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बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

मुक्तक दीपावली

 मुक्तक

दीपावली
*
सत्य-शिव-सुन्दर का अनुसन्धान है दीपावली
सत-चित-आनंद का अनुगान है दीपावली
अकेले लड़कर तिमिर से, समर को चुप जीतता
जो उसी दीपक के यश का गान है दीपावली
*
अँधेरे पर रौशनी की जीत है दीपावली
दिलों में पलती मनुज की प्रीत है दीपावली
मिटा अंतर से सभी अंतर मनों को जोड़ दे
एकता-संदेश देती रीत है दीपावली
*
स्वदेशी की गूँज, श्रम का मान है दीपावली
भारती की कीर्ति, भारत-गान है दीपावली
चीन की उद्दंडता को दंड दे धिक्कारता
देश के जनगण का नव अरमान है दीपावली
***

नवगीत

 नवगीत:

हिल-मिल
दीपावली मना रे!
संजीव 'सलिल'
*
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
चक्र समय का
सतत चल रहा.
स्वप्न नयन में
नित्य पल रहा.
सूरज-चंदा
उगा-ढल रहा.
तम प्रकाश के
तले पल रहा,
किन्तु निराश
न होना किंचित.
नित नव
आशा-दीप जला रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
तन दीपक
मन बाती प्यारे!
प्यास तेल को
मत छलका रे!
श्वासा की
चिंगारी लेकर.
आशा-जीवन-
ज्योति जला रे!
मत उजास का
क्रय-विक्रय कर.
'सलिल' मुक्त हो
नेह लुटा रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
acharya sanjiv verma 'salil'
204 vijay apartment
napier town jabalpur 482001
94241 83244
salil.sanjiv@gmail.com

नवगीत

 नवगीत:

मंदिर में
पूजा जाता जो
उसका भी
क्रय-विक्रय होता
*
बिका हुआ भगवान
न वापिस होगा
लिख इंसान हँस रहा
वह क्या जाने
कालपाश में
ईश्वर के वह स्वयं फँस रहा
आस्था को
नीलाम कर रहा
भवसागर में
खाकर गोता
मन-मंदिर खाली
तन-मंदिर में
नित भोग चढ़ाते रहते
सिर्फ देह हम
उस विदेह को दिखा
भोग खुद खाते रहते
थामे माला
राम नाम
जपते रहते है
जैसे तोता
रचना की
करतूतें बेढब
रचनाकार देखकर विस्मित
माली मौन
भ्रमरदल से है
उपवन सारा पल-पल गुंजित
कौन बताये
क्या पाता है
क्या कब कौन
कहाँ है खोता???
========

आलेख : शब्दों की सामर्थ्य

आलेख :
शब्दों की सामर्थ्य - 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                     पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम तो यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका प्रयोग और दूसरा यह कि समाज में इतनी गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दुखते इन दोनों तर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.
                     हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.
                    दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.
                     समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.
                  तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.
                   अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.
                    प्रश्न यह है कि साहित्य रचा ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?
                 केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.
                    साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.
                     सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.
*
२१-१०-२०१० 

बाल कविता: कोयल-बुलबुल की बातचीत

बाल कविता:
कोयल-बुलबुल की बातचीत
-संजीव 'सलिल'
*
कुहुक-कुहुक कोयल कहे: 'बोलो मीठे बोल'.
चहक-चहक बुलबुल कहे: 'बोल न, पहले तोल'..

यह बोली: 'प्रिय सत्य कह, कड़वी बात न बोल'.
वह बोली: 'जो बोलना उसमें मिसरी घोल'.

इसका मत: 'रख बात में कभी न अपनी झोल'.
उसका मत: 'निज गुणों का कभी न पीटो ढोल'..

इसके डैने कर रहे नभ में तैर किलोल.
वह फुदके टहनियों पर, कहे: 'कहाँ भू गोल?'..

यह पूछे: 'मानव न क्यों करता सच का मोल.
वह डाँटे : 'कुछ काम कर, 'सलिल' न नाहक डोल'..
*
२१-१०-२०१० 

बृज सवैया डॉ. प्रतीक मिश्र

बृज पर्व
छंद सवैया
डॉ. प्रतीक मिश्र
*
हौंसनि चित्र रच्यो है कबै, धौंसनि पूरी भई कबै साधा।
चाहना सों को कबै कवि-कोविद, थाहि सक्यो रस सिंधु अगाधा।
स्याम जू जौ लौं कृपालु न होहिं, तो क्यों रचि पावैं सवैया अबाधा।
नामु कौं कामु 'प्रतीक' कौं है इतै, बोलत कान्ह लिखावतीं राधा।
*
जा पै मया करैं, ता पै दया करैं, पैरहि वा महासिंधु अगाधा।
बोल न जानै पै औचक बोलहि, तिंता औ' ता-ता, धिंधा औ' धा-धा।
लाखि बिरंचि लिखैं दुःख-दारिद, पै वे करैं, सब पूरन साधा।
जानहि नेही, 'प्रतीक' न आनहिं, जानहि नामु द्वै कान्ह औ' राधा।
*
मातुहिं नैनन तारे गोपाल औ, नंद के लाल सलोने से छैया। 
राधिका के उर साँवरे स्याम औ, गोपिन के मन प्रान कन्हैया।
पूतना, कंस उधारन हार जे, बियर बली बलदाऊ के भैया। 
नेह कै धारि सम्हारि-सम्हारि कै, पारि करैंगे 'प्रतीक' कै नैया। 
*
साभार  : बिरह बीथि      





रविवार, 18 अक्टूबर 2020

लक्ष्मी मंत्र

अनुष्ठान: 
लक्ष्मी मंत्र : क्यों और कैसे? 
सहस्त्रों वर्ष पूर्व रचित भागवत पुराण के अनुसार कलियुग में एक अच्छा कुल (परिवार) वही कहलाएगा, जिसके पास सबसे अधिक धन होगा। आजकल धन जीवन की आवश्यकता पूर्ति का साधन मात्र नहीं, समाज में सम्मान पाने आधार है। जीवन में सफलता के दो आधार भाग्य और पौरुष हैं। तुलसी 'हुईहै सोहि जो राम रचि राखा / को करि तरक बढ़ावै साखा' के साथ 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा / जो जस करहि सो तस फल चाखा' कहकर इस द्वैत को व्यक्त करते हैं। शास्त्रों में 'उद्यमेन हि सिद्धन्ति कार्याणि न मनोरथैः / नहिं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुख्य मृगा:' कहकर कर्म का महत्त्व दर्शाया गया है। गीता भी 'कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' अर्थात 'कर्म मात्र अधिकार तुम्हारा, क्या फल होगा सोच न कऱ निष्काम कर्म हेतु प्रेरित करती है। 
यह भी देखा जाता है कि भाग्य में धन लिखा है तो किसी न किसी प्रकार मिल जाता है, भाग्य में न हो तो सकल सावधानी के बाद भी सब वैभव नष्ट हो जाता है। सत्य नारायण की कथा के अनुसार अपने स्वजनों के अकरम का फल भी जीव को भोगना पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र तथा धार्मिक कर्मकांड के अनुसार अनेक शास्त्रीय उपाय हैं जिन्हें करने से मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में सक्षम होता है। ये शास्त्रीय उपाय मंत्र जाप, दान-पुण्य आदि हैं। धनवान बनने हेतु जातक की राशि के अनुसार धन की देवी लक्ष्मी के मंत्र का जाप करें। इससे जातक के ऊपर धन की वर्षा होकर जीवन से दरिद्रता दूर होती है और वह सुखी बनता है। लक्ष्मी का आशीर्वाद जीवन में धन और खुशहाली दोनों लाते हैं। 
मेष राशि- मंगल ग्रह से प्रभावित मेष जातक में कम साधनों में गुजारा करने का गुण नहीं होता। ये हमेशा जीवन से अधिक की अपेक्षा रखते हैं। मेष जातक को धन हेतु ‘श्रीं’ मंत्र का जाप १०००८ बार करना चाहिए।
वृषभ राशि- परिवार व जीवन के प्रति संवेदनशील वृषभ जातक 'ॐ सर्व बढ़ा विनिर्मुक्तो धन-धान्यसुतान्वित:। मनुष्योमत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
मिथुन राशि- दोहरे व्यक्तित्ववाले मिथुन जातक अपनी धुन के पक्के तथा कार्य के प्रति समर्पित होते हैं। इन्हें 'ॐ श्रीं श्रींये नम:' मंत्र की एक माला नित्य जपनी चाहिए ।
कर्क राशि- परिवार की हर आवश्यकतापूर्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनेवाले कर्क जातक 'ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ॐ॥' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
सिंह राशि- सम्मान, यश व धन के प्रति बेहद आकर्षित रहनेवाले सिंह जातक 'ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नम:' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
कन्या राशि- समझदार और सभी लोगों को साथ लेकर चलने वाले कन्या जातकों की जीवन के प्रति सोच सरल किन्तु शेष से भिन्न होती है। ये 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्मी नम:' मंत्र की एक माला नित्य प्रात: जपें।
तुला राशि- समझदार और सुलझे तुला जातक' ॐ श्रीं श्रीय नम:' मंत्र की एक या अधिक माला नित्य जपें।
वृश्चिक राशि- जीवनारंभ में परेशानियाँ झेल, २८ वर्ष के होने तक संपन्न होनेवाले वृश्चिक जातक अधिक उन्नति हेतु 'ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीभयो नम:' मन्त्र की एक माला नित्य जपें। 
मकर राशि- मेहनती-समझदार मकर जातक जल्दबाजी न कर, हर काम सोच-विचार कर करते हैं। ये ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौं ॐ ह्रीं क्लीं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं ह्रीं ॐ सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ॥' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
कुंभ राशि- कुम्भ राशि स्वामी शनि कर्मानुसार फल देने वाला ग्रह है। कुम्भ जातक कर्मानुसार शुभाशुभ फल शीघ्र पाते हैं। इन्हें 'ऐं ह्रीं श्रीं अष्टलक्ष्यम्ये ह्रीं सिद्धये मम गृहे आगच्छागच्छ नमः स्वाहा।' मंत्र की एक माला जाप नित्य जपना चाहिए।
मीन राशि- राशि स्वामी देवगुरु बृहस्पतिधन-धान्य प्रदाता हैं। मीन जातक को ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नम:' मंत्र की दो माला नित्य जपने से फल की प्राप्ति होगी।
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मुहब्बत दो शे'र

मुहब्बत दो शे'र - -

मुहब्बत भी सिमट कर रह गयी है चंद घंटों की
कि जिस दिन याद करते हैं , उसी दिन भूल जाते हैं.. -सुरेंद्र श्रीवास्तव
*
तुड़ा उपवास करवाचौथ का नेता सियासत में
लपक बाँहों में गैरों कीमुहब्बत खोज लाते हैं - संजीव
*

विमर्श फलित विद्या

विमर्श  
अंध श्रद्धा और अंध आलोचना के शिकंजे में भारतीय फलित विद्याएँ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
भारतीय फलित विद्याओं (ज्योतषशास्त्र, सामुद्रिकी, हस्तरेखा विज्ञान, अंक ज्योतिष आदि) तथा धार्मिक अनुष्ठानों (व्रत, कथा, हवन, जाप, यज्ञ आदि) के औचित्य, उपादेयता तथा प्रामाणिकता पर प्रायः प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं. इनपर अंधश्रद्धा रखनेवाले और इनकी अंध आलोचना रखनेवाले दोनों हीं विषयों के व्यवस्थित अध्ययन, अन्वेषणों तथा उन्नयन में बाधक हैं. शासन और प्रशासन में भी इन दो वर्गों के ही लोग हैं. फलतः इन विषयों के प्रति तटस्थ-संतुलित दृष्टि रखकर शोध को प्रोत्साहित न किये जाने के कारण इनका भविष्य खतरे में है. 
हमारे साथ दुहरी विडम्बना है 
१. हमारे ग्रंथागार और विद्वान सदियों तक नष्ट किये गए. बचे हुए कभी एक साथ मिल कर खोये को दुबारा पाने की कोशिश न कर सके. बचे ग्रंथों को जन्मना ब्राम्हण होने के कारण जिन्होंने पढ़ा वे विद्वान न होने के कारण वर्णित के वैज्ञानिक आधार नहीं समझ सके और उसे ईश्वरीय चमत्कार बताकर पेट पालते रहे. उन्होंने ग्रन्थ तो बचाये पर विद्या के प्रति अन्धविश्वास को बढ़ाया। फलतः अंधविरोध पैदा हुआ जो अब भी विषयों के व्यवस्थित अध्ययन में बाधक है. 
२. हमारे ग्रंथों को विदेशों में ले जाकर उनके अनुवाद कर उन्हें समझ गया और उस आधार पर लगातार प्रयोग कर विज्ञान का विकास कर पूरा श्रेय विदेशी ले गये. अब पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से पढ़े और उस का अनुसरण कर रहे हमारे देशवासियों को पश्चिम का सब सही और पूर्व का सब गलत लगता है. लार्ड मैकाले ने ब्रिटेन की संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन पर हुई बहस में जो अपन लक्ष्य बताया था, वह पूर्ण हुआ है. 
इन दोनों विडम्बनाओं के बीच भारतीय पद्धति से किसी भी विषय का अध्ययन, उसमें परिवर्तन, परिणामों की जाँच और परिवर्धन असीम धैर्य, समय, धन लगाने से ही संभव है. 
अब आवश्यक है दृष्टि सिर्फ अपने विषय पर केंद्रित रहे, न प्रशंसा से फूलकर कुप्पा हों, न अंध आलोचना से घबरा या क्रुद्ध होकर उत्तर दें. इनमें शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर सिर्फ और सिर्फ विषय पर केंद्रित हों.
संभव हो तो राष्ट्रीय महत्व के बिन्दुओं जैसे घुसपैठ, सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा (भूकंप, तूफान. अकाल, महत्वपूर्ण प्रयोगों की सफलता-असफलता) आदि पर पर्याप्त समयपूर्व अनुमान दें तो उनके सत्य प्रमाणित होने पर आशंकाओं का समाधान होगा। ऐसे अनुमान और उनकी सत्यता पर शीर्ष नेताओं, अधिकारियों-वैज्ञानिकों-विद्वानों को व्यक्तिगत रूप से अवगत करायें तो इस विद्या के विधिवत अध्ययन हेतु व्यवस्था की मांग की जा सकेगी।

मुक्तिका

 मुक्तिका:

मुक्त कह रहे मगर गुलाम
तन से मन हो बैठा वाम
कर मेहनत बन जायेंगे
तेरे सारे बिगड़े काम
बद को अच्छा कह-करता
जो वह हो जाता बदनाम
सदा न रहता कोई यहाँ
किसका रहा हमेशा नाम?
भले-बुरे की फ़िक्र नहीं
करे कबीरा अपना काम
बन संजीव, न हो निर्जीव
सुबह, दुपहरी या हो शाम
खिला पंक से भी पंकज
सलिल निरंतर रह निष्काम
*
१८-१०-२०१४

बाल गीत दिवाली

 बाल गीत:

अहा! दिवाली आ गयी
आओ! साफ़-सफाई करें
मेहनत से हम नहीं डरें
करना शेष लिपाई यहाँ
वहाँ पुताई आज करें
हर घर खूब सजा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
कचरा मत फेंको बाहर
कचराघर डालो जाकर
सड़क-गली सब साफ़ रहे
खुश हों लछमी जी आकर
श्री गणेश-मन भा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
स्नान-ध्यान कर, मिले प्रसाद
पंचामृत का भाता स्वाद
दिया जला उजियारा कर
फोड़ फटाके हो आल्हाद
शुभ आशीष दिला गयी
अहा! दिवाली आ गयी
*
१८-१०-२०१४

क्षणिका, मुक्तक

 आज की रचनाएँ:

क्षणिका :
तुम्हारा हर सच
गलत है
हमारा
हर सच गलत है
यही है
अब की सियासत
दोस्त ही
करते अदावत
*
मुक्तक:
मँहगा न मँहगा सस्ता न सस्ता
सस्ता विदेशी करे हाल खस्ता
लेना स्वदेशी कुटियों से सामां-
उसका भी बच्चा मिले ले के बस्ता
उद्योगपतियों! मुनाफा घटाओ
मजदूरी थोड़ी कभी तो बढ़ाओ
सरकारों कर में रियायत करो अब
मरा जा रहा जन उसे मिल जिलाओ
कुटियों का दीपक महल आ जलेगा
तभी स्वप्न कोई कुटी में पलेगा
शहरों! की किस्मत गाँवों से चमके
गाँवों का अपना शहर में पलेगा
*

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
जिज्ञासा ही धर्म है
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
धर्म बताता है यही, निराकार है ईश.
सुनते अनहद नाद हैं, ऋषि, मुनि, संत, महीश..
मोहक अनहद नाद यह, कहा गया ओंकार.
सघन हुए ध्वनि कण, हुआ रव में भव संचार..
चित्र गुप्त था नाद का. कण बन हो साकार.
परम पिता ने किया निज, लीला का विस्तार..
अजर अमर अक्षर यही, 'ॐ' करें जो जाप.
ध्वनि से ही इस सृष्टि में, जाता पल में व्याप..
'ॐ' बना कण फिर हुए, ऊर्जा के विस्फोट.
कोटि-कोटि ब्रम्हांड में, कण-कण उसकी गोट..
चौसर पाँसा खेल वह, वही दाँव वह चाल.
खिला खेलता भी वही, होता करे निहाल..
जब न देख पाते उसे, लगता भ्रम जंजाल.
अस्थि-चर्म में वह बसे, वह ही है कंकाल..
धूप-छाँव, सुख-दुःख वही, देता है पोशाक.
वही चेतना बुद्धि वह, वही दृष्टि वह वाक्..
कर्ता-भोक्ता भी वही, हम हैं मात्र निमित्त.
कर्ता जानें स्वयं को, भरमाता है चित्त..
जमा किया सत्कर्म जो, वह सुख देता नित्य.
कर अकर्म दुःख भोगती, मानव- देह अनित्य..
दीनबन्धु वह- आ तनिक, दीनों के कुछ काम.
मत धनिकों की देहरी, जा हो विनत प्रणाम..
धन-धरती है उसी की, क्यों करता भण्डार?
व्यर्थ पसारा है 'सलिल', ढाई आखर सार..
ज्यों की त्यों चादर रहे, लगे न कोई दाग.
नेह नर्मदा नित नहा, तज सारा खटराग..
जिज्ञासा ही धर्म है, ज्ञान प्राप्ति ही कर्म.
उसकी तनिक प्रतीति की, चेतनता का मर्म..
*

गुरु घनाक्षरी, चित्रगुप्त घनाक्षरी

ॐ 
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर 

आचार्य संजीव वर्मा सलिल'                                                                                                                 कार्यालय ४०१ विजय अपार्टमेंट,   
संस्थापक-संचालक                                                                                                                           नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१

माँ नर्मदा और विश्ववाणी हिंदी के गर्व पुत्र गुरु सक्सेना जी शिक्षक रहते हुए भी और सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी गुरु-धर्म का मर्म ग्रहण कर भावी पीढ़ियों को शिक्षित ही नहीं संस्कारित भी करते रहे हैं। नर्मदा के जीवनदायी जल की तरह गुरु जी अपने शिष्यों के विचार संस्कारित कर उन्हें भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रति सजग-सचेत कर सर्व कल्याणकारी सृजन की ओर उन्मुख कर सके हैं। पाश्चात्य संस्कारहीनता और पूँजीवादी आत्मकेंद्रित तंत्र के काल में 'सत-शिव-सुंदर' की आराधना करने-कराने से बढ़कर उत्तम अन्य अनुष्ठान नहीं हो सकता। 'गुरुकुल काव्य कलश' का प्रकाशन गुरु-शिष्य परंपरा को संजीवित करने के साथ-साथ छांदस शोध-सृजन-प्रकाशन के सारस्वत अनुष्ठान को भी दिशा और गति देगा। 
इस मांगलिक अवसर पर गुरु और शिष्य सभी साधुवाद के पात्र हैं। गुरु जी के सृजन का साक्षी बनना एक सुखद अनुभव हैं। मेरी अनंत शुभकामनायें। गुरु जी 'जीवेम शरद: शतम' का वैदिक जीवन लक्ष्य पूर्ण कर हिंदी के ध्वजा सकल जगत में फहरा सकें। 
                                                                                                                                            संजीव वर्मा 'सलिल'   

गुरु घनाक्षरी :
गरज-गरज घन, बरस-बरस कर, प्रमुदित-पुलकित, कर गुरु वंदन। 
गुरुकुल चल मन, गुरु पग धर मन, गुरु सम गुरु कर, कर यश गायन।
धरणि गगन सह, अनिल अनल मिल, सलिल लहर सह, शतदल चंदन।   
अठ अठ अठ सत, यति गति लय रस, गुरु वर जल-लभ, सरस समापन।  
विधान :
१. प्रति पद - वर्ण ३१, यति ८-८-८-७।
२. प्रतिपद - मात्रा - २८, यति ८-८-८-८। 
३. गणसूत्र - ९ नगण + जगण + लघु या ९ नगण + लघु + भगण। 
*
चित्रगुप्त घनाक्षरी 
चित्रगुप्त प्रभु कर्म नियंता, कर्मदेव को पुलक मना मन, निश-दिन साँझ-सकारे।
मात-तात प्रभु धर्म नियंता, धर्म देव को हुलस मना मन, पल-पल क्यों न पुकारे। 
ब्रह्म-विष्णु-हर कर्म करें जो, जन्म दे रहे कर जग पालन, तन घर संग भुला रे। 
स्वामि मात्र प्रभु आत्म नियंता, मर्म सृष्टि का समझ बता मन, प्रभु महिमा नित गा रे।        
विधान :
१. प्रति पद - वर्ण ३२, यति ११-१२-९ ।
२. प्रतिपद - मात्रा - ४४, यति १६-१६-१२। 
३. गणसूत्र - र न भ म ज भ स न न भ ग ग  । 
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शनिवार, 17 अक्टूबर 2020

धनतेरस, रविशंकर छंद

धन तेरस पर नव छंद
गीत
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छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
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धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
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salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४

लघुकथा: बाल चन्द्रमा

लघुकथा:
बाल चन्द्रमा
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे द्वारा फेंगा गया कचरा बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस। ' कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था बाल चन्द्रमा।
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salil.sanjiv@gmail.com

दोहा

दोहा सलिला
जो न कहीं वह सब जगह, रचता वही भविष्य
'सलिल' न थाली में पृथक, सब में निहित अदृश्य
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जब-जब अमृत मिलेगा, सलिल करेगा पान
अरुण-रश्मियों से मिले ऊर्जा, हो गुणवान
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हरि की सीमा है नहीं, हरि के सीमा साथ
गीत-ग़ज़ल सुनकर 'सलिल', आभारी नत माथ
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कांता-सम्मति मानिए, तभी रहेगी खैर
जल में रहकर कीजिए, नहीं मगर से बैर
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व्यग्र न पाया व्यग्र को, शांत धीर-गंभीर
हिंदी सेवा में मगन, गढ़ें गीत-प्राचीर
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शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
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जीवन मूल्य खरे-खरे, पालें रखकर प्रीति
डॉक्टर निकट न जाइये, यही उचित है रीति
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कलाकार की कल्पना, जब होती साकार
एक नयी ही सृष्टि तब, लेती है आकार
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प्रभु सारे जग का रखें, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
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कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
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जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
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दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
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स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
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होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
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शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

सरस्वती

सरस्वती माता - सकल विद्या दाता
दक्षिण भारत में खास करके तमिलनाडु मे सरस्वती माता को विद्या का मूल और सब प्रकार के कला का कारण मानते हैं। विद्यारंभ के पहले सरस्वती नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिनी विद्यारंभम करिश्यामी सिद्दर भवतु में सदा मंत्र जपते हैं। रोज सुबह शाम जब घर पर दिया जलाया जाता है तब सरस्वती की वंदना की जाती है।
अक्षरारंभ संस्कार 
बसंत पंचमी के दिन सरस्वती मंदिर में शिशुओं का अक्षरारंभ संस्कार शहद चटाकर, कान में मन्त्र फूँककर तथा एक अक्षर लिखवाकर किया जाता है। उत्तर भारत में यह संस्कार लुप्तप्राय है किन्तु दक्षिण भारत में अभी भी यह प्रचलन में है।  

सरस्वती वंदना

 वीना श्रीवास्तव

जन्म - १४ सितंबर १९६६, हाथरस।
आत्मजा - स्व. रमा श्रीवास्तव - स्व. महेश चन्द्र श्रीवास्तव।
जीवन साथी श्री राजेंद्र तिवारी।
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिंदी, अंग्रेजी)।
संप्रति - पत्रकारिता, स्वतंत्र लेखन। अध्यक्ष- शब्दकार, सचिव- (साहित्य ) हेरिटेज झारखंड, कार्यकारी अध्यक्ष – ग्रीन लाइफ।
प्रकाशन - काव्य संग्रह - तुम और मैं, मचलते ख्वाब, लड़कियाँ (३ पुरस्कार), शब्द संवाद (संकलन व संपादन), खिलखिलाता बचपन (स्तंभ)
परवरिश करें तो ऐसे करें (स्तंभ)। संपादन ‘भोर धरोहर अपनी’ त्रैमासिकी।
उपलब्धि - नाटक “बेटी”, "हिम्मत" आकाशवाणी राँची से प्रसारित-पुरस्कृत, प्रभात खबर में स्तंभ लेखन, अंतरराष्ट्रीय सम्मान - मास्को, बुडापेस्ट, इजिप्ट (मिस्त्र), इंडोनेशिया- (बाली), जर्मनी (बुडापेस्ट) में, देश में अनेक सम्मान।
संपर्क - सी- २०१श्री राम गार्डन, कांके रोड, रिलायंस मार्ट के सामने, रांची ८३४००८ झारखंड।
चलभाष - ९७७१४३१९००। ईमेल - veena.rajshiv@gmail.com ।
ब्लॉग लिंक- http://veenakesur.blogspot.in/
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शारदे माँ! मैं पुकारूँ
शारदे माँ! मैं पुकारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
सुर की नदिया तुम बहा दो
द्वेष की दीवार गिरा दो
मन में प्रेम के पुष्प खिलाके
सुर से सुर को तुम मिला दो
तू जो आए चरण पखारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
अंधकार को दूर करो माँ!
ज्ञान का संचार करो माँ!
मन मंदिर में दीप जला दो
नव स्वर से झंकार करो माँ!
तेरे दरस से भाग सँवारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
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अपना पता बता दे या मेरे पास आजा
श्वेतांबरी, त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
एक हंस सुवासन हो सरसिज पे एक चरण हो
शोभित हो कर में वीणा, वीणा की मधुर धुन हो
मैं मंत्रमुग्ध नाचूँ, ऐसा समा बंधा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
तेरा ज्ञान पुंज दमके वीणा के सुर भी खनके
तेरे पाद पंकजों की रज से धरा ये महके
हम धन्य होएँ माता हमको दरस दिखा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
जहाँ शांति हर तरफ हो और प्रेम की धनक हो
अपनी ज़बां पे माता तेरे नाम के हरफ़ हों
हम भूल जाएँ सब कुछ ऐसी छवि दिखा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा

सरस्वती वंदना सरस्वती कुमारी

सरस्वती वंदना
सरस्वती कुमारी, ईटानगर
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वर दो वीणावादिनी,अम्ब विमल मति धार।
चरण कमल की धूल दे,कर दो भव से पार।।01
जीवन नैया खे सकूँ,चाहे हो मझधार।
हाथ थमा दो ज्ञान की,माँ !मेरे पतवार।।02
भाव पुष्प अर्पित करूँ,माँ! कर लो स्वीकार।
आन विराजो कंठ में,नस- नस दो झंकार।।03
हृदय लिए विश्वास माँ,आया तेरे द्वार।
ज्ञान चक्षु मम खोलकर,दो बल बुद्धि अपार।।04
शुभदा शुभवरदायिनी!,वाणी दो उपहार।
तीव्र लेखनी धार से,लिख दूँ जग का सार।।05
सुर यति गति लय छंद का,माँ दे दो उपहार।
भाव भरो नित काव्य में,शब्द-शब्द झंकार।।06
श्वेत वसन शोभित नयन,मंद अधर मुस्कान।
पुस्तक वीणा धारिणी,दिव्य गुणों की खान।।07
जग जननी जय अम्बिके,कर मणि मौक्तिक माल।
शुभ्र वर्ण पीताम्बरी,दिव्य सुशोभित भाल।।08
कर जोड़े विनती करूँ,सुन लो!मात पुकार।
निज चरणों में दे शरण,कर दो मम उद्धार।।09
तिमिर नाशिनी ज्योतिके,कर दो तम का नाश।
उर मंदिर में शारदे,भर दो ज्ञान प्रकाश।।10
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