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शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

दोहा सलिला: एक हुए दोहा यमक - संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
एक हुए दोहा यमक-
संजीव 'सलिल'
*
दाना दाना चाहता, सिर्फ जरूरत-योग्य.
नादां दाना चाहता, प्रचुर नहीं जो भोग्य..
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दाने-दाने पर लिखा, जबसे उसने नाम.
खाए या फेरे 'सलिल', सोचे उमर तमाम..
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खोटे खोटे या नहीं. कहें देखकर कृत्य.
खरे खरे हैं या नहीं, कहे सुकृत्य-कुकृत्य..
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देखा सु-नार सुनार को, अलंकार के संग.
उतर गया पतिदेव के, चेहरे का क्यों रंग??
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जब साँसों का तार था, तब न बजाय साज.
गया गया वह तार दे, निज पुरखों को आज.
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मुश्किल में हूँ दैव मैं, आकर तनिक निवार.
खटमल काटें रातभर, फिर जा छिपें निवार..
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बिना नाव-पतवार के, कैसे उतरूँ पार?
उन्मत नारी सी नदी, देती कष्ट अपार..
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खुदा नहीं खोदा गढ़ा, और गिर गये आप.
खुदा-खुदा का कर रहे, अब क्यों नाहक जाप..
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बिन पेंदी लोटा 'सलिल', लोटा करता खूब.
तनिक गया मँझधार में, जाता पल में डूब..
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कर वट पूजन हैं बसे, उसमें देव अनंत.
करवट लें पाकर सघन, छाँव देव नर संत..
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झटपट-चटपट पट उठा, देख चित्र-पट खेल.
चित-पट पट-चित को 'सलिल', हँस-मुस्काकर झेल..
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