ॐ
श्रीमद्भग्वद्गीता
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छोटा मन रखकर कभी, बड़े न होते आप।
औरों के पैरों कभी, खड़े न होते आप।।
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भीष्म भरम जड़ यथावत, ठुकराएँ बदलाव।
अहंकार से ग्रस्त हो, खाते-देते घाव।।
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अर्जुन संशय पूछता प्रश्न, न करता कर्म।
मोह और आसक्ति को समझ रहा निज धर्म।।
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पल-पल परिवर्तन सतत, है जीवन का मूल।
कंकर हो शंकर कभी, और कभी हो धूल।।
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उहापोह में भटकता, भूल रहा निज कर्म।
चिंतन कर परिणाम का, करता भटक विकर्म।।
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नहीं करूँगा युद्ध मैं, कहता धरकर शस्त्र।
सम्मुख योद्धा हैं अगिन, लिए हाथ में अस्त्र।।
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जो जन्मा वह मरेगा, उगा सूर्य हो अस्त।
कब होते विद्वानजन, सोच-सोचकर त्रस्त।।
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मिलीं इन्द्रियाँ इसलिए, कर उनसे तू कर्म।
फल क्या होगा इन्द्रियाँ, सोच न करतीं धर्म।।
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चम्मच में हो भात या, हलवा परसें आप।
शोक-हर्ष सकता नहीं, है चम्मच में व्याप।।
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मीठे या कटु बोल हों, माने कान समान।
शोक-हर्ष करता नहीं, मन मत बन नादान।।
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जीवन की निधि कर्म है, करते रहना धर्म।
फल का चिन्तन व्यर्थ है, तज दो मान विकर्म।।
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सांख्य शास्त्र सिद्धांत का, ज्ञान-कर्म का मेल।
योगी दोनों साधते, जग-जीवन हो खेल।।
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सम्यक समझ नहीं अगर, तब ग्रस लेता मोह
बुद्धि भ्रमित होती तभी, तन करता विद्रोह।।
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मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
संशय कर देता भ्रमित, फल चिंता तज मीत।।
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केवल देह न सत्य है, तन में मन भी साथ।
तन-मन भूषण आत्म के, मूल एक परमात्म।।
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आत्मा लेती जन्म जब, तब तन हो आधार।
वस्त्र सरीखी बदलती, तन खुद बिन आकार।।
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सांख्य ज्ञान सँग कर्म का, सम्मिश्रण है मीत।
मन प्रवृत्ति कर विवेचन, सहज निभाए रीत।।
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तर्क कुतर्क न बन सके, रखिए इसका ध्यान।
सांख्य कहे भ्रम दूर कर, कर्म करे इंसान।।
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देखें अपने दोष खुद, कहें न करिए शर्म।
दोष दूर कर कर्म कर, वरिए अपना धर्म।।
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कर सकते; करते नहीं, जो होते बदनाम।
कर सकते जो कीजिए, तभी मिले यश-मान।।
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होनी होती है अटल, होगी मत कर सोच।
क्या कब कैसे सोचकर, रखो न किंचित लोच।।
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दो पक्षों के बीच में, जा संशय मत पाल।
बढ़ता रह निज राह पर, कर्म योग मत टाल।।
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हानि-लाभ हैं एक से, यश-अपयश सम मान।
सोच न फल कर कर्म निज, पाप न इसको जान।।
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ज्ञान योग के साथ कर, कर्म योग का मेल।
अपना धर्म न भूल तू, घटनाक्रम है खेल।।
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हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।
करता चल निज कर्म तू, उठा-झुका कर माथ।।
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तज कर फल आसक्ति तू, करते जा निज कर्म।
बंधन बने न कर्म तब, कर्म योग ही धर्म।।
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१०-५-२०२१
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