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रविवार, 10 मई 2020

मुक्तिका

मुक्तिका
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कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
दहकते शोले वतन के वास्ते जल, बुझ न जाएँ.
खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो अब.
लहकती चिंगारियों को फूँक दो वे बुझ न जाएँ.
प्यार की, मनुहार की,इकरार की,अभिसार की
ले मशालें फूँक दो वहशत, कहीं फिर बुझ न जाएँ.
ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा हम निकालें
लपट से ऊँची लपट करना 'सलिल' युग कीर्ति गाएँ.
सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ
१०-५-२०१०
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