कुल पेज दृश्य

बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

अष्ट मात्रिक छंद, सॉनेट, समीक्षा, सुनीता सिंह, नर्मदाष्टक, दोहा,

सॉनेट
बजट  
*
जनगण  का धन, धनपति पाएँ। 
आम लोग हों निर्धन ज्यादा। 
सरकारों का यही इरादा।।
श्रमिक-कृषक भूखे सो जाएँ।।  

आँखों को सपने दिखला दो।
हाथों में झुनझुना थमाकर। 
भूखा सो जा पैर मोड़कर।।  
राम नाम लेकर बहका दो।।

रोजी छिनी, न शोर मचाओ। 
थाम कटोरा, दर-दर जाओ। 
रोटी माँगो, लाठी खाओ। 

क्या थे?, क्या हो? भेद भुलाओ।।
मंत्री जी की जय-जय गाओ।।
टुकड़े पाकर पूँछ हिलाओ।।
२-२-२०२२ 
***
पुरोवाक
ओस की बूँद - भावनाओं का सागर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सर्वमान्य सत्य है कि सृष्टि का निर्माण दो परस्पर विपरीत आवेगों के सम्मिलन का परिणाम है। धर्म दर्शन का ब्रह्म निर्मित कण हो या विज्ञान का महाविस्फोट (बिग बैंग) से उत्पन्न आदि कण (गॉड पार्टिकल) दोनों आवेग ही हैं जिनमें दो विपरीत आवेश समाहित हैं। इन्हें पुरुष-प्रकृति कहें या पॉजिटिव-निगेटिव इनर्जी, ये दोनों एक दूसरे से विपरीत (विरोधी नहीं) तथा एक दूसरे के पूरक (समान नहीं) हैं। इन दोनों के मध्य राग-विराग, आकर्षण-विकर्षण ही प्रकृति की उत्पत्ति, विकास और विनाश का करक होता है। मानव तथा मानवेतर प्रकृति के मध्य राग-विराग की शाब्दिक अनुभूति ही कविता है। सृष्टि में अनुभूतियों को अभियक्त करने की सर्वाधिक क्षमता मनुष्य में है। अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए मनुष्य को संघर्ष, सहयोग और सृजन तीनों चरणों से साक्षात करना होता है। इन तीनों ही क्रियाओं में अनुभूत को अभिव्यक्त करना अपरिहार्य है। अभिव्यक्ति में रस और लास्य (सौंदर्य) का समावेश कला को जन्म देता है। रस और लास्य जब शब्दाश्रित हों तो साहित्य कहलाता है। मनुष्य के मन की रमणीय, और लालित्यपूर्ण सरस अभिव्यक्ति लय (गति-यति) के एककारित होकर काव्य कला की संज्ञा पाती हैं। काव्य कला साहित्य (हितेन सहितं अर्थात हित के साथ) का अंग है। साहित्य के अंग बुद्धि तत्व, भाव तत्व, कल्पना तत्व, कला तत्व ही काव्य के तत्व हैं।
काव्य प्रकाशकार मम्मट के अनुसार "तद्दौषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुन: क्वापि" अर्थात काव्य ऐसी जिसके शब्दों और अर्थों में दोष नहीं हो किन्तु गुण अवश्य हों, चाहे अलंकार कहीं कहीं न भी हों। जगन्नाथ के मत में "रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्" रमणीय अर्थ प्रतिपादित करने वाले शब्द ही काव्य हैं। अंबिकादत्त व्यास के शब्दों में "लोकोत्तरआनंददाता प्रबंधक: काव्यानामभक्" जिस रचना का वचन कर लोकोत्तर आनंद की प्राप्ति हो, वही काव्य है। विश्वनाथ के मत में "रसात्मकं वाक्यं काव्यं" रसात्मक वाक्य ही काव्य हैं।
हिंदी के शिखर समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं। वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत नहीं पड़ती। कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है। यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है।
मेरे विचार से काव्य वह भावपूर्ण रसपूर्ण लयबद्ध रचना है जो मानवानुभूति को अभिव्यक्त कर पाठक-श्रोता के ह्रदय को प्रभावित क्र उसके मन में अलौकिक आनंद का संचार करती है। मानवानुभूति स्वयं की भी हो सकती है जैसे 'मैं नीर भरी दुःख की बदली, उमड़ी थी कल मिट आज चली .... ' नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झरिणी मचली - महादेवी वर्मा या किसी अन्य की भी हो सकती है यथा 'वह आता पछताता पथ पर आता, पेट-पीठ दोनों हैं मिलकर एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को, मुँह फ़टी पुरानी झोली का फैलाता -निराला। कविता कवि की अनुभूति को पाठकों - श्रोताओं तक पहुँचाती है। वह मानव जीवन की सरस् एवं हृदयग्राही व्याख्या कर लोकोत्तर आनंद की सृष्टि ही नहीं वृष्टि भी करती है। इह लोक (संसार) में रहते हुए भी कवि हुए पाठक या श्रोता अपूर्व भाव लोक में विचरण करने लगता है। काव्यानंद ही न हो तो कविता बेस्वाद या स्वाधीन भोजनकी तरह निस्सार प्रतीत होगी, तब उसे न कोई पढ़ना चाहेगा, न सुनना।
काव्यानंद क्या है? भारतीय काव्य शास्त्रियों ने काव्यानंद को परखने के लिए काव्यालोचन की ६ पद्धतियों की विवेचना की है जिन्हें १. रस पद्धति, २. अलंकार पद्धति, ३. रीति पद्धति, ४. वक्रोक्ति पद्धति, ५. ध्वनि पद्धति तथा ६. औचित्य पद्धति कहा गया है। साहित्य शास्त्र के प्रथम तत्वविद भरत तथा नंदिकेश्वर ने नाट्य शास्त्र में रूपक की विवेचना करते हुए रस को प्रधान तत्व कहा है। पश्चात्वर्ती आचार्य काव्य के बाह्य रूप या शिल्पगत तत्वों तक सीमित रह गए। दण्डी के अनुसार 'काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते' अर्थात काव्य की शोभा तथा धर्म अलंकार है। वामन रीति (विशिष्ट पद रचना, शब्द या भाव योजना) को काव्य की आत्मा कहा "रीतिरात्मा काव्यस्य"। कुंतक ने "वक्रोक्ति: काव्य जीवितं" कहकर उक्ति वैचित्र्य को प्रमुखता दी। ध्वनि अर्थात नाद सौंदर्य को आनंदवर्धन ने काव्य की आत्मा बताया "काव्यस्यात्मा ध्वनिरीति"। क्षेमेंद्र की दृष्टि में औचित्य ही काव्य रचना का प्रमुख तत्व है "औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं"। भरत के मत का अनुमोदन करते हुए विश्वनाथ ने रस को काव्य की आत्मा कहा है। अग्नि पुराणकार "वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं" कहकर रस को ही प्रधानता देता है। स्पष्ट है कि शब्द और अर्थ काव्य-पुरुष के आभूषण हैं जबकि रस उसकी आत्मा है।
शिल्प पर कथ्य को वरीयता देने की यह सनातन परंपरा जीवित है युवा कवयित्री सुनीता सिंह के काव्य संग्रह 'ओस की बूँद' में। सुनीता परंपरा का निर्वहन मात्र नहीं करतीं, उसे जीवंतता भी प्रदान करती हैं। ईश वंदना से श्री गणेश करने की विरासत को ग्रहण करते हुए 'शिव धुन' में वे जगतपिता से सकल शूल विनाशन की प्रार्थना करती हैं -
पाशविमोचन भव गणनाथन! कर दो सारे शूल विनाशन॥
महाकाल सुरसूदन कवची!
पीड़ा तक परिणति जा पहुँची।
गिरिधन्वा गिरिप्रिय कृतिवासा!
दे दो हिय में आन दिलासा ॥
पशुपतिनाथ पुरंदर पावन! कर दो सारे शूल विनाशन॥
पाशविमोचन भव गणनाथन! कर दो सारे शूल विनाशन॥
शिव राग और विराग को सम भाव से जीते हैं। कामारि होते हुए भी अर्धनारीश्वर हैं। शिवाराधिका को प्रणय का रेशमी बंधन लघुता में विराट की अनुभूति कराता है-
नाजुक सी रेशम डोरी से, मन के गहरे सागर में।
बांध रहे हो प्राण हमारे, प्रियतम किरणों के घर में।।
अंतरतम में चिर - परिचित सा,
अक्स उभरता किंचित सा।
सदियों का ये बंधन लगता,
लघुता में भी विस्तृत सा।।
अब तक की सारी सुलझन भी, उलझ गई इस मंजर में।
बांध रहे हो प्राण हमारे, प्रियतम किरणों के घर में।।
तुम मुझको याद आओगे, शीर्षक गीत श्रृंगार के विविध पक्षों को शब्दायित करते हैं।
सुनीता की नारी समाज के आहतों स्त्री-गौरव की अवहेलना देखकर आक्रोशित और दुखी होती है। "नहिं तव आदि मध्य अवसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना" कहकर नारी की वंदना करनेवाले समाज में बालिका भ्रूण हत्या का महापाप होते देख कवयित्री 'कन्या भ्रूण संवाद' में अपनी मनोवेदना को मुखर करती है -
चलती साँस पर भी चली जब,
कैचियों की धारियां, ये तो बताओ।
एक-एक कर कट रहे सभी,
अंग की थी बारियाँ, ये तो सुनाओ।
फिर मौन चीखो से निकलता,
आह का होगा धुआं, क्या कह सकोगी?
क्या सोच कर, आयी यहाँ पर,
और क्या तुमको मिला, क्या कह सकोगी?
इस संकलन का वैशिष्ट्य उन पहलुओं को स्पर्श करना है जो प्राय: गीतकारों की दृष्टि से ओझल हो जाते हैं। काम काजी माँ के बच्चे की व्यथा कथा कहता गीत 'खड़ा गेट पर' मर्मस्पर्शी है -
खड़ा गेट पर राह तुम्हारी, देखा करता हूँ मैं माँ ।
शाम हो गई अब आओगी, ऑफिस से जानू मैं माँ ॥
रोज सवेरे मुझे छोड़ कर,
कैसे आखिर जाती हो
कैसे मेरे रोने पर भी,
तुम खुद को समझाती हो ?
बिना तुम्हारे दिन भर रहना, बहुत अखरता मुझको माँ ।
खड़ा गेट पर राह तुम्हारी, देखा करता हूँ मैं माँ ॥
सावन को मनभावन कहा गया है। सुनीता सावन को अपनी ही दृष्टि से देखती हैं। सावनी बौछारों से मधु वर्षण, मृदा का रससिक्त होना, कण-कण में आकर्षण, पत्तों का धुलना, अवयवों का नर्तन करना, धरा का हरिताम्बरा होना गीत को पूर्णता प्रदान करता है।
मृदा आसवित, वर्षा जल को,
अंतःतल ले जाती।
तृण की फैली, दरी मखमली,
भीग ओस से जाती।
बादल से घन, छनकर दशहन, निर्झर झरते जाते।
हर क्षण कण-कण, में आकर्षण, सरगम भरते जाते।
गीतिकाव्य का उद्गम दर्द या पीड़ा से मान्य है। कवयित्री अंतिम खत कोरा रखकर अर्थात कुछ न कहकर भी सब कुछ कह देने को ही काव्य कला का चरम मानती हैं। ग़ालिब कहते हैं 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना'। अति क्रंदन के पार उतर कर ही दिल को हँसते पाती हैं।
शब्दहीन था कोरा-कोरा, मौन पीर का था गठजोरा।
इतना पीड़ा ने झकझोरा, छोड़ दिया अंतिम खत कोरा।।
अंधियारे में बादल बनकर,
अखियाँ बरसीं अंतस कर तर।
राहें सूझें भी तो कैसे
जड़ जब होती रूह सिहरकर।।
अति क्रंदन के पार उतर ही, खोल हँसा दिल पोरा- पोरा।
'हृदय तल के गहरे समंदर में तैरें, / ये ख्वाबों की मीने मचलती बड़ी हैं' , 'मैं लिखती नहीं गीत लिख जाता है' , 'दर्द का मोती सजाए / ह्रदय की सीपी लहे', 'क्षण-प्रतिक्षण नूतन परिवर्तन / विस्मय करते नित दृग लोचन', 'प्रीत चुनरिया सिर पर ओढ़ी / बीच रंग के कोरी थोड़ी', 'झंझा की तम लपटों से, लड़कर भी जीना सीखो / तीखा मीठा जो भी है, जीवन रस पीना सीखो', 'सन सनन सन वायु लहरे, घन घनन घन मेघ बरसे / मन मयूरा पंख खोले', मौसमों को देख हरसे', 'तकते - तकते नयना थकते, मन सागर बीहड़ मथते, प्राण डगर अमृत वर्षा के, धुंध भरी पीड़ा चखते' जैसी अभिव्यक्तियाँ आश्वस्त करती हैं कि कवयित्री सुनीता का गीतकार क्रमश: परिपक्व हो रहा है। गीत की कहन और ग़ज़ल की तर्ज़े-बयानी के अंतर को समझकर और अलग-अलग रखकर रचे ेगयी रचनाएँ अपेक्षाकृत अधिक प्रभावमय हैं।
इन गीतों में भक्ति काल और रीतिकाल को गलबहियां डाले देखना सुखद है। सरस्वती, शिव, राम, कृष्ण आदि पर केंद्रित रचनाओं के साथ 'प्रीत तेरी मान मेरा, रूह का परिधान है / हाथ तेरा हाथ में जब, हर सफर आसान है', 'देख छटा मौसम की मन का, मयूर - नर्तन करता है' जैसी अंतर्मुखी अभिव्यक्तियों के साथ बहिर्मुखता का गंगो-जमुनी सम्मिश्रण इन गीतों को पठनीय और श्रणीय बनाता है।
कर में लेकर, गीली माटी,
अगर कहो तो।
नव प्रयोग भी, करने होंगे
माटी की संरचनाओं में।
सांचे लेकर, कुम्हारों के
रंग भरेंगे घटनाओं में।
किरण-किरण को, भर कण-कण में
रौशन भी कर, दूं रज खाटी,
अगर कहो तो।
यह देखना रुचिकर होगा कि सुनीता की यह सृजन यात्रा भविष्य में किस दिशा में बढ़ती है? वे पारम्परिक गीत ही रचती हैं या नवगीत की और मुड़ती हैं। उनमें संवेदना, शब्द भंडार तथा अभिव्यक्ति सामर्थ्य की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है। इन रचनाओं में व्यंग्योक्ति और वक्रोक्ति की अनुपस्थिति है जो नवगीत हेतु आवश्यक है। सुनीता की भाषा प्रकृति से ही आलंकारिक है। उन्हें अलंकार ठूँसना नहीं पड़ते, स्वाभाविक रूप से अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा अपनी छटा बखेरते हैं। प्रसाद गुण सम्पन्न भाषा गीतों को माधुर्य देती है। युवा होते हुए भी अतिरेकी 'स्त्री विमर्श', राजनैतिक परिदृश्य और अनावश्यक विद्रोह से बच पाना उनके धीर-गंभीर व्यक्तित्व के अनुकूल होने के साथ उनकी गीति रचनाओं को संतुलित और सारगर्भित बनाता है। मुझे विश्वास है यह संकलन पाठकों और समलीचकों दोनों के द्वारा सराहा जायेगा।
==
***
नर्मदाष्टक ॥मणिप्रवाल मूलपाठ॥
॥नर्मदाष्टक ॥मणिप्रवाल हिंदी काव्यानुवाद॥
संजीव वर्मा "सलिल"
देवासुरा सुपावनी नमामि सिद्धिदायिनी,
त्रिपूरदैत्यभेदिनी विशाल तीर्थमेदिनी ।
शिवासनी शिवाकला किलोललोल चापला,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।१।।
.
सुर असुरों को पावन करतीं सिद्धिदायिनी,
त्रिपुर दैत्य को भेद विहँसतीं तीर्थमेदिनी।
शिवासनी शिवकला किलोलित चपल चंचला
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥१॥
*
विशाल पद्मलोचनी समस्त दोषमोचनी,
गजेंद्रचालगामिनी विदीप्त तेजदामिनी ।।
कृपाकरी सुखाकरी अपार पारसुंदरी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।२।।
.
नवल कमल से नयन, पाप हर हर लेतीं तुम,
गज सी चाल, दीप्ति विद्युत सी, हरती भय तम।
रूप अनूप, अनिन्द्य, सुखद, नित कृपा करें माँ‍
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥२॥
*
तपोनिधी तपस्विनी स्वयोगयुक्तमाचरी,
तपःकला तपोबला तपस्विनी शुभामला ।
सुरासनी सुखासनी कुताप पापमोचनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।३।।
.
सतत साधनारत तपस्विनी तपोनिधी तुम,
योगलीन तपकला शक्तियुत शुभ हर विधि तुम।
पाप ताप हर, सुख देते तट, बसें सर्वदा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥३॥
*
कलौमलापहारिणी नमामि ब्रम्हचारिणी,
सुरेंद्र शेषजीवनी अनादि सिद्धिधकरिणी ।
सुहासिनी असंगिनी जरायुमृत्युभंजिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।४।।
.
ब्रम्हचारिणी! कलियुग का मल ताप मिटातीं,
सिद्धिधारिणी! जग की सुख संपदा बढ़ातीं ।
मनहर हँसी काल का भय हर, आयु दे बढ़ा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥४॥
*
मुनींद्र ‍वृंद सेवितं स्वरूपवन्हि सन्निभं,
न तेज दाहकारकं समस्त तापहारकं ।
अनंत ‍पुण्य पावनी, सदैव शंभु भावनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।५।।
.
अग्निरूप हे! सेवा करते ऋषि, मुनि, सज्जन,
तेज जलाता नहीं, ताप हर लेता मज्जन ।
शिव को अतिशय प्रिय हो पुण्यदायिनी मैया,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥५॥
*
षडंगयोग खेचरी विभूति चंद्रशेखरी,
निजात्म बोध रूपिणी, फणीन्द्रहारभूषिणी ।
जटाकिरीटमंडनी समस्त पाप खंडनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।६।।
.
षडंग योग, खेचर विभूति, शशि शेखर शोभित,
आत्मबोध, नागेंद्रमाल युत मातु विभूषित ।
जटामुकुट मण्डित देतीं तुम पाप सब मिटा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥६॥
*
भवाब्धि कर्णधारके!, भजामि मातु तारिके!
सुखड्गभेदछेदके! दिगंतरालभेदके!
कनिष्टबुद्धिछेदिनी विशाल बुद्धिवर्धिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।७।।
.
कर्णधार! दो तार, भजें हम माता तुमको,
दिग्दिगंत को भेद, अमित सुख दे दो हमको ।
बुद्धि संकुचित मिटा, विशाल बुद्धि दे दो माँ!,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥७॥
*
समष्टि अण्ड खण्डनी पताल सप्त भैदिनी,
चतुर्दिशा सुवासिनी, पवित्र पुण्यदायिनी ।
धरा मरा स्वधारिणी समस्त लोकतारिणी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।८।।
.
भेदे हैं पाताल सात सब अण्ड खण्ड कर,
पुण्यदायिनी! चतुर्दिशा में ही सुगंधकर ।
सर्वलोक दो तार करो धारण वसुंधरा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥८॥
*
॥साभारःनर्मदा कल्पवल्ली, ॐकारानंद गिरि॥
***
गंगा पर दोहे
*
गंगा को गंदा करें, वे हो जो हैं भक्त
आँखें रहते सूर हैं, ईश्वर करो अशक्त
*
गंगा को दें भुला हम, हों जाएँ यदि दूर
निर्मल होगी आप ही, पायेगी नव नूर
*
नगर न गंगा निकट हों, दोनों तट वट झाड़
चलो लगायें हम सभी, बाढ़ कमे पा बाड़
*
तल गहरा तट उच्च हों, हरियाली भरपूर
पंछीगण कलरव करें, हो अशुद्धि हर दूर
*
गंगा को चंगा करे, गतिमय सलिल प्रवाह
बाँध बना जल उठा कर, छोड़ें विपुल अथाह
*
जोड़ नदी को नदी से, जल का करें प्रबंध
बाढ़ रुके, सूखा मिटे, वनमय हों तटबंध
*
भले न पूजें कीजिए, मिल गंगा को साफ़
नहीं किया तो करेगी, हमें न गंगा माफ़
*
जगह जगह हों फुहारें, मिले ओषजन खूब
जीव जलीय जियें तभी, जब तट पर हो दूब
*
नीम बाँस रुद्राक्ष तरु, गंगा तट पर रोप
जल औषधिमय मिले पी, मिटे रोग का कोप
*
मन मंदिर में पूजिये, तन घर में कर साफ़
नहा न मैली गंग हो, तब होगा इंसाफ
*
गंगा जैसी हर नदी, जीवनदात्री मात
हों सपूत रख स्वच्छ हम, उज्जवल हो हर प्रात
२-२-२०२०
***
कार्यशाला
दोहा में दोष और निवारण
दोहा लिखते समय निम्न दोषों से बचें- १. कथ्य दोष, २. तथ्य दोष, ३. क्रम दोष, ४. वचन दोष, ५. लिंग दोष, ६. काल दोष, ७. कारक दोष, ८. उपमा दोष, ९. बिंब दोष।
*
गीत
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
टीचर-प्रीचर के क्या फीचर?
ऐसे मत हों जैसे क्रीचर
रोजी-रोटी साध्य न केवल
अंतर्मन है बाध्य व बेकल
कहता-सुनता
बात अधूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
शिक्षक अगर न खुद सीखा तो
समझहीन सब सा दीखा तो
कुछ मौलिकता, कुछ अन्वेषण
करे ग्रहण नित, नित कुछ प्रेषण
पढ़े-पढ़ाये
बिन मजबूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
४-१२-२०१६
प्रिमिउर टेक्निकल इन्स्तित्युत
कौन बताये आदि कहाँ है?
कोई न जाने अंत कहाँ है?
झुक जाते हैं वहीं अगिन सर
पड़ जाते गुरु-चरण जहाँ हैं
सत्य बात
समझाये पूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
४-१२-२०१६
प्रीमिअर टेक्निकल इंस्टीटयूट जबलपुर

***

अष्ट मात्रिक छंद
१. पदादि यगण
यही है वचन
करेंगे जतन
न भूलें कभी
विधाता नमन
न हारे कभी
हमारा वतन
सदा हो जयी
सजीला चमन
करें वंदना
दिशाएँ-गगन
*
२. पदादि मगण
जो बोओगे
वो काटोगे
जो बाँटोगे
वो पाओगे
*
चूं-चूं आई
दाना लाई
खाओ खाना
चूजे भाई
चूहों ने भी
रोटी पाई
बिल्ली मौसी
है गुस्साई
*
३. पदादि तगण
जज्बात नए
हैं घाट नए
सौगात नई
आघात नए
ऊगे फिर से
हैं पात नए
चाहें बेटे
हों तात नए
गायें हम भी
नग्मात नए
*
४. पदादि रगण
मीत आइए
गीत गाइए
प्रीत बाँटिए
प्रीत पाइए
नेह नर्मदा
जा नहाइए
जिंदगी कहे
मुस्कुराइए
बन्दगी करें
जीत जाइए
*
५. पदादि जगण
कहें कहानी
सदा सुहानी
बिना रुके ही
कमाल नानी
करें करिश्मा
कहें जुबानी
बुजुर्गियत भी
उम्र लुभानी
हुई किसी की
न राजधानी
*
६. पदादि भगण
हुस्न जहाँ है
इश्क वहाँ है
बोल-बताएँ
आप कहाँ हैं?
*
७. पदादि नगण
सुमन खिला है
गगन हँसा है
प्रभु धरती पर
उतर फँसा है
श्रम करता जो
सुफल मिला है
फतह किया क्या
व्यसन-किला है
८. पदादि सगण
हम हैं जीते
तुम हो बीते
जल क्या देंगे
घट हैं रीते?
सिसके जनता
गम ही पीते
कहता राजा
वन जा सीते
नभ में बादल
रिसते-सीते
२-२-२०१७
***

संत समागम

संत समागम
१. कबीर
२. सूरदास
३. तुलसीदास
४. गुरु नानक
गुरु नानक देव
सिक्खों के आदि गुरु नानक देव (गुरुनानक, बाबा नानक, नानक शाह) बचपन से नेत्र बंदकर आत्म चिंतन में मग्न हो जाते थे. उनके इस हाव भाव को देखकर उनके पिता बड़े चिंतित रहते थे. एक बार गुरु नानक देव जी मक्का गए थे. काफी थक जाने के बाद वह मक्का में मुस्लिमों का प्रसिद्ध पूज्य स्थान काबा में रुक गए. रात को सोते समय उनका पैर काबा के तरफ था. यह देख वहां का एक मौलवी गुरु नानक के ऊपर गुस्सा हो गया. उसने उनके पैर को घसीट कर दूसरी तरफ कर दिये. इसके बाद जो हुआ वह हैरान कर देने वाला था. हुआ यह था कि अब जिस तरफ गुरु नानक के पैर होते, काबा उसी तरफ नजर आने लगता. इसे चमत्कार माना गया और लोग गुरु नानक जी के चरणों पर गिर पड़े.
५. वल्लभाचार्य
६. स्वामी दयानन्द सरस्वती
७. रामकृष्ण परमहंस 
८. योगानंद 
९. श्रीराम शर्मा 
१०. स्वामी प्राणनाथ 
११. 

संत एकनाथ
संत एकनाथ महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संतो में से एक माने जाते हैं. महाराष्ट्र में इनके भक्तों की संख्या बहुत अधिक है. भक्तों में नामदेव के बाद एकनाथ का ही नाम लिया जाता है. ब्राह्मण जाति के होने के बावजूद इन्होंने जाति प्रथा के खिलाफ अपनी आवाज तेज की. समाज के लिए उनकी सक्रियता ने उन्हें उस वक्त के सन्यासियों का आदर्श बना दिया था. दूर-दूर से लोग उनसे लोग मिलने आया करते थे. एक बार एकनाथ जी को मानने वाले एक सन्यासी को रास्ते में एक मरा हुआ गथा मिलता है, जिसे देखकर वह उसे दण्डवत् प्रणाम करते हैं और कहते हैं ‘तू परमात्मा है’. उनके इतना कहने से वह गधा जीवित हो जाता है. इस घटना की खबर जब लोगों में फैलती है, तो वह उस संत को चमत्कारी समझकर परेशान करने लगते हैं. ऐसे में सन्यासी संत एक नाथ जी के पास पहुंचता है और सारी बात बताता है. इस पर संत एकनाथ उत्तर देते हुए कहते हैं, जब आप परमात्मा में लीन हो जाते है तब ऐसा ही कुछ होता है. माना जाता है कि इस चमत्कार के पीछे संत एकनाथ ही थे.
संत तुकाराम
भगवान की भक्ति में लीन रहने वाले संत तुकाराम का जीवन कठिनाइयों भरा रहा. माना जाता है कि उच्च वर्ग के लोगों ने हमेशा उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की. एक बार एक ब्राहाण ने उनको उनकी सभी पोथियों को नदी में बहाने के लिए कहा तो उन्होंंने बिना सोचे सारी पोथियां नदी में डाल दी थी. बाद में उन्हें अपनी इस करनी पर पश्चाताप हुआ तो वह विट्ठल मंदिर के पास जाकर रोने लगे. वह लगातार तेरह दिन बिना कुछ खाये पिये वहीं पड़े रहे. उनके इस तप को देखकर चौदहवें दिन भगवान को खुद प्रकट होना पड़ा. भगवान ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए उनकी पोथियां उन्हें सौपी. आगे चलकर यही तुकाराम संत तुकाराम से प्रसिद्ध हुए और समाज के कल्याण में लग गये.
सन्त ज्ञानेश्वर
संत ज्ञानेश्वर कि गिनती महाराष्ट्र के उन धार्मिक संतो में होती हैं, जिन्होंने समस्त मानव जाति को ईर्ष्या द्वेष और प्रतिरोध से दूर रहने का शिक्षा दी थी. संत ज्ञानेश्वर ने 15 वर्ष की छोटी सी आयु में ही गीता की मराठी में ज्ञानेश्वरी नामक भाष्य की रचना कर दी थी. इन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम घूम कर लोगों को भक्ति का ज्ञान दिया था. उनके बारे में कहा जाता है कि उनका इस धरती पर जन्म लेना किसी चमत्कार से कम नहीं था. उनके पिता उनकी मां रुक्मिणी को छोड़कर सन्यासी बन गए थे. ऐसे में एक दिन रामानन्द नाम के सन्त उनके आलंदी गांव आये और उन्होंने रुक्मिणी को पुत्रवती भव का आशीर्वाद दे दिया. जिसके बाद ही इनके पिता ने गुरु के कहने पर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया और संत ज्ञानेश्वर का जन्म हुआ.
संत नामदेव
संत नामदेव एक प्रसिद्ध संत थे. उन्होंने मराठी के साथ हिन्दी में भी अनेक रचनाएं की. उन्होंने लोगों के बीच ईश्वर भक्ति का ज्ञान बांटा. उनका एक किस्सा बहुत चर्चित है. एक बार वह संत ज्ञानेश्वर के साथ तीर्थयात्रा पर नागनाथ पहुंचे थे, जहां उन्होंने भजन-कीर्तन का मन बनाया तो उनके विरोधियों ने उन्हेंं कीर्तन करने से रोक दिया. विरोधियों ने नामदेव से कहा अगर तुम्हें भजन-कीर्तन करना है तो मंदिर के पीछे जाकर करो. इस पर नामदेव मंदिर के पीछे चले गये. माना जाता है कि उनके कीर्तनों की आवाज सुनकर भगवान शिव शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन देने आ गये थे. इसके बाद से नामदेव के चमत्कारी संत के रुप में ख्याति मिली.
समर्थ स्वामी
समर्थ स्वामी जी का जन्म गोदातट के निकट जालना जिले के ग्राम जांब में हुआ था. अल्पायु में ही उनके पिता गुजर गए और तब से उनके दिमाग में वैऱाग्य घूमने लगा था. हालांकि, मां की जिद के कारण उन्हें शादी के लिए तैयार होना पड़ा था. पर, मौके पर वह मंडप तक नहीं पहुंचे और वैराग्य ले लिया. समर्थ स्वामी के बारे में कहा जाता है कि एक शव यात्रा के दौरान जब एक विधवा रोती-रोती उनके चरणो में गिर गई थी, तो उन्होंंने ध्यान मग्न होने के कारण उसे पुत्रवती भव का आशीर्वाद दे दिया था. इतना सुनकर विधवा और फूट-फूट कर रोने लगी. रोते हुए वह बोली- मैं विधवा हो गई हूं और मेरे पति की अर्थी जा रही है. स्वामी इस पर कुछ नहीं बोले और कुछ देर बाद जैसे ही उसके पति की लाश को आगे लाया गया, उसमें जान आ गई. यह देख सबकी आंखे खुली की खुली रह गई. सभी इसे समर्थ स्वामी का चमत्कार बता रहे थे.
देवरहा बाबा
देवरहा बाबा उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध संत थे. कहा जाता है कि हिमालय में कई वर्षों तक वे अज्ञात रूप में रहकर साधना किया करते थे. हिमालय से आने के बाद वे उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में सरयू नदी के किनारे एक मचान पर अपना डेरा डाल कर धर्म-कर्म करने लगे, जिस कारण उनका नाम देवरहा बाबा पड़ गया. उनका जन्म अज्ञात माना जाता है. कहा जाता है कि एक बार महावीर प्रसाद ‘बाबा’ के दर्शन करके वापस लौट रहे थे, तभी उनके साले के बेटे को सांप ने डंस लिया. चूंकि सांप जहरीला था, इसलिए देखते ही देखते विष पूरे शरीर में फ़ैल गया. किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें, इसलिए वह उसे उठाकर देवरहा बाबा के पास ले आये. बाबा ने बालक को कांटने वाले सांप को पुकारते हुए कहा तुमने क्यों काटा इसको, तो सांप ने उत्तर देते हुए कहा इसने मेरे शरीर पर पैर रखा था. बाबा ने इस पर उसे तुरंत ही कड़े स्वर में आदेश दिया कि विष खींच ले और आश्चर्यजनक रूप से सांप ने विष खींच लिया. बाबा के इस चमत्कार की चर्चा चारों ओर फैल गई.
संत जलाराम
बापा के नाम से प्रसिद्ध जलाराम गुजरात के प्रसिद्ध संतो में से एक थे. उनका जन्म गुजरात के राजकोट जिले के वीरपुर गांव में हुआ था. जलाराम की मां एक धार्मिक महिला थीं, जो भगवान की भक्ति के साथ साथ साधु संतो का बड़ा आदर करती थी. उनके इस कार्य से प्रसन्न संत रघुदास जी उन्हें आशीर्वाद दिया कि उनका दूसरा पुत्र ईश्वर भक्ति और सेवा के लिए ही जाना जायेगा. आगे चलकर जलाराम बापा गुजरात के बहुत प्रसिद्ध संत हुए.
एक दिन बापा के भक्त काया रैयानी के पुत्र मृत्यु हो गई. पूरा परिवार शोक में डूबा था. इस बीच बापा भी वहां पहुंच गये, उनको देखकर काया रैयानी उनके पैरों में गिर गया और रोने लगा. बापा ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा तुम शांत हो जाओ. तुम्हारे बेटे को कुछ नहीं हुआ है.
उन्होंने कहा चेहरे पर से कपड़ा हटा दो. जैसे ही कपड़ा हटाया गया बापा ने कहा बेटा तुम गुमसुम सोये हुए हो, जरा आंख खोल कर मेरी ओर देखो. इसके बाद चमत्कार हो गया. क्षण भर में मृत पड़ा लड़का आंख मलते हुए उठ कर इस तरह बैठ गया, मानो गहरी नींद से जागा हो.
रामकृष्ण परमहंस
राम कृष्ण परम हंस भारत के महान संत थे. राम कृष्ण परमहंस ने हमेशा से सभी धर्मों कि एकता पर जोर दिया था. बचपन से ही उन्हें भगवान के प्रति बड़ी श्रद्धा थी. उन्हें विश्वास था कि भगवान उन्हें एक दिन जरूर दर्शन देंगे. ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उन्होंने कठिन साधना और भक्ति का जीवन बिताया था. जिसके फलस्वररूप माता काली ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया था. कहा जाता है कि- उनकी ईश्वर भक्ति से उनके विरोधी हमेशा जलते थे. उन्हें नीचा दिखाने कि हमेशा सोचते थे. एक बार कुछ विरोधियों ने 10 -15 वेश्याओं के साथ रामकृष्ण को एक कमरे में बंद कर दिया था.
रामकृष्ण उन सभी को मां आनंदमयी की जय कहकर समाधि लगाकर बैठ गए. चमत्कार ऐसे हुआ कि वे सभी वेश्याएं भक्ति भाव से प्रेरित होकर अपने इस कार्य से बहुत शर्मशार हो गई और राम कृष्ण से माफी मांगी. इसके अतिरिक्त, रामकृष्ण परमहंस की कृपा से माँ काली और स्वामी विवेकानंद का साक्षात्कार होना समूचे विश्व को पता ही है.

रामदेव
राम देव का जन्म पश्चिमी राजस्थान के पोकरण नाम के प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में हुआ था. इन्होंने समाज में फैले अत्याचार भेदभाव और छुआ छूत का विरोध किया था. बाबा राम देव को हिन्दू मुस्लिम एकता का भी प्रतीक माना जाता है. आज राजस्थान में इन्हें लोग भगवान से कम नहीं मानते हैं. इनसे जुड़ा हुआ एक किस्सा कुछ ऐसा है.
मेवाड़ के एक गांव में एक महाजन रहता था. उसकी कोई संतान नहीं थी. वह राम देव की पूजा करने लगा और उसने मन्नत मांगी कि पुत्र होने पर मैं मंदिर बनवाऊंगा. कुछ दिन के बाद उसको पुत्र की प्राप्ति हुई. जब वह बाबा के दर्शन करने जाने लगा तो रास्ते में उसे लुटेरे मिले और उसका सब कुछ लूट लिया. यहां तक कि सेठ की गर्दन भी काट दी. घटना की जानकारी पाकर सेठानी रोते हुए रामदेव को पुकारने लगी, इतने में वहां रामदेव जी प्रकट हो गए और उस महाजन का सर जोड़ दिए. उनका चमत्कार देख कर दोनों उनके चरणों में गिर पड़े.
संत रैदास
संत रैदास का जन्म एक चर्मकार परिवार में हुआ था. बचपन से ही रैदास का मन ईश्वर की भक्ति को ओर हो गया था. उनका जीवन बड़ा ही संघर्षो से बीता था, पर उन्होंने ईश्वर की भक्ति को कभी नहीं छोड़ा. एक बार रैदास जी ने एक ब्रह्मण को एक ‘सुपारी’ गंगा मैया को चढ़ाने के लिए दी थी. ब्राह्मण ने अनचाहे मन से उस सुपारी को गंगा में उछाल दिया,
तभी गंगा मैया प्रकट हुई और सुपारी अपने हाथ में ले ली और उसे एक सोने का कंगन देते हुए कहा- इसे ले जाकर रविदास को दे देना. ब्राह्मण ने जब यह बात बताई तो लोगों ने उपहास उड़ाया. लोगों ने यहां तक कहा कि रविदास अगर सच्चे भक्त हैं तो दूसरा कंगन लाकर दिखाएं. इस पर रविदास द्वारा बर्तन में रखे हुए जल से गंगा मैया प्रकट हुई और दूसरा कंगन रविदास जी को भेंट किया.
***

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

महादेवी, लघु नाटिका

स्मरण महीयसी महादेवी जी:   

संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु नाटिका  

१. राह
*
एक कमरे का दृश्य: एक तख़्त, दो कुर्सियाँ एक मेज। मेज पर कागज, कलम, कुछ पुस्तकें, कोने में कृष्ण जी की मूर्ति या चित्र, सफ़ेद वस्त्रों में आँखों पर चश्मा लगाए एक युवती और कमीज, पैंट, टाई, मोज़े पहने एक युवक बातचीत कर रहे हैं। युवक कुर्सी पर बैठा है, युवती तख़्त पर बैठी है।  
नांदीपाठ: 
उद्घोषक: दर्शकों! प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक लघु नाटिका 'विश्वास'। यह नाटिका जुड़ी है एक ऐसी गरिमामयी महिला के जीवन से जिसने पराधीनता के काल में, परिवार में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन न होने के बाद भी न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण की, अपितु देश के स्वतंत्रता सत्याग्रह में योगदान किया, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया, हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की, अपने समय के सर्व श्रेष्ठ पुरस्कारों के लिए चुनी गयी, भारत सरकार ने उस पर डाक टिकिट निकले, उस पर अनेक शोध कार्य हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। नाटिका का नायक एक अल्प ज्ञात युवक है जिसने विदेश में चिकित्सा शिक्षा पाने के बाद भी भारतीयता के संस्कारों को नहीं छिड़ा और अपने मूक समर्पण से प्रेम और त्याग का एक नया उदाहरण स्थापित किया।   में सृजनात्मक काल्पनिकता की छूट ली जाना स्वाभाविक है।  
 
युवक: 'चलो।'
युवती: "कहाँ।"
युवक: 'गृहस्थी बसाने।'
युवती: "गृहस्थी आप बसाइए, मैं तो नहीं चल सकती?" 
युवक: 'तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
युवती: "यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।"
युवक: 'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।' 
युवती: "मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकती।"
युवक: 'समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।'
युवती: "अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी बसा नहीं सकती।"
युवक: 'ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
युवती: "इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?"
युवक: 'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।'
युवती: "लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।"
युवक: 'अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
युवती: "ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।"
युवक: 'हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
युवती: "यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?"
युवक: 'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
युवती: "चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।"
युवक: 'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
युवती: "रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य कर लूँगी।"
युवक: 'ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे, जयप्रकाश नारायण जी और प्रभावती जी रह रहे हैं। ।'
युवती: "आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?"
युवक: 'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
युवती: "लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गई लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश-बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बड़भागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।"
युवक: 'तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हारी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचे तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मना कर सकोगी। तुम अशिक्षा से लड़ रही हो, मैं अपने चिकित्सकीय ज्ञान से बीमारियों से लड़ूँगा। इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो एक ही होगी हमारी राह।' 
कुछ समय तक युवक युवती की और देखता रहा, किन्तु युवती का झुका सर ऊपर न उठता देख और अपनी बात का उत्तर न मिलता देख नमस्ते कर चल पड़ा बाहर की ओर। 
[मंच पर नांदी का प्रवेश: दर्शकों क्या आपने इन्हें पहचाना? इस नाटिका के पात्र हैं हिंदी साहित्य की अमर विभूति महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके बचपन में हुए बाल विवाह के पति डॉ. स्वरूप नारायण वर्मा, जो चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने विदेश चले गये थे।] 
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 

चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
संस्मरण :

संस्कारधानी जबलपुर की नातिन महीयसी महादेवी  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नेह नर्मदा धार:
महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढ़ने और समझने के लिये पाठक को उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता था तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराती थी। सफलता, यश और मान्यता के शिखर पर भी उनमें जैसी सरलता, सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है। पूज्य बुआश्री ने जिन अपने साहित्य में जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। उनका लंबा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उन्होंने सबको वरिष्ठों-समकालिकों-कनिष्ठों सबको सदा स्नेह-सम्मान दिया और उन सबसे शतगुण अधिक आशीष-सम्मान और श्रृद्धा पायी। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक।
हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, विशिष्ट-सामान्य, भाषा -भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था। महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखनलाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, दिनकर, फणीश्वर नाथ 'रेणू', बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन', शिवमंगल सिंह 'सुमन', धर्मवीर भारती, पांडेय बेचैन शर्मा 'उग्र' आदि तीन पीढ़ियों के सरस्वती सुतों को अपने सम्मान, स्नेह और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वतः विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।
ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥

अपनेपन की चाह :

महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी को अपना बना लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं।
सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें अतिप्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष तात्कालिक कारण रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', केशव प्रसाद पाठक मुंह बोले भाई नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर समाचार पत्र के प्रकाशन सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते थे।

जिन खोजा तिन पाइयाँ :

जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो किसी चित्रपटीय कथा से अधिक रोमांचक घटनाओं के प्रवाह में उनसे छूट चुकी थी। दो पीढ़ियों के मध्य का अंतराल नयी पीढ़ियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं रहीं कि बिछुड़े परिजनों से कभी मिल सकें। जबलपुर आगमन अथवा जबलपुर के किसी सज्जन से भेंट होने पर पूछतीं कि कोई संपर्क सूत्र मिल सके किन्तु निराशा ही हाथ लगती। अंततः, उनके अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने नगर निगम भवन के समक्ष सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन को अध्यक्षीय आसंदी से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की कि उस परिवार में से कोई सदस्य हों तो उनसे मिले। कुछ दिनों बाद साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी. डी. टंडन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं, स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा को पूरा करना चाह रही थीं। नियति को उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा। रहीम ने कहा है-

'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।'

महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे को जोड़ ही दिया। अपने सामान्य कार्यक्रम के निर्धारित भ्रमण से लौटने पर मैंने उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े, तब तक वे वापिस जा चुकी थीं । मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों रात्रिकालीन कक्षाओं में पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डाँट पड़ी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे। मेरे पिता जी (राजबहादुर वर्मा) अपनी पीढ़ी में सबसे छोटे थे, उनसे ज्ञात हुआ कि उनके बचपन में  उनकी एक बुआ अपनी बिटिया के साथ आती थीं, बाद में उनका आना-जाना बंद हो गया था किन्तु कारण की जानकारी पिताजी को भी नहीं थी। 
   
कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ।

आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हो सकूँगा। उन जैसी प्रख्यात और अति व्यस्त व्यक्तित्व किसी अजनबी के पत्र पर कोई प्रतिक्रिया दे इसकी मैंने आशा ही नहीं की थी किंतु लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीया महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी संबंधियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढ़ियाँ अपरिचित हो गयीं। पत्र के अंत में उन्होंने आशीष दिया कि धन का मोह मुझे कभी न व्यापे। मैं धन्य हुआ। 

उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व. खैरातीलाल जी मेरे परबाबा स्व. सुंदर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढ़ी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुंदरलाल व खैरातीलाल दोनों भाई शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी-

माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
ठंडे पानी से नहलातीं।
गीला चंदन उन्हें लगातीं।
उनका भोग हमें दे जातीं।
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं...

माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा- कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीड़ा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना।

जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह।
क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह।
बिंदु सिंधु से जा मिला:
कबीर ने लिखा है:
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ।
पूज्या बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। उनके आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता हेतु बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं । इलाहबाद में अन्य किसी से घनिष्ठता थी नहीं सो निराश लौटने को हुआ कि एक कार को द्वार पर रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है।

मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढ़ा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है?

तब तक घर के भीतर से एक महिला और पुरुष आ गये थे। लम्बी यात्रासे लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देखकर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अंदर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव'। नाम सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मरणीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?'

सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी मुस्कुराते हुए जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा... जबलपुर से आया है।मैंने सबका अभिवादन किया।

उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल घर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अंदर ले आया। कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ।

तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, कुछ खा-पीकर आराम कर ले फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित और प्रसन्न हुईं, मेरे मना करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यवस्था करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा।

बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारकाप्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है।' उनका वह निर्मल हास्य अभी तक कानों में गूँजता है।

मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हिन्दू युवतियों को मुक्त कराकर उनकी शुद्धि तथा पुनर्विवाह द्वारा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भारत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।'

मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया।' ऐसी दिव्य भावना । उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मैं भोजन हेतु प्रस्तुत हो गया । उन्होंने अपने मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी तोड़-तोड़कर अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मँगाती रहीं। मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दाल, सब्जी, अचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, हम नहाकर पूजा करेंगी।'

लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो उनके तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढ़ीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखी या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छा लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया।

मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की यही सीमा रेखा होती है कि महामानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं जबकि मानव अपनों को खोजकर स्नेहवर्षण करता है । मेरे बहुत आग्रह पर वे आराम करने को तैयार हुईं... 'तू क्या करेगा?, ऊब तो नहीं जायेगा?' आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें।

कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी ज़िंदगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... सलिल ही क्यों?, सलिलेश क्यों नहीं?' उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं। कुछ वर्ष पूर्व ही मैंने दिनकर जी का एक निबंध 'नेता नहीं नागरिक चाहिए' पाठ्य पुस्तक विचार और अनुभूति में पढ़ा था । इससे प्रभावित किशोर मन में वैशिष्ट्य के स्थान पर सामान्यता की चाह उपजी थी ।

गुणग्राहकता 
बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' उन्होंने न जाने कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं।

जब मैं स्नाकोत्तर डिप्लोमा पत्रकारिता में  कर रह था तब वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? उनके मन को चोट न लगे और शंका का समाधान भी हो, अंततः बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?'

'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आए, ऐसा लगा कि उनकी रुचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे, महाप्राण थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... आँखों में आँसू छलक आये... उस एक ही पल में मैं समझ गया था कि कुसुमाकर जी की धारणा निराधार थी।

'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गये पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारेलाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे।'

कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले: 'उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढ़िया को भीख माँगते देखा। जेब से कुछ नोट निकालकर उसके हाथ पर रखकर कहा अब भीख मत माँगना। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं माँगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं माँगोगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढ़िया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए।

जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढ़ायी गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढ़ा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से काँपते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाये चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को काँपते देख, उसे उढ़ा दी। बोल, देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ?' मेरी वाणी अवाक् मौन थी और कान ऐसे दुलभ अन्य प्रसंग सुनने के लिये व्याकुल।

चर्चा...और चर्चा, प्रसंग पर प्रसंग... निराला और नेहरू, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, निराला और सरोज स्मृति, निराला और राम की शक्ति पूजा आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले पहुँचकर राखी बँधवा ले और दूसरे को चिढ़ाए? एक बार निराला ने आते ही कुछ रुपये माँगे। कारण पूछने पर बोले कि रिक्शेवाले और तुमको देना है। बुआ जी ने पूछा मुझको क्यों देना है तो बोले तुम छोटी भीं हो तुमसे राखी बँधवाऊँगा तो रुपए भी दूँगा। बुआ जी बोलीं कि वे बिन रूपए लिए राखी बाँध देंगे तो निराला जी बोले 'ऐसा कैसे हो सकता है? तुम छोटी बहिन हो, बड़ा भाई राखी बँधवाए और रूपए न दे, यह कैसे हो सकता है? बुआजी हँस पड़ीं और बोलीं तो मुझसे रूपए लेकर मुझे ही दे दोगे ? ' हाँ! मेरे पास नहीं है तो बहिन से ले सकता हूँ लेकिन राखी बिना रूपए दिए नहीं बँधवा सकता। ऐसा ही किया निराला जी ने। 
स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण... हिंदी संबंधी आंदोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नंददुलारे वाजपेई... हजारीप्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहरलाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारकाप्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का।

मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूँ? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...'
मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग?

'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढ़िभंजक... फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूड़ी बदलना... लक्ष्मणप्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुँहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविंददास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पड़ीं...खुद को सम्हाला...आँसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं...
'थक गया न ? जा आराम कर।'

'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...

तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'...

'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...;

' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारकाप्रसाद और मोरारजी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।'

अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा- 'पूछो' तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?'

'बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुँह से निकला।

'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये।

उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।'

सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया।
कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा।

***

सॉनेट, दोहा, कुण्डलिया, माहिया, मुक्तक, उल्लाला गीत

सॉनेट
उल्लू
*
एक ही उल्लू काफी था।
हर शाख पे उल्लू बैठा है।
केवल मन मंदिर बाकी था।।
भय कोरोना का पैसा है।।


सोहर बन्ना बन्नी गाने।
जुड़ने से हम कतराते हैं।
लाशें बिन काँध पड़ी रहतीं।।
हम बलिपंथी भय खाते हैं।।


हमसे नारे लगवालो तुम।
हम संसद में जा झगड़ेंगे।
कविताएँ सौ लिख लेंगे हम।।
हर दर पर नाकें रगड़ेंगे।।


उल्लू को उल्लू मत बोलो।
उल्लू वंदन कर यश ले लो।।
१-२-२०२२
•••
कार्यशाला
दोहा से कुण्डलिया
*
मन जब स्थिर है नहीं, तब क्या पूजा पाठ।
पढ़ा रही है जिन्दगी,सोलह दूनी आठ।। -सुनीता पांडेय 'सुरभि'
प्रथम चरण - ११ ११ ११ २ १२ = ११ मात्रा, १३ होनी चाहिए। 'स्थि' की मात्रा 'त्य' की तरह १ है।
'मन एकाग्र न हो अगर' या 'जब मन हो एकाग्र न तब' करने से अर्थ बदले बिना न्यून मात्रा दोष समाप्त किया जा सकता है।
दोहा
जब मन हो एकाग्र न तब, क्या पूजा क्या पाठ?
पढ़ा रही है ज़िंदगी, सोलह दूनी आठ।। -सुनीता पांडेय 'सुरभि'
रोला
सोलह दूनी आठ, पुत्र है पिता पिता का।
लगे गलत पर सत्य, लक्ष्य है जन्म चिता का।।
अपने गैर; गैर अपने, मन मत हो उन्मन।
सार्थक पूजा-पाठ, अगर एकाग्र रहे मन।। - संजीव
*
दोहा
आओ पर जाना नहीं, जाने का क्या काम।
नेह नर्मदा छोड़ कर, लें क्यों दूजा नाम।। -संतोष शुक्ला
रोला
लें क्यों दूजा नाम, एक जब पार लगाए।
गुरु-गोविंद प्रणाम, सिंधु भव पार कराए।।
मन में रख संतोष, सलिल नव गीत सुनाओ।
सरस भाव लय बिंब, गीत में भरकर गाओ।। - संजीव
***
माहिया
*
हो गई सुबह आना
उषा से सूर्य कहे
आकर फिर मत जाना
*
तुम साथ सदा देना
हाथ हाथ में ले
जीवन नौका खेना
*
मैं प्राण देह है तू
दो होकर भी एक
मैं प्रीत; नेह है तू
*
रस-भाव; अर्थ-आखर
गति-यति; रूप-अरूप
प्रकृति-पुरुष; वधु-वर
*
कारक किसका कौन?
जीव न जो संजीव
साध-साधना मौन
*
कौन कहाँ भगवान?
देह अगेह अजान
गुणमय ही गुणवान
*
सर्व व्याप्त ओंकार
वही एक आधार
मैं-तुम हम साकार
*
जीवन पूजन जान
नेह नर्मदा-स्नान
कर; तज निज-पर भान
*
मत अहंकार में डूब
गिरते झाड़-पहाड़
पर दूब खूब की खूब
१-२-२०२०
***
मुक्तक
शब्देश है, भावेश है, छ्न्देश मौन बसंत है
मिथलेश है, करुणेश है, कहिए न कौन बसंत है?
कांता है, कल्पना है, ज्योति, आभा-प्रभा भी
विनीता, मधु, मंजरी, शशि, पूर्णिमा बसंत है
*
वंदना है, प्रार्थना है, अर्चना बसंत है
साधना-आराधना है, सर्जना बसंत है
कामना है, भावना है, वायदा है, कायदा है
मत इसे जुमला कहो उपासना बसंत है
*
मन में लड्डू फूटते आया आज बसंत
गजल कह रही ले मजा लाया आज बसंत
मिली प्रेरणा शाल को बोली तजूं न साथ
सलिल साधना कर सतत छाया आज बसंत
*
मुश्किल से जीतेंगे कहता बसन्त हो
किंचित ना रीतेंगे कहता बसन्त हो
पत्थर को पिघलाकर मोम सदृश कर देंगे
हम न अभी बीतेंगे कहता बसन्त हो
*
अक्षर में, शब्दों में, बसता बसन्त हो
छंदों में, बन्दों में हँसता बसन्त हो
विरहा में नागिन सा डँसता बसन्त हो
साजन बन बाँहों में कसता बसन्त हो
*
अपना हो, सपना हो, नपना बसन्त हो
पूजा हो, माला को जपना बसन्त हो
मन-मन्दिर, गिरिजा, गुरुद्वारा बसन्त हो
जुम्बिश खा अधरों का हँसना बसन्त हो
*
साथ-साथ थाम हाथ ख्वाब में बसन्त हो
अँगना में, सड़कों पर, बाग़ में बसन्त हो
तन-मन को रँग दे बासंती रंग में विहँस
राग में, विराग में, सुहाग में बसन्त हो
*
श्वास-श्वास आस-आस झूमता बसन्त हो
मन्ज़िलों को पग तले चूमता बसन्त हो
भू-गगन हुए मगन दिग-दिगन्त देखकर
लिए प्रसन्नता अनंत घूमता बसन्त हो
१-२-२०१७
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
संजीव 'सलिल'
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
१-२-२०१३
***

सोमवार, 31 जनवरी 2022

सॉनेट

सॉनेट
साधना
*
साध पले मन में सतत, साध सके तो साध।
करे साध्य की साधना, संसाधन संसाध्य।
जीव रहे पल पल निरत, हो संजीव अबाध।।
तजे काम मत कामना, हो प्रसन्न आराध्य।।

श्वास श्वास घुल-मिल सके, आस-आस हो संग।
नयनों में हो निमंत्रण, अधरों पर हो हास।।
जीवन में बिखरें तभी, खुशहाली के रंग।।
लिए हाथ में हाथ हो, जब जब खासमखास।।

योग-भोग का समन्वय, सभी सुखों का मूल।
प्रकृति-पुरुष हों शिवा-शिव, रमा-रमेश सुजान।
धूप-छाँव में साथ रह, इक दूजे अनुकूल।।
रसमय हों रसलीन हों, हों रसनिधि रसखान।।

हाथ हाथ में हाथ ले, हाथ हाथ के साथ।
साथ निभाने चल पड़ा, रखकर ऊँचा माथ।।
३१-१-२०२२
●●●

रविवार, 30 जनवरी 2022

सॉनेट

सॉनेट 
नव जतन हो
*
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो। 
ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं। 
उठो, जागो देश को अब नई शकल दो।।
मूक कोयल, काग फरमाने लगे हैं।।

बंग भू ने अहं को धरती सुँघाई।
झुका सत्ता के न सम्मुख, जाट जीता। 
रौंद जन को कौन सत्ता टिकी भाई?
जो न बदला हो गया इतिहास बीता।। 

अंधभक्तों से न बातें अकल की कर। 
सच न सुनना, झूठ कहना ठानते वे।
सत्य के पर्याय पर लांछन लगाकर।। 
मार गोली अमर होंगे मानते वे।।

सत्य की जय हेतु फिर से नव जतन हो। 
मुदित धरती और हर्षित तब गगन हो।।
***
सॉनेट
वाक् बंद है
*
बकर-बकर बोलेंगे नेता।
सुन, जनता की वाक् बंद है।
यह वादे, वह जुमले देता।।
दल का दलदल, मची गंद है।।

अंधभक्त खुद को सराहता।
जातिवाद है तुरुपी इक्का।
कैसे भी हो, ताज चाहता।।
खोटा दलित दलों का सिक्का।।

जोड़-घटाने, गुणा-भाग में।
सबके सब हैं चतुर-सयाने।
तेल छिड़कते लगी आग में।।
बाज परिंदे लगे रिझाने।।

खैर न जनमत की है भैया!
घर फूँकें नच ता ता थैया।।
३०-१०२०२२
***
सॉनेट
सुतवधु
*
विनत सुशीला सुतवधु प्यारी।
हिलती-मिलती नीर-क्षीर सी।
नव नातों की गाथा न्यारी।।
गति-यति संगम धरा-धीर सी।।

तज निज जनक, श्वसुर गृह आई।
नयनों में अनगिनती सपने।
सासू माँ ने की पहुनाई।।
जो थे गैर, वही अब अपने।।

नव कुल, नव पहचान मिली है।
नई डगर नव मंज़िल पाना।
हृदय कली हो मुदित खिली है।।
नित्य सफलता-गीत सुनाना।।

शुभाशीष जो चाहो पाओ।
जग-जीवन को पूर्ण बनाओ।।
३०-१-२०२२