ॐ
कविता : सानी नहीं
हे सर्वश्रेष्ठ नायक!
हे सर्वोत्तम नेता!!
आपका सानी नहीं।
हे महाबली!
हे महामति!
आप जैसी बुद्धिमानी नहीं।
आपने सभी को कर दिया परास्त
गैर तो गैर
अपने भी हैं निराश और हताश।
आपसे कभी-कहीं नहीं होती
भूलकर भी भूल।
आपकी कृपा से रातों रात
शूल भी हो जाते हैं फूल।
आपकी रजा से एक ही पल में
फूल हो जाते हैं धूल।
जो आपकी जय-जयकार न करे
उसे देश में रहने का
नहीं कोई अधिकार।
उसे कलंकित कर
कह दिया जाए गद्दार।
हे महामहिमाशाली!
आपको चाहिए विपक्ष मुक्त देश,
जहाँ चारण-भाट हों अशेष।
वही पुरस्कृत हो
जो प्रशस्ति-गान रचे विशेष।
आपको नहीं दिखना चाहिए विरोध
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
कहीं न हो अवरोध।
निर्वंश हो खेती,
खेत और किसान।
बेच दिए जाएँ
सब संसाधन, संपदा और इंसान।
चंद पूँजीपति हों देश के मालिक
आम आदमी से
छीनकर रोजी-रोटी
बना दिया जाए लाचार गुलाम।
चंद किलो अनाज लेकर
मतदाता बिक जाए बेदाम।
हे महाप्रभु!
येन केन प्रकारेण
चुनाव जीतना ही है पुरुषार्थ।
न जीत सकें तो,
जीते हुओं का क्रय-विक्रय कर
सरकार बना लेना है परमार्थ।
हे धर्म ध्वजाधारी!
अंधभक्तों की पालकर भीड़,
स्वतंत्र निकायों को
अनुगामी बना लेना,
झूठ को सच और
सच को झूठ
प्रचारित कर देना,
अपनी सुविधानुसार
वादा कर भुलाना,
अपनी गलतियों के लिए
औरों को जिम्मेदार ठहराना,
अचूक अस्त्र हैं।
जिनकी अंगुली पकड़कर चलना सीखा
उन्हें किनारे बैठाकर
चरणस्पर्श का दिखावा
घातक शस्त्र है।
हे सत्तानीति के महामण्डलेश्वर!
तुम्हारा कोई सानी नहीं।
हे दलनीति के धुरंधराचार्य!
तुम जैसा अभिमानी नहीं।
निस्संदेह तुम छलनीति विशारद हो,
पर यह भी सत्य कि तुम
जनाकांक्षाओं के मारक और
पूँजीपतियों के तारक हो।
संकुचित स्वार्थवाद के प्रणेता!
लोकतंत्र को लोभतंत्र में
बदलने के लिए वंदन।
गणतंत्र को जाँच एजेंसियों का
गनतंत्र बना देने के लिए अभिनंदन।
विपक्षी नेताओं का
चरित्र हनन करने के लिए चंदन।
अनसुना-अनदेखा करते रहो
जनगण का क्रंदन।
अपने श्रीमुख से अपना ही
करते रहो महिमामंडन।
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