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शनिवार, 16 जुलाई 2022

भोर, दोहे,बाल गीत,भाषा गीत,हास्य,छंद मालिनी,जनक छंद

दोहा सलिला
सर्वोदय को भूलकर, करें दलोदय लोग.
निज हित साधन ही हुआ, लक्ष्य यही है रोग
*
सलिल धार दर्पण सदृश, दिखता अपना रूप।
रंक रंक को देखता, भूप देखता भूप।।
*
स्नेह मिल रहा स्नेह को, अंतर अंतर पाल।
अंतर्मन में हो दुखी, करता व्यर्थ बवाल।।
*
अंतर अंतर मिटाकर, जब होता है एक।
अंतर्मन होत सुखी, जगता तभी विवेक।।
*
गुरु से गुर ले जान जो, वह पाता निज राह।
कर कुतर्क जो चाहता, उसे न मिलती थाह।।
*
भाषा सलिला-नीर सम, सतत बदलती रूप।
जड़ होकर मृतप्राय हो, जैसे निर्जल कूप।।
*
हिंदी गंगा में मिलीं, नदियाँ अगिन न रोक।
मर जाएगी यह समझ, पछतायेगा लोक।।
*
शब्द संपदा बपौती, नहीं किसी की जान।
जिनको अपना समझते, शब्द अन्य के मान।।
*
'आलू' फारस ने दिया, अरबी शब्द 'मकान'।
'मामा' भी है विदेशी, परदेसी है 'जान'।।
*
छाँट-बीन करिये अलग, अगर आपकी चाह।
मत औरों को रोकिए, जाएँ अपनी राह।।
*
दोहा तब जीवंत हो, कह पाए जब बात।
शब्द विदेशी 'इंडिया', ढोते तजें न तात।।
*
'मोबाइल' को भूलिए, कम्प्यूटर' से बैर।
पिछड़ जायेगा देश यह, नहीं रहेंगे खैर।।
*
'बाप, चचा' मत वापरें, कहिये नहीं 'जमीन'।
दोहा के हम प्राण ही, क्यों चाहें लें छीन।।
*
'कागज-कलम' न देश के, 'खीर-जलेबी' भूल।
'चश्मा' लगा न 'आँख' पर, बोल न 'काँटा' शूल।।
*
चरण तीसरे में अगर, लघु-गुरु है अनिवार्य।
'श्वान विडाल उदर' लिखें, कैसे कहिये आर्य?
*
है 'विडाल' ब्यालीस लघु, गुरु-लघु दो से अंत।
चरण तीन दो गुरु कहाँ, पाएँ कहिए संत?
*
'श्वान' चवालिस लघु लिए, दो गुरु इसमें मीत!
चरण तीसरा बिना गुरु, यह दोहे की रीत।।
*
'उदर' एक गुरु मात्र ले, रचते दोहा खूब।
नहीं अंत में गुरु-लघु, तजें न कह 'मर डूब'।।
*
'सर्प' लिख रहे गुरु बिना, कहिए क्या आधार?
क्यों कहते दोहा इसे, बतलायें सरकार??
*
हिंदी जगवाणी बने अगर चाहते बंधु।
हर भाषा के शब्द ले, इसे बना दें सिंधु।।
*
खाल बाल की खींचकर, बदमजगी उत्पन्न।
करें न; भाषा को नहीं, करिये मित्र विपन्न।।
*
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
***
कार्य शाला
मालिनी छंद
*
विधान
गणसूत्र : न न म य य
पदभार : १११ १११ २२२ १२२ १२२
*
अमल विमल गंगा ही हमेशा रहेगी
'मलिन न कर' पूछो तो हमेशा कहेगी
जननि कह रहा इंसां रखे साफ़ भी तो -
मलिन सलिल हो तो प्यास से भी दहेगी
*
नित प्रति कुछ सीखो, पाठ भूलो नहीं रे!
रच नव कविताएँ, जाँच भी लो कभी रे!
यह मत समझो सीखा नहीं भूलते हैं-
फिर-फिर पढ़ना होता, नहीं भूलना रे!
*
प्रमुदित जब होते, तो नहीं धैर्य खोते।
नित श्रम कर पाते, तो नहीं आज रोते।
हमदम यदि पाते, हो सुखी खूब सोते।
खुद रचकर गाते, छंद आनंद बोते।
*
नयन नयन में डूबे रहे आज सैंया।
लगन-अगन ऐसी है नहीं लाज सैंया।
अमन न मन में तेरा यहाँ राज सैंया।
ह्रदय ह्रदय से मिला बना काज सैंया।
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
विश्व वाणी हिंदी संस्थान जबलपुर
****
सुन -सुन मितवा रे,चाँदनी रात आई।
मधुर धुन बजा लें,रागिनी राग लाई।
दमक- दमक देखो,दामिनी गीत गाई
नत -नत पलकों से कामिनी भी लजाई। -सरस्वती कुमारी
*
छमछम कर देखो,सावनी बूँद आती।
विहँसकर हवा में,डोलती डाल पाती।
पुलक-पुलक कैसे,नाचती है धरा भी।
मृदु प्रणय कथा को ,बाँचती है धरा भी। -सरस्वती कुमारी
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
*
अतुलित बल धामं, स्वर्णशैलाभदेहं
दनुज वन कृशाणं ज्ञानिनामग्रगण्यं
सकल गुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपति प्रिय भक्तं वातजातं नमामी -तुलसी
*
***
बाल गीत:
धानू बिटिया
*
धानू बिटिया रानी है।
सच्ची बहुत सयानी है।।
यह हरदम मुस्काती है।
खुशियाँ खूब लुटाती है।।
है परियों की शहजादी।
तनिक न करती बर्बादी।।
आँखों में अनगिन सपने।
इसने पाले हैं अपने।।
पढ़-लिख कभी न हारेगी।
हर दुश्मन को मारेगी।।
हर बाधा कर लेगी पार।
होगी इसकी जय-जयकार।।
**
***
भारत का भाषा गीत
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
​'सलिल' पचेली, सिंधी व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

***
हास्य रचना:
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता
छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में
मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता
पहर-पहर में लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते
चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से
लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की
नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है
कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं
हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए
कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया
पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता
जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो
जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ
अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े,
मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर
मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख
फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते
मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख
जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन
से मेरी कैसी समता?
अब के कवि खद्योत सरीखा
हर मेरे सम्मुख नमता।
किस्में क्षमता है जो मेरी
प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ,
धन्य वही जो मान करे.
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी

अभिनंदन
के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम
जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर
मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना,
इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
***
१४.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com


- : दोहा शतक मंजूषा ४ : -
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में दोहा-लेखन तथा दोहाकारों को प्रोत्साहित तथा प्रतिष्ठित करने का उद्देश्य लेकर समकालिक वरिष्ठ तथा नवोदित दोहाकारों के दोहा-शतकों के ३ लोकप्रिय संकलनों 'दोहा-दोहा नर्मदा', 'दोहा सलिला निर्मला' तथा 'दोहा दीप्त दिनेश' की सफलता के पश्चात् चौथा संकलन 'दोहा है आशा किरण' शीघ्र ही प्रकाशित किया जाना है। १५-१५ दोहकारों को एक-एक भाग में सम्मिलित किया जा रहा है। दोहा को लेकर इतना विराट अनुष्ठान पहली बार हो रहा है। ये संकलन दोहा का अजायबघर नहीं, क्यारी और उद्यान हैं।
संकलन में सम्मिलित प्रत्येक दोहाकार के १०१ दोहे, चित्र, संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्म तिथि व स्थान, माता-पिता, जीवनसाथी व काव्य गुरु के नाम, शिक्षा, लेखन विधा, प्रकाशित कृतियाँ, उपलब्धि, पूरा पता, चलभाष, ईमेल आदि) १० पृष्ठों में प्रकाशित किए जाएँगे। हर सहभागी के दोहों पर एक पृष्ठीय समालोचनात्मक टीप तथा दोहा पर शोध परक आलेख भी होगा। संपादन वरिष्ठ दोहाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा किया जा रहा है।आवश्यकतानुसार संपादकीय संशोधन स्वीकार्य हों तो आप सादर आमंत्रित हैं। प्रत्येक सहभागी ३०००/- अग्रिम सहयोग राशि श्री संजीव वर्मा के पे टी एम क्रमांक ९४२५१८३२४४ नकद जमा करें। संकलन प्रकाशित होने पर हर सहभागी को सहभागिता-सम्मान पत्र तथा पुस्तक की ११ प्रतियाँ पूर्व प्रकाशित संकलनों की एक-एक प्रतियाँ निशुल्क भेंट की/भेजी जाएँगी। दोहे, परिचय व चित्र unicode में ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com या वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेजकर सूचित करें। भारतीय बोलियों / अहिंदी भाषाओँ के दोहे देवनागरी लिपि में आंचलिक शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में देते हुए भेजें।
अब तक प्रकाशित संकलनों में सहभागिता कर चुके दोहाकार हैं (वर्ण क्रमानुसार) - सर्व श्री / सुश्री / श्रीमती १. अखिलेश खरे 'अखिल', २. अनिल कुमार मिश्र, ३. अरुण अर्णव खरे, ४. अरुण शर्मा, ५. अविनाश ब्योहार, ६. आभा सक्सेना 'दूनवी', ७. इंद्रकुमार श्रीवास्तव, ८. उदयभानु तिवारी 'मधुकर', ९. ॐ प्रकाश शुक्ल, १०. कांति शुक्ल 'उर्मि', ११. कालिपद प्रसाद, १२. इंजी. गोपालकृष्ण चौरसिया 'मधुर', १३. गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', १४. चंद्रकांता अग्निहोत्री', १५. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १६. छगनलाल गर्ग 'विज्ञ', १७. छाया सक्सेना 'प्रभु', १८. डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल, १९. जयप्रकाश श्रीवास्तव, २०. त्रिभुवन कौल, २१. नीता सैनी, २२. डॉ. नीलमणि दुबे, २३. प्रेमबिहारी मिश्र, २४. बसंत शर्मा, २५. मनोजकुमार शुक्ल, २६. महातम मिश्र, २७ मिथिलेश बड़गैया, २८. राजकुमार महोबिया, २९. रामकुमार चतुर्वेदी,३०. रामलखन सिंह चौहान, ३१. रामेश्वरप्रसाद सारस्वत, ३२. रीता सिवानी, ३३. विजय बागरी, ३४. विनोद जैन 'वाग्वर', ३५. विश्वंभर शुक्ल, ३६. श्यामल सिन्हा, ३७. शशि त्यागी, ३८. शुचि भवि, ३९. शोभित वर्मा, ४०. श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, ४१. सरस्वती कुमारी, ४२. सुरेश कुशवाहा 'तन्मय', ४३. संतोष नेमा, ४४. डॉ. हरि फैजाबादी, ४५. हिमकर श्याम।
भाग ४ में सहभागी हैं (सर्व श्री/श्रीमती)- डॉ. संतोष शुक्ल, गिरि मोहन गुरु, सुरेंद्र सिंह पवार,
*
दोहा लेखन विधान:
१. दोहा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है कथ्य। कथ्य से समझौता न करें। कथ्य या विषय को सर्वोत्तम रूप में प्रस्तुत करने के लिए विधा (गद्य-पद्य, छंद आदि) का चयन किया जाता है। कथ्य को 'लय' में प्रस्तुत किया जाने पर 'लय'के अनुसार छंद-निर्धारण होता है। छंद-लेखन हेतु विधान से सहायता मिलती है। रस तथा अलंकार लालित्यवर्धन हेतु है। उनका पालन किया जाना चाहिए किंतु कथ्य की कीमत पर नहीं। दोहाकार कथ्य, लय और विधान तीनों को साधने पर ही सफल होता है।
२. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं। हर पद में दो चरण होते हैं।
३. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए। सामान्यत: प्रथम चरण में उद्भव, द्वितीय-तृतीय चरण में विस्तार तथा चतुर्थ चरण में उत्कर्ष या समाहार होता है।
४. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
५. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है। पदारंभ में 'इसीलिए' वर्जित, 'इसी लिए' मान्य।
६. विषम चरणांत में 'सरन' तथा सम चरणांत में 'जात' से लय साधना सरल होता है है किंतु अन्य गण-संयोग वर्जित नहीं हैं।
७. विषम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण मेंकल-बाँट ३ ३ २ ३ २ तथा सम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण में में कल बाँट ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों की कल-बाँट ४ ४.३ या ३३ ३ २ ३ होने पर लय सहजता से सध सकती है।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी के व्याकरण तथा मात्रा गणना नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
९. आधुनिक हिंदी / खड़ी बोली में खाय, मुस्काय, आत, भात, आब, जाब, डारि, मुस्कानि, हओ, भओ जैसे देशज / आंचलिक शब्द-रूपों का उपयोग न करें। बोलियों में दोहा रचना करते समय उस बोली का यथासंभव शुद्ध रूप व्यवहार में लाएँ।
१०. श्रेष्ठ दोहे में अर्थवत्ता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता, सरलता तथा सरसता होना चाहिए।
११. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथासंभव न करें। औ' वर्जित 'अरु' स्वीकार्य। 'न' सही, 'ना' गलत। 'इक' गलत।
१२. दोहे में यथासंभव अनावश्यक शब्द का प्रयोग न हो। शब्द-चयन ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा अधूरा सा लगे।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।
१५. दोहा सम तुकांती छंद है। सम चरण के अंत में सामान्यत: वार्णिक समान तुक आवश्यक है। संगीत की बंदिशों, श्लोकों आदि में मात्रिक समान्त्तता भी राखी जाती रही है।
१६. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता। लयभिन्नता स्वीकार्य है लयभंगता नहीं
*
मात्रा गणना नियम
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है। इस सारस्वत अनुष्ठान में आपका स्वागत है। कोई शंका होने पर संपर्क करें।
***
भोर पर दोहे
*
भोर भई, पौ फट गई, स्वर्ण-रश्मि ले साथ।
भुवन भास्कर आ रहे,
अभिनंदन
दिन-नाथ।।
*
नीलाभित अंबर हुआ, रक्त-पीत; रतनार।
निरख रूप-छवि; मुग्ध है, हृदय हार कचनार।।
*
पारिजात शीरीष मिल, अर्पित करते फूल।
कलरव कर स्वागत करें, पंछी आलस भूल।।
*

अभिनंदन
करता पवन, नमित दिशाएँ मग्न।
तरुवर ताली बजाते, पुनर्जागरण-लग्न।।
*
छत्र छा रहे मेघ गण, दमक दामिनी संग।
आतिशबाजी कर रही, तिमिरासुर है तंग।।
*
दादुर पंडित मंत्र पढ़, पुलक करें अभिषेक।
उषा पुत्र-वधु से मिली, धरा सास सविवेक।।
*
कर पल्लव पल्लव हुए, ननदी तितली झूम।
देवर भँवरों सँग करे, स्वागत मचती धूम।।
*
नव वधु जब गृहणी हुई, निखरा-बिखरा तेज।
खिला विटामिन डी कहे, करो योग-परहेज।।
*
प्रात-सांध्य नियमित भ्रमण, यथासमय हर काम।
जाग अधिक सोना तनिक, शुभ-सुख हो परिणाम।।
*
स्वेद-सलिल से कर सतत, निज मस्तक-अभिषेक।
हो जाएँ संजीव हम, थककर तजें न टेक।।
*
नव आशा बन मंजरी, अँगना लाए बसंत।
मन-मनोज हो मग्न बन, कीर्ति-सफलता कंत।।
*
दशरथ दस इंद्रिय रखें, सिया-राम अनुकूल।
निष्ठा-श्रम हों दूर तो, निश्चय फल प्रतिकूल।।
*
इंद्र बहादुर हो अगर, रहे न शासक मात्र।
जय पा आसुर वृत्ति पर, कर पाए दशगात्र।।
*
धूप शांत प्रौढ़ा हुई, श्रांत-क्लांत निस्तेज।
तनया संध्या ने कहा, खुद को रखो सहेज।।
*
दिनकर को ले कक्ष में, जा करिए विश्राम।
निशा-नाथ सुत वधु सहित, कर ले बाकी काम।।
*
वानप्रस्थ-सन्यास दे, गौरव करे न दीन।
बहुत किया पुरुषार्थ हों, ईश-भजन में लीन।।
***
salil.sanjiv@gmail.com
16.7.2018, 7999559618.
जनक छन्द सलिला
*
श्याम नाम जपिए 'सलिल'
काम करें निष्काम ही
मत कहिये किस्मत बदा
*
आराधा प्रति पल सतत
जब राधा ने श्याम को
बही भक्ति धारा प्रबल
*
श्याम-शरण पाता वही
जो भजता श्री राम भी
दोनों हरि-अवतार हैं
*
श्याम न भजते पहनते
नित्य श्याम परिधान ही
उनके मन भी श्याम हैं
*
काला कोट बदल करें
श्वेत, श्याम परिधान को
न्याय तभी जन को मिले
*
शपथ उठाते पर नहीं
रखते गीता याद वे
मिथ्या साक्षी जो बने
*
आँख बाँध तौले वज़न
तब देता है न्याय जो
न्यायालय कैसे कहें?
******
१६-७-२०१६

शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

दोहा, छंद अनुगीत,सॉनेट

सॉनेट 
जलसा घर
घर में जलसा घर घुस बैठा
साया ही हो गया पराया
मन को मोहे तन की माया
मानव में दानव है पैठा

पल में ऐंठे, पल में अकड़े
पल में माशा, पल में तोला
स्वार्थ साधने हो मिठबोला 
जाने कितने करता लफड़े

जल सा घर रिस-रिसकर गीला
हर नाता हो रहा पनीला
कसकर पकड़ा फिर भी ढीला

सीली माचिस जैसे रिश्ते
हारे चकमक पत्थर घिसते 
जलते ही झट चटपट बुझते
१४-७-२०२१
ए२/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
•••
सॉनेट 
मैं-तुम 
मैं-तुम, तू तू मैं मैं करते
जैसे हों संसद में नेता
मरुथल में छिप नौका खेता
इसकी टोपी उस सिर धरते

सहमत हुए असहमत होने
केर-बेर का संग सुहाए 
हर ढपली निज राग बजाए
मतभेदों की फसलें बोने

इससे लेकर उसको देना
आप चबाना चुप्प चबेना
जो बच जाए खुद धर लेना 

ठेंगा दिखा ठीक सब कहते
मुखपोथी पर नाते तहते
पानी पर पत्ते सम बहते
१४-७-२०२२, २१•४६
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
•••
सॉनेट 
बहाना
बिना बताए सबने ठाना
अपनी ढपली अपना राग
सावन में गाएँगे फाग
बना बनाकर नित्य बहाना

भूले नाते बना निभाना
घर-घर पलते-डँसते नाग
अपने ही देते हैं दाग
आँख मूँदकर साध निशाना

कौआ खुद को मान सयाना
सेता अंडा जो बेगाना
सीख न पाए मीठा गाना

रहे रात-दिन नाहक भाग
भूले धरना सिर पर पाग
सो औरों से कहते जाग
१४-७-२०२२, २१•२५
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
•••

***
दोहा सलिला 
दिल  ने दिल को तौलकर, दिल से की पहचान.
दिल ने दिल का दिल दुखा, कहा न तू अरमान.

भुखमरी पेट में, लगी हुई है आग.
उधर न वे खा पा रहे, इतना पाया भाग.

दूब नहीं असली बची, नकली है मैदान.
गायब होंगे शीघ्र ही, धरती से इंसान.

नाले सँकरे कर दिए, जमीं दबाई खूब.
धरती टाइल से पटी, खाक उगेगी दूब.

नित्य नई कर घोषणा, जीत न सको चुनाव.
गर न पेंशनर का मिटा, सकता तंत्र अभाव.

नहीं पेंशनर को मिले,सप्तम वेतनमान.
सत्ता सुख में चूर जो, पीड़ा से अनजान.

गगरी कहीं उलट रहे, कहीं न बूँद-प्रसाद.
शिवराजी सरकार सम, बादल करें प्रमाद.

मन में क्या है!; क्यों कहें?, आप करें अनुमान.
सच यह है खुद ही हमें, पता नहीं श्रीमान.

झलक दिखा बादल गए, दूर क्षितिज के पार.
जैसे अच्छे दिन हमें , दिखा रही सरकार.
***
कविता पर दोहे़:
*
कविता कवि की प्रेरणा, दे पल-पल उत्साह।
कभी दिखाती राह यह, कभी कराती वाह।।
*
कविता में ही कवि रहे, आजीवन आबाद।
कविता में जीवित रहे, श्वास-बंद के बाद।।
*
भाव छंद लय बिंब रस, शब्द-चित्र आनंद।
गति-यति मिथक प्रतीक सँग, कविता गूँथे छंद।।
*
कविता कवि की वंशजा, जीवित रखती नाम।
धन-संपत्ति न माँगती, जिंदा रखती काम।।
*
कवि कविता तब रचे जब, उमड़े मन में कथ्य।
कुछ सार्थक संदेश हो, कुछ मनरंजन; तथ्य।।
*
कविता सविता कथ्य है, कलकल सरिता भाव।
गगन-बिंब; हैं लहरियाँ चंचल-चपल स्वभाव।।
*
करे वंदना-प्रार्थना, भजन बने भजनीक।
कीर्तन करतल ध्वनि सहित, कविता करे सटीक।।
*
जस-भगतें; राई सरस, गिद्दा, फागें; रास।
आल्हा-सड़गोड़ासनी, हर कविता है खास।।
*
सुनें बंबुलिया माहिया, सॉनेट-कप्लेट साथ।
गीत-गजल, मुक्तक बने, कविता कवि के हाथ।।
*
१५-७-२०१८
अनुगीत छंद
संजीव
*
छंद लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद २६ मात्रा,
यति१६-१०, पदांत लघु
लक्षण छंद:
अनुगीत सोलह-दस कलाएँ , अंत लघु स्वीकार
बिम्ब रस लय भाव गति-यतिमय , नित रचें साभार
उदाहरण:
१. आओ! मैं-तुम नीर-क्षीरवत , एक बनें मिलकर
देश-राह से शूल हटाकर , फूल रखें चुनकर
आतंकी दुश्मन भारत के , जा न सकें बचकर
गढ़ पायें समरस समाज हम , रीति नयी रचकर
२. धर्म-अधर्म जान लें पहलें , कर्तव्य करें तब
वर्तमान को हँस स्वीकारें , ध्यान धरें कल कल
किलकिल की धारा मोड़ें हम , धार बहे कलकल
कलरव गूँजे दसों दिशा में , हरा रहे जंगल
३. यातायात देखकर चलिए , हो न कहीं टक्कर
जान बचायें औरों की , खुद आप रहें बचकर
दुर्घटना त्रासद होती है , सहें धीर धरकर
पीर-दर्द-दुःख मुक्त रहें सब , जीवन हो सुखकर
*********
१५-७-२०१६
हास्य रचनाः
नियति
संजीव
*
सहते मम्मी जी का भाषण, पूज्य पिताश्री का फिर शासन
भैया जीजी नयन तरेरें, सखी खूब लगवाये फेरे
बंदा हलाकान हो जाये, एक अदद तब बीबी पाये
सोचे धौन्स जमाऊं इस पर, नचवाये वह आंसू भरकर
चुन्नू-मुन्नू बाल नोच लें, मुन्नी को बहलाये गोद ले
कही पड़ोसी कहें न द्ब्बू, लड़ता सिर्फ इसलिये बब्बू
***
१५-७-
सॉनेट 
गुरु
गुरु को नतशिर नमन करो रे!
गुरु की महिमा कही न जाए 
गुरु ही नैया पार लगाए
गुरु पग रज पा अमन वरो रे!

गुरु वचनामृत पान करो रे!
गुरु शब्दों में सत्य समाहित 
गुरु वाणी में अर्थ विराजित 
गुरु का महिमा-गान करो रे!

गुरु का मन में मान करो रे!
गुरु-दर्पण में निज छवि देखो
गुरु-परखे तो निज सच लेखो
गुर-वचनों का ध्यान धरो रे!

गुरु को सत्-शिव सुंदर मानो
गुरु का खुद को चाकर मानो
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल 
•••
सॉनेट 
गुरु
गुरु गुर सिखलाता है उत्तम
दिखलाता है राह हमेशा
हरता है अज्ञानजनित तम
दिलवाता है वाह हमेशा

लेता है गुरु कड़ी परीक्षा
ठोंक-पीटकर खोट निकाले
देता केवल तब ही दीक्षा
दीप-ज्योति अंतर में बाले

कहे दीप अपना खुद होओ
गिरकर रुको न, उठ फिर भागो
तम पी, उजियारा बो जाओ
खुद समर्थ हो भीख न माँगो

गुरु-वंदन कर शिष्य तर सके
अपनी मंजिल आप वर सके
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल 
•••

भारतेन्दु की रेल यात्रा

भारतेन्दु की रेल यात्रा

नगर में जन्म लेने के बावजूद मैट्रिकुलेशन तक मुझे कभी लंबी रेलयात्रा का शुभावसर प्राप्त न हो सका। इस बार जब मैंने कॉलेज में नाम लिखाया और काशी की बेहद प्रशंसा सुनी, तब मेरा मन वहाँ जाने के लिए मचल उठा। काशी के बारे में मैं भी जानता था कि यह भूतभावन परमकल्याणकारी त्रिशूलधारी विश्वनाथ महादेव की नगरी है, काशी चंद्रमौलि की कीर्तिकौमुदी से अहरह प्रकाशित होती रहती है। इसे ही वाराणसी कहते हैं-वरुण और असी नदियों के, गंगा के मिलन-बिंदु पर बसी वाराणसी ‘यस्य क्वचित् गतिर्नास्ति तस्य वाराणस्यां गतिः’ का उद्घोष करती है। सचमुच काशी-वाराणसी के माहात्म्य का ऐसा उदात्त वर्णन पुराणकार, श्रीहर्ष, तुलसीदास तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया है कि इस पूजावकाश में वहाँ की यात्रा मेरे लिए अनिवार्य बन गई।

आश्विन का समशीतोष्ण महीना। कंधे पर झोला लटकाए मैं पटना जंक्शन के द्वितीय श्रेणी टिकटघर की ओर गया, क्योंकि यही अब तृतीय श्रेणी के बराबर है। राष्ट्रपिता बापू ने लिखा है कि वे रेलवे के तीसरे दर्जे में इसलिए सफर करते रहे कि उसमें चौथा दर्जा होता ही नहीं। यदि चौथा दर्जा होता, तो वे उसमें ही यात्रा करते। यह उनका जीवनसिद्धांत था, उनका सादा रहन-सहन था, किंतु मेरी विवशता थी, पॉकेट की तंगी थी। इसलिए मुझे इधर आना पड़ा था, नहीं तो मैं प्रथम श्रेणी में ही यात्रा करता। टिकट-खिड़की के सामने एक लंबी लाइन (क्यू) लगी थी। गाड़ी आने का समय निकट आता जा रहा था, लोगों के धीरज का बाँध टूटता जा रहा था। कुछ लोग रेलपेल कर आगे बढ़ जाना चाहते थे। मैं भी किसी तरह बीच में घुसा, शरीर की अनचाही मालिश करवाई, कमीज नुचवाई और किसी तरह टिकट लेकर पुल पर दौड़ता हुआ उस प्लेटफार्म पर आया, जहाँ दिन के बारह बजकर पंद्रह मिनट पर काशी जानेवाली अपर इंडिया एक्सप्रेस आनेवाली थी।

सवा बारह क्या, सवा एक हो गया। गाड़ी नहीं आई। यात्री उत्सुक नेत्रों से अपनी प्रेयसी के आगमन की भाँति गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्लेटफार्म पर काफी भीड़ थी, जैसे किसी संपन्न व्यक्ति की बारात ठहरी हो। खोमचे और अखबारवाले रंग-बिरंगी आवाज में चिल्ला रहे थे। इसी बीच गाड़ी की घरघराहट सुनाई पड़ी। आकृतियाँ सूर्यमुखी-सी खिल उठीं, प्लेटफार्म के सागर में तूफान उठ आया।

गाड़ी स्टेशन पर लगी क्या, चढ़ने-उतरनेवालों का मल्लयुद्ध शुरू हो गया। डिब्बे ठसाठस भरे थे। किसी तरह मैंने एक पावदान पर शरण पाई। गार्ड ने हरी झंडी दिखाई, सीटी मारी और गाड़ी प्लेटफार्म को उदास बनाती बढ़ चली। गाड़ी छकछक करती बढ़ी। सचिवालय का गुलाबी टावर दिखाई पड़ा, जिसके आगे देश पर कुर्बान होनेवाले वीरों का शहीद-स्मारक है। इसी सचिवालय में अधिकारियों की संचिकाओं में बिहार का भाग्य भटकता रहता है तथा विधानसभाओं के मखमली गद्दों पर जनता के प्रतिनिधि दंगल कर मंगल बनाते हैं। गाड़ी भागी जा रही है-फुलवारीशरीफ, दानापुर, नेउरा, सदीसोपुर, बिहटा, कोइलवर ! कोइलवर के पुल ने विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट किया। यह शोणनद पर बना पुल है। ब्रह्मलोक से जब देवी सरस्वती पृथ्वीतल पर उतरी थीं, तब उनका मन शोणतट का सौंदर्य देखकर इतना अभिभूत हो गया था कि उन्होंने यहीं विश्राम करने का निश्चय लिया। इस शोण के समक्ष उन्हें देवनदी मोक्षसरणि मंदाकिनी भी फीकी लगी थी। शोणनद वरुणदेव के हार के समान है,

चंद्रपर्वत से झरते हुए अमृतनिर्झर के समान है, विंध्यपर्वत से बहते हए चंद्रकांतमणि के प्रवाह के सदृश है, दंडकारण्य के कर्पूवृक्ष से बहते कर्पूरी प्रवाह के समान है, दिशाओं के लावण्य-रस के सोते के समान है, आकाशलक्ष्मी के शयन के लिए स्फटिक के शिलापट्ट के समान है। मैं बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ की स्मृति के चित्रों को सँजो ही रहा था कि गाड़ी आरा स्टेशन पर आ लगी। पता नहीं, आरा नाम यहाँ के लोगों की बोली के रुखड़ेपन के कारण पड़ा या आक्रामकों के शिरःछेद के कारण-समझ नहीं पाता। सुना, यहीं स्वातंत्र्य-संग्राम के अमर सेनानी बाबू कुँवर सिंह ने साम्राज्यवाद का कालपाश फैलानेवाले अंगरेजों को कैद कर रखा था और उनके छक्के छुड़ाए थे।

गाड़ी बेहताशा भागी जा रही थी। डिब्बे का शोरगुल थोड़ा कम हुआ। इस डिव का दखकर ही ऐसा मालूम पड़ता था कि भारत सचमच धर्मनिरपेक्ष राज्य हैं। हिंद, मुसलमान, सिक्ख-एक साथ बैठे चीनियाबादाम खाते, रामायण, कुरान-शरीफ और गुरुग्रंथसाहब पर प्रेमपूर्ण बातें करते जा रहे थे। बाहर जब नजर गई, तब लगा कि ट्रेन कई छोटे-छोटे स्टेशनों को बेरहमी से छोड़ती चली जा रही है। प्लेटफार्म पर मुसाफिर ऐसे दीनभाव से खड़े थे, जैसे उनके समक्ष अवसर का स्वर्णरथ आया और बिना कुछ लुटाए भाग गया। फिर रघुनाथपुर आया और गोस्वामी तुलसीदास की स्मृति ताजी हो उठी। कहा जाता है कि गोस्वामीजी की चरणधूलि इस स्थान को पवित्र कर गई थी। उसके बाद डुमराँव। लोगों ने बताया कि यहाँ एक बार पंजाबमेल की लोमहर्षक दुर्घटना हुई थी। न मालूम कितने व्यक्ति मौत के अंधे कुएँ में गिरे थे। कल्पना से जी सिहर उठता है और मुझे बाबा विश्वनाथ की याद हो आती है।

तब बक्सर आया। जी! सिद्धाश्रम। यहीं महर्षि विश्वामित्र ने महायज्ञ किया था और श्रीराम ने उनके यज्ञ की रक्षा करते हुए ताड़का-सुबाहु का वध किया था तथा मारीच को बाण की नोंक पर सैकड़ों मील दूर फेंक दिया था। उन्होंने यहीं गुरु को प्रसन्न कर बला और अतिबला नाम की दुर्लभ विद्याएँ पाई थीं। यहीं 22 अक्टूबर. 1764 के दिन शाहआलम, मीरकासिम और शुजाउदौला की सम्मिलित सेना अँगरेजों से पराजित हुई थी। यहीं भारत के भाग्य पर पूरी कालिमा छा गई और भारतमाता अँगरेजों के बंदीगह में पूरी तरह बंदिनी हो गई थीं। यही याद कर मेरे मन पर गहरा अवसाद छा गया। इतिहास के खंडहर में रेंगती हमारी दुर्गति की कहानियाँ बार-बार मेरे मन को कुरेदने लगीं।

और, अब जैसा स्टेशन आया है। यहीं 26 जून, 1539 में हुमायूँ शेरशाह से पराजित होकर कन्नौज की ओर भागा था। गंगा में कूदते समय उसकी जान एक भिश्ती ने अपनी मशक की सहायता से बचाई थी। उपहार में उसे एक दिन का राज्य मिला था और उसने चमड़े का सिक्का चलाया था। काश! हमें भी एक दिन का राज्य मिल पाता-मन में लोभ हो आता है। चौसा के बाद ही कर्मनाशा नदी है। कहा जाता है कि यह स्वर्गकामी त्रिशंकु की टपकी लार से बनी है। बात सच्ची हो या झूठी, किंतु अभी तो यह बिहार और उत्तरप्रदेश के बीच संधिविच्छेद के चिह्न-सी है।

चौसा के बाद गहमर । यहीं के सुप्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार गोपालराम गहमरी थे, जिन्होंने लगभग तीन सौ उपन्यास लिखे थे। इनके ‘यमुना का खन’, ‘गेरुआ बाबा’, ‘डाइन की लाश’, ‘भूतों का डेरा’, ‘जवाहरात की चोरी’ जैसे उपन्यास पढ़ें, तो कॉनन डॉयल के थ्रिलर भी फीके मालूम होंगे। गहमर के बाद भदौरा और भदौरा के बाद दिलदारनगर आ जाता है। कहा जाता है कि दिलदार साहब अठारहवीं शताब्दी के बड़े मशहूर आदमी थे और वे फुलवारीशरीफ के मुरीद थे। फिर कई छोटे-मोटे स्टेशनों को निष्ठुर नायिका की तरह छोड़ती हुई बेरहम गाड़ी मुगलसराय चली आती है। मुगलों के शासन की अनेक गमनाक कहानियाँ मानसपटल पर उभरती हैं। इसी बीच गाड़ी खुल जाती है।

खिड़की के बाहर धानखेतों की बहार नजर आती है। उजली गायों और काली-काली भैसों की गंगा-जमुनी हरे मखमली खेतों की पृष्ठभूमि में बड़ी सुहानी लगती है। और, हाँ! देखते-देखते भूभाग धारण करनेवाले शेषनाग की उज्ज्वल केंचुल की तरह, सत्ययुग के रथ के धुरे की तरह, कैलाश रूपी हाथी की रेशमी पताका की तरह, पुण्यरूपी पण्य की विक्रयवीथि की तरह देवनदी गंगा दूज के चाँद की तरह नजर आने लगती है। फिर इंद्रधनुष की तरह, किसी कामिनी के भौंह-घुमाव की तरह तना मालवीय-सेतु आ जाता है।

लगता है कि अब हमारे पुण्योदय की चिरप्रतीक्षित वेला आनेवाली है, हमारी आकांक्षाओं की पूर्तिवेला उपस्थित होने ही वाली है कि गाड़ी काशी स्टेशन पर खड़ी हो जाती है। जब भीड़ उँट जाती है, तब स्टेशन-गेट के बाहर आकर एक रिक्शे पर बैठ जाता हूँ। लाल गमछा कंधे पर लपेटे, गले में काली बद्धी बाँधे मस्त रिक्शावाला कह उठता है किधर बाबूजी!

‘बाबा विश्वनाथ की गली’ कहते ही मेरा ध्यान उनके दिव्य चरणों पर जा पहुँचा।
***
अयोध्या

कल साँझ को चिराग़ जले रेल पर सवार हुए, यह गए वह गए। राह में स्टेशनों पर बड़ी भीड़ न जाने क्यों? और मज़ा यह कि पानी कहीं नहीं मिलता था। यह कंपनी मजीद के ख़ानदान की मालूम होती है कि ईमानदारों को पानी तक नहीं देती। या सिप्रस का टापू सर्कार के हाथ आने से और शाम में सर्कार का बंदोबस्त होने से यह भी शामत का मारा शामी तरीका अख़तियार किया गया है कि शाम तक किसी को पानी न मिलै। स्टेशन के नौकरों से फ़र्याद करो तो कहते हैं कि डाक पहुँचावै, रोशनी दिखलावै कि पानी दे। ख़ैर जों तों कर अयोध्या पहुँचे। इतना ही धन्य माना कि श्री रामनवमी की रात अयोध्या में कटी। भीड़ बहुत ही है। मेला दरिद्र और मैलै लोगों का। यहाँ के लोग बड़े ही कंगली टर्रे हैं। इस दोपहर को अब उस पार जाते हैं। ऊँटगाड़ी यहाँ से पाँच कोस पर मिलती है।

कैंप हरैया बाज़ार

आज तक तीन पहर का समय हो चुका है। और सफ़र भी कई तरह का और तकलीफ देने वाला। पहिले सरा से गाड़ी पर चले। मेला देखते हुए रामघाट की सड़क पर गाड़ी से उतरे। वहाँ से पैदल धूप में गर्म रेती में सरजू के किनारे गुदाम घाट पर पहुँचे। वहाँ से मुश्किल से नाव पर सवार हो कर सरजू पार हुए। वहाँ से बेलवाँ जहाँ डाक मिलती है और शायद जिसका शुद्ध नाम बिल्व ग्राम है, दो कोस है। सवारी कोई नहीं, न राह में छाया के पेड़, न कुआँ, न सड़क... हवा ख़ूब चलती थी इस से पगडंडी भी नहीं नज़र पड़ती, बड़ी मुश्किल से चले और बड़ी ही तकलीफ़ हुई। ख़ैर, बेलवाँ तक रो-रो कर पहुँचे वहाँ से बैल की डाक पर छह बजे रात को यहाँ पहुँचे। यहाँ पहुँचते ही हरैया बाज़ार के नाम से यह गीत याद आया 'हरैया लागल झबिआ केरे लैहैं न' शायद किसी ज़माने में यहाँ हरैया बहुत बिकती होगी! इस के पास ही मनोरमा नदी है। मिठाई हरैया की तारीफ़ के लायक है। बालूशाही सचमुच बालूशाही भीतर काठ के टुकड़े भरे हुए। लड्डू भूर के, बर्फ़ी अहा हा हा! गुड़ से भी बुरी । ख़ैर, लाचार हो कर चने पर गुज़र की। गुज़र गई गुज़रन क्या झोपड़ी क्या मैदान। बाकी हाल कल के ख़त में।

बस्ती

परसों पहिली एप्रिल थी, इससे सफ़र कर के रेलों में बेवक़ूफ़ बनने का और तकलीफ़ से सफ़र करने का हाल लिख चुके हैं। अब आज आठ बजे सुबह रें रें करके बस्ती से पहुँचे। वाह रे बस्ती! झख मारने को बसती है... अगर बस्ती इसी को कहते हैं तो उजाड़ किस को कहेंगे? सारी बस्ती में कोई भी पंडित बस्तीराम जो ऐसा पंडित नही, ख़ैर अब तो एक दिन यहाँ बसती होगी। राह में मेला ख़ूब था। जगह-जगह पर शहाब चूल्हे जल रहे हैं। सैकड़ो अहरे लगे हुए हैं, कोई गाता है, कोई बजाता है, कोई गप हाँकता है। रामलीला के मेले में अवध प्रांत के लोगों का स्वभाव, रेल अयोध्या और इधर राह में मिलने से ख़ूब मालूम हुआ। बैसवारे के पुरुष अभिमानी, रुखे और रसिकमन्य होते हैं। रसिकमन्य ही नहीं वीरमन्य भी। पुरुष सब पुरुष और सभी भीम, सभी अर्जुन, सभी सूत पौराणिक और सभी वाजिदअली शाह। मोटी-मोटी बातों को बड़े आग्रह से कहते सुनते हैं। नई सभ्यता अभी तक इधर नहीं आई है। रूप कुछ ऐसा नहीं, पर स्त्रियाँ नेत्र नचाने में बड़ी चतुर। यहाँ के पुरुषों की रसिकता मोटी चाल सुरती और खड़ी मोछ में छिपी है और स्त्रियों की रसिकता मैले वस्त्र और सूप ऐसे नथ में। अयोध्या में प्रायः सभी स्त्रियों के गोल गाते हुए मिले। उन का गाना भी मोटी-सी रसिकता का। मुझे तो उन की सब गीतों में 'बोलो प्यारी सखियाँ सीता राम राम राम' यही अच्छा मालूम हुआ। राह में मेला जहाँ पड़ा मिलता था, वहाँ बारात का आनंद दिखलाई पड़ता था ख़ैर मैं डाक पर बैठा-बैठा सोचता था कि काशी में रहते तो बहुत दिन हुए परंतु शिव आज ही हुए क्योंकि वृषभवाहन हुए फिर अयोध्या याद आई कि हा! वही अयोध्या है जो भारतवर्ष में सब से पहले राजधानी बनाई गई। इसी में महाराजा इक्ष्वाकु वंश मांधाता हरिश्चंद्र दिलीप अज रघु श्रीरामचंद्र हुए हैं और इसी के राजवंश के चरित्र में बड़े-बड़े कवियों ने अपनी बुद्धि शक्ति की परिचालना की है। संसार में इसी अयोध्या का प्रताप किसी दिन व्याप्त था और सारे संसार के राजा लोग इसी अयोध्या की कृपाण से किसी दिन दबते थे वही अयोध्या अब देखी नहीं जाती। जहाँ देखिए मुसलमानों की क़ब्रें दिखलाई पड़ती है। और कभी डाक पर बैठे रेल का दुख याद आ जाता कि रेलवे कंपनी ने क्यों ऐसा प्रबंध किया है कि पानी तक न मिले। एक स्टेशन पर एक औरत पानी का डोल लिए आई भी तो गुपला-गुपला पुकारती रह गई जब हम लोगों ने पानी माँगा तो लगी कहने कि ‘रहः हो पानियै पानी पड़ल हौ’ फिर कुछ ज़्यादा ज़िद में लोगों ने माँगा तो बोली ‘अब हम गारी देब’ वाह क्या इंतज़ाम था! मालूम होता है कि रेलवे कंपनी स्वभाव की बड़ी शत्रु है क्योंकि जितनी बातें स्वभाव से संबंध रखती हैं अर्थात खाना-पीना-सोना-मलमूत्र त्याग करना इन्हीं का इसमें कष्ट है। शायद इसी से अब हिंदुस्तान में रोग बहुत हैं। कभी सरा के खाट के खटमल और भटियारियों का लड़ना याद आया। यही सब याद करते कुछ सोते कुछ जागते-हिलते आज बस्ती पहुँच गए। बाकी फिर यहाँ एक नदी है उसका नाम कुआनम। डेढ़ रुपया पुल का गाड़ी का महसूल लगा। बस्ती के जिले के उत्तर सीमा नेपाल पश्चिमोत्तर की गोड़ा पश्चिम दक्षिण अयोध्या और पूरब गोरखपुर है। नदियाँ बड़ी इसमें सरयू और इरावती सरयू के इस पार बस्ती उस पार फ़ैज़ाबाद। छोटी नदियों में कुनेय मनोरमा कठनेय आमी बाणगंगा और जमतर है। बरकरा ताल और जिरजिरवा दो बड़ी झील भी है। बाँसी बस्ती और मकहर तीन राजा भी हैं। बस्ती सिर्फ़ चार-पाँच हज़ार की बस्ती है पर जिला बड़ा है क्योंकि जिले की आमदनी चौदह लाख है। साहब लोग यहाँ दस बारह हैं। उतने ही बंगाली हैं। अगरवाला मैंने खोजा एक भी न मिला सिर्फ़ एक है वह भी गोरखपुरी है। पुरानी बस्ती खाई के बीच बसी है। राजास के महल बनारस के अर्दली बाज़ार के किसी मकान से उमदा नही। महल के सामने मैदान पिछवाड़े जंगल और चारों ओर खाई है। पाँच सौ खटिकों के घर महल के पास हैं जो आगे किसी ज़माने में राजा के लूटमार के मुख्य सहायक थे। अब राजा के स्टेट के मैनेजर कूक साहब हैं।

यहाँ के बाज़ार का हम बनारस के किसी भी बाज़ार से मुकाबिला नहीं कर सकते। महज बहैसियत महाजन एक यहाँ है वह टूटे खपड़े में बैठे थे। तारीफ़ यह सुनी कि साल भर में दो बार क़ैद होते हैं क्योंकि महाजन का जाल करना फर्ज़ हैं और उसको भी छिपाने का शऊर नहीं। यहाँ का मुख्य ठाकुरद्वारा दो तीन हाथ चौड़ा उतना ही लंबा और उतना ही ऊँचा बस। पत्थर का कहीं दर्शन भी नहीं है। यह हाल बस्ती का है। कल डाक ही नहीं मिली कि जाएँ। मेंहदावल को कच्ची सड़क है, इस से कोई सवारी नहीं मिलती। आज कहार ठीक हुए हैं। भगवान ने चाहा तो शाम को रवाना होंगे। कल तो कुछ तबीयत भी घबड़ा गई थी इससे आज खिचड़ी खाई। पानी यहाँ का बड़ा बातुल है। अकसर लोगों का गला फूल जाता है आदमी ही का नहीं कुत्ते और सुग्गे का भी। शायद गलाफूल कबूतर यहीं से निकले हैं। बस अब कल मिंहदावल से ख़त लिखेंगे।
स्रोत :पुस्तक : भारतेंदु के निबंध (पृष्ठ 53)
संपादक : केसरीनारायण शुक्ल, रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रकाशन : सरस्वती मंदिर जतनबर,बनारस
***

गुरुवार, 14 जुलाई 2022

सॉनेट

सॉनेट 
जलसा घर
घर में जलसा घर घुस बैठा
साया ही हो गया पराया
मन को मोहे तन की माया
मानव में दानव है पैठा

पल में ऐंठे, पल में अकड़े
पल में माशा, पल में तोला
स्वार्थ साधने हो मिठबोला 
जाने कितने करता लफड़े

जल सा घर रिस-रिसकर गीला
हर नाता हो रहा पनीला
कसकर पकड़ा फिर भी ढीला

सीली माचिस जैसे रिश्ते
हारे चकमक पत्थर घिसते 
जलते ही झट चटपट बुझते
१४-७-२०२२, २०•२३
ए२/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
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सॉनेट 
मैं-तुम 
मैं-तुम, तू तू मैं मैं करते
जैसे हों संसद में नेता
मरुथल में छिप नौका खेता
इसकी टोपी उस सिर धरते

सहमत हुए असहमत होने
केर-बेर का संग सुहाए 
हर ढपली निज राग बजाए
मतभेदों की फसलें बोने

इससे लेकर उसको देना
आप चबाना चुप्प चबेना
जो बच जाए खुद धर लेना 

ठेंगा दिखा ठीक सब कहते
मुखपोथी पर नाते तहते
पानी पर पत्ते सम बहते
१४-७-२०२२, २०•४६
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
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सॉनेट 
बहाना
बिना बताए सबने ठाना
अपनी ढपली अपना राग
सावन में गाएँगे फाग
बना बनाकर नित्य बहाना

भूले नाते बना निभाना
घर-घर पलते-डँसते नाग
अपने ही देते हैं दाग
आँख मूँदकर साध निशाना

कौआ खुद को मान सयाना
सेता अंडा जो बेगाना
सीख न पाए मीठा गाना

रहे रात-दिन नाहक भाग
भूले धरना सिर पर पाग
सो औरों से कहते जाग
१४-७-२०२२, २१•२५
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
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बुधवार, 13 जुलाई 2022

सॉनेट गुरु

[13/7, 09:44] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": सॉनेट 
गुरु
गुरु गुर सिखलाता है उत्तम
दिखलाता है राह हमेशा
हरता है अज्ञानजनित तम
दिलवाता है वाह हमेशा

लेता है गुरु कड़ी परीक्षा
ठोंक-पीटकर खोट निकाले
देता केवल तब ही दीक्षा
दीप-ज्योति अंतर में बाले

कहे दीप अपना खुद होओ
गिरकर रुको न, उठ फिर भागो
तम पी, उजियारा बो जाओ
खुद समर्थ हो भीख न माँगो

गुरु-वंदन कर शिष्य तर सके
अपनी मंजिल आप वर सके
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल 
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[13/7, 09:44] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": सॉनेट 
गुरु
गुरु को नतशिर नमन करो रे!
गुरु की महिमा कही न जाए 
गुरु ही नैया पार लगाए
गुरु पग रज पा अमन वरो रे!

गुरु वचनामृत पान करो रे!
गुरु शब्दों में सत्य समाहित 
गुरु वाणी में अर्थ विराजित 
गुरु का महिमा-गान करो रे!

गुरु का मन में मान करो रे!
गुरु-दर्पण में निज छवि देखो
गुरु-परखे तो निज सच लेखो
गुर-वचनों का ध्यान धरो रे!

गुरु को सत्-शिव सुंदर मानो
गुरु का खुद को चाकर मानो
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल 
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शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

दोहा, मन,सॉनेट,नवगीत,कमल

सॉनेट
दाग

पाक-साफ मतदान करेंगे
सोच गए मतदान केंद्र हम
सियासती आरोप सुनेंगे
सच्चाई का निकलेगा दम

कहाँ सोच पाए थे अँगुली
जो उठती अब तक औरों पर
रही हमेशा सबसे कहती
लौट कहेगी वही सिसककर

दागदार होकर लौटी मैं
कैसे उठूँ कहो औरों पर
दाग छुड़ाते जो विज्ञापन
छुड़ा न पाए दाग जतनकर

दागदार चुन दागदार को
शानदार कह दागदार को
८-७-२०२२
•••
सॉनेट
आस्था

आस्था क्षणभंगुर चोटिल हो
पल-पल में कुछ भी सुन-पढ़कर
दुश्मन की आसान राह है
हमें लड़ाए नित कुछ कहकर

मैं-तुम चतुर हद्द से ज्यादा
शीश छिपाते शुतुरमुर्ग सम
बंद नयन जब आए तूफां
भले निकल जाए चुप रह दम

रक्तबीज का रक्त पी लिया
जिसने वह क्या शाकाहारी?
क्या सच ही पानी, खूं अपना
जो पीता नहिं मांसाहारी

आस्था-अंधभक्त की जय-जय
रंग बदलो, हो गिरगिट निर्भय
८-७-२०२२
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दोहा सलिला:
मन के दोहे
*
मन जब-जब उन्मन हुआ, मन ने थामी बाँह.
मन से मिल मन शांत हो, सोया आँचल-छाँह.
*
मन से मन को राह है, मन को मन की चाह.
तन-धन हों यदि सहायक, मन पाता यश-वाह.
*
चमन तभी गुलज़ार हो, जब मन को हो चैन.
अमन रहे तब जब कहे, मन से मन मृदु बैन.
*
द्वेष वमन जो कर रहे, दहशत जिन्हें पसंद.
मन कठोर हो दंड दे, मिट जाए छल-छंद.
*
मन मँजीरा हो रहा, तन कीर्तन में लीन.
मनहर छवि लख इष्ट की, श्वास-आस धुन-बीन.
*
नेह-नर्मदा सलिल बन, मन पाता आनंद.
अंतर्मन में गोंजते, उमड़-घुमड़कर छंद.
*
मन की आँखें जब खुलीं, तब पाया आभास.
जो मन से अति दूर है, वह मन के अति पास.
*
मन की सुन चेता नहीं, मनुआ बेपरवाह.
मन की धुन पूरी करी, नाहक भरता आह.
*
मन की थाह अथाह है, नाप सका कब-कौन?
अंतर्मन में लीन हो, ध्यान रमाकर मौन.
*
धुनी धूनी सुलगा रहा, धुन में हो तल्लीन.
मन सुन-गुन सुन-गुन करे, सुने बिन बजी बीन.
*
मन को मन में हो रहे, हैं मन के दीदार.
मन से मिल मन प्रफुल्लित, सर पटके दीवार.
*
८.७.२०१८, ७९९९५५९६१८.
अवधी हाइकु सलिला:
*



सुखा औ दुखा
रहत है भइया
घर मइहाँ.
*
घाम-छांहिक
फूला फुलवारिम
जानी-अंजानी.
*
कवि मनवा
कविता किरनिया
झरझरात.
*
प्रेम फुलवा
ई दुनियां मइहां
महकत है.
*
रंग-बिरंगे
सपनक भित्तर
फुलवा हन.
*
नेह नर्मदा
हे हमार बहिनी
छलछलात.
*
अवधी बोली
गजब के मिठास
मिसरी नाई.
*
अवधी केर
अलग पहचान
हृदयस्पर्शी.
*
बेरोजगारी
बिखरा घर-बार
बिदेस प्रवास.
*
बोली चिरैया
झरत झरनवा
संगीत धारा.
***
भोजपुरी हाइकु
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि
भारत देसवा के
प्रेरण-स्रोत.
*
भुला दिहिल
बटोहिया गीत के
हम कृतघ्न.
*
देश-उत्थान?
आपन अवदान?
खुद से पूछ.
*
अंगरेजी के
गुलामी के जंजीर
साँच साबित.
*
सुख के धूप
सँग-सँग मिलल
दुःख के छाँव.
*
नेह अबीर
जे के मस्तक पर
वही अमीर.
*
अँखिया खोली
हो गइल अंजोर
माथे बिंदिया.
*
भोर चिरैया
कानन में मिसरी
घोल गइल.
*
काहे उदास?
हिम्मत मत हार
करल प्रयास.
*



टिकट संग्रह



डाक टिकटों पर कमल
-- पूर्णिमा वर्मन --
१९७७ में भारत द्वारा जारी डाकटिकट


संपूर्ण विश्व की संस्कृति को जिस प्रकार कमल के फूल ने प्रभावित किया है उसको देखते हुए अनेक देशों के डाकटिकटों पर कमल की उपस्थिति स्वाभाविक ही है। भारत और वियतनाम का तो यह राष्ट्रीय पुष्प भी है इसलिए इन दोनो देशों के डाकटिकटों पर कमल का चित्र होना सबसे महत्त्वपूर्ण है। १ जुलाई १९७७ को डाक विभाग द्वारा जारी किए गए ऊपर दिखाए गए २५ पैसे के डाकटिकट को ४ डाकटिकटों के एक सेट के साथ जारी किया गया था। अन्य फूल थे- कदंब, बुरांस और करिहारी।

यों तो वियतनाम में कमल के फूल पर की शृंखलाएँ जारी की गई हैं लेकिन १९७८ में तीन रंगों वाली एक विशेष शृंखला जारी की गई थी जिसमें कमल की तीन प्रजातियों को सफेद, नीले और पीले रंगों में चित्रित किया गया था। एक और बारह वियतनामी डालर मूल्य वाले इन डाक टिकटों पर फोटो के स्थान पर कलाकृतियों को स्थान दिया गया है।








चीन अपनी जलरंगों द्वारा बनी कलाकृतियों के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। चीन के डाक विभाग द्वारा ४ अगस्त १९८० को कला की इसी विधा पर आधारित एक अत्यंत आकर्षक डाकटिकट जारी किया गया था। बेजिंग पोस्टेज स्टाम्प प्रिंटिंग प्रेस द्वारा मुद्रित इस टिकट के कलाकार थे चेन ज़ियांकुन। ७०.५२ मिमि के बड़े आकार वाले ९४ फेन मूल्य के इस डाकटिकट पर पत्तों के साथ कमल को जिस कुशलता से चित्रित किया है वह चीनी जलरंगों के तरल सौदर्य का सटीक उदाहरण है।


मलेशिया द्वारा ३१ दिसंबर २००७ को जारी बगीचे के फूलों पर आधारित ६ डाकटिकटों के एक सेट में कमल के फूल को स्थान दिया गया है। अपनी समृद्ध और अनगिनत पुष्प प्रजातियों के लिए प्रसिद्ध मलेशिया के सबाह और सरवक प्रांत की स्वस्थ जलवायु में फूल बहुतायत से उगते हैं। डाक-टिकटों के इस सेट पर ५ से ५० सेन मूल्य वाले टिकटों पर कमल के अतिरिक्त गुड़हल, बोगनविला, मार्निंग ग्लोरी, लिली और हाइड्रेन्जिया को स्थान दिया गया है। इसके साथ ही एक बड़ा सुंदर प्रथम दिवस आवरण भी जारी किया गया है। इसे डाकटिकट पर क्लिक कर के देखा जा सकता है।



अत्यंत आकर्षक प्रथम दिवस आवरण के साथ १४ मार्च २००८ को जारी कमल का एक और टिकट हांगकांग का है। सुंदर बगीचे की पृष्ठभूमि वाले इस प्रथम दिवस आवरण के साथ छह टिकटों को जारी किया गया था पारंपरिच चीनी शैली में बनी इन फूलों वाली कलाकृतियों के लिए प्रथम दिवस आवरण को कंप्यूटर पर तैयार कर के इसे आधुनिक और पारंपरिक कला के नमूने के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस पर लाल चीनी पलाश और गुडहल, गुलाबी कमल और अज़ेलिया, बैंगनी मार्निंग ग्लोरी और पीले अलामांडा के चित्र थे।


१९६४ में स्विटज़रलैंड द्वारा कमल का एक सुंदर डाक टिकट प्रकाशित किया गया था। नीले रंग की पृष्ठभूमि पर निम्फिया अल्बा नामक श्वेत कमल के चित्र वाले इस टिकट का मूल्य ५० स्विस फ्रैंक था। इस शृंखला में दो चित्र और प्रकाशित किए गए थे जिसमें एक पर डौफोडिल और दूसरे पर गुलाब के चित्र अंकित किए गए थे।


इस शृंखला में प्रकाशित अन्य टिकटों पर डैफोडिल और गुलाब के फूलों के चित्र प्रकाशित किए गए थे। इसी प्रकार २००२ में आस्ट्रेलिया द्वारा कमल पर आधारित दो टिकटों वाली एक सुंदर टिकट शृंखला प्रकाशित की गई थी। इसमें एक पर गुलाबी कमल था तो दूसरे पर नील कमल। २००६ में कमल पर ही एक और शृंखला जारी की गई जिसमें कमल की अलग अलग पाँच प्रजातियों को प्रदर्शित किया गया था।

२००७ में यू एस के प्रांत ओरेगन के डाक विभाग ने फूलों के सुंदर चित्रों वाली १० टिकटों की एक शृंखला ब्यूटीफुल ब्लूम्स शीर्षक से प्रकाशित की थी जिसमें वाटर लिली के फूल को भी स्थान मिला था। कैलिफोर्निया प्रांत के कुलवर सिटी निवासी फोटोग्राफर मार्क लीटा ने इन टिकटों के लिए फोटोग्राफी की थी। कला निर्देशक कार्ल टी हरमन के निर्देशन में बने इन टिकटों के स्पष्ट दृश्यों के लिए इनके मुद्रण का स्तर बहुत अच्छा रखा गया था। इसके साथ जिन अन्य फूलों को शामिल किया गया था उनमें आइरिस, मंगोलिया, डहेलिया, लाल जरबेरा, कोन फ्लावर, ट्यूलिप, पौपी, गुलदावदी और नारंगी जरबेरा थे।



९ अक्तूबर २००६ को यूक्रेन द्वारा १८ टिकटों की एक शृंखला २००१ से २००६ तक जारी विशिष्ट टिकटों की स्मृति में जारी की की गई थी। १६० x ११० मिली मीटर आकार के एक पत्र (शीट) पर प्रकाशित इन स्मारक टिकटों में एक टिकट पर श्वेत कमल का चित्र प्रकाशित किया गया था। इस पत्र के हाशियों पर सुंदर चित्रकारी की गई थी और दो भाषाओं यूक्रेन व रूसी में विवरण लिखा गया था- यूक्रेन के विशेष टिकटों का पाँचवाँ और छठा संस्करण। बायीं ओर के चित्र में नीचे की पंक्ति में बीच वाले टिकट पर श्वेत कमल के चित्र को देखा जा सकता है। इनकी ३०० प्रतियों को १०वी राष्ट्रीय डाक टिकट प्रदर्शनी में लोगों का ध्यान यूक्रेन के डाकटिकटों की ओर आकर्षित करने के लिए भेजा गया था। इस पूरे चित्र को बायीं और के चित्र को क्लिक कर के देखा जा सकता है।
१५ नवंबर २००८ को थाईलैंड पोस्ट ने कमल के फूलों के ४ टिकटों की एक शृंखला जारी की थी। इस पर कमल की चार परिष्कृत जातियों के चित्र थे। इन फूलों को प्रयोगशाला में मेक्सिकाना और पेरिस फाइव ओ जातियों से परिष्कृत कर के विकसित किया गया है। परिष्कार करनेवाले वैज्ञानिक का नाम प्रो. डॉ. नोपाचाई चान्सिल्वा भी इसके साथ वितरित जानकारी पर अंकित किया गया था। इन कमल के फूलों में घनी पंखुड़ियों की कई तहें विकसित की गई हैं। अलग अलग रंगों के फूलों के संकर से इन्हें नए मिश्रित रंग भी प्रदान किए गए हैं। दाहिनी ओर के चित्र पर क्लिक कर के चार टिकटों वाली इस शृंखला के सभी चित्रों को देखा जा सकता है।



स्लोवानिया के डाक विभाग द्वारा २६ सितंबर २००७ को श्वेत कमल के चित्र वाला एक डाकटिकट जारी किया था। इसे ६०x७० मिली मीटर के एक आकर्षक पत्र (शीट) पर ४ रंगों वाली आफसेट प्रिंटिंग में प्रकाशित किया गया था तथा बाहरीन के ओरिंएँटल प्रेस में इसकी छपाई हुई थी। बेली लोकवांज नामक स्लोवाकियन श्वेत कमल की यह प्रजाति पर लुप्त होने का संकट मंडरा रहा है। एक ओर जहाँ परागण के कारण इसका रंग बिगड़ने का डर बना रहता है वहीं दूसरी ओर कुछ मछलियों का यह अत्यंत प्रिय आहार है। रंगीन प्रजातियाँ आकर्षक दिखने के कारण लोग अपने बगीचों के लिए श्वेत कमल खरीदना अधिक पसंद नहीं करते इस कारण इसके उगाने में भी लोगों की रुचि कम हो रही है।
साभार : अभिव्यक्ति
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***

नवगीत:
पैर हमारे लात हैं....
संजीव 'सलिल'
*











*
पैर हमारे लात हैं,
उनके चरण कमल.
ह्रदय हमारे सरोवर-
उनके हैं पंकिल...
*





पगडंडी काफी है हमको,
उनको राजमार्ग भी कम है.
दस पैसे में हम जी लेते,
नब्बे निगल रहा वह यम है.
भारतवासी आम आदमी -
दो पाटों के बीच पिस रहे.
आँख मूँद जो न्याय तौलते
ऐश करें, हम पैर घिस रहे.


टाट लपेटे हम फिरें
वे धारे मलमल.
धरा हमारा बिछौना
उनका है मखमल...
*
अफसर, नेता, जज, व्यापारी,
अवसरवादी-अत्याचारी.
खून चूसते नित जनता का,
देश लूटते भ्रष्टाचारी.
हम मर-खप उत्पादन करते,
लूट तिजोरी में वे भरते.
फूट डाल हमको लड़वाते.
थाना कोर्ट जेल भिजवाते.




पद-मद उनका साध्य है,
श्रम है अपना बल.
वे चंचल ध्वज, 'सलिल' हम
हैं नींवें अविचल...
*






पुष्कर, पुहुकर, नीलोफर हम,
उनमें कुछ काँटें बबूल के.
कुई, कुंद, पंकज, नीरज हम,
वे बैरी तालाब-कूल के.
'सलिल'ज क्षीरज हम, वे गगनज
हम अपने हैं, वे सपने हैं.
हम हरिकर, वे श्रीपद-लोलुप
मनमाने थोपे नपने हैं.





उन्हें स्वार्थ आराध्य है,
हम न चाहते छल.
दलदल वे दल बन करें
हम उत्पल शतदल...






अभिनव प्रयोग- गीत: कमल-कमलिनी विवाह संजीव 'सलिल'

कमल-कमलिनी विवाह

संजीव 'सलिल'
*



* रक्त कमल

अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
*
* हिमकमल
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.

कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर

यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*




* नील कमल
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.

बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया

अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
*
 श्वेत कमल
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.

असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे

श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
***************




* ब्रम्ह कमल

टिप्पणी:

* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत, कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना अत्यधिक लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?

* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.

* हिम कमल: विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।
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विमर्श
रूढ़ियाँ और तथ्य
पिछले दिनों लेखिकाओं की आपबीती बयान करने वाली तथा नारी की निष्ठुर नियति का सर्जनात्मक चित्रण करने वाली आत्मकथाओं के अंशों का संकलन कर सुविख्यात कथाकार, सम्पादक और चिन्तक राजेन्द्र यादव के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक ’देहरी भई बिदेस’ की चर्चा चली तो हमारे मानस में वह दिलचस्प और रोमांचक तथ्य फिर उभर आया कि बहुधा कुछ उक्तियाँ, फिकरे या उद्धरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता, कभी यह ध्यान में नहीं आता कि वह उद्धरण ही गलत है, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं जो उस फिकरे में लोककंठ में आ बसी है।
’देहरी भई बिदेस’ भी ऐसा ही उद्धरण है जो कभी था नहीं, किन्तु सुप्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये।
पुरानी पीढी के वयोवृद्ध गायकों को तो शायद मालूम ही होगा कि वाजिद अली शाह की सुप्रसिद्ध शरीर और आत्मा के प्रतीकों को लेकर लिखी रूपकात्मक ठुमरी "बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय" सदियों से प्रचलित है जिसके बोल लोककंठ में समा गये हैं - "चार कहार मिलि डोलिया उठावै मोरा अपना पराया छूटो जाय" आदि। उसमें यह भी रूपकात्मक उक्ति है - "देहरी तो परबत भई, अँगना भयो बिदेस, लै बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस"। जैसे परबत उलाँघना दूभर हो जाता है वैसे ही विदेश में ब्याही बेटी से फिर देहरी नहीं उलाँघी जाएगी, बाबुल का आँगन बिदेस बन जाएगा। यही सही भी है, बिदेस होना आँगन के साथ ही फबता है, देहरी के साथ नहीं, वह तो उलाँघी जाती है, परबत उलाँघा नहीं जा सकता, अतः उसकी उपमा देहरी को दी गई। हुआ यह कि गायक शिरोमणि कुन्दनलाल सहगल किसी कारणवश बिना स्क्रिप्ट के अपनी धुन में इसे यूँ गा गये "अँगना तो परबत भया देहरी भई बिदेस" और उनकी गाई यह ठुमरी कालजयी हो गई। सब उसे ही उद्धृत करेंगे। बेचारे वाजिद अली शाह को कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि बीसवीं सदी में उसकी उक्ति का पाठान्तर ऐसा चल पडेगा कि उसे ही मूल समझ लिया जाएगा। सहगल साहब तो ’चार कहार मिल मोरी डोलियो सजावैं" भी गा गये जबकि कहार डोली उठाने के लिए लगाये जाते हैं, सजाती तो सखियाँ हैं। हो गया होगा यह संयोगवश ही अन्यथा हम कालजयी गायक सहगल के परम प्रशंसक हैं।

नई पीढी को उस गीत की तो शायद याद भी नहीं होगी जो सुप्रसिद्ध सुगम संगीत गायक जगमोहन ने गाया था और गैर-फिल्मी सुगम संगीत में सिरमौर हो गया था - ’ये चाँद नहीं, तेरी आरसी है।’ उसमें गाते-गाते एक बार उनके मुँह से निकल गया "ये चाँद नहीं तेरी आरती है।" बरसों तक यह बहस चलती रही कि मूल पाठ में ’आरसी"शब्द है या ’आरती"।

लोकप्रसिद्धि और चलन में आ जाने के कारण खोटे-खरे सिक्के के अन्तर करने में तथा मूलतः किसी उक्ति का क्या आशय रहा होगा इसके निर्णय में कैसी मुश्किलें आती हैं इसके अनेक उदाहरण हैं। केवल दो-एक ही नमूने की दृष्टि से प्रस्तुत हैं। एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है - ’अक्ल बडी कि भैंस "? इसका अर्थ दशकों से हमारे समझ में नहीं आता था, भला अक्ल और भैंस की तुलना क्यों की जा रही है ? क्या भैंस को बेअक्ल मानने के कारण ? हमने बुजुर्गों से पूछा तो जितने मुँह उतने निर्वचन सामने आये। कुछ ने कहा भैंस जैसी मोटी अक्ल की दृष्टि से यह कहा गया होगा। कुछ समझदारों ने यह तरीका निकाला कि यह मूलतः ’अक्ल बडी कि बहस"? रहा होगा। बहस करने से गलत को सही थोडे ही बताया जा सकता है। जिन्होंने यह समझाया कि हमारे यहाँ प्राचीनकाल से यह अवधारणा चली आ रही है कि केवल उम्रदराज होने से ही आदमी बडा नहीं हो जाता, जो बुद्धिमान है वही बडा होता है - "अक्ल बडी कि वयस (उम्र) "?, वह बात अवश्य हमारे गले उतरी। मनुस्मृति से लेकर आज तक संस् त की उक्ति प्रसिद्ध है कि जो बुद्धिमान है वह महान् है, केवल वयोवृद्ध नहीं, हमें ज्ञानवृद्ध होना चाहिए आदि। "अक्ल बडी कि वयस" में वयस भैंस हो गई। अपभ्रंश की यही तो सरणि होती है।

इसी प्रकार हमारे समय में इस लोकोक्ति का अर्थ कभी नहीं आया था - "दूर के ढोल सुहावने होते हैं।" लोगों ने बहुत विवेचन किया कि पास से ढोल कर्णकटु लगता है, दूर से ही सुहावना लगता है पर यह इसलिए ठीक नहीं लगा कि सुहावना दृश्य होता है, श्रव्य नहीं। इसका रहस्य तब समझ में आया जब संस् त की वह प्रसिद्ध सूक्ति ध्यान में आई जिसमंि कहा गया कि तीन चीजें दूर से ही सुहावनी लगती हैं - पहाड दूर से रम्य लगते हैं, वेश्या का शृंगार दूर से ही अच्छा लगता है, युद्ध की चर्चा ही अच्छी होती है, युद्ध वस्तुतः विनाशक होता है। ’दूरस्थाः पर्वता रम्याः" उक्ति सुप्रसिद्ध है। यह पहले राजस्थानी में गई ’दूर के टोल सुहावने लगते हैं" बनकर और हिन्दी में बन गई "दूर के ढोल" क्योंकि वहाँ ढोल नहीं होते। राजस्थानी में टोळ अनगढ पत्थर पहाडी, टीला आदि के लिए आता है जो ऊबड-खाबड होता है पर दूर से हरियाली आदि के कारण सुरम्य लगता है।
इसी प्रकार की एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है - ’कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली ’? इसका अर्थ समझे बिना हम इसका प्रयोग ऐसे अवसरों पर करते हैं जब कोई किसी अत्यन्त समर्थ या समृद्ध व्यक्ति की तुलना किसी दरिद्र से करने लगता है। इसका अर्थ भी किसी ने हमें सही ढंग से नहीं बतलाया था। हम यही समझते थे कि राजा भोज के राज में कोई तेली गंगाराम नाम का रहा होगा जिसकी तुलना राजा भोज से करना नितान्त हास्यास्पद माना गया। इस लोकोक्ति का सही अर्थ तब समझ में आया जब डॉ. विद्यानिवास मिश्र जैसे कुछ प्राच्य विद्याविदों ने मध्यकालीन इतिहास में एक तथ्य की ओर संकेत कर यह समझाया कि यह लोकोक्ति धारानगरी के नरेश राजा भोज की वीरता को लक्ष्य कर कही गई थी। भोज के समकालीन दो राज्य और थे जिन्होंने धारानगरी पर चढाई कर राजा भोज को हराना चाहा था। ये थे कलचुरिनरेश राजा गांगेय और चालुक्यनरेश तैलप। इन्होंने मिलकर राजा भोज पर आक्रमण किया था पर उसे नहीं हरा सके थे। ये ही गंगू और तेली हैं। दोनों मिलकर भी राजा भोज की बराबरी नहीं कर पाये यह बतलाने के लिए यह उक्ति चल पडी "कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू और तेली"? और हम समझते हैं कि गंगू नाम का एक कोई तेली था जिसकी तुलना राजा भोज से करने पर तुलना करने वाले की हँसी उडाई जाती है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने अपने प्रसिद्ध निबन्ध "कलचुरियों की राजधानी" में इस सारे इतिहास का विवरण दिया है।
यह तो बात हुई लोकोक्तियों की जिनका अर्थ लगाने में भ्रान्तियों के कैसे-कैसे कुहासे हमारी दृष्टि को ढके रखते हैं इसका कुछ अन्दाजा अब आपको हो गया होगा। कुछ प्रसिद्ध दोहे भी ऐसे हैं जिनके अर्थ के बीच में कुहासे आ जाते हैं। बिहारी सतसई के दोहे प्रसिद्ध हैं। उनकी तारीफ में यह दोहा बहुत प्रचलित हो गया है - ;सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर’। देखन में छोटे लगैं, घाव करैं गंभीर। इसमें नावक के तीर क्या होते हैं यह तो हम समझते नहीं, इसे बोलते हैं "नाविक के तीर" क्योंकि नाविक का अर्थ हम जानते हैं नाव चलाने वाला। पर नाव चलाने वाला तो पतवार चलाता है, तीर नहीं चलाता। फिर इसका अर्थ क्या होगा ? इसका अर्थ भी मध्यकालीन "नावक" का अर्थ समझे बिना नहीं लगाया जा सकता। जब बारूद का प्रचलन हो गया तो नुकीले लोहे के तीर छोटी तोप में बारूद भरकर उससे इतनी जोर से छोडे जाते थे कि शरीर के आरपार भी हो जाते थे। इस छोटी तोपची या तोप को ही "नावक" कहा जाता था (यह फारसी शब्द है)। उससे चले तीर छोटे तो होते थे पर तेजी से घुस जाते थे शरीर में। ये नावक ज्यादातर ऊँट या हाथी की पीठ पर लादकर सेना के साथ ले जाए जाते थे। अब नावकों का चलन तो रहा नहीं, अतः हमें "नाविक" ही समझ में आता है और बडे-बडे विद्वान भी कुछ इसी प्रकार का अर्थ करने लग जाते हैं। क्या किया जाए ?
ये कुछ दिलचस्प उदाहरण है बहुप्रचलित भ्रान्तियों के। जब तक इनका वास्तविक अर्थ समझने के स्रोत उपलब्ध हैं तब तक भले ही इनका सही रहस्य हम समझ लें अन्यथा लोक प्रचलन अर्थ को कहाँ से कहाँ ले जा सकता है, इसका अन्दाजा आप इन्हें देखकर भलीभाँति लगा सकते हैं।

इसी प्रकार सामन्तकालीन अभिवादन शैली का एक वाक्यांश सदियों से सुप्रचलित है। जनतंत्र् के सुप्रतिष्ठित होने के बाद ऐसी अभिवादन शैलियाँ विरल अवश्य हो गई थीं, किन्तु सामन्तकालीन परिवेश पर बने दूरदर्शन आदि के धारावाहिकों के कारण यह अभिवादन फिर सुना जाने लगा है। यह है अनुयायियों, अधीनस्थों तथा कनिष्ठों आदि के द्वारा राजा, राजवर्गीय वरिष्ठ व्यक्ति या सामन्त के अभिवादन करते समय बोला जाने वाला वाक्यांश - ’घणी खम्मा’ या ’खम्मा घणी’। यह क्यों बोला जाता है इस पर हमें सदा जिज्ञासा रही थी। सदियों से अधिकांश लोग अर्थ समझे बिना इसे राजवर्गीय सम्मानित व्यक्ति को अभिवादन करते समय बोल देते थे। हाल ही में एक सीरियल में तो इसे उत्तर-प्रत्युत्तर शैली द्वारा इस प्रकार बोलते देखा गया है कि पहला ’घणी खम्मा’ कहता है, दूसरा प्रत्युत्तर में ’खम्मा घणी’ कहता है,जैसे ’सलाम अलैकुम’ सुनकर प्रत्युत्तर में ’अलैकुम अस सलाम"बोला जाता है।

अधिकतर लोग इसका अर्थ क्षमा शब्द से लगाते हैं और समझते हैं कि अभिवादक चाहता है कि उस पर घणी (बहुत) क्षमा रखी जाए, अर्थात् वह अपराध करता भी जाए तो उसे क्षमा किया जाता रहे। हमें सदा से यह जिज्ञासा रही थी कि ’क्षमा’ शब्द की बजाय ’ कृपा’, ’दया’ बनी रहे ऐसे शब्द उचित रहते, क्षमा तो गलती होने पर ही की जाती है। संस् त, प्रा त, राजस्थानी और मध्यकालीन इतिहास के परिनिष्ठित प्राचीन पंडितों से जब इसका रहस्य पूछा गया तो उन्होंने इसका जो अर्थ बताया उसे सुनकर हमें विनोदमिश्रित आश्चर्य हुआ, यह भय भी लगा कि यदि इसका यह वास्तविक अर्थ किसी को बताएँगे तो वह शायद ही विश्वास करे, हमें पागल भी समझ सकता है पर इसका वास्तविक रहस्य यही है।

वस्तुतः सामन्त लोग अपने राजा को इसी कामना के साथ अभिवादन करते थे कि ’आपकी दीर्घ आयु हो"। सर्वत्र् सामन्तीकाल में ऐसे ही अभिवादन होते थे जैसे अंग्रेजी में लॉङ्ग लिव द किंग अभिव्यक्ति सुविदित है। इसके लिए बोला जाता था ’घणी आयुष्यम्" (घणी आयु हो आपकी) राजस्थानी में आयुष्यम् ’आयुख्यम्म" बोला जाता है। अतः यों बोला जाता था यह वाक्यांश "घणी आयुख्यम्मा" धीरे-धीरे ’अ’ गायब हुआ, "युख्यम्मा’ रह गया, फिर ’यु’ भी गायब हुआ, ’घणी ख्यम्मा’ रह गया और आज जो बोला जाता है वह आप जानते ही हैं। ’ख्यम्मा घणी’ और ’घणी ख्यम्मा’ दोनों का अर्थ एक ही है, किन्तु जिस प्रकार चलन में इसका अपभ्रंश कर दिया है उसके कारण इसका वास्तविक अर्थ बतलाने वाला पागल या झाँसेबाज समझा जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं। हमने भी इस अर्थ को झाँसा ही समझा था पर जब मुनि जिनविजय जी से लेकर स्वामी नरोत्तमदास जी, पं. गोपालनारायण वहुरा आदि सभी ने इसी तथ्य की पुष्टि की तब हमें विश्वास हुआ।

चलन में सदियों से आकर शब्द किस प्रकार बदल जाते हैं इसके ठीक इसी प्रकार के अनेक उदाहरण वयोवृद्ध व्यक्तियों को आज भी याद होंगे, यद्यपि नई पीढी को तो वे शब्द ही अजूबा लग सकते हैं। राजस्थानी में एक शब्द बोला जाने लगा था ’’खैरसल्ला’। इसका प्रयोग कभी तो बात की समाप्ति हेतु होता था, कभी लापरवाही बताने के लिए, कभी ’सब कुछ चलता है’ के अर्थ में। इसका अर्थ क्या है यह भी जब विद्वानों ने बताया तो हमारी आँख खुली। पूरा वाक्य इस प्रकार बोला जाता था ’अल्ला-अल्ला, खैर सल्ला’ अर्थात् भगवान की कृपा से सब कुछ ठीक है। अल्ला अल्ला तो इसमें समझ में आता ही है ’खैर सल्ला’ क्या है ? यह वस्तुतः ’खैर-उल-इस्लाम’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है इस्लाम की खैर हो। वह उसी पद्धति के अनुरूप बोला जाता था जिसमें ’अस सलाम अलैकुम’ बोलकर सवाल का जवाब दिया जाता है। ’खैर उल इस्लाम’, ’खैर सल्लाम’ बना, फिर ’खैर सुल्ला’ रह गया। आज इसका यह रहस्य बतलाने वाले को भी पागल समझा जाने का डर अवश्य लगेगा। हो सकता है ’खैर सल्ला’ ही कम लोगों ने सुना हो।

बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि अंग्रेजी राज में रात को गश्त लगाने वाले संतरी (जो सेंटिनल शब्द का अपभ्रंश है) सुरक्षा के अन्तर्गत आने वाले स्थल के आगे घूमते रहते थे और कई बार यह नारा लगाते थे ’हुकम सदर’। हमने बाल्यकाल में (स्वतंत्र्ता से पूर्व अंग्रेजी राज में) जब यह फिकरा सुना तो इसका यही अर्थ समझा कि ’सदर’ (मालिक) के हुकम से यह हो रहा है पर इसका यह अर्थ नहीं था। जब पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी ने इसका रहस्य समझाया तब विनोदमिश्रित आश्चर्य होना ही था। वस्तुतः यह अंग्रेजी वाक्य है जो संतरी किसी भी अजनबी को गश्त के समय देखते ही यह पूछने हेतु बोला था - ’तुम कौन हो’ ? ’कौन आ रहा है’ ? ’हू कम्स देयर’ ? (Who comes there ?) यह ’हुकमसदेयर’ हुआ, फिर ’हुकम सदर’ हो गया। ऐसे अनेक फिकरे हैं जो अन्य भाषाओं से हमारी अपनी भाषाओं में आते-आते बदल गए हैं, जिनका अध्ययन ज्ञानवर्धक और मनोरंजक होगा।
***
किस रचना में नही रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*
बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*
कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...

८-७-२०१०
***


गीत जिसने कविता को स्वीकारा, कविता ने उसको उपकारा.
शब्द्ब्रम्ह को नमन करे जो, उसका है हरदम पौ बारा..

हो राकेश दिनेश सलिल वह, प्रतिभा उसकी परखी जाती-
होम करे पल-पल प्राणों का, तब जलती कविता की बाती..

भाव बिम्ब रस शिल्प और लय, पञ्च तत्व से जो समरस हो.
उस कविता में, उसके कवि में, पावस शिशिर बसंत सरस हो..

कविता भाषा की आत्मा है, कविता है मानव की प्रेरक.
राजमार्ग की हेरक भी है, पगडंडी की है उत्प्रेरक..

कविता सविता बन उजास दे, दे विश्राम तिमिर को लाकर.
कविता कभी न स्वामी होती, स्वामी हों कविता के चाकर..

कविता चरखा, कविता चमडा, कविता है करताल-मंजीरा.
लेकिन कभी न कविता चाहे, होना तिजोरियों का हीरा..

कविता पनघट, अमराई है, घर-आँगन, चौपाल, तलैया.
कविता साली-भौजाई है, बेटा-बेटी, बाबुल-मैया..

कविता सरगम, ताल, नाद, लय, कविता स्वर, सुर वाद्य समर्पण.
कविता अपने अहम्-वहम का, शरद-पग में विनत विसर्जन..

शब्द-साधना, सताराधना, शिवानुभूति 'सलिल' सुन्दर है.
कह-सुन-गुन कवितामय होना, करना निज मन को मंदिर है..

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जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
७-७- २०१०
*

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

सॉनेट, ग्रामीण संस्कृति, नागर संस्कृति, दोहे, दिल, हाइकु गीत, गीत

सॉनेट
अँगुली
*
ठेंगा देखा-दिखा रहे हम
पा आजादी, मोल न जानें
लगा अँगूठा अँखियाँ थीं नम
पढ़-लिख बढ़ना मन में ठानें

दादागिरी अँगूठा करता
अंगुलियों को रही शिकायत
एक दबाए चार-चार को
आओ! हम मिल करें बगावत

लोकतंत्र मतदान दिवस पर
उठी तर्जनी नेता चुनने
पहन अँगूठी झट अनामिका
सपने लगी ब्याह के बुनने

मिली कनिष्ठा अरु अनामिका
राज्य हो गया साम-दाम का
७-७-२०२२
•••
विमर्श
ग्रामीण संस्कृति नागर संस्कृति

यह बहुत समीचीन और सामाजिक विषय है भारत माता ग्रामवासिनी कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था क्या आज हम यह कह सकते हैं क्या हमारे ग्राम अब वैसे ग्राम बचे हैं जिन्हें ग्राम कहा जाए गांव की पहचान पनघट चौपाल खलिहान वनडे घुंघरू पायल कंगन बेंदा नथ चूड़ी कजरी आल्हा पूरी राई अब कहां सुनने मिलते हैं इनके बिना गांव-गांव नहीं रहे गांव शरणार्थी होकर शहर की ओर आ रहा है और शहर क्या है जिनके बारे में अज्ञ लिखते हैं सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं शहर में बसना तुम्हें नहीं आया एक बात पूछूं उत्तर दोगे डसना कहां से सीखा जहर कहां से पाया तो शहर में जहां आदमी आदमी को डसना सीखता है जहां आदमी जहर पालना सीखता है तो वह गांव जो पुरवइया और पछुआ से संपन्न था वह गांव जो अपनेपन से सराबोर था वह गांव जो रिश्ते नातों को जीना जानता था वह गांव जहां एक कमाता वह खा लेते थे वह भागकर चेहरा रहा है कौन से शहर में जहां 6 काम आए तो 1 को नहीं पाल सकते जहां सांस लेने के लिए ताजी हवा नहीं है जहां रास्तों की मौत हो रही है जहां माता-पिता के लिए वृद्ध आश्रम बनाए जाते हैं जहां नौनिहालों के लिए अनाथालय बनाए जाते हैं जहां निर्मल ओं के लिए महिला आश्रम आश्रम रैन बसेरों की व्यवस्था की जाती है हम जीवन को कहां से कहां ले जा रहे हैं यह सोचने की बात है क्या हम इन चेहरों को वैसा बना पाएंगे जहां कोई राधा किसी का ना के साथ राजा पाए क्या यह शहर कभी ऐसे होंगे जहां किसी मीरा को कष्ट का नाम लेने पर विश्वास न करना पड़े शहरों में कोई पार्वती कवि किशन कर पाएगी हम ना करें लेकिन सत्य को भी ना करें हम अपनों को ऐसा शहर कब बना सकते हैं अपने गांव को शहर की ओर भागने से कैसे रोक सकते हैं यह हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए हमारी सरकारें लोकतंत्र के नाम पर चन्द्र के द्वारा लोक का गला घोट रहे हैं जिनके नाम पर उनके द्वारा जनमत को कुचल रही हैं हमारे तंत्र की कोई जगह नहीं है हमारा को केवल गुलाम समझता है आप किसी भी सरकारी कार्यालय में जाकर देखें आपको एक मेज और कुर्सी मिलेगी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति के सामने खड़े व्यक्ति को क्या अपना अन्नदाता समझता है यह व्यक्ति है उसके द्वारा दी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की तनखा का भुगतान होता है लेकिन मानसिकता की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने आपको राजा समझता है गुलाम शायद पराधीनता काल में हम इतने पराधीन नहीं थे जितने अभय हमारे गांव स्वतंत्रता पूर्वक ने बेबस नहीं थे जितने अब हैं स्वतंत्रता के पूर्व हमारे आदिवासी का वनों पर अधिकार था जो अब नहीं है पहले वह महुआ तोड़ कर बैठ सकता था पेट पाल सकता था अपराधी नहीं था अब वह वनोपज तोड़ नहीं सकता वह वन विभाग की संपत्ति है पहले सरकारी जमीन पर आप पेड़ होए तो जमीन भले सरकार की हो पेड़ की फसल आपकी होती थी आप का मालिकाना हक होता था अब नहीं पहले किसान फसल उगाता था घर के पन्नों में भर लेता था विजय बना लेता था जब जितने पैसे की जरूरत है उतनी फसल निकालकर भेजता था और अपना काम चलाता था अब किसान बीज नहीं बना सकता यह अपराधी अपनी फसल नहीं सकता बंधुआ मजदूर की तरह कृषि उपज मंडी में ले जाने के लिए विवश है जहां उसे फसल को गेहूं को खोलने के लिए रिश्वत देनी पड़ती जहां रिश्वत देने पर घटिया गेहूं के दाम ज्यादा लग जाते हैं जहां रिश्वत न देने पर लगते हैं हम हम शहरों की ओर जा सके हमारा शहरीकरण कम हो गांधी ने कहा था कि हम कुटीर उद्योगों की बात करें उद्योगों की बात करें हमारे गांव आत्मनिर्भर आज उन्होंने हमें यही सबक दिया कि गांव के शहरों में जाकर अपना पसीना बहाकर सेठ साहूकारों उद्योग पतियों की बिल्डिंग खड़ी करते हैं उन्हें अरबपति बनाते हैं उद्योगपति हैं कि संकट आने पर अपनों को अपनों को 2 महीने 4 महीने भी नहीं सकते गांव के बेटे को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा उस गांव में रोजी-रोटी ना होने के कारण छोड़ कर गया था अब जब ढलान पर है उसे क्या काम मिलेगा लेकिन मुझे विश्वास है उसे पा लेगा क्योंकि गांव के मन में उदारता है शहर में पड़ता है शहर में कुटिलता है गांव में सरलता है लेकिन हमारे को भी राजनीति राजनीति सामाजिक जीवन सुखद हो पाएगा हमारे मन में बसे निर्मल हो।
७-७-२०२०
***
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
७-७-२०१९
***
दोहा सलिला:
*
अधिक कोण जैसे जिए, नाते हमने मीत।
न्यून कोण हैं रिलेशन, कैसे पाएँ प्रीत।।
*
हाथ मिला; भुज भेंटिए, गले मिलें रह मौन।
किसका दिल आया कहाँ बतलायेगा कौन?
*
रिमझिम को जग देखता, रहे सलिल से दूर।
रूठ गया जब सलिल तो, उतरा सबका नूर।।
*
माँ जैसा दिल सलिल सा, दे सबको सुख-शांति।
ममता के आँचल तले, शेष न रहती भ्रांति।।
*
वाह, वाह क्या बात है, दोहा है रस-खान।
पढ़; सुन-गुण कर बन सके, काश सलिल गुणवान।।
*
आप कहें जो वह सही, एक अगर ले मान।
दूजा दे दूरी मिटा, लोग कहें गुणवान।।
*
यह कवि सौभाग्य है, कविता हो नित साथ।
चले सृजन की राह पर, लिए हाथ में हाथ।।
*
बात राज की एक है, दीप न हो नाराज।
ज्योति प्रदीपा-वर्तिका, अलग न करतीं काज।।
*
कभी मान-सम्मान दें, कभी लाड़ या प्यार।
जिएँ ज़िंदगी साथ रह, करें मान-मनुहार।।
*
साथी की सब गलतियाँ, विहँस कीजिए माफ़।
बात न दिल पर लें कभी, कर सच्चा इंसाफ।।
*
साथ निभाने का यही, पाया एक उपाय।
आपस में बातें करें, बंद न हो अध्याय।।
*
खुद को जो चाहे कहो, दो न और को दोष।
अपना गुस्सा खुद पियो, व्यर्थ गैर पर रोष।।
*
सबक सृजन से सच मिला, आएगा नित काम।
नाम मिले या मत मिले, करे न प्रभु बदनाम।।
*
जो न सके कुछ जान वह, सब कुछ लेता जान।
जो भी शब्दातीत है, सत्य वही लें मान।।
*
ममता छिप रहती नहीं, लिखा न जाता प्यार।
जिसका मन खाली घड़ा, करे शब्द-व्यवहार।।
***
दोहा सलिला:
*
दिल ने दिल को दे दिया, दिल का लाल सलाम।
दिल ने बेदिल हो कहा, सुनना नहीं कलाम।।
*
दिल बुजदिल का क्या हुआ, खुशदिल रहा न आप।
था न रहा अब जवां दिल, गीत न सुन दे थाप।।
*
कौन रहमदिल है यहाँ?, दिल का है बाज़ार।
पाया-खोया ने किया, हर दिल को बेज़ार।।
*
दिलवर दिल को भुलाकर, जब बनता दिलदार।
सह न सके तब दिलरुबा, कैसे हो आज़ार।।
*
टूट गया दिल पर न की, किंचित भी आवाज़।
दिल जुड़ता भी किस तरह, भर न सका परवाज़।।
*
दिल दिल ने ले तो लिया पर, दिया न दिल क्यों बोल?
दिल ही दिल में दिल रहा, मौन लगता बोल।।
*
दिल दिल पल-पल दुखता रहा, दिल चल-चल बेचैन।
थक-थककर दिल रुक गया, दिल ने पाया चैन।।
*
दिल के हाथों हो गया, जब-जब दिल मजबूर।
दिल ने अन्देखी करी, दिल का मिटा गुरूर।।
*
दिल के संग न संगदिल, का हो यारां साथ।
दिल को रुचा न तंगदिल, थाम न पाया हाथ।।
*
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति।
तब ही 'उस' से मिलन हो, दिल को हुई प्रतीति।।
***
७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
गीत
रचना और रचयिता
संजीव 'सलिल'
*
किस रचना में नहीं रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*
बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*
कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...
७-७-२०१०