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शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

फिरोज गांधी

भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े होते थे फिरोज गांधी
स्रोतः प्रभासाक्षी परिवार से जुड़े होने के बावजूद अपनी अलग पहचान रखने के कायल फिरोज गांधी को एक ऐसे नेता और सांसद के रूप में याद किया जाता है जो हमेशा स्वच्छ सामाजिक जीवन के पैरोकार रहे और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे। फिरोज के समकालीन लोगों का कहना है कि वह भले ही संसद में कम बोलते रहे लेकिन वे बहुत अच्छे वक्ता थे और जब भी किसी विषय पर बोलते थे तो पूरा सदन उनको ध्यान से सुनता था। उन्होंने कई कंपनियों के राष्ट्रीयकरण का भी अभियान चलाया था।
फिरोज गांधी अपने दौर के एक कुशल सांसद के रूप में जाने जाते थे। फिरोज इलाहाबाद के रहने वाले थे और आज भी लोग उनकी पुण्यतिथि के दिन उनकी मजार पर जुटते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। दिल्ली में मृत्यु के बाद फिरोज गांधी की अस्थियों को इलाहाबाद लाया गया था और पारसी धर्म के रिवाजों के अनुसार वहां उनकी मजार बनाई गई।
फिरोज गांधी अच्छे खानपान के बेहद शौकीन थे। इलाहाबाद में फिरोज को जब भी फुर्सत मिलती थी वह लोकनाथ की गली में जाकर कचौड़ी तथा अन्य लजीज व्यंजन खाना पसंद करते थे। इसके अलावा हर आदमी से खुले दिल से मिलते थे। फिरोज गांधी का जन्म 12 अगस्त 1912 को मुंबई के एक पारसी परिवार में हुआ था। बाद में वह इलाहाबाद आ गए और उन्होंने एंग्लो वर्नाकुलर हाई स्कूल और इवनिंग क्रिश्चियन कालेज से पढ़ाई की। पढ़ाई के दौरान ही उनकी जान पहचान नेहरू परिवार से हुई। शिक्षा के लिए फिरोज बाद में लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स चले गये।
इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान फिरोज और इंदिरा गांधी के बीच घनिष्ठता बढ़ी। इसी दौरान कमला नेहरू के बीमार पड़ने पर वह स्विट्जरलैंड चले गये। कमला नेहरू के आखिरी दिनों तक वह इंदिरा के साथ वहीं रहे। फिरोज बाद में पढ़ाई छोड़कर वापस आ गए और मार्च 1942 में उन्होंने इंदिरा गांधी से हिन्दू रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर लिया। विवाह के मात्र छह महीने बाद भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान दंपत्ति को गिरफ्तार कर लिया गया। फिरोज को इलाहाबाद के नैनी जेल में एक साल कारावास में बिताना पड़ा। आजादी के बाद फिरोज नेशनल हेरल्ड समाचार पत्र के प्रबंध निदेशक बन गये। पहले लोकसभा चुनाव में वह रायबरेली से जीते। उन्होंने दूसरा लोकसभा चुनाव भी इसी संसदीय क्षेत्र से जीता। संसद में उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ कई मामले उठाये जिनमें मूंदड़ा मामला प्रमुख था। फिरोज गांधी का निधन 8 सितंबर 1960 को दिल्ली में दिल का दौरा पड़ने से हुआ।

दोहा यमक

दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक
संजीव
देव! दूर कर बला हर, हो न करबला और
जयी न हो अन्याय अब, चले न्याय का दौर
*
'सलिल' न हो नवजात की, अब कोई नव जात
मानव मानव एक हो, भेद रहे अज्ञात
*
अबला सबला या बला, बतलायेगा कौन?
बजे न तबला शीश पर, बेहतर रहिए मौन
*
बाप, बाप के हैं सलिल, बच्चे कम मत मान
वे तुझसे आगे बहुत, खुद पर कर न गुमान
*

रासबिहारी पांडेय

स्मरण :
अनूठे व्यंग्यकार रासबिहारी पांडेय 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंदी में व्यंग्य लेखन की परंपरा को पुष्ट करने में जिन साहित्यकारों ने आजीवन समर्पित भाव से अपने लेखनी को गतिशील रखा, उनमें सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी नगरी जबलपुर, मध्यप्रदेश के स्मृतिशेष व्यंग्यकार रासबिहारी पांडेय का स्थान महत्वपूर्ण है। नर्मदा का नीर पारदर्शी और धार तेज है। यहाँ की लोकभाषा बुंदेली में बृज और अवधी का माधुर्य और राजस्थानी-हरयाणवी का खड़ापन दोनों मिश्रित है। ऐसा ही स्वभाव इस अंचल के रहवासियों का है। रासबिहारी पांडेय जी के व्यक्तित्व-कृतित्व में ये दोनों गुण (दुनियादारी के हिसाब से अवगुण) कूट-कूटकर भरे थे। इसलिए अहर्निश साहित्य साधना करने के बाद भी वे वह ख्याति और सम्मान नहीं पा सके जिसके वे पात्र थे। आपका जन्म ३० नवंबर १९३३ को जबलपुर में हुआ, आजीवन जबलपुर में शैक्षणिक, साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक गतिविधियों में संलग्न रहकर २६ जुलाई १९९३ को आपने परलोक के लिए प्रस्थान किया। 

हिंदी व्यंग्य के शलाका पुरुष हरिशंकर जी परसाई का व्यक्तित्व और कृतित्व वट वृक्ष की तरह था। कहते हैं की वट की छाँव में और कोई पौधा नहीं पनप पाता। रासबिहारी जी के जीवट का प्रमाण यही है कि वे वट वृक्ष की छाँव में रहकर भी न केवल पनप सके अपितु उन्हें वट वृक्ष का आशीष भी मिलता रहा। बहुधा लेखन और लेखक के स्तर भिन्न पाए जाते हैं किन्तु रासबिहारी जी इस मामले में अपवाद थे। वे न तो परनिंदा रस में पगे, न स्तुति रस के सगे हुए। वे जीवन के ऊँचे-नीचे सफर में सदैव मानी बने रहे, अभिमानी कभी नहीं हुए। वे व्यंग्य की कुनैन को विनोद के गुड़ में लपेट कर परोसते रहे। 

अर्थ शास्त्र में  स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने बी.एड. किया, शिक्षक हुए और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होकर सफलता और यश दोनों का अर्जन किया। जबलपुर जिला हिंदी सम्मेलन के महामंत्री, गुंजन कला सदन के उपाध्यक्ष, मित्र संघ के साहित्यिक संयोजक, सरयू सौरभ मासिकी के संस्थापक संपादक, युवा एकता छात्र संघ के संरक्षक, व्यंग्यकार परिषद् के अध्यक्ष, मिलान तथा हिंदी मंच भारती के विशिष्ट सदस्य  में लगभग ४ दशकों तक रासबिहारी पाण्डे जी अपनी आभा से नगर के साहित्य जगत को प्रकाशित करते रहे। 

सज्री रास बिहारी पांडेय ने साहित्यिक सृजन यात्रा का श्रीगणेश वर्ष १९५१ में 'कुणाल' नाटक लिखकर किया। तत्पश्चात कहानी की डगर से होते हुए वे व्यंग्य लेखन के राजमार्ग के पथिक हो गए।स्पीकर क्रांति  जनवरी १९७८ में 'उधार का भाषण' व्यंग्यात्मक निबंध संग्रह के प्रकाशन के साथ ही उनकी ख्याति सिद्धहस्त व्यंग्य लेखक के रूप में हो गयी थी। कृति के आमुख में स्व. हरिशंकर परसाई ने लिखा "पांडेय जी  विस्तृत हैं इसीलिए दोनों प्रकार की विसंगतियां वे पकड़ पाए हैं। उनमें हास्यास्पद और बेढंगी स्थितियों की पकड़ है। साथ ही वे अपने ऊपर भी हँस लेते हैं, अपने को तटस्थ भाव से लेते हैं। व्यक्ति के बेढंगेपन का चित्रण उन्होंने अच्छा किया है, वह तथाकथित इंटेलेक्चुअल हो या उधार लेनेवाला। ........पांडेय जी जीवन को खुली आँख देखते हैं, उसमें विसंगति खोजते हियँ और उनके पास अभिव्यक्ति के लिए सरल और समर्थ भाषा है।' सुकवि, सांसद और महापौर जबलपुर भवानीप्रसाद तिवारी जी के शब्दों में -" श्री रासबिहारी पांडेय की 'उधार का भाषण' पुस्तक व्यंग्यपूर्ण निबंधों का संग्रह है ..... लेखनी के ललित्य ने अंतिम प्रौष्ठ तक लालित्य बनाये रखा।अतएव इस संग्रह को ललित व्यंग्य निबंधों की पुस्तक कहना मुझे अधिक उचित जान पड़ता है। व्यंग्य विधा की साधना सहज नहीं होती। व्यंग्य की प्रकृति स्वभावत: तीव्र होती है, अतएव व्यंग्य के साथ बहुधा 'बाण' शब्द प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत पुस्तक के निबंधों में 'व्यंग्य-बाण' कहीं नहीं है अपितु 'व्यंग्य कुसुम' सर्वत्र बिखरे हैं जो अपने स्पर्श से गुदगुदाते हैं। घटनाएँ और समस्याएँ शिष्ट हास्य के सूत्र से संबद्ध हैं, चरित्र ऐसे उभरे हैं कि समाज के बीच में पहचाने जाते हैं। यही व्यंग्य की कला में सफल परिणति है।'  प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्य मायाराम सुरजन के अनुसार 'श्री पांडेय की शैली में निजता और भाषा में सहजता है।' रायबरेली के प्रसिद्ध कवि मधुकर खरे के शब्दों में रासबिहारी जी के व्यंग्य ह्रदय को स्पर्श करते हैं, उसका छेदन नहीं करते।' साहित्यिक पत्रिका सरस्वती के यशस्वी संपादक देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्त' लिखते हैं - 'इनकी अभिव्यक्ति में व्यंग्य का पुट अनावश्यक विस्तार से सहज ही बचकर अपन काम कर जाता है और यही विशेषता उन्हें कुशल व्यंग्यशिल्पी की संज्ञा प्रदान पर देती है।' राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' की दृष्टी में 'पांडेय जी समाज के उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं जो दुःख-दर्द और अभाव को मात्र फिल्म में नहीं देखता अपितु उन्हें स्वयं झेलता, ठेलता और उनसे खेलता है।  इसीलिए उनके लेखन में सजीवता है, पैनापन है, बेबाकी है।' 

दूसरे व्यंग्य संकलन 'स्पीकर क्रांति' के बाद सटीक एवं बेबाक व्यंग्य लेखन के धनी रासबिहारी पांडे जी को वर्ष १९८१ में डंके की चोट, व्यंग्य उपन्यास हेतु मध्य प्रदेश प्रेमचंद जन्म शताब्दी समिति तथा मध्य प्रदेश आंचलिक साहित्यकार परिषद् द्वारा सम्मानित किया गया। आकाशवाणी जबलपुर से उनकी रचनाओं का निरंतर प्रसारण होता रहा। वर्ष १९८८ में पांडेय जी की चौथी कृति 'काका के जूते' को पाठकों व समीक्षकों ने जी भरकर सराहा। वर्ष १९९२ में व्यंग्य लेख संग्रह 'तीसरी आँख' के प्रकाशन के शीघ्र बाद ही पांडेय जी का निधन हो गया और और वर्ष १९९४ में हास्य-व्यंग्य कविताओं का संग्रह 'कटपीस' उनके परिवारजनों ने प्रकाशित कराया। 

मेरी दृष्टि में रासबिहारी पांडेय जी के शिक्षक ने जीवन को खुली आँखों देखकर घटनाओं, मन:स्थितियों, चरित्रों और आदतों (लतों भी) का सूक्ष्म अवलोकन व मन-मंथन करने के पश्चात् नवदृष्टि से रूढ़ियों पर शब्द-प्रहार किया किन्तु अपने लेखन को रूढ़ होने से बचाकर। उनके व्यंग्य लेखों का वैशिष्ट्य अकृत्रिमता, व्यापकता, रोचकता और कथात्मकता है। हिंदी व्यंग्य के इस चितेरे को जो स्थान मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका। 
*** 
संपर्क : ९४२५१ ८३२४४ / ७९९९५५ ९६१८।  
     

गुरुवार, 12 अगस्त 2021

नव गीत: बहुत छला है

नव गीत:
बहुत छला है.....
संजीव 'सलिल'
*
बहुत छला है
तुमने राम....
*
चाहों की
क्वांरी सीता के
मन पर हस्ताक्षर
धनुष-भंग कर
आहों का
तुमने कर डाले.
कैकेयी ने
वर कलंक
तुमको वन भेजा.
अपयश-निंदा ले
तुमको
दे दिये उजाले.
जनगण बोला:
विधि है वाम.
बहुत छला है
तुमने राम....
*
शूर्पनखा ने
करी कामना
तुमको पाये.
भेज लखन तक
नाक-कान
तुमने कटवाये.
वानर, ऋक्ष,
असुर, सुर
अपने हित मरवाये.
फिर भी दीनबन्धु
करुणासागर
कहलाये.
कह अकाम
साधे निज काम.
बहुत छला है
तुमने राम....
*
सीता मैया
परम पतिव्रता
जंगल भेजा.
राज-पाट
किसकी खातिर
था कहो सहेजा?
लव-कुश दे
माँ धरा समायीं
क्या तुम जीते?
डूब गए
सरयू में
इतने हुए फजीते.
नष्ट अयोध्या
हुई अनाम.
बहुत छला है
तुमने राम....
***

गीत

गीत:
हिन्दी ममतामय मैया है...
संजीव 'सलिल'
*
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
सूर कबीर रहीम देव
तुलसी से बेटों की मैया.
खुसरो बरदाई मीरां
जगनिक
खेले इसकी कैंया.
घाघ भड्डरी ईसुरी गिरिधर
जगन्नाथ भूषण
मतिमान.
विश्वनाथ श्री क्षेमचंद्र
जयदेव वृन्द
लय-रस की खान.
जायसी रायप्रवीण बिहारी
सेनापति
बन लाड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
बिम्ब प्रतीक व्याकरण पिंगल
क्षर-अक्षर रसलीन रहो.
कर्ताकारक कर्म क्रिया उपयुक्त
न रख क्यों दीन रहो?
रसनिधि
शब्द-शब्द चुनकर
बुनकर अभिनव ताना-बाना.
बन जाओ रसखान काव्य की
गगरी निश-दिन छलकाना.
तत्सम-तद्भव लगे डिठौना
किन्तु न तिल को ताड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
जिस ध्वनि का जैसा उच्चारण
वैसा लिखना हिन्दी है.
जैसा लिखना वैसा पढ़ना
वही समझना हिंदी है.
मौन न रहता कोई अक्षर,
गिरता कोई हर्फ़ नहीं.
एक वर्ण के दो उच्चारण
दो उच्चारो- वर्ण नहीं.
करो 'सलिल' पौधों का रोपण,
ब मत रोपा झाड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*

दोहा गीत

नवगीत / दोहा गीत :
बरसो राम धडाके से...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
लोकतंत्र की जमीं पर,
लोभतंत्र के पैर.
अंगद जैसे जम गए-
अब कैसे हो खैर?.

अपनेपन की आड़ ले,
भुना रहे हैं बैर.
देश पड़ोसी मगर बन-
कहें मछरिया तैर..

मारो इन्हें कड़ाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
कर विनाश मिल, कह रहे,
बेहद हुआ विकास.
तम की का आराधना-
उल्लू कहें उजास..

भाँग कुंए में घोलकर,
बुझा रहे हैं प्यास.
दाल दल रहे आम की-
छाती पर कुछ खास..

पिंड छुड़ाओ डाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
मगरमच्छ अफसर मुए,
व्यापारी घड़ियाल.
नेता गर्दभ रेंकते-
ओढ़ शेर की खाल.

देखो लंगड़े नाचते,
लूले देते ताल.
बहरे शीश हिला रहे-
.गूँगे करें सवाल..

चोरी होती नाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*

माँ, चौपदे , मुक्तक

माँ को अर्पित चौपदे: 
संजीव 'सलिल'
*
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ.
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ..
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ..
*
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ.
खेल-कूद शाला नटख़टपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ..
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ..
*
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ.
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ..
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ..
*
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ.
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ..
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ..
*
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ.
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ.
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ..
*
आशा आँगन, पुष्पा उपवन, भोर किरण की सुषमा है माँ.
है संजीव आस्था का बल, सच राजीव अनुपमा है माँ..
राज बहादुर का पूनम जब, सत्य सहाय 'सलिल' होता तब-
सतत साधना, विनत वन्दना, पुण्य प्रार्थना-संध्या है माँ..
*
माँ निहारिका माँ निशिता है, तुहिना और अर्पिता है माँ
अंशुमान है, आशुतोष है, है अभिषेक मेघना है माँ..
मन्वंतर अंचित प्रियंक है, माँ मयंक सोनल सीढ़ी है-
ॐ कृष्ण हनुमान शौर्य अर्णव सिद्धार्थ गर्विता है माँ
***

दोहा गीत

नवगीत / दोहा गीत :
हिन्दी का दुर्भाग्य है...
संजीव 'सलिल'
*
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कान्हा मैया खोजता,
मम्मी लगती दूर.
हनुमत कह हम पूजते-
वे मानें लंगूर.

सही-गलत का फर्क जो
झुठलाये है सूर.
सुविधा हित तोड़ें नियम-
खुद को समझ हुज़ूर.

चाह रहे जो शुद्धता,
आज मनाते सोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कोई हिंगलिश बोलता,
अपना सीना तान.
अरबी के कुछ शब्द कह-
कोई दिखाता ज्ञान.

ठूँस फारसी लफ्ज़ कुछ
बना कोई विद्वान.
अवधी बृज या मैथिली-
भूल रहे नादान.

माँ को ठुकरा, सास को
हुआ पूजना रोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
गलत सही को कह रहे,
सही गलत को मान.
निज सुविधा ही साध्य है-
भाषा-खेल समान.

करते हैं खिलवाड़ जो,
भाषा का अपमान.
आत्मा पर आघात कर-
कहते बुरा न मान.

केर-बेर के सँग सा
घातक है दुर्योग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
१२-८-२०१० 
***

गीत:कब होंगे आजाद

गीत:कब होंगे आजाद
संजीव 'सलिल'
*
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
गए विदेशी पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन.
भाषण देतीं सरकारें पर दे न सकीं हैं राशन..
मंत्री से संतरी तक कुटिल कुतंत्री बनकर गिद्ध-
नोच-खा रहे
भारत माँ को
ले चटखारे स्वाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र.
धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र..
आँख दिखाते सभी पड़ोसी, देख हमारी फूट-
अपने ही हाथों
अपना घर
करते हम बर्बाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
खाप और फतवे हैं अपने मेल-जोल में रोड़ा.
भष्टाचारी चौराहे पर खाए न जब तक कोड़ा.
तब तक वीर शहीदों के हम बन न सकेंगे वारिस-
श्रम की पूजा हो
समाज में
ध्वस्त न हो मर्याद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
पनघट फिर आबाद हो सकें, चौपालें जीवंत.
अमराई में कोयल कूके, काग न हो श्रीमंत.
बौरा-गौरा साथ कर सकें नवभारत निर्माण-
जन न्यायालय पहुँच
गाँव में
विनत सुनें फ़रियाद-
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
रीति-नीति, आचार-विचारों भाषा का हो ज्ञान.
समझ बढ़े तो सीखें रुचिकर धर्म प्रीति विज्ञान.
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो
हो पायेगा
धरती पर आबाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
१२-८-२०१० 
*

सरस्वती वंदना

सरस्वती वंदना:
संजीव 'सलिल'
*
संवत १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से सरस्वती वंदना का दोहा :
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति.
विनय करीन इ वीनवुं, मुझ घउ अविरल मत्ति..
(सकल स्वरों की स्वामिनी, सुनो सरस्वती मात 
विनय करूँ सर नवा दो, अविरल मति सौगात) 
*
अम्ब विमल मति दे.....
*

हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
*
नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....
*
बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....
*
कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....
*
हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....
*
नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
'सलिल' विमल प्रवहे.....
************************
२.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
जग सिरमौर बने माँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
आशिष अक्षय दे.....
साहस-शील हृदय में भर दे.
जीवन त्याग तपोमय करदे.
स्वाभिमान भर दे.....
*
लव-कुश, ध्रुव, प्रहलाद हम बनें.
मानवता का त्रास-तम् हरें.
स्वार्थ सकल तज दे.....
*
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा,
घर-घर हों काटें भव बाधा.
नवल सृष्टि रच दे....
*
सद्भावों की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल' निरख हरषे...
******************
३.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नाद-ब्रम्ह की नित्य वंदना.
ताल-थापमय सलिल-साधना
सरगम कंठ सजे....
*
रुन-झुन रुन-झुन नूपुर बाजे.
नटवर-नटनागर उर साजे.
रास-लास उमगे.....
*
अक्षर-अक्षर शब्द सजाये.
काव्य, छंद, रस-धार बहाये.
शुभ साहित्य सृजे.....
*
सत-शिव-सुन्दर सृजन शाश्वत.
सत-चित-आनंद भजन भागवत.
आत्मदेव पुलके.....
*
कंकर-कंकर प्रगटें शंकर.
निर्मल करें हृदय प्रलयंकर.
गुप्त चित्र प्रगटे.....
*
४.
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
*
कलकल निर्झर सम सुर-सागर.
तड़ित-ताल के हों कर आगर.
कंठ विराजे सरगम हरदम-
सदय रहें नटवर-नटनागर.
पवन-नाद प्रवहे...
*
विद्युत्छटा अलौकिक वर दे.
चरणों में गतिमयता भर दे.
अंग-अंग से भाव साधना-
चंचल चपल चारू चित कर दे.
तुहिन-बिंदु पुलके....
*
चित्र गुप्त, अक्षर संवेदन.
शब्द-ब्रम्ह का कलम निकेतन.
जियें मूल्य शाश्वत शुचि पावन-
जीवन-कर्मों का शुचि मंचन.
मन्वन्तर महके...
****************

गीत

गीत:....करो आचमन.
संजीव 'सलिल'
*
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
जीव सभ्यता ने ध्वनियों को
जब पहचाना
चेतनता ने भाव प्रगट कर
जुड़ना जाना.

भावों ने हरकर अभाव हर
सचमुच माना-
मिलने-जुलने से नव रचना
करना ठाना.

ध्वनि-अंकन हित अक्षर आये
शब्द बनाये
मानव ने नित कर नव चिंतन.

भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
सलिला की कलकलकल सुनकर
मन हर्षाया.
सांय-सांय सुन पवन झकोरों की
उठ धाया.

चमक दामिनी की जब देखी, तब
भय खाया.
संगी पा, अपनी-उसकी कह-सुन
हर्षाया.

हुआ अचंभित, विस्मित, चिंतित,
कभी प्रफुल्लित
और कभी उन्मन अभिव्यंजन.

भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
कितने पकडे, कितने छूटे
शब्द कहाँ-कब?
कितने सिरजे, कितने लूटे
भाव बता रब.

अपना कौन?, पराया किसको
कहो कहें अब?
आये-गए कहाँ से कितने
जो बोलें लब.

थाती, परिपाटी, परंपरा
कुछ भी बोलो
पर पालो सबसे अपनापन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
१२-८-२०१० 
* * *

गीत

गीत:
चुनौतियों के आँधी-तूफां.....
संजीव 'सलिल'
*
चुनौतियों के आँधी-तूफां मुझको किंचित डिगा न पाये.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
*
संबंधों की मृग-मरीचिका, अनुबंधों के मिले भुलावे.
स्नेह-प्रेम का ओढ़ आवरण, पग-पग पर छल गए छलावे..
अनजाने लगते अपने हैं, अपने अपनापन सपने हैं.
छेद हुआ पेंदी में जिनके, बेढब दुनियावी नपने हैं..
अपनी-अपनी कहें बेसुरे, कोई किसी की नहीं सुन रहा.
हाय! इमारत का हर पत्थर, अलग-अलग निज शीश धुन रहा..
सत्ता-सियासती मौसम में, बिन मारे सद्भाव मर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
*
अपने मत को सत्य मानना, मीता! बहुत सहज होता है.
केवल अपना सच ही सच है, जो कहता सच को खोता है..
अलग-अलग सुर-ताल मिलें जब, राग-रागिनी तब बन पाती.
रंग-बिरंगे तरह-तरह के, फूलों से बगिया सज पाती..
अपनी सीमा निर्धारित कर, कैद कर रहे खुद ही खुद को.
मन्दिर में भगवान समाता, कैसे? पूज रहे हैं बुत को..
पूर्वाग्रह की सुदृढ़ बेड़ियाँ, जेवर कहकर पहन घर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
*
बड़े-बड़े घावों पर मलहम, समय स्वयं ही रहा लगता.
भूली-बिसरी याद दिला मन, चोटों पर कर चोट दुखाता..
निर्माणों की पूर्व पीठिका, ध्वंस-नाश में ही होती है.
हर सिकता-कण, हर चिनगारी, जीवन की वाहक होती है..
कंकर-कंकर को शंकर कर, प्रलयंकर अभ्यंकर होता.
विधि-शारद, हरि-श्री शक्तित हों, तब जागृत मन्वन्तर होता.
रतिपति मति-गति अभिमंत्रित कर, क्षार हुए, साहचर्य वर गए.
अपने सपने पतझर में इस तरह झरे वीरान कर गये ...
१२-८-२०१० 
***

गीत

प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
संजीव 'सलिल'
*
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा मेघा दीप्ति उजाला
शुभ या अशुभ नहीं होता है.
वैसा फल पाता है साधक-
जैसा बीज रहा बोता है.

शिव को भजते राम और
रावण दोनों पर भाव भिन्न है.
एक शिविर में नव जीवन है
दूजे का अस्तित्व छिन्न है.

शिवता हो या भाव-भक्ति हो
सबको अब तक प्रार्थनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.....
*
अन्न एक ही खाकर पलते
सुर नर असुर संत पशु-पक्षी.
कोई अशुभ का वाहक होता
नहीं किसी सा है शुभ-पक्षी.

हो अखंड या खंड किन्तु
राकेश तिमिर को हरता ही है.
पूनम और अमावस दोनों
संगिनीयों को वरता भी है

भू की उर्वरता-वत्सलता
'सलिल' सभी को अर्चनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
कौन पुरातन और नया क्या?
क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
राग-विराग सभी के अन्दर-
क्या बेशर्मी और हया क्या?

अतिभोगी ना अतिवैरागी.
सदा जले अंतर में आगी.
नाश और निर्माण संग हो-
बने विरागी ही अनुरागी.

प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
'सलिल'-साधना साधनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
१२-८-२०१० 
*

गीत मैत्री दिवस

गीत:
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
संजीव 'सलिल'
*
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
होनी-अनहोनी कब रुकती?
सुख-दुःख नित आते-जाते हैं.
जैसा जो बीते हैं हम सब
वैसा फल हम नित पाते हैं.
फिर क्यों एक दिवस मैत्री का?
कारण कृपया, मुझे बतायें
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
मन से मन की बात रुके क्यों?
जब मन हो गलबहियाँ डालें.
अमराई में झूला झूलें,
पत्थर मार इमलियाँ खा लें.
धौल-धप्प बिन मजा नहीं है
हँसी-ठहाके रोज लगायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
बिरहा चैती आल्हा कजरी
झांझ मंजीरा ढोल बुलाते.
सीमेंटी जंगल में फँसकर-
क्यों माटी की महक भुलाते?
लगा अबीर, गायें कबीर
छाछ पियें मिल भंग चढ़ायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
१२-८-२०१० 
*

बुधवार, 11 अगस्त 2021

निबंध

निबंध 
पावस पानी पयस्विनी  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                            पावस ऋतुरानी का स्वागत कर पाना प्रकृति और पुरुष दोनों का सौभग्य है। सनातन काल से रमणियों के हृदय और कवि-लेखकों की कलम सृष्टि-चक्र के प्राण सदृश "पावस" की पवन छटा का प्रशस्ति गान भाव-भीने गीतों से करते हुए, धन्य होते रहे रहे हैं। पावस का धरागमन होते ही प्रकृति क्रमश: नटखट बालिका, चपल किशोरी, तन्वंगी षोडशी, लजाती नवोढ़ा व प्रौढ़ प्रगल्भा छवि लिए अठखेलियाँ करती, मुस्कुराती है, खिल-खिल कर हँसती है और मनोहर छटा बिखेरती हुई जल बिंदुओं के संग केलि क्रीड़ा करती प्रतीत होती है। पावस की अनुभूति विरह तप्त मानव मन को संयोग की सुधियों से आप्लावित और ओतप्रोत कर देती है।

                            पावस की प्रतीति होते ही कालिदास का यक्ष अपनी प्रिय को संदेश देने के लिए मेघ को दूत बनाकर भेजता है। तुलसी क्यों पीछे रहते? वे तो बारह से उफनती नदी में कूदकर बहते हुई शव को काष्ठ समझ उसके सहारे नदी पार कर प्रिय रत्नावली के समीप पहुँचकर सांसारिक सुख प्राप्ति की आकांशा करते है किंतु तुलसी प्रिया कामिनी मात्र न रहकर भामिनि हो जाती है। वह प्रिय की इष्ट पूर्ति के लिए, अपना खुद का अनिष्ट भी स्वीकार कर, समूची मानवता के कल्याण हेतु अपने स्वामी गोस्वामी को 'गो स्वामी' कहकर सकल सृष्टि के स्वामी श्री राम के पदपद्मों से प्रीत करने का पाठ पढ़ाने के सुअवसर को व्यर्थ नहीं जाने देतीं। गोस्वामी अपनी गोस्वामिनी के अनन्य त्याग को देखकर क्षण मात्र को स्तबध रह जाते हैं किंतु शीघ्र ही सम्हल कर प्रिया के मनोरथ को पूर्ण करने का हर संभव उपाय करते हैं। दैहिक मिलान को सर्वस्व जाननेवाले कैसे समझें की पावस हो या न हो, गोस्वामी और गोस्वामिनी के चक्षुओं से बहती जलधार तब तक नहीं थमी जब तक राम भक्ति की जल वर्षा से समूचे सज्जनों और उनकी सजनियों को सराबोर नहीं कर दिया।      
   
                            पावस ऋतु के आते ही वसुधा में नव जीवन का संचार होता है। नभ पटल पर छाये मेघराज, अपनी प्रेयसी वसुधा से मिलने के लिए उतावला होकर घनश्याम बन जाते हैं और प्रेम-प्यासी की करुण ध्वनि चित्तौड़गढ़ के प्रासादों के पत्थरों को आह भरने के लिए विवश करती हुई  टेरती है हैं- 'श्याम गहन घनश्याम बरसो बहुत प्यासी हूँ'। 

                            धरा को मनुहारता घन-गर्जन सुनकर उसकी भामिनि दामिनी तर्जन द्वारा रोष व्यक्त कर सबका दिल ही नहीं दहलाती, तड़ितपात कर मेघराज को अपने कदम पीछे करने के लिए विवश भी कर देती है। मेघ को बिन बरसे जाते देख, पवन भी पीछे नहीं रहता और दिशाओं को नापता हुआ, तरुओं को झकझोरता हुआ, लताओं को छेड़ता हुआ अपने विक्रम का प्रदर्शन करता है। भीत तन्वंगी लताएँ हिचकती-लजाती अपने तरु साथियों से लिपटकर भय निवारण के साथ-साथ, नटवर को सुमिरती हुई जमुन-तट की रास लीला को मूर्त कारण में कसर नहीं छोड़तीं। बालिका वधु सी सरिता, पर्वत बाबुल के गृह से विदा होते समय चट्टान बंधुओं से भुज भेंटकर कलपती हुई, बालुका मैया के अंक में विलाप कर सांत्वना पाने का प्रयास करती है किंतु अंतत: प्रिय समुद्र की पुकार सुनकर, सबसे मुख फेरकर आगे बढ़ भी जाती है और उसकी इस यात्रा का पाथेय जुटाता है पावस अपनी प्रेयसी वर्षा का सबला पाकर।
 
                            प्रकृति की लीला अघटन घटना पचीयसी की तरह कुछ दिखलाती, कुछ छिपाती, होनी से अनहोनी और अनहोनी से होनी की प्रतीति कराने की तरह होती है। क्रमश: पीहर की सुधियों में डूबती-उतराती सलिला, सपनों के संसार में प्रिय से मिलन की आस लिए हुए, कुछ आशंकित कुछ उल्लसित होती हुई, मंथर गति से बढ़ चलती है। कोकिलादि सखियों की छेड़-छाड़ से लजाती नदी, बेध्यानी में फिसलकर पथ में आए गह्वर में गिर पड़ती है। तन की पीड़ा मन की व्यथा भुला देती है। कलकल करती लहरियों का निनाद सुनकर मुस्कुराती तरंगिणी मत्स्यादि ननदियों और दादुरादि देवरों से  भौजी, भौजी सुनकर मनोविनोद करते हुए आगे बढ़ती जाती है। पल-पल, कदम दर कदम बढ़ते हुए, कब उषा दुपहरी में, दुपहरी संध्या में और संध्या रजनी में परिवर्तिति हो जाती, पता ही नहीं चला। न जाने कितने दिन-रात हो गए? नील गगन से कपसीले बादल शांति संदेश देते, रंग-बिरंगे घुड़पुच्छ बादल इंद्रधनुषी सपने दिखाते, वर्षामेघ अपने स्नेहाशीष से शैलजा को समृद्ध करते। भोर होते ही तीर पर प्रगट होकर प्रणाम करते भक्त, मंदिरों में बजती घण्टियाँ, गूँजती शंख ध्वनियाँ, भक्ति-भाव से भरी प्रार्थनाएँ सुनकर शैवलिनी के कर अनजाने ही जुड़ जाते और वह अपने आराध्य नीलकंठ शिव का स्मरण कर अपने जल में अवगाहन कर रहे नारी-नारियों के पाप-शाप मिटाने के लिए कृत संकल्पित होकर, सुग्रहणी की तरह क्षमाशील हो ममता मूर्ति बनकर कब सबकी श्रद्धा का पात्र बन गई, उसे पता ही न चला। 

                            सब दिन जात न एक समान। प्रकृति पुत्र मनुज को श्रांत-क्लांत पाकर निर्झरिणी उसे अंक में पाते ही दुलारती-थपथपाती लेकिन यह देख आहत भी होती कि यह मनुज स्वार्थ और लोभवध दनुज से भी बदतर आचरण कर रहा है। मनुष्यों के कदाचार और दुराचार से त्रस्त वृक्षों की हत्या से क्षुब्ध शैवलिनी क्या करे यह सोच ही रही थी कि अपने बंधु-बांधवों,  मिटटी के टीलों-चट्टानों तथा पितृव्य गिरी-शिखरों को खोदकर भूमिसात किए जाते देख प्रवाहिनी समझ गई कि लातों के देव बातों से नहीं मानते। कोढ़ में खाज यह कि खुद को सभ्य-सुसंस्कृत कहते नागर जनों ने नागों, वानरों, ऋक्षों, उलूकों, गंधर्वों आदि को पीछे छोड़ते हुए मैया कहते-कहते शिखरिणी के निर्मल-धवल आँचल को मल-मूत्र और कूड़े-कचरे का आगार बना दिया। नदी को याद आया कि उसके आराध्य शिव ही नहीं, आराध्या शिवा को भी अंतत: शस्त्र धारण कर दुराचारों और दुराचारियों का अंत कर अपनी ही बनाई सृष्टि को मिटाना पड़ा था। 'महाजनो येन गत: स पंथा:' का अनुकरण करते हुए जलमला ने उफनाते हुए अपना रौद्र रूप दिखाया, तटबंधों को तोड़कर मानव बस्तियों में प्रवेश किया और गगनचुंबी अट्टालिकाओं को भूमिसात कर मानवी निर्मित यंत्रों को तिनकों की तरह बहकर नष्ट कर दिया। गगन ने भी अपनी लाड़ली के साथ हुए अत्याचार से क्रुद्ध होकर बद्रीनाथ और केदारनाथ पर हनीमून मनाते युग्मों को मूसलाधार जल वृष्टि में बहाते हुए पल भर में निष्प्राण कर दिया। सघन तिमिर में होती बरसात ने उस भयंकर निशा का स्मरण करा दिया जब हैं को हाथ नहीं सूझता था। कालिंदी का शांत प्रवाह, उफ़न उफनकर जग को भयभीत कर रहा था। क्रुद्ध नागिन की तरह दौड़ती-फुँफकारती लहरें दिल दहला रही थीं। तब तो द्वापर में नराधम कंस के अनाचारों का अंत करने के लिए घनश्याम की छत्रछाया में स्वयं घनश्याम अवतरित हुए थे किन्तु अब इस कलिकाल में अमला-धवला बालुकावाहिनी को अपनी रक्षा आप ही करनी थी। मदांध और लोलुप नराधमों को काल के गाल में धकेलते हुए स्रोतस्विनी ने महाकाली का रूप धारण किया और सब कुछ मिटाना आरंभ कर दिया, जो भी सामने आया, वही नष्ट होता गया। 

                            इतिहास स्वयं को दुहराता है (हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ), किसी कल्प में जगजननी गौरी द्वारा महाकाली रूप धारण करने पर सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए स्वयं महाकाल शिव को उनके पथ में लेट जाना पड़ा था और अपने स्वामी शिव के वक्ष पर चरण स्पर्श होते ही शिवा का आक्रोश, पल भर में शांत हो गया था। जो नहीं करना था, वही कर दिया। मेरे स्वामी मेरे ही पगतल में? यह सोचते ही काली का गौरी भाव जाग्रुत हुई और इनकी जिह्वा बाहर निकल आई। यह मूढ़ मनुष्य उनकी पार्थिव पूजा तो करता है किंतु यह भूल जाता है कि पार्वती और शिखरिणी दोनों ही पर्वत सुता हैं। दोनों  शिवप्रिया है, एक शिव के हृदयासीन होकर जगतोद्धार करती है तो दूसरी शिव के मस्तक से प्रवहकर जगपालन करती है। तब भी मेघ गरजे थे, तब भी बिजलियाँ गिरी थीं, तब भी पवन प्रवाह मर्यादा तोड़कर बहा था, अब भी यही सब कुछ हुआ। तब भी क्रुद्ध शिवप्रिया सृष्टि नाश को तत्पर थीं, अब भी शिवप्रिया सृष्टिनाश को उद्यत हो गयी थीं। शैलजा के अदम्य प्रवाह के समक्ष पेड़-पौधों की क्या बिसात?, विशाल गिरि शिखर और भीमकाय गगनचुंबी अट्टालिकाएँ भी तृण की तरह निर्मूल हुए जा रहे थे। तब भी भोले भंडारी को राह में आना पड़ा था, अब भी दयानिधान भोले भंडारी राह में आ गए कि सर्वस्व नाश न हो जाए। पावस और तटिनी दोनों शिवशंकर के आगे नतमस्तक हो शांत हो गए।        
    
                            कभी वृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हुआ था-"फिर पछताएगी हो राधा, कित ते, कित हरि, कित ये औसर, करत-प्रेम-रस-बाधा!'' सलिल-प्रवाह शांत हुआ तो सलिला फिर पावस को साथ लेकर चल पड़ी सासरे की ओर। उसे शांत रखने के लिए सदाशिव घाट-घाट पर आ विराजे और सुशीला शिवात्मजा अपने तटों पर तीर्थ बसाते हुए पहुँच गई अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर। उसे फिर याद आ गए तुलसी जिन्होंने सरितनाथ की महिमा में त्रिलोकिजयी लंकाधिपति शिवभक्त दशानन से कहलवाया था था- 
बाँध्यो जलनिधि नीरनिधि, जलधि सिंधु वारीश। 
सत्य तोयनिधि कंपति, उदधि पयोधि नदीश।।  

                            अपलक राह निहारते सागर ने असंख्य मणि-मुक्ता समर्पित कर प्राणप्रिया की अगवानी की। प्रतीक्षा के पल पूर्ण हुए, चिर मिलन की बेला आरंभ हुई। पितृव्य गगन और भ्रातव्य मेघ हर बरस सावन पर जलराशि का उपहार सलिला को देते रहे हैं, देते रहेंगे। हम संकुचित स्वार्थी मनुष्य अम्ल-विमल सलिल प्रवाह में पंक घोलते रहेंगे और पुण्य सलिला पंकजा, लक्ष्मी निवास बनकर सकल सृष्टि के चर-अचर जीवों की पिपासा शांत करती रहेगी। हमने अपने कुशल-क्षेम की चिंता है तो हम पावस, पानी और पयस्विनी के पुण्य-प्रताप को प्रणाम करें। रहीम तो कह ही गये हैं -  
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। 
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून।। 
*****
संपर्क : ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८ 

  


दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
जाते-जाते बता दें, क्यों थे अब तक मौन?
सत्य छिपा पद पर रहे, स्वार्थी इन सा कौन??
*
कुर्सी पाकर बंद थे, आज खुले हैं नैन.
हिम्मत दें भय-भीत को, रह पाए सुख-चैन.
*
वे मीठा कह कर गए, मिला स्नेह-सम्मान.
ये कड़वा कह जा रहे, क्यों लादे अभिमान?
*
कोयल-कौए ने कहे, मीठे-कडवे बोल.
कौन चाहता काग को?, कोयल है अनमोल.
*
मोहन भोग मिले मगर, सके न काग सराह.
देख छीछड़े निकलती, बरबस मुँह से आह.
*
फ़िक्र न खल की कीजिए, करे बात बेबात.
उसके न रात दिन, और नहीं दिन रात.
*
जितनी सुन्दर कल्पना, उतना सुन्दर सत्य.
नैन नैन में जब बसें, दिखता नित्य अनित्य.
*
११-८-२०१७ 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४

मुक्तक, मुक्तिका

मुक्तक:
संजीव
*
उषा कर रही नित्य प्रात ही सविता का अभिनन्दन
पवन शांत बह अर्पित करती यश का अक्षत-चंदन
दिग्दिगंत तक कीर्ति पा सकें छेड़ रागिनी मीत
'सलिल' नमन स्वीकारें, जग को कर दें मिल नंदन वन
*
मुक्तिका:
संजीव
*
कारवाले कर रहे बेकार की बातें
प्यारवाले पा रहे हैं प्यार में घातें
दोपहर में हो रहे हैं काम वे काले
वास्ते जिनके कभी बदनाम थीं रातें
दगा अपनों ने करी इतिहास कहता है
दुश्मनों से क्या गिला? छल से मिली मातें
नाम गाँधी का भुनाते हैं चुनावों में
नहीं गलती से कभी जो सूत कुछ कातें
आदमी की जात का करिये भरोसा मत
स्वार्थ देखे तो बदल ले धर्म मत जातें
नुक्क्डों-गलियों को संसद ने हराया है
मिले नोबल चल रहे जूते कभी लातें
कहीं जल प्लावन, कहीं जन बूँद को तरसे
रुलाती हैं आजकल जन- गण को बरसातें
***
मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बोलना छोड़िए मौन हो सोचिए
बागबां कौन हो मौन हो सोचिए
रौंदते जो रहे तितलियों को सदा
रोकना है उन्हें मौन हो सोचिए
बोलते-बोलते भौंकने वे लगे
सांसदी क्यों चुने हो मौन हो सोचिए
आस का, प्यास का है हमें डर नहीं
त्रास का नाश हो मौन हो सोचिए
देह को चाहते, पूजते, भोगते
खुद खुदी चुक गये मौन हो सोचिए
मंदिरों में तलाशा जिसे ना मिला
वो मिला आत्म में ही छिपा सोचिए
छोड़ संजीवनी खा रहे संखिया
मौत अंजाम हो मौन हो सोचिए
***


मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बात को जानते मानते हैं सदा
बात हो मानने योग्य तो ही कहें
वायदों को कभी तोडियेगा नहीं
कायदों का तकाज़ा नहीं भूलिए
बाँह में जो रही चाह में वो नहीं
चाह में जो रहे बाँह में थामिए
जा सकेंगे दिलों से कभी भी नहीं
जो दिलों में बसे हैं, नहीं जाएँगे
रौशनी की कसम हम पतंगे 'सलिल'
जां शमा पर लुटा के भी मुस्काएँगे
***
११-८-२०१५

बाल गीत

बाल गीत :
अपनी माँ का मुखड़ा.....
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
सुबह उठाती गले लगाकर,
फिर नहलाती है बहलाकर.
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर.
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.

आंचल में छिप जाता मैं
ज्यों रहे गाय सँग बछड़ा.
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
बारिश में छतरी आँचल की.
ठंडी में गर्मी दामन की..
गर्मी में धोती का पंखा,
पल्लू में छाया बादल की.
कभी दिठौना, कभी आँख में
कोर बने काजल की..

दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
११-८-२०१०
*****

मंगलवार, 10 अगस्त 2021

समीक्षा, जयप्रकाश श्रीवास्तव

कृतिचर्चा :
'रेत हुआ दिन' गीत के बिन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : रेत हुआ दिन, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण अगस्त २०२०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ संख्या १२४, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १५०/-, युगधारा प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क : ७८६९१ ९३९२७, ९७१३५ ४४६४२।]

*
मनुष्य का गीत से प्रथम परिचय माँ की लोरी के मध्यम से होता है। गर्भ में लोरता (करवट बदलता) गुनगुनाहट की प्रतीति से हर्षित होता है। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह प्रवेश की विद्या माँ सुभद्रा के गर्भ में ही सीखी थी। इस पौराणिक आख्यान की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करता है। श्वास-प्रश्वास की लय के साथ माँ के कंठ से नि:सृत गीत को शिशु जन्म पूर्व ही पहचान लेता है और जन्मोपरांत सुन कर रोते-रोते चुप हो जाता है। वाचिक लय बद्ध गीतिकाव्य लिपिबद्ध होने पर वार्णिक-मात्रिक छंद के रूप में पहचाना जाकर 'गीत' कहलाता है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, रस, छंद, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, शैली आदि हैं। गीत के किसी तत्व में 'नवता' होने पर उसे 'नवगीत' कहा जाना चाहिए जैसे यौवन में प्रवेश करते युवा को 'नवयुवक' कहा जाता है। 'नवता' रूढ़ नहीं हो सकती, वह सतत परिवर्तित होती चेतना है। हिंदी में नवगीत को आंदोलन की तरह अधिरोपित करने का प्रयास साम्यवाद के प्रति प्रतिबध्द गीतकारों ने लगभग आठ दशक पूर्व किया। तब जिसने जैसी परिभाषा प्रस्तुत की उसे रूढ़ मानकर आज भी नवगीत रचे जा रहे हैं। अंतर मात्र यह है कि आरंभ में जो विषय और विचार नए थे, वे अब घिसते-घिसते जराजीर्ण होकर नवता का उपहास करते प्रतीत होते हैं। सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं और टटकेपन के नाम पर नवगीत को नकारात्मक ऊर्जा का भंडार बना दिया गया है। भारतीय लोक मनीषा उत्सव धर्मी है। वह अभावों में भी हँसना जानती है, लोकदेवता शिव विष पीकर भी अमर हो जाते हैं। ऋतु परिवर्तन, कृषि जन्य बीज बोने, रोपे लगाने, फसल देखने-काटने आदि ही नहीं भोर और साँझ होने पर भी गीत गायन लोक जीवन का अंग है। सरस गीतों को गाकर जिजीविषाजयी होते लोक को तथाकथित नवगीतीय शोकमुद्रा रास नहीं आई। फलत:, नवगीत लोक से कटकर नवगीतकारों के खेमे तक सीमित रहकर दम तोड़ने लगा।


नवगीत को इस विवशता से मुक्ति देकर नवजीवन देने के लिए सतत सृजनरत कलमों में एक कलम है जयप्रकाश श्रीवास्तव की। संयोगवश उनका नाम ही प्रकाश का जयघोष करता है और यह भी कि नवगीत को 'श्री' वास्तव में तभी मिल सकती है जब वह प्रकाश की जय बोले, जीवन में रस घोले, जिसे गुनगुनाकर कोई आमजन किसी नदी-निर्झर के किनारे डोले। रचनात्मक परिवर्तन एकाएक और पूरी तरह एक बार में नहीं होता, वह क्रमिक रूप से सामने आता है। पहली दो गीत कृतियों मन का साकेत और परिंदे संवेदना के में जयप्रकाश के गीत विविध रसों में स्नान करते प्रति होते हैं जबकि तीसरा संग्रह 'शब्द वर्तमान' के गीत विसंगति-विडंबना प्रधान हैं। जय प्रकाश का 'शिक्षक' जानता है उजाला और अँधेरा सहोदर होते हैं किंतु पर्व 'अँधेरे का नहीं, उजाले का मनाया जाता है और यह भी कि अँधेरा स्वयमेव हो जाता है, उजाला करना होता है। वे अपने चौथी गीत कृति 'रेत हुआ दिन' में गीतों के माध्यम से उजाला करने की ओर कदम बढ़ाते हैं।


आँगनों की धूप
छत की मुँडेरों पर
बैठ दिन को भेज रही है।


यहाँ किसी एक आँगन की नहीं, आँगनों की जा रही है, धूप दिन को भज रही है, दिन कर्मठता का आह्वान करता है। गीतकार धूप के माध्यम से कर्मयोग का संकेत करता है।

सुबह की ठिठुरन
रजाई में दुबकी
रात भरती उसाँसें
लेती है झपकी
सिहरते से रूप
काजल कोर बहती
आँख सपने तज रही है।


यह अन्तरा विश्राम करती रात और सुबह की ठिठुरन से उबरकर आँख को सपने तजकर सच से साक्षात करने की प्रेरणा दे रहा है। अगले अन्तरे में कर्म-संदेश और उभरता है आलस अंगड़ाई लेकर हँसते हुए फटकने-बुहारने का काम करने को उद्यत होता है।


अलस अँगड़ाई
उठा घूँघट खड़ी है
झटकती सी सिर
हँसी होंठों जड़ी है
फटकती है सूप
झाड़ू से बुहारे
भोर उजली सज रही है।


अंतिम अंतरे में सुआ बटलोई चढ़ाकर चित्रकोटी पढ़ रहा है, कूप जग गए हैं, पनघट टेर रहा है और पायल छनक रही है। स्पष्ट: समूचा गीत, नकारात्मकता पर सकारात्मकता का विजय नाद गुँजा रहा है। यह नवता ही नवगीत को नवजीवन देने में समर्थ होगी। अभिव्यक्ति ही जन-गण के मन को श्रम सीकर बहाने की प्रेरणा देगा।


जयप्रकाश विसंगतियों का महिममण्डन नहीं करते, वे व्यवस्था के सामने सवाल उठाते हैं -


क्यों हैं चिड़िया गुमसुम बैठी?
क्यों आँगन खामोश हुआ है?


गीत की १४ पंक्तियाँ 'क्यों' के माध्यम से, बिना कहे पाठक के मन में बदलाव की चिंगारी सुलगाने के लिए ईंधन का काम करती हैं। घिसे-पिटे नवगीतों का वैषम्य-विलाप यहाँ नहीं है।


नवगीतों के कलेवर को और अधिक स्पष्ट और प्रेरक हुए जयप्रकाश आशावादिता, हर्ष और हुलास को नवगीत का कलेवर बनाते हुए 'आओ तो' शीर्षक गीत में श्रृंगार सुरभि से नवगीत का सत्कार करते हैं-


कुछ सपनों ने
जन्म लिया है
तुम आओ तो आँखें खोलें।
नींद सुलाकर
गई अभी है
चंदा ने गाई है लोरी
रात झुलाती रही पालना
दूध-भात की लिए कटोरी
फूलों ने है
गंध बिखेरी
तुम हँस दो तो दर्पन बोलें।


किरन डोर से बँधे उजाले लेकर आती भोर, धूप उगाता सूरज, मंदिर में बजती घंटियाँ, पंछियों के कलरव, सुवासित समीर में अमृत घोलते भजन-आरती आदि को प्रतिबद्ध विचारधारा के बंदी मठाधीशों ने बहिष्कृत कर रखा था। 'काल है संक्रांति का' से नवगीतों की जमीन में लोक छंदों और लोक गीतों को रोपने के जिस कार्य का श्री गणेश किया गया था, उसे जयप्रकाश जी ने आगे बढ़ाया है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की नवगीत कार्यशालाओं के अभिन्न अंग के रूप में जयप्रकाश जी नवगीत के जमीनी जुड़ाव को भाषिक टटकापन तक सीमित न रखकर लोक जीवन से संश्लिष्ट रखने के पक्षधर रहे हैं।


जीतने की ज़िद और जीने की जिजीविषा को नवगीत में लाता है नवगीत 'एक जंगल'-


एक जंगल
खड़ा है चुपचाप
पीकर आग का दरिया
है अभी जीवित
सदी मुझमें
हरापन बोलता है
जड़ों से लेकर
शिराओं में
लहू बन डोलता है
चहकती है
सुन नई पदचाप
आँगन गंध गौरैया।


'फटेहाल / सी रहा ज़िंदगी / बैठ मेड़ पर रमुआ' कोशिश करते रहने का संदेश देता नवगीत है।


नवगीत में 'जगती आस / पत्ते नयापन बुनते', 'डालियों पर / फुदकते संलाप', 'अंकुरित फिर से / हुआ है बीज' शब्दावली मरुथल में ताजी सावनी बयार के झोंके की तरह जान में जान फूँकने में समर्थ है।


नवगीत में प्रेम को वर्ज्य मानने की जड़ता पर शब्द प्रहार करते जयप्रकाश 'चलो प्रेम की ऊँगली थामें / कुछ दूरी तक साथ चलें', 'आओ, स्नेह भरे बालों से / मन के सब कल्मष धोलें', 'माटी सोंधी अपनेपन की / बोयें खुशियों की फसलें' पर ही न रुककर नवगीत को सकारात्मक सोद्देश्यता देते हुए 'घुट-घुटकर जीने से अच्छा / पल दो पल गालें। हँस लें' का जय घोष करते हैं।


विसंगति और त्रासदी में भी जीवट और जिजीविषा को मरने न देना इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है।


वह लड़की
कचरे के ढेर में
खोजे टुकड़े सपनों के।
काँधे पर लादे
सूरज की गठरी
परे हटा जागे
अंधियारी कथरी
बढ़ती कुछ
पाने के फेर में
काम आए जो अपनों के।


नवगीतों में संदेशपरकता, बोधात्मकता तथा संप्रेषणीयता का सम्यक तालमेल जयप्रकाश कर सके हैं। 'हमने साथ / भीड़-भाड़ से/ हरकर चलना सीख लिया', 'मत डराओ / खौलती खामोशियों से / हमने कोलाहल पिया है', 'आओ मिल-बैठकर / सुलझाएँ गुत्थियाँ / धो डालें मन के सब मैल' आदि दृष्टव्य हैं।


नवगीतों में पारिवारिक सहजता और स्नेहपरकता घोलकर उसे सहजग्राह्य बनाने में विनोद निगम का सानी नहीं है। जयप्रकाश भी पीछे नहीं है- 'तुम आँगन में / स्वेटर बुनती / मैं पढ़ता अखबार / वहीं धूप अठखेली करती', 'फिर यादों के / नीम झरोखे में आ बैठा / दादी का सपना', तुम नहीं आए / तुम्हारी याद आई / आँख से आँसू झरे'।


'रेत हुआ दिन' नवगीतकार जयप्रकाश श्रीवास्तव के नए तेवरों से समृद्ध ऐसा नवगीत संकलन है जो नई कलमों को नैराश्य के दंडकारण्य से निकाल कर उल्लास के सतपुड़ा-वनों में, हरसिंगारी पौधरोपण की प्रेरणा देकर नवगीत को 'स्यापा गीत' बनने से बचाकर, सोहर, चैती या राई के निकट ले जाएगा। इन नवगीतों में आह्वान गीत की छुअन, मिलन गीत का हुलास, बोध गीत की संदेशपरकता, जागरण गीत की सोद्देश्यता का परस इन्हें हर दिन छाप रहे नवगीतों की भीड़ से अलग खड़ा करता है। स्वाभाविक है कि लकीर के फकीर मठाधीशों को यह स्वर सहज स्वीकार न हो किन्तु बहुसंख्यक पाठक और नवगीतकार इनमें डूब-उतरा कर फिर-फिर रसास्वादन करने के साथ-साथ अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
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विमर्श: साधना, बुद्धिमान

विमर्श:
साधना क्या है....
पत्थर पर एकाएक बहुत सा पानी डाल दिया जाए तो पत्थर केवल भीगेगा, फिर पानी बह जाएगा और पत्थर सूख जाएगा किन्तु वह पानी पत्थर पर एक ही जगह पर बूँद-बूँद गिरता रहेगा, तो पत्थर में छेद होगा और कुछ दिनों बाद पत्थर टूट भी जाएगा। कुएं में पानी भरते समय एक ही स्थान पर रस्सी की रगड़ से पत्थर और लोहे पर निशान पड़कर अंत में वह टूट जाता है 'रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान'। इसी प्रकार निश्चित स्थान पर ध्यान की साधना की जाएगी तो उसका परिणाम अधिक होता है ।
चक्की में दो पाटे होते हैं। उनमें यदि एक स्थिर रहकर, दूसरा घूमता रहे तो अनाज पिस जाता है और आटा बाहर आ जाता है। यदि दोनों पाटे एक साथ घूमते रहेंगे तो अनाज नहीं पिसेगा और परिश्रम व्यर्थ होगा। इसी प्रकार मनुष्य में भी दो पाटे हैं; एक मन और दूसरा शरीर। उसमें मन स्थिर पाटा है और शरीर घूमने वाला पाटा है।
अपने मन को ध्यान द्वारा स्थिर किया जाए और शरीर से सांसारिक कार्य करें। प्रारब्ध रूपी खूँटा शरीर रूपी पाटे में बैठकर उसे घूमाता है और घूमाता रहेगा लेकिन मन रूपी पाटे को सिर्फ भगवान के प्रति स्थिर रखना है। देह को प्रारब्ध पर छोड़ दिया जाए और मन को ध्यान में मग्न कर दिया जाए; यही साधना है।
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विमर्श : बुद्धिमान कौन?
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बिल्ली के सामने मिट्टी या पत्थर का चूहा बना कर रख दें, वह उस पर नहीं झपटती जबकि इंसान मिट्टी-पत्थर की मूरत बनाकर उसके सामने गिड़गिड़ाता रहता है और इसे धर्म कहता है।
कबीरदास कह गए -
काँकर-पाथर जोड़ के मस्जिद लई बनाय
ता चढ़ मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय
पाहन पूजे हरी मिले तो मैं पूजूँ पहार
ताते या चाकी भली पीस खाय संसार
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मेरे हाथों का बनाया हुआ
पत्थर का है बुत
कौन भगवान है सोचा जाय?
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कंकर कंकर में बसे हैं शंकर भगवान
फिर मूरत क्यों बनाता, रे! मानव नादान?
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