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गुरुवार, 30 जुलाई 2020

मुक्तक, दोहा, द्विपदी

मुक्तक 
चाँद तनहा है ईद हो कैसे? 
चाँदनी उसकी मीत हो कैसे??
मेघ छाये घने दहेजों के, 
रेप पर उसकी जीत हो कैसे?? 
*
कोशिशें करती रहो, बात बन ही जायेगी
जिन्दगी आज नहीं, कल तो मुस्कुरायेगी
हारते जो नहीं गिरने से, वो ही चल पाते-
मंजिलें आज नहीं कल तो रास आयेंगी.
*
दोहा 
नेह वॄष्टि नभ ने करी, धरा जब गयी भींज 
हरियायी भू लाज से, 'सलिल' मन गयी तीज
*
द्विपदी 
जात मजहब धर्म बोली, चाँद अपनी कह जरा
पुज रहा तू ईद में भी, संग करवा चौथ के.  
*
चाँद का इन्तिजार करती रही, चाँदनी ने गिला कभी न किया.
तोड़ती है समाधि शिव की नहीं, शिवा ने मौन रह सहयोग दिया.
*

बुधवार, 29 जुलाई 2020

सुभाषित संजीवनी १

सुभाषित संजीवनी १
*
मुख पद्मदलाकारं, वाचा चंदन शीतलां।
हृदय क्रोध संयुक्तं, त्रिविधं धूर्त लक्ष्णं।।
*
कमल पंखुड़ी सदृश मुख, बोल चंदनी शीत।
हृदय युक्त हो क्रोध से, धूर्त चीन्ह त्रैरीत।।
*

शिवताण्डवस्तोत्रम् : हिन्दी काव्यानुवाद


रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
*
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम|| २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
*
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:|| १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
*****************

छंद परिचय : २

छंद परिचय : २
पहचानें इस छंद को, क्या लक्षण?, क्या नाम?
रच पायें तो रचें भी, मिले प्रशंसा-नाम..
*
भोग्य यह संसार हो तुझको नहीं
त्याज्य यह संसार हो तुझको नहीं
देह का व्यापार जो भी कर रहा
गेह का आधार बिसरा मर रहा
***
salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तिका - विदा प्राण शर्मा

मुक्तिका 
 वरिष्ठ ग़ज़लकार प्राण शर्मा, लंदन के प्रति
भावांजलि
संजीव
*
फूँक देते हैं ग़ज़ल में प्राण अक्सर प्राण जी
क्या कहें किस तरह रचते हैं ग़ज़ल सम्प्राण जी
.
ज़िन्दगी के तजुर्बों को ढाल देते शब्द में
सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी कभी करते नहीं हैं प्राण जी
.
सादगी से बात कहने में न सानी आपका
गलत को कहते गलत ही बिना हिचके प्राण जी
.
इस मशीनी ज़िंदगी में साँस ले उम्मीद भी
आदमी इंसां बने यह सीख देते प्राण जी
.
'सलिल'-धारा की तरह बहते रहे, ठहरे नहीं
मरुथलों में भी बगीचा उगा देते प्राण जी
***
salil.sanjiv@gmail.com

Poem: RIVER

Poem:
RIVER
Sanjiv
*
I wish to be a river.
Why do you laugh?
I'm not joking,
I really want to be a river>
Why?
Just because
River is not only a river.
River is civilization.
River is culture.
River is humanity.
River is divinity.
River is life of lives.
River is continuous attempt.
River is journey to progress.
River is never ending roar.
River is endless silence.
That's why river is called 'mother'.
That's why river is worshipped.
'Namami devi Narmade'.
River live for hunman
But human pollute it until it die.
I wish to
Live and die for others.
Bless mother earth with forests.
Finish the thrust.
Regenerate my energy
again and again.
That's why I wish to be a river.
***
26-7-2015

नवगीत : विंध्याचल की छाती पर

नवगीत : 
विंध्याचल की छाती पर
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा-
आरक्षण कोयल को देकर
कागा
करते काँव.
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५

लघुकथा ज़हर

लघुकथा
ज़हर
संजीव
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
*

२९-७-२०१७ 

भूमिका, "जब से मन की नाव चली" डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल'

फ़ोटो का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है.प्राक्कथन-
"जब से मन की नाव चली" नवगीत लहरियाँ लगें भली
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
*
गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस् रागात्मक उच्छवास से संपृकत होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरी, फाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जान-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्तियह "लय" ही वेदों का ''पाद'' कहे गए "छंद" का प्राण है। किसी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ का आशीष पड़-स्पर्श से ही प्राप्त होता है। ज्ञान मस्तिष्क में, ज्योति नेत्र में, प्राण ह्रदय मे, बल हाथ में होने पर भी "पाद" बिना संचरण नहीं हो सकता। संचरण बिना संपर्क नहीं, संपर्क बिना आदान-प्रदान नहीं, इसलिए "पिंगल"-प्रणीत छंदशास्त्र वेदों का पाद है। आशय यह की छन्द अर्थात "लय" साढ़े बिना वेदों की ऋचाओं के अर्थ नहीं समझे जा सकते। जनगण ने आदि काल से "लय" को साधा जिसे समझकर नियमबद्ध करते हुए "पिंगलशास्त्र" की रचना हुई। लोकगीति नियमबद्ध होकर छन्द और गीत हो गयी। समयानुसार बदलते कथ्य-तथ्य को अगीकार करती गीत की विशिष्ट भावभंगिमा "नवगीत" कही गयी।
स्वतन्त्रता पश्चात सत्तासीन दल ने एक विशेष विचारधारा के प्रति आकर्षण वश उसके समर्थकों को शिक्षा संस्थानों में वरीयता दी। फलत: योजनाबद्ध तरीके से विकसित होती हिंदी साहित्य विधाओं में लेखन और मानक निर्धारण करते समय उस विचारधारा को थोपने का प्रयास कर समाज में व्याप्त विसंगति, विडंबना अतिरेकी दर्द, पीड़ा, वैमनस्य, टकराव, ध्वंस आदि को नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य तथा दृश्य माध्यमों नाटक, फिल्म आदि में न केवल वरीयता दी गयी अपितु समाज में व्याप्त सौहार्द्र, सद्भाव, राष्ट्रीयता, प्रकृति-प्रेम, सहिष्णुता, रचनात्मकता को उपेक्षित किया गया। इस विचारधारा से बोझिल होकर तथाकथित प्रगतिशील कविता ने दम तोड़ दिया जबकि गीत के मरण की छद्म घोषणा करनेवाले भले ही मर गए हों, गीत नव चेतना से संप्राणित होकर पुनर्प्रतिष्ठित हो गया। अब प्रगतिवादी गीत की नवगीतीय भाव-भंगिमा में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं। वैदिक ऋचाओं से लेकर संस्कृत काव्य तक और आदिकाल से लेकर छायावाद तक लोकमंगल की कामना को सर्वोपरि मानकर रचनाकर्म करते गीतकारों ने ''सत-शिव-सुन्दर'' और ''सत-चित-आनंद'' की प्राप्ति का माध्यम ''गीत'' और ''नवगीत'' को बनाये रखा।
यह सत्य है कि जब-जब दीप प्रज्वलित किया जाता है, 'तमस' उसके तल में आ ही जाता है किन्तु आराधना 'उजास' की ही की जाती है। इस मर्म को जान और समझकर रचनाकर्म में प्रवृत्त रहनेवाले साहित्य साधकों में वीर भूमि राजस्थान की शिक्षा नगरी कोटा के डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट "आकुल" की कृति "जब मन की नाव चली" की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तमाम युगीन विसंगतियों पर उनके निराकरण के प्रयास और नव सृजन की जीजीविषा भारी है।
कल था मौसम बौछारों का / आज तीज औ' त्योहारों का
रंग-रोगन बन्दनवारों का / घर-घर जा बंजारन नित
इक नवगीत सुनाती जाए।

यह बनजारन क्या गायेगी?, टकराव, बिखराव, द्वेष, दर्द या हर्ष, ख़ुशी, उल्लास, आशा, बधाई? इस प्रश्न के उठते में ही नवगीत का कथ्य इंगित होगा। आकुल जी युग की पीड़ा से अपरिचित नहीं हैं।
कलरव करते खग संकुल खुश / अभिनय करते मौसम भी खुश
समय-चक्र का रुके न पहिया / प्रेम-शुक्र का वही अढैया
छोटी करने सौर मनुज की / फिर फुसलायेगा इस बार

'ढाई आखर' पढ़ने वाले को पण्डित मानाने की कबीरी परंपरा की जय बोलता कवि विसंगति को "स्वर्णिक मृग, मृग मरीचिका में / फिर दौड़ाएगा इस बार" से इंगित कर सचेत भी करता है।
महाभारत के महानायक करना पर आधारित नाटक प्रतिज्ञा, गीत-ग़ज़ल संग्रह पत्थरों का शहर, काव्य संग्रह जीवन की गूँज, लघुकथा संग्रह अब रामराज्य आएगा, गीत संग्रह नव भारत का स्वप्न सजाएँ रच चुके आकुल जी के ४५ नवगीतों से समृद्ध यह संकलन नवगीत को साम्यवादी चश्मे से देखनेवालों को कम रुचने पर भी आम पाठकों और साहित्यप्रेमियों से अपनी 'कहन' और 'कथ्य' के लिए सराहना पायेगा।
आकुल जी विपुल शब्द भण्डार के धनी हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों का यथेचित प्रयोग उनके नवगीतों को अर्थवत्ता देता है। संस्कृत निष्ठ शब्द (देवोत्थान, मधुयामिनी, संकुल, हश्र, मृताशौच, शावक, वाद्यवृंद, बालवृन्द, विषधर, अभ्यंग, भानु, वही, कृशानु, कुसुमाकाशी, उदधि, भंग, धरणीधर, दिव्यसन, जाज्वल्यमान, विलोड़न, द्रुमदल, झंकृत, प्रत्यंचा, जिगीषा, अतिक्रम संजाल, उच्छवासा, दावानल, जठरानल, हुतात्मा, संवत्सर, वृक्षावलि, इंदीवर आदि), उर्दू से गृहीत शब्द (रिश्ते, कदम, मलाल, शिकवा, तहजीब, शाबाशी, अहसानों, तल्ख, बरतर, मरहम, बरकत, तबके, इंसां, सहर, ज़मीर, सगीर, मन्ज़िल, पेशानी, मनसूबे, जिरह, ख्वाहिश, उम्मीद, वक़्त, साजिश, तमाम, तरफ, पयाम, तारिख, असर, ख़ामोशी, गुज़र आदि ), अंग्रेजी शब्द (स्वेटर, कोट, मैराथन, रिकॉल आदि), देशज शब्द (अँगना, बिजुरिया। कौंधनि, सौर, हरसे, घरौंदे, बिझौना, अलाई, सैं, निठुरिया, चुनरिया, बिजुरिया, उमरिया, छैयाँ आदि) रचनाओं में विविध रंग-वर्ण की सुमनों की तरह सुरुचिपूर्वक गूँथे गये हैं। कुछ कम प्रचलित शब्द-प्रयोग के माध्यम से आकुल जी पाठक के शब्द-भण्डार को को समृद्ध करते हैं।
मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा,बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-जिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।
इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ईया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।
आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी मानें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये',वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रेहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिव्हाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।
उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे।आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं।
हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने 'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है। संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ। किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।
आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं मन ही सन्तुलित किये जाने से लय में पीढ़ी जा सकती है। इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है। गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त)
''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा। समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी।
आकुल जी की वरिष्ठ कलम से शीघ्र ही अन्य रचनारत्नों की प्राप्ति की आशा यह कृति जगाती है। आकुल जी के प्रति अनंत-अशेष शुभकामनायें।
*
संपर्क समन्वय २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com,
दूरवार्ता ९४२५१ ८३२४४ / ०७६१ २४१११३१
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भाषा चर्चा : महावीर शरण जैन

विमर्श 
महावीरसरन  जैन  
*

ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में ‘स्’ ध्वनि नहीं बोली जाती थी। ‘स्’ को ‘ह्’ रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के ‘असुर’ शब्द को वहाँ ‘अहुर’ कहा जाता था। अफ़गानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इला़के को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी ‘हिन्द’, ‘हिन्दुश’ के नामों से पुकारा गया है। यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को ‘एडजेक्टिव’ के रूप में ‘हिन्दीक’ कहा गया है जिसका मतलब है ‘हिन्द का’। यही ‘हिन्दीक’ शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में ‘इंदिके’, ‘इंदिका’, लैटिन में ‘इंदिया’ तथा अंग्रेजी में ‘इंडिया’ बन गया। यह हिन्दी एवं इंडिया शब्दों की व्युत्पत्ति का भाषावैज्ञानिक इतिहास है।
अवेस्ता तथा ‘डेरियस के शिलालेख’ में ( ५२२ से ४८६ ईस्वी पूर्व ) में ‘हिन्दु’ शब्द का प्रयोग ‘सिंध’ के समीपवर्ती क्षेत्र के निवासियों के लिए हुआ है। ‘हिन्द’ शब्द धीरे-धीरे भारत में रहने वाले निवासियों तथा फिर पूरे भारत के लिए होने लगा। भारत की भाषाओं के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ईरान के बादशाह नौशेरवाँ के काल में ( ५३१ - ५७९ ईस्वी ) उसके एक दरबारी कवि द्वारा संस्कृत भाषा के ‘पंचतंत्र’ के ईरानी भाषा ‘पहलवी’ में किए गए अनुवाद ‘कलीलहउदिमना’ में पंचतंत्र की भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा गया है। सातवीं शताब्दी में महाभारत के कुछ अंशों का पहलवी में अनुवाद करने वाले विद्वान ने मूल भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा है। दसवीं शताब्दी में अब्दुल हमीद ने भी पंचतंत्र की भाषा को ‘हिन्दी’ कहा है। तेरहवीं शताब्दी में मिनहाजुस्सिराज द्वारा अपने ग्रन्थ ‘तबकाते नासरी’ में भारतीय देसी भाषाओं के लिए ‘जबाने हिन्दी’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दी तक अरबी एवं फारसी साहित्य में भारत में बोली जाने वाली ज़बानों के लिए ‘ज़बान-ए-हिन्दी’ लफ्ज़ का प्रयोग हुआ है। भारत आने के बाद मुसलमानों ने ‘ज़बान-ए-हिन्दी’, ‘हिन्दी जुबान’ अथवा ‘हिन्दी’ का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को ‘भाखा’ नाम से पुकराते थे, ‘हिन्दी’ नाम से नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध काव्य पंक्ति है – संस्कृत है कूप जल, भाखा बहता नीर। (संस्कृत तो कुए के पानी की तरह है। भाखा बहते पानी की तरह है।)
जिस समय मुसलमानों का यहाँ आना शुरु हुआ उस समय भारत के इस हिस्से में साहित्य-रचना शौरसेनी अपभ्रंश में होती थी। बाद में डिंगल साहित्य रचा गया। मुग़लों के काल में अवधी तथा ब्रज में साहित्य लिखा गया। आधुनिक हिन्दी साहित्य की जो जुबान है, उस जुबान ‘हिन्दवी’ को आधार बनाकर रचना करने वालों में सबसे पहले रचनाकार का नाम अमीर खुसरो है जिनका समय १२५३ ई0 से १३२५ ई0 के बीच माना जाता है। ये फ़ारसी के भी विद्वान थे तथा इन्होंने फ़ारसी में भी रचनाएँ लिखीं मगर ‘हिन्दवी’ में रचना करने वाले ये प्रथम रचनाकार थे। इनकी अनेक पहेलियाँ इसका प्रमाण है। उदाहरण के लिए खुसरो की दो रचनाएँ प्रस्तुत हैं।
(1) क्या जानूँ वह कैसा है। जैसा देखा वैसा है।
(2) एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया।
अमीर खुसरो ने अपनी भाषा को ‘हिन्दवी’ कहा है। एक जगह उन्होने लिखा है जिसका भाव है कि मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ। ( उनकी मूल पंक्ति इस प्रकार है: ‘तुर्क हिन्तुस्तानियम हिन्दवी गोयम जवाब’)
*

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

कृति समीक्षा : 'दिन कटे हैं धूप चुनते -अवनीश त्रिपाठी

कृति समीक्षा :
'दिन कटे हैं धूप चुनते' हौसले ले स्वप्न बुनते
समीक्षाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दिन कटे हैं धूप चुनते, नवगीत संग्रह, अवनीश त्रिपाठी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८९३८८९४६२१६, आकार २२ से.मी. X १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा. लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क - ग्राम गरएं, जनपद सुल्तानपुर २२७३०४, चलभाष ९४५१५५४२४३, ईमेल tripathiawanish9@gmail.com]
*
धरती के
मटमैलेपन में
इंद्रधनुष बोने से पहले,
मौसम के अनुशासन की
परिभाषा का विश्लेषण कर लो।

साहित्य की जमीन में गीत की फसल उगाने से पहले देश, काल, परिस्थितियों और मानवीय आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के विश्लेषण का आव्हान करती उक्त पंक्तियाँ गीत और नवगीत के परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: सार्थक हैं। तथाकथित प्रगतिवाद की आड़ में उत्सवधर्मी गीत को रुदन का पर्याय बनाने की कोशिश करनेवालों को यथार्थ का दर्पण दिखाते नवगीत संग्रह "दिन कटे हैं धूप चुनते" में नवोदित नवगीतकार अवनीश त्रिपाठी ने गीत के उत्स "रस" को पंक्ति-पंक्ति में उँड़ेला है। मौलिक उद्भावनाएँ, अनूठे बिम्ब, नव रूपक, संयमित-संतुलित भावाभिव्यक्ति और लयमय अभिव्यक्ति का पंचामृती काव्य-प्रसाद पाकर पाठक खुद को धन्य अनुभव करता है।
स्वर्ग निरंतर
उत्सव में है
मृत्युलोक का चित्र गढ़ो जब,
वर्तमान की कूची पकड़े
आशा का अन्वेषण कर लो।
मिट्टी के संशय को समझो
ग्रंथों के पन्ने तो खोलो,
तर्कशास्त्र के सूत्रों पर भी
सोचो-समझो कुछ तो बोलो।
हठधर्मी सूरज के
सम्मुख
फिर तद्भव की पृष्ठभूमि में
जीवन की प्रत्याशावाले
तत्सम का पारेषण कर लो।

मानव की सनातन भावनाओं और कामनाओं का सहयात्री गीत-नवगीत केवल करुणा तक सिमट कर कैसे जी सकता है? मनुष्य के अरमानों, हौसलों और कोशिशों का उद्गम और परिणिति डरे, दुःख, पीड़ा, शोक में होना सुनिश्चित हो तो कुछ करने की जरूरत ही कहाँ रह जाती है? गीतकार अवनीश 'स्वर्ग निरंतर उत्सव में है' कहते हुए यह इंगित करते हैं कि गीत-नवगीत को उत्सव से जोड़कर ही रचनाकार संतुष्टि और सार्थकता के स्वर्ग की अनुभूति कर सकता है।
नवगीत के अतीत और आरंभिक मान्यताओं का प्रशस्तिगान करते विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध गीतकार जब नवता को विचार के पिंजरे में कैद कर देते हैं तो "झूमती / डाली लता की / महमहाई रात भर" जैसी जीवंत अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ गीत से दूर हो जाती हैं और गीत 'रुदाली' या 'स्यापा' बनकर जिजीविषा की जयकार करने का अवसर न पाकर निष्प्राण हो जाता है। अवनीश ने अपने नवगीतों में 'रस' को मूर्तिमंत किया है-
गुदगुदाकर
मंजरी को
खुश्बूई लम्हे खिले,
पंखुरी के
पास आई
गंध ले शिकवे-गिले,
नेह में
गुलदाउदी
रह-रह नहाई रात भर।

कवि अपनी भाव सृष्टि का ब्रम्हा होता है। वह अपनी दृष्टि से सृष्टि को निरखता-परखता और मूल्यांकित करता है। "ठहरी शब्द-नदी" उसे नहीं रुचती। गीत को वैचारिक पिंजरे में कैद कर उसके पर कुतरने के पक्षधरों पर शब्दाघात करता कवि कहता है-
"चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थ हीन हो चुकी समीक्षा
सोई चादर तान यहाँ

कवि के मंतव्य को और अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ-
अक्षर-अक्षर आयातित हैं
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं
छलते संधि-समास पीर में
रस के गाँव नहीं जुटते हैं।
अलंकार ले
चलती कविता
सर से पाँव लदी।

अलंकार और श्रृंगार के बिना केवल करुणा एकांगी है। अवनीश एकांगी परिदृश्य का सम्यक आकलन करते हैं -
सौंपकर
थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना,
वस्त्र के झीने झरोखे
टाँकती अवहेलना,
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते।

सुख को जीते हुए दुखों के काल्पनिक और मिथ्या नवगीत लिखने के प्रवृत्ति को इंगित कर कवि कहता है-
भूख बैठी प्यास की लेकर व्यथा
क्या सुनाये सत्य की झूठी कथा
किस सनातन सत्य से संवाद हो
क्लीवता के कर्म पर परिवाद हो

और
चुप्पियों ने मर्म सारा
लिख दिया जब चिट्ठियों में,
अक्षरों को याद आए
शक्ति के संचार की

अवनीश के नवगीतों की कहन सहज-सरल और सरस होने के निकष पर सौ टका खरी है। वे गंभीर बात भी इस तरह कहते हैं कि वह बोझ न लगे -
क्यों जगाकर
दर्द के अहसास को
मन अचानक मौन होना चाहता है?

पूर्वाग्रहियों के ज्ञान को नवगीत की रसवंती नदी में काल्पनिक अभावों और संघर्षों से रक्त रंजीत हाथ दोने को तत्पर देखकर वे सजग करते हुए कहते हैं-
फिर हठीला
ज्ञान रसवंती नदी में
रक्त रंजित हाथ धोना चाहता है।

नवगीत की चौपाल के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए वे व्यंजना के सहारे अपनी बात सामने रखते हुए कहते हैं कि साखी, सबद, रमैनी का अवमूल्यन हुआ है और तीसमारखाँ मंचों पर तीर चला कर अपनी भले ही खुद ठोंके पर कथ्य और भाव ओके नानी याद आ रही है-
रामचरित की
कथा पुरानी
काट रही है कन्नी
साखी-शबद
रमैनी की भी
कीमत हुई अठन्नी
तीसमारखाँ
मंचों पर अब
अपना तीर चलाएँ ,
कथ्य-भाव की हिम्मत छूटी
याद आ गई नानी।
और
आज तलक
साहित्य जिन्होंने
अभी नहीं देखा है,
उनके हाथों
पर उगती अब
कविताओं की रेखा।

नवगीत को दलितों की बपौती बनाने को तत्पर मठधीश दुहाई देते फिर रहे हैं कि नवगीत में छंद और लय की अपेक्षा दर्द और पीड़ा का महत्व अधिक है। शिल्पगत त्रुटियों, लय भंग अथवा छांदस त्रुटियों को छंदमुक्ति के नाम पर क्षम्य ही नहीं अनुकरणीय कहनेवालों को अवनीश उत्तर देते हैं-
मात्रापतन
आदि दोषों के
साहित्यिक कायल हैं
इनके नव प्रयोग से सहमीं
कवितायेँ घायल हैं
गले फाड़ना
फूहड़ बातें
और बुराई करना,
इन सब रोगों से पीड़ित हैं
नहीं दूसरा सानी।

'दिन कटे हैं धूप चुनते' का कवि केवल विसंगतियों अथवा भाषिक अनाचार के पक्षधरताओं को कटघरे में नहीं खड़ा करता अपितु क्या किया जाना चाहिए इसे भी इंगित करता है। संग्रह के भूमिकाकार मधुकर अष्ठाना भूमिका में लिखते हैं "कविता का उद्देश्य समाज के सम्मुख उसकी वास्तविकता प्रकट करना है, समस्या का यथार्थ रूप रखना है। समाधान खोजना तो समाज का ही कार्य है।' वे यह नहीं बताते कि जब समाज अपने एक अंग गीतकार के माध्यम से समस्या को उठता है तो वही समाज उसी गीतकार के माध्यम से समाधान क्यों नहीं बता सकता? समाधान, उपलब्धु, संतोष या सुख के आते ही सृजन और सृजनकार को नवगीत और नवगीतकारों के बिरादरी के बाहर कैसे खड़ा किया जा सकता है? अपनी विचारधारा से असहमत होनेवालों को 'जातबाहर' करने का धिकार किसने-किसे-कब दिया? विवाद में न पड़ते हुए अवनीश समाधान इंगित करते हैं-
स्वप्नों की
समिधायें लेकर
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित नैतिकता के घर
आओ, हवं करें।
शमित सूर्य को
बोझल तर्पण
ायासित संबोधन,
आवेशित
कुछ घनी चुप्पियाँ
निरानंद आवाहन।
निराकार
साकार व्यवस्थित
ईश्वर का अन्वेषण,
अंतरिक्ष के पृष्ठों पर भी
क्षितिज चयन करें।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए नवगीतकार कहता है-

त्रुटियों का
विश्लेषण करतीं
आहत मनोव्यथाएँ
अर्थहीन वाचन की पद्धति
चिंतन-मनन करें।
और
संस्कृत-सूक्ति
विवेचन-दर्शन
सूत्र-न्याय संप्रेषण
नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था
बौद्धिक यजन करें।

बौद्धिक यजन की दिशा दिखाते हुए कवि लिखता है -
पीड़ाओं
की झोली लेकर
तरल सुखों का स्वाद चखाया...
.... हे कविता!
जीवंत जीवनी
तुमने मुझको गीत बनाया।

सुख और दुःख को धूप-छाँव की तरह साथ-साथ लेकर चलते हैं अवनीश त्रिपाठी के नवगीत। नवगीत को वर्तमान दशक के नए नवगीतकारों ने पूर्व की वैचारिक कूपमंडूकता से बाहर निकालकर ताजी हवा दी है। जवाहर लाल 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही, कुमार रवींद्र, विनोद निगम, निर्मल शुक्ल, गिरि मोहन गुरु, अशोक गीते, संजीव 'सलिल', गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', पूर्णिमा बर्मन, कल्पना रामानी, रोहित रूसिया, जयप्रकाश श्रीवास्तव, मधु प्रसाद, मधु प्रधान, संजय शुक्ल, संध्या सिंह, धीरज श्रीवास्तव, रविशंकर मिश्र बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार आदि के कई नवगीतों में करुणा से इतर वात्सल्य, शांत, श्रृंगार आदि रसों की छवि-छटाएँ ही नहीं दर्शन की सूक्तियों और सुभाषितों से सुसज्ज पंक्तियाँ भी नवगीत को समृद्ध कर नई दिशा दे रही है। इस क्रम में गरिमा सक्सेना और अवनीश त्रिपाठी का नवगीतांगन में प्रवेश नव परिमल की सुवास से नवगीत के रचनाकारों, पाठकों और श्रोताओं को संतृप्त करेगा।
वैचारिक कूपमंडूकता के कैदी क्या कहेंगे इसका पूर्वानुमान कर नवगीत ही उन्हें दशा दिखाता है-
चुभन
बहुत है वर्तमान में
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों से पीड़ित हम
आओ समकालीन बनें।

समकालीन बनने की विधि भी जान लें-
कथ्यों को
प्रामाणिक कर दें
गढ़ दें अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से बाहर निकलें
थोड़ा और नवीन बनें।

'दर्द' की देहरी लांघकर 'उत्सव' के आँगन में कदम धरता नवगीत यह बताता है की अब परिदृश्य परिवर्तित हो गया है-
खोज रहे हम हरा समंदर,
मरुथल-मरुथल नीर,
पहुँच गए फिर, चले जहाँ से,
उस गड़ही के तीर .

नवगीत विसंगतियों को नकारता नहीं उन्हें स्वीकारता है फिर कहता है-
चेत गए हैं अब तो भैया
कलुआ और कदीर।

यह लोक चेतना ही नवगीत का भविष्य है। अनीति को बेबस ऐसे झेलकर आँसू बहन नवगीत को अब नहीं रुच रहा। अब वह ज्वालामुखी बनकर धधकना और फिर आनंदित होने-करने के पथ पर चल पड़ा है -
'ज्वालामुखी हुआ मन फिर से
आग उगलने लगता है जब
गीत धधकने लगता है तब

और
खाली बस्तों में किताब रख
तक्षशिला को जीवित कर दें
विश्व भारती उगने दें हम
फिर विवेक आनंदित कर दें
परमहंस के गीत सुनाएँ

नवगीत को नव आयामों में गतिशील बनाने के सत्प्रयास हेति अवनीश त्रिपाठी बढ़ाई के पात्र हैं। उन्होंने साहित्यिक विरासत को सम्हाला भर नहीं है, उसे पल्लवित-पुष्पित भी किया है। उनकी अगली कृति की उत्कंठा से प्रतीक्षा मेरा समीक्षक ही नहीं पाठक भी करेगा।
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[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com]

दोहा

दोहा 
जब तक मन उन्मन न हो, तब तक तन्मय हो न
शांति वरण करना अगर, कुछ अशान्ति भी बो न

*
तब तक कुछ मिलता कहाँ, जब तक तुम कुछ खो न.
दूध पिलाती माँ नहीं, बच्चा जब तक रो न.

*
खोज-खोजकर थक गया, किंतु मिला इस सा न.
और सभी कुछ मिला गया, मगर मिला उस सा न.
*
बहुत हुआ अब मानिए, रूठे रहिए यों न.
नीर-क्षीर सम हम रहे, मिल आपस में ज्यों न.
*
गँवा नहीं सकते कभी, जब तक लें कुछ पा न.
अधर अधर से मिल रचे, जब खाया हो पान.
*


चौपाल चर्चाः - जाति

चौपाल चर्चाः - जाति 
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं. जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है. जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है ' जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है.सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है.
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है. पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है. व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे. दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके. कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं.
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके. 

सोमवार, 27 जुलाई 2020

कार्यशाला दोहा से कुंडलिया

कार्यशाला
दोहा से कुंडलिया
*
पोर पोर में है थकन, दर्द दर्द मे तान
मन को धक्का मारते, सपने कुछ शैतान।  -शशि पुरवार
सपने कुछ शैतान, नटखटी बचपनवाले
जरा बड़े हम हुए, पड़ गए उन पर ताले
'सलिल' जी सकें काश!, होकर भाव विभोर
खट्टी अमिया तोड़, खा नाचे हर पोर - संजीव

एक रचना

एक रचना
*
अरुण अर्णव लाल-नीला
अहम् तज मन रहे ढीला
स्वार्थ करता लाल-पीला
छंद लिखता नयन गीला
संतुलन चाबी, न ताला
बिना पेंदी का पतीला

नमन मीनाक्षी सुवाचा
गगन में अरविंद साँचा
मुकुल मन ने कथ्य बाँचा
कर रहा जग तीन-पाँचा
मंजरी सज्जित भुआला

पुनीता है शक्ति वर ले
विनीता मति भक्ति वर ले
युक्तिपूर्वक जिंदगी जी
मुक्ति कर कुछ कर्म वर ले
काल का सब जग निवाला
*
संजीव
८-६-२०२०

सरस्वती वंदना

 ॐ
सरस्वती वंदना
मतिमान माँ ममतामयी!
द्युतिमान माँ करुणामयी

विधि-विष्णु-हर पर की कृपा
हर जीव ने तुमको जपा
जिह्वा विराजो तारिणी!
अजपा पुनीता फलप्रदा
बन बुद्धि-बल, बल बन बसीं
सब में सदा समतामयी

महनीय माँ, कमनीय माँ
रमणीय माँ, नमनीय माँ
कलकल निनादित कलरवी
सत सुर बसीं श्रवणीय माँ
मननीय माँ कैसे कहूँ
यश अपरिमित रचनामयी

अक्षर तुम्हीं ध्वनि नाद हो
निस्तब्ध शब्द-प्रकाश हो
तुम पीर, तुम संवेदना
तुम प्रीत, हर्ष-हुलास हो
कर जीव हर संजीव दो
रस-तारिका क्षमतामयी
*
संजीव
७-६-२०२०

सरस्वती वंदना अलंकार युक्त

सरस्वती वंदना अलंकार युक्त 
*
वाग्देवि वागीश्वरी, वरदा वर दे विज्ञ             
- वृत्यानुप्रास  (आवृत्ति व्)
कोकिल कंठी स्वर सजे, गीत गा सके अज्ञ     
-छेकानुप्रास (आवृत्ति क, स, ग)
*
नित सूरज  दैदीप्य हो, करता तव वंदन         
- श्रुत्यनुप्रास (आवृत्ति दंतव्य न स द त)
ऊषा गाती-लुभाती, करती अभिनंदन           
- अन्त्यानुप्रास (गाती-भाती)
*
शुभदा सुखदा शांतिदा, कर मैया उपकार     
- वैणसगाई (श, क)
हंसवाहिनी हो सदा, हँसकर हंससवार           
- लाटानुप्रास (हंस)
*
बार-बार हम सर नवा, करते जय-जयकार     
- पुनरुक्तिप्रकाश (बार, जय)
जल से कर अभिषेक नत, नयन बहे जलधार 
- यमक (जल = पानी, आँसू)
*
मैया! नृप बनिया नहीं, खुश होते बिन भाव
- श्लेष (भाव = भक्ति, खुशामद, कीमत)
रमा-उमा विधि पूछतीं, हरि-शिव से न निभाव?
- वक्रोक्ति (विधि = तरीका, ब्रह्मा) 
*
कनक सुवर्ण सुसज्ज माँ, नतशिर करूँ प्रणाम
- पुनरुक्तवदाभास (कनक = सोना, सुवर्ण = अच्छे वर्णवाली)
मीनाक्षी! कमलांगिनी, शारद शारद नाम
- उपमा (मीनाक्षी! कमलांगिनी), - अनन्वय (शारद)
*
सुमन सुमन मुख-चंद्र तव, मानो 'सलिल' चकोर
- रूपक (मुख-चंद्र), उत्प्रेक्षा (मान लेना)
शारद रमा-उमा सदृश, रहें दयालु विभोर
- व्यतिरेक (उपमेय को उपमान से अधिक बताया जाए)
*

हिंदी में विदेश ध्वनियाँ

हिंदी में विदेश ध्वनियाँ

जब हिन्दुस्तान में फ़ारसी भाषा प्रचलित हुई तब कुछ ऐसी ध्वनियों से हमारा परिचय हुआ जो हिन्दी ध्वनियों से भिन्न थीं। ये ध्वनियाँ हमारी पुरानी परम्परा में नहीं थीं--

क़ (क़िस्सा, रक़्स, मुश्ताक़),
ख़ (ख़राश, सख़्त, सुर्ख़),
ग़ (ग़ाफ़िल, बग़ल, दाग़),
ज़ (ज़िन्दगी, मज़ाक़, साज़),
फ़ ( फ़र्क़, कुफ़्र, साफ़)।

उपर्युक्त पाँचों व्यंजन हैं।

कालान्तर में अंग्रेज़ी से भी दो व्यंजन ज़ (ज़ीरो, ट्रेज़री, चीज़ ब मानी पनीर) और फ़ (फ़र्स्ट, साॅफ़्ट, ग्राफ़) आये। एक स्वर ऑ (ऑफ़िस, जाॅब, टाॅप) भी आया।

अब हमारे देश में फ़ारसी का चलन लगभग लुप्त हो चुका है। देश-विभाजन के बाद भारत में उर्दू (जो ख़ुद को फ़ारसी से जोड़ना पसन्द करती है) का पठन-पाठन भी बहुत घट गया है। फ़ारसी और उर्दू के इस ह्रास के कारण हिन्दी के सुशिक्षित वर्ग में भी क़, ख़ और ग़ का प्रयोग कम होने लगा है। फ़ और ज़ का प्रयोग बरक़रार है क्योंकि ये दोनों व्यंजन फ़ारसी और अंग्रेज़ी दोनों  भाषाओं में काॅमन हैं।

आमजन की सामान्य हिन्दी में क़, ख़, ग़, ज़ और फ़ नुक़्तारहित हो गये हैं।

नागपंचमी सुधीर त्यागी

नागपंचमी
सुधीर त्यागी
*
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली।
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।