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शनिवार, 5 नवंबर 2016

samiksha

पुस्तक सलिला –
‘मुक्ति और अन्य कहानियाँ’ सामाजिक जुड़ाव की विरासत 

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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[पुस्तक विवरण – मुक्ति और अन्य कहानियाँ, राजेंद्र वर्मा, कहानी संग्रह, प्रथम संस्करण २०१४, ISBN ९७८-८१-७७७९-४६२-५, आकार २१ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १५२, मूल्य १००/-, साहित्य भंडार प्रकाशन, ५० चाहचन्द, जीरो रोड इलाहबाद २११००३, दूरभाष ०५३२२४००७८७, २४०२०७२, कहानीकार सम्पर्क ३/२९ विकास नगर, लखनऊ २२६०२२, चलभाष ८००९६६००९६rajendrapverma]

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               शहरे-लखनऊ की तासीर में नजाकत-नफासत और बगावत इन्द्रधनुष के रंगों की तरह घुली हुई है. अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा और यशपाल जैसे कालजयी रचनाकारों की धरती पर चलनेवाली कलमें सामाजिकता की विरासत को हर विधा में रोपती रहें यह स्वाभाविक है. अपनी तरुणाई में नागर जी के सीधे संपर्क में आये भाई राजेंद्र वर्मा को नागर जी की अमर रचना ‘नाच्यों बहुत गुपाल’ सुनकर उसकी पांडुलिपि का लेखन करने का सौभाग्य मिला. ‘कम लिखो, अच्छा लिखो, जो लिखो सच्चा लिखो’ के पक्षधर राजेन्द्र, प्रेमचंद और उक्त त्रिमूर्ति के कथा साहित्य को पढ़कर ‘कहानी’ के आशिक बने लेकिन गत ३४ साल में १७ कहानियाँ लिखने का पराक्रम कर संतुष्ट इसलिए हैं कि व्यंग्य लेख, नवगीत, कवितायेँ, हाइकु आदि अनेक विधाओं में जी भरकर लिखा, छपे और चर्चित हुए. अविरल मंथन के संपादक के रूप में इन विधाओं के सारगर्भित विशेषांक निकालने की प्रक्रिया ने उन्हें बहुविधाविद बना दिया. सीखना-सिखाना उनका शौक ही नहीं व्यसन भी है. समाज के शोषित-दलित वर्ग के दर्द को समझने-कहने को लेखन का ध्येय और धर्म माननेवाली जिजीविषा के लिए कलम शस्त्र और शास्त्र दोनों होती है.
               ‘मुक्ति’ कहानी में गाँव-गाँव, गली-गली, घर-घर और व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँच चुके जहरीली राजनीति के दंश से नष्ट होते संबंधों का जीवंत शब्दांकन है. ‘कल्पवास’ में बैंक में नौकरी की आस में जिस-तिसकी बेदाम गुलामी करते हंसा की व्यथा-कथा मर्मस्पर्शी है. ‘नौकरी चीज ही ऐसी होती है, शुरु में स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने पर कष्ट होता है लेकिन कष्ट के बदले जब हर महीने बँधी-बँधाई रकम मिलने लगती है तो स्वाभिमान को तिल-तिल मारना तथा दूसरों का शोषण करना जीवन का अभीष्ट बना जाता है. कैसी विडंबना है- लक्ष्मी ही हमसे मनुष्यता छिनती है, फिर भी हम लक्ष्मी की कृपा पाने को क्या-क्या नहीं करते?’ इस सत्य को हर नौकरीपेश व्यक्ति जब-तब जीता ही है.’ 
               अभिभावक अपने अधूरे सपने अपनी संतान द्वारा पूरे किये जाते देखना चाहें यह तो ठीक है किन्तु इन सपनों का बोझ उठाने में अशक्त हुए कंधे टूट ही न जाएँ इसका ध्यान रखा जाना आवश्यक है, अन्यथा त्रासदी होते देर नहीं लगती. ‘सॉरी पापा’ कहानी इसी पर केन्द्रित है. कांस्टेबल रंजीत अपने बेटे अमित को कस्बे से शहर, हिंदी माध्यम से अंग्रेजी माध्यम में भेजता है जहाँ अमित कभी उपहास, कभी गलत संगत, कभी बीमारी का शिकार होता है. माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने पर अंतत: आत्महत्या कर लेता है. 
               कहानी ‘क्षमा’ शहरीकरण के दबाव में दम तोड़ते पारिवारिक रिश्तों पर केन्द्रित है. नायक सुरेन्द्र और उसका छोटा भाई भिन्न शिक्षा, रूचि और नौकरी के चलते अपने और परिवारों के बीच समन्वय नहीं बैठा पाते, फलत: उनके पति-बच्चे और माता-पिता भी बिखरकर रह जाते हैं. ’पूत’ कहानी का शनिचरा जन्म के पूर्व पिता और जन्म के समय माँ को खो चुकता है. गाँव की स्त्रियाँ उसे पाल-पोस बड़ा करती है. अपने आश्रयदाता के पुत्र सजीवन को कुसंगति से बचाने के प्रयास में शनिचरा मारा जाता है. ग्रामीण समाज के पारंपरिक मूल्यों पर आधारित यह कहानी आँखें गीली करने की सामर्थ्य रखती है. 
               ‘दंश’ एक युवा विधवा करीमन को शराफत का दिखावा करते हबीब मियाँ द्वारा छले जाने और अपने बेटे के लिए लौटकर जीवन संघर्ष करने की कहानी है. विडम्बना यह कि वह अपने बच्चे के सवालों का जवाब भी नहीं दे पाती. ‘काँटा’ कहानी में अपने मामा के आश्रय में पलती अनाथ नासमझ रनिया मामा के भाई और अन्यों की हवस का शिकार हो जाती है. विवाह किये जाने पर ३ माह के गर्भ का पता लगते ही ससुराल से निकाल दी जाती है. प्रसव पश्चात् बच्चे के न रहने पर पुन: पति के पास लौटती है. ‘बेबसी’ साम्प्रदायिकता पर केन्द्रित कहानी है. साम्प्रदायिकता और राजनीति के अंतर्संबंध को कहानीकार ने बेलाग तरीके से उद्घाटित किया है. ‘रौशनीवाला’ दो बाल मित्रों की कहानी है. होशियार कन्हैया दूसरा औसत. कमजोर अजय की मदद करता है. समय का फेर कन्हैया जिस बरात में रौशनी उठाता है वह संपन्न व्यापारी हो चुके अजय की है. मित्र से मिले या न मिले की उहापोह में फंसा कन्हैया बारातियों द्वारा धकिया कर निकल दिया जाता है. सवेरे अपनी पत्नी को मायके भेजकर लौटते समय कन्हैया की साइकिल से एक कार टकरा जाती है. ड्राइवर से गुत्थमगुत्था कन्हैया को पहचान अजय उसे अपनी पत्नी से मिलवाता है. सच्ची मित्रता अमीरी-गरीबी से परे होती है का संदेश देती है यह कहानी. 
               विधुर पिता के सेवानिवृत्त होने पर उसके जमाधन और पेंशन पर नजर गड़ाए पुत्रों-पुत्रवधुओं को समेटे है कहानी ‘नवारम्भ’. संपन्न बेटे-बहू धन लेकर वापिस करने की नियत नहीं रखते. अपनी उपेक्षा से खिन्न वृद्ध पिता मकान पर ऋण लेकर वृद्धाश्रम चले जाते हैं और अपने मित्र के साथ मिलकर अपनी साहित्यिक रूचि के अनुकूल पत्रिका प्रकशन और पुस्तक लेखन में व्यस्त हो जाते हैं. मकान पर कर्ज़ का पता चलने पर बीटा-बहु उभें ले जाने आते हैं पर पिता अपने कार्य में निमग्न मुस्कुराते हैं. यह कहानी स्वार्थी संतानों पर तीखा व्यंग्य है. सूरज उगता है शहरी चमक-दमक में निहित भ्रष्टाचार और ग्रामीण जीवन की सरलता के परिप्रेक्ष्य में संदेश देती है कि गाँव के शिक्षित नवयुवक शासकीय योजनाओं का लाभ लेकर ग्रामोन्नयन करें. ‘मोहनदास’ अपना समस्त धन विद्यालय निर्माण में लगा देते हैं. उनके अनुसार जिसे खुद पर विश्वास नहीं होता वही देवी-देवताओं का आश्रय गहता है. कर्मवाद का संदेश देती है यह कहानी. ‘श्रद्धांजलि’ कहानी संबंधों के पीछे छिपी धन लोलुपता की प्रवृत्ति पर प्रहार करती है. 
               संस्मरणात्मक व्यंग्यकथा ‘राम नगरिया’ में राजेन्द्र जी का व्यंग्यकार यत्र-तत्र मीठी चुटकियाँ लेता है. ‘कल्पवास के अलग-अलग कारण हैं. पापी लोग पाप धोने के लिए कल्पवास करते हैं तो कामी लोग अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए. गंगा मैया हर डुबकी लगनेवाले का काम करती हैं.पापियों के पाप धो देती हैं और उनका लोक-परलोक सुधारकर स्वर्ग में रिजर्वेशन करा देती हैं. बच्चे न होनेवाली महिलाओं के बच्चे होना शुरू हो जाते हैं. नौकरी न मिलनेवाले बेटे का पिता जब कल्पवास करता है तो सरकार तुरंत ही एक नौकरी की व्यवस्था कर देती है, रुके हुए विवाह फटाफट तय हो जाते हैं, धेज्लोभु श्वसुर बाहें जलाने के बावजूद जेल जाने से बच जाते हैं...’ 
               राजेन्द्र जी का व्यंग्यकार ‘सीनियर सिटिजन कवि’ में और उभर कर सामने आता है.वे भ्रष्टाचार पर प्रहार कर साहित्यिक जगत में हो रहे कदाचार पर चुटकियाँ लेते है- ‘इंटरनेट के ज़माने में कविता हर किसी की लुगाई है. गद्य-कविता ने जब से अँगड़ाई ली है, प्रत्येक हिंदी साहित्य का प्रत्येक स्नातक उसका आशिक हो गया. परास्नातक तो विशेषज्ञ है. पी.एच-डी.वाला कवि-अलिच्क दोनों है. स्नातक की बेरोजगारी जब पहली वर्ष्गांठ मानती है तो किसी-न-किसी कविता का जन्म अवश्य होता है.’ 
               ‘मोनालिसा की मुस्कान’ में राजेंद्र जी ने संपादक-काल के मजेदार अनुभवों को इस्तेमाल किया है. जगह-जगह उनका प्रखर व्यंग्यकार मुखर हो उठता है. ‘...जल्दी ही सीख मिली कि हिंदी का बड़ा साहित्यकार बनने के लिए अंग्रेजी के कम से कम दो अखबार पढ़ना जरूरी है...’, ‘मुझे एक बात बहुत परेशान कर रही थी कि इतना बड़ा साहित्यकार जो बाल-शोषण और नारी-शोषण के विरुद्ध प्रगतिशील साहित्य लिख रहा है वह भला बाल-नौकर क्यों रखेगा? मैं उनके बाल-नौकर रखने पर मन-ही-मन नाराजगी जता ही रहा था कि शीघ्र ही मेरी धारणा टूटी. उनहोंने स्वयं ही बताया कि यह लड़का उनका भतीजा है. एक एक्सीडेंट में अनाथ हो गया है...’, ‘गद्य कविता मुझे बोर करती है और खास तौर पर वह जो अमिधा में लिखी गयी हो. कारण वह सीधे-सीधे समझ में आ जाती है और कवि की कलई खोल देती है, पाठकको तत्काल निराश कर देती है, हाँ, उसमें बिम्बों की जटिलता, प्रतीकों की असाध्यता अथवा अर्थ की दुरूहता हो तो सर खपाने में ‘टाइम-पास’ हो जाता है. अर्थ खोलने के लिए कविता को आलोचक की दरकार होती है. अब चाहे अर्थ खुलना हो या अनर्थ, क्या हर कविता को आलोचक मिल सकता है? अगर मिल ही जाए, तो क्या पाठक कविता को समझने के लिए तब तक इंतजार करे जब तक कि आलोचक महोदय की मेहरबानी न हो जाए.’ ऐसे सवाल उठाना और पाठक को सोचने-समझने के लिए प्रेरित करना राजेंद्र जी की कहानी-कला का वैशिष्ट्य है. इससे उनकी कहानी पाठक के मस्तिष्क में पढ़ने के बाद भी लंबे समय तक उपस्थित रहती है. 
               संग्रह की अंतिम कहानी’ लक्ष्मी से अनबन’ में उनकी सोच विचित्र किन्तु सत्य न होकर सत्य किन्तु शोचनीय है. ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे... जहाँ लक्ष्मी की पूजा होगी वहाँ भ्रष्टाचार अपने आप पूज जायेगा, आप पूजें या न पूजें.’ 
‘नए नए प्रयोगों के कारण आज कहानी का जो शिल्प विकसित हुआ है, वह विविधवर्णी है. प्रत्येक वर्ण का अपना आकर्षण है. वह चाहे नैरेटिव (वर्णनात्मक)हो, डायरी, पत्र या संवाद शैली में हो– उसमें अलग प्रकार की कला की प्रतिष्ठा हुई है.” राजेंद्र जी यह कहते ही नहीं हैं अपितु अपनी हर कहानी में शैल्पिक नवता को अपनाते भी हैं. 
               कहानीकार की वैचारिक प्रतिबद्धता कहानियों में व्यक्त होना स्वाभाविक है.धर्मिक-पाखंड पर प्रहार करते हुए वे ठीक ही कहते हैं- “इस पूजा से क्या होंगा? यह तो सारी दुनिया करती है. तो क्या लक्ष्मी सारी दुनिया को धनवान बना दें?” अपंगों के प्रति उपहास और तिरस्कार की सामाजिक प्रवृत्ति पर ‘मुक्ति’ कहानी में सार्थक और सटीक तंज किया गया है. राजेंद्र जी का कहानी लेखन न तो सतही है, न वे भावनाओं को उभाड़ते हैं. वे पत्रों के चरित्र चित्रण और घटनाओं के क्रम को श्रंखलाबद्ध कर पाठक की सोच वहाँ ले जा पाते हैं, जहाँ चाहते हैं. इस प्रक्रिया के कारन पाठक को कहानी अन्य द्वारा थोपी हुई नहीं, स्वयं के अंतर्मन से निसृत प्रतीत होती है. राजेंद्र जी कहानी नहीं कहते, वे समाज में व्याप्त विसगतियों के नासूर की शाब्दिक शल्यक्रिया के लिए कहानी को औजार बनाते हैं. कथ्य को आरोपित न कर, कथानक के अन्दर से उभरने देना, सहज बोधगम्य भाषा शैली, शब्दों का सम्यक चयन, यत्र-तत्र तत्सम-तद्भव शब्दोब, मुहावरोंयुक्त अभिव्यक्ति, लोकोक्तियों, जन-मान्यताओं का प्रयोग, सिमित किन्तु सार्थक संवाद उनकी कहानी कला का वैशिष्ट्य है. सारत:, विवेच्य संग्रह की कहानियाँ पाठक को अगले संग्रह को प्रतीक्षा हेतु प्रेरित करने के साथ अगली सत्रह कहानियों के लिए चौंतीस वर्ष प्रतीक्षा न कराने का दायित्व भी कहानीकार पर डाल देती है. 
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com
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