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शनिवार, 22 जनवरी 2011

स्वरांजलि कमल, काव्यानुवाद : राकेश खंडेलवाल

सृजन-शक्ति को नमन है:

स्वरांजलि
कमल  
(श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार माननीय कमल जी द्वारा रचित इस सरस्वती वंदना का सिद्धहस्त कवि माननीय राकेश खंडेलवाल जी ने उत्तम काव्यानुवाद किया है. दोनों मूर्धन्यों की सृजन-शक्ति को नमन करते हुए इसे ई-कविता से सादर उद्धृत किया जा रहा  है. - सं.)
 
 आदिशक्ति  जगदम्बिके !
इस अकिंचन पर निरंतर
वरद-हस्त बना रहे !

भव-बंधनों में आसक्ति
सम्मान, सम्पति, समृद्धि,
पद, प्रतिष्ठा-वृद्धि
दे न पाईं तृप्ति

छाये तमस घन
घिरीं शंकाएँ भ्रम
 दुराभिसंधियाँ
आहत मन
उद्वेलित अन्तःकरण
देवि !
तुम स्वयं
अन्तःवासिनि,
प्रेरक छवियों में
अन्तर्चक्षु समक्ष
अनवरत  प्रत्यक्ष 

शान्ति की संन्यास की वय
मिल रहे अवसाद, भय
हो रही ममता पराजित
दोष मेरे ही किन्ही अपकर्म का
विहित, अविहित
शेष विकल्प प्रायश्चित्त
दत्तचित्त !


चिर-विदग्ध उर में

करुणामयि  तुमने
भर दिया स्नेह-पारावार
मेरा स्वर्ग !
पा गया मैं सहज ही
अमरत्व का स्पर्श

साधना में चिर-निरत
मन-प्राण-प्रांगण में स्वगत
अब ज्ञान की सुरसरि बहे
वांग्मय छवि को तुम्हारी
उतारूं मैं सतत तन्मय
तूलिका कर में गहे  !
देवि ! अंतिम साँस तक
बन रहूँ मैं सृजन-रत
वरद-हस्त बना रहे 
        वरद-हस्त बना रहे !


काव्यानुवाद : राकेश खंडेलवाल 

आदिशक्ति हे माँ जगदम्बे, नमन करो स्वीकार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
दे न सकी है शांति तनिक भी भौतिक सुख आसक्ति
नित्य मिले सम्मान प्रतिष्ठा असफ़ल देवें  तृप्ति
घिरें गहन  अंधियारे मन पर आ छायें शंकायें
अन्तर्मन  में  सिर्फ़  तुम्हारी बसी रहीं आभायें
इस वय पथ पर करो स्नेह का प्राणों में संचार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
चाहना है तोड़ बन्धन आज मैं सन्यास ले लूँ
दोष अपने जो खड़े आ सामने खुद में समो लूँ
आज प्रायश्चित करूँ उनका जनित जो दंश मेरे
पाऊँ अवलम्बन तुम्हारा,दूर कर मन के अँधेरे
चिर हो रहे भरा जो तुमने उर स्नेह अपार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
साधना में हो निरत अब ज्ञान की दीपक जलाऊँ
हाथ में ले तूलिका बस छवि तुम्हारी ही बनाऊँ
श्वास के आरोह के अवरोह के अंतिम स्वरों तक
मैं सृजन करता रहूँ,हूँ माँगता यह एक वर बस
बस जाये धड़कन में आकर वीणा की झंकार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
आभार : ई कविता. 
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