गुरु में उसको देख ले, जिसको चाहे शिष्य
गुरु में वह भी बस रहा, जिसको पूजे नित्य
*
गुरु से छल मत कीजिए, बिन गुरु कब उद्धार?
गुरु नौका पतवार भी, गुरु नाविक मझधार
*
गुरु को पल में सौंप दे, शंका भ्रम अभिमान
गुरु से तब ही पा सके, रक्षण स्नेह वितान
*
गुरु गुरुत्व का पुंज हो, गुरु गुरुता पर्याय
गुरु-आशीषें तो खुले, ईश-कृपा-अध्याय
*
तुलसी सदा समीप हो, नागफनी हो दूर
इससे मंगल कष्ट दे, वह सबको भरपूर
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९-७-२०१७
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हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
९-७-२०१६
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