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रविवार, 16 मई 2021

मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

छंद परिचय:
मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -
- संजीव 'सलिल'
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मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है। 
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है। ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है। चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो। इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें।स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं।
इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं। इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं। घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति होती है। घनाक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो। घनाक्षरी पाठक / श्रोता के मन पर प्रहार सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है।
घनाक्षरी की चारों पंक्तियाँ या तो गुरु से आरंभ होती हैं या लघु से। एक पंक्ति गुरु से दूसरी लघु से या एक लघु से दूसरी गुरु से आरंभ हो तो इसे भी दोष कहा जाता है। 
घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है। ८-८-८-७ की बंदिश कई बार शब्द संयोजन को कठिन बना देती है। किसी भाव विशेष को अभिव्यक्त करने में कठिनाई होने पर कवि १६-१५ की बंदिश अपनाते रहे हैं। इसमें आधुनिक और प्राचीन जैसा कुछ नहीं है। यह कवि के चयन पर निर्भर है। १६-१५ करने पर ८ अक्षरी चरणांश की ३ आवृत्तियाँ नहीं हो पातीं।
मेरे मत में इस विषय पर भ्रम या किसी एक को चुनने जैसी कोई स्थिति नहीं है। कवि शिल्पगत शुद्धता को प्राथमिकता देना चाहेगा तो शब्द-चयन की सीमा में भाव की अभिव्यक्ति करनी होगी जो समय और श्रम-साध्य है। कवि अपने भावों को प्रधानता देना चाहे और उसे ८-८-८-७ की शब्द सीमा में न कर सके तो वह १६-१५ की छूट लेता है।
सोचने का बिंदु यह है कि यदि १६-१५ में भी भाव अभिव्यक्ति में बाधा हो तो क्या हर पंक्ति में १६ + १५=३१ अक्षर होने और १६ के बाद यति (विराम) न होने पर भी उसे घनाक्षरी कहें? यदि हाँ तो फिर छन्द में बंदिश का अर्थ ही कुछ नहीं होगा। फिर छन्दबद्ध और छन्दमुक्त रचना में क्या अंतर शेष रहेगा। यदि नहीं तो फिर ८-८-८ की त्रिपदी में छूट क्यों?
उदाहरण हर तरह के अनेकों हैं। उदाहरण देने से समस्या नहीं सुलझेगी। हमें नियम को वरीयता देनी चाहिए। पाठक और कवि दोनों रचनाओं को पढ़कर समझ सकते हैं कि बहुधा कवि भाव को प्रमुख मानते हुए और शिल्प को गौड़ मानते हुए या आलस्य या शब्दाभाव या नियम की जानकारी के अभाव में त्रुटिपूर्ण रचना प्रचलित कर देता है जिसे थोड़ा सा प्रयास करने पर सही शिल्प में ढाला जा सकता है।
अतः, मनहरण घनाक्षरी छंद का शुद्ध रूप तो ८-८-८-७ ही है। ८+८, ८+७ अर्थात १६-१५, या ३१-३१-३१-३१ को शिल्पगत त्रुटियुक्त घनाक्षरीवत छंद ही माना जा सकता है। नियम तो नियम होते हैं। नियम-भंग महाकवि करे या नवोदित कवि, दोष ही कहलायेगा। किन्हीं महाकवियों के या बहुत लोकप्रिय या बहुत अधिक संख्या में उदाहरण देकर गलत को सही नहीं कहा जा सकता। शेष रचना कर्म में नियम न मानने पर कोई दंड तो होता नहीं है सो हर रचनाकार अपना निर्णय लेने में स्वतंत्र है।
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घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए।
आखिर में चरण के, लघु-गुरु रखकर, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
'एक बार और' कहें, करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण, सुनिए-हरषिए।।
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वर्षा-वर्णन :
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर, जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है।
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर, पुलक-पुलककर, मोर नरतित है।।
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर, कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है।
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे, दादुर 'सलिल' संग, स्वागतरत है।।
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भारत गान :
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम, नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे।
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर, माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे।।
सुंदर है स्वर्ग से भी, पावन है, भावन है, शत्रुओं को घेर घाट, मौत के उतारेंगे।
कंकर भी शंकर है, दिक्-नभ अम्बर है, सागर-'सलिल' पग, नित्य ही पखारेंगे।।
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हास्य घनाक्षरी
सत्ता जो मिली है तो, जनता को लूट खाओ, मोह होता है बहुत, घूस मिले धन का।
नातों को भुनाओ सदा, वादों को भुलाओ सदा, चाल चल लूट लेना, धन जन-जन का।।
घूरना लगे है भला, लुगाई गरीब की को, फागुन लगे है भला, साली-समधन का।
साकी रात-रानी भली, विजया भवानी भली, चौर्य कर्म भी भला है, नयन-अंजन का।।
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