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गुरुवार, 9 अगस्त 2018

pustak samiksha



पुस्तक सलिला
"शिवाजी सुराज" सिखाये लोकराज का कामकाज
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
* 
[पुस्तक विवरण- शिवाजी सुराज, शोध-विवेचना, ISBN 978-93-5048-179-0, अनिल माधव दवे, वर्ष २०१२, आकार २४ से.मी. x १५.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक फ्लैप सहित, पृष्ठ २३१, मूल्य ३००/-, प्रकाशक प्रभात प्रकाशन, ४/१९ आसफ़ अली मार्ग, नई दिल्ली ११०००२, लेखक संपर्क सी ६०३ स्वर्ण जयंती सदन, डॉ. बी.डी. मार्ग, नई दिल्ली ११०००१, दूरभाष ९८६८१८१८०६ ]
*
"शिवाजी सुराज" भारतीय इतिहास और जनगण-मन में पराक्रमी, न्यायी, चतुर, नैतिक, तथा संस्कारी शासक के रूप में चिरस्मरणीय शासक एवं महामानव छत्रपति शिवजी की प्रशासन कला तथा राज-काज प्रबंधन को अभिनव शोधपरक दृष्टि से जानने एवम वर्तमान से तुलना कर परखने का श्रम-साध्य प्रयास है। लेखक श्री अनिल माधव दवे सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता, पर्यावरणीय शुचिता तथा नर्मदा घाटी के गहन अध्ययन परक गतिविधियों के लिए सुचर्चित रहे हैं। एक सामान्य सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता से लेकर राष्ट्रीय स्तर का राजनेता बनने तक की यात्रा निष्कलंकित रहकर करते हुए अनिल जी के प्रेरणा-स्तोत्र संभवत: शिवाजी ही रहे हैं। इस कृति का वैशिष्ट्य चरितनायक से अधिक महत्व चरित नायक के अवदान को देना है।

आमुख, प्रतिमा (छवि) निर्माण, मंत्रालय (वित्त, गृह, कृषि, न्याय-विधि, विदेश, व्यापार-उद्योग, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, सड़क-नौपरिवहन, श्रम-रोजगार, भाषा-संस्कृति, रक्षा तथा जन संपर्क), संकेत (वन-पर्यावरण, महिला सशक्तिकरण, अल्पसंख्यक, भ्रष्टाचार,स्वप्रेरित राज्य रचना), व्यक्तित्व (दूरदृष्टि, राजनैतिक कदम, योजकता-कार्यान्वयन क्षमता), मन्त्रिमण्डल (अष्ट प्रधान- मुख्य प्रधान, पन्त सचिव, अमात्य, मंत्री, सेनापति, सुमंत, न्यायाधीश, पण्डित), कीर्तिशेष, अच्छे-कमजोर शासन के लक्षण, जाणता राजा संवाद, शीर्षकों में विभक्त यह कृति पर्यवेक्षकीय तथा विवेचनात्मक सामर्थ्य की परिचायक है।
पुस्तकारंभ में भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ उद्घोषक स्वामी विवेकानंद के वक्तव्यांश में शिवाजी को राष्ट्रीय चेतना संपन्न नायक, सन्त, भक्त तथा शासक निरूपित किया गया है। आमुख में श्री मोहनराव भागवत, सरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने शिवजी के शासनतंत्र को लक्ष्य लक्ष्य शासन या लोकोपकार मात्र नहीं अपितु जनता जनार्दन की ऐहिक, आध्यात्मिक तथा सन्तुलित उन्नति का वाहक बताया है। प्राक्कथन में बाबा साहेब पुरंदरे ने शिवाजी की राजनीति और राज्यनीति को वर्तमान परिस्थितियों में अनुकरणीय बताया है।
सुव्यवस्थित प्रस्तावना के अंतर्गत प्रजा केंद्रित विकास को सुशासन का मूलमन्त्र बताते हुए श्री नरेन्द्र मोदी (तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात, वर्तमान प्रधान मंत्री भारत) ने जनता को केंद्र में रखकर स्थापित विकास प्रक्रियाजनित लोकतान्त्रिक सुशासन को समय की मांग बताया है। पारदर्शी प्रक्रियाओं और जवाबदेही, सामूहिक विमर्श, प्रशासन में स्पष्टता तथा जनभागीदारी जनि विकास को जनान्दोलन बनाने पर श्री मोदी ने बल दिया है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि प्रशासन सत्य को छिपाने के स्थान पर जन सामान्य को उससे अवगत कराता रहे तो प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की नींव सुद्रढ़ होती है। नेताओं, अधिकारियों, कर्मचारियों व् युवाओं के लिए प्रस्तावित करनेवाले मोदी जी प्रणीत मेक इन इंडिया, स्वच्छता अभियान, मन की बात, विद्यार्थियों से सीधे संवाद, शौचालय निर्माण, गैस अनुदान समर्पण, संपत्ति घोषित करने आदि कार्यक्रमों में शिवाजी की शासन पद्धति से प्राप्त प्रेरणा देखी जा सकती है।
सामान्यत: एक ऐतिहासिक चरित्र, पराक्रमी योद्धा या चतुर-लोकप्रिय शासक के रूप में प्रसिद्द शिवाजी के चरित्र की अनेक अल्पज्ञात विशेषताओं का परिचय इस कृति से मिलता है। कृतिकार श्री अनिल माधव दवे की सामाजिक कार्यकर्ता से उठकर राष्ट्रीय नेतृत्व के स्तर तक बिना किसी विवाद या कलंक के पहुँचने की यात्रा में शिवाजी विषयक अध्ययन और इस पुस्तक के सृजन से व्युत्पन्न वैचारिक परिपक्वता का योगदान नाकारा नहीं जा सकता। राजतंत्र के एक शासक को लोकतंत्र के आदर्श पुरुष के रूप में व्याख्यायित करना अनिल जी के असाधारण अध्ययन, सूक्ष्म विवेचन, प्रामाणिक तुलनाओं तथा व्यापक समन्वयपरक तर्कणा शक्ति को है। तर्क दोधारी तलवार होता है जिससे तनिक भी असावधानी होने पर विपरीत निष्कर्ष ध्वनित होते हैं। अनिल जी ने तर्क और तुलना का सटीक प्रयोग किया है।
एक राजनैतिक दल से सम्बद्ध होने और वर्तमान राजनीती में दखल रखने के कारण स्वाभाविक है कि लेखक अपने दल की सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों का उल्लेख सकारात्मक परिणामों के संदर्भ में करे जबकि अन्य दलीय नीतियों और कार्यक्रमों का विफलता के सन्दर्भ में। 'मनोगत' शीर्षक भूमिका में लेखक ने महापुरुषों के जीवन में कष्ट, अवसाद, व् पीड़ा के आधिक्य को इंगित किया है। भारत में राजनीती के वर्तमान स्वरुप पर प्रहार करते हुए अनिल जी ने प्रतिमा (व्यक्तित्व-छवि) निर्माण अध्याय में शिवजी के दो मूलमंत्र "शासन करने के लिए होता है, छोड़ने के लिए नहीं तथा युद्ध जितने के लिए होता है, लड़ने के लिए नहीं" बताये हैं। दिल्ली में श्री केजरीवाल द्वारा विशाल बहुमत के बाद भी सरकार से भागने तथा पाकिस्तानी आतंकियों से छद्य युद्ध लड़ने के सन्दर्भ में ये दोनों मन्त्र दिशा-दर्शक हैं।
आरम्भ, आकलन, आस्था, तथा अभय उपशीर्षकों के अंतर्गत विद्वान लेखक ने शिवाजी के चरित्र, नीतियों तथा व्यक्तित्व को वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आदर्श बताया है। शिवजी के प्रशासन के विविध अंगों की वर्तमान मंत्रिमंडल से तुलनात्मक समीक्षा करते हुए लेखक ने तत्कालीन शब्दों का कम से कम तथा वर्तमान में प्रयोग हो रहे पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक किया है। इससे उनका कथ्य आम पाठक के लिए ग्रहणीय हो सका है। अहिन्दीभाषी होते हुए भी लेखक ने शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया है। शब्द चयन सटीक किन्तु सहज बोधगम्य है। अपनी बात प्रमाणित करने के लिए घटनाओं का चयन तथा विवेचना तथ्यपरक है। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि यह विवेचन केवल अध्ययन हेतु है या व्यवहार में लाने के लिये भी? एक देश कुलकर्णी (छोटे स्तर का लेखापाल) द्वारा एक दिन का हिसाब पंजी में प्रविष्ट न किये जाने पर शिवजी द्वारा कड़ा दंड दिये जाने और वर्तमान में बड़े घपलों के बावजूद समर्थ को दण्ड न मिलने के बीच की दूरी कैसे दूर की जायेगी? सार्वजनिक धन के रख-रखाव में एक-एक पाई का हिसाब रखनेवाले महात्मा गाँधी ने एक पैसे का हिसाब न मिलने पर अपने सचिव महादेव देसाई की आलोचना कर उन्हें हिसाब ठीक करने को कहा था। क्या वर्तमान सरकार ऐसा कर सकेगी?
असहायों की सहायता, व्यक्ति से व्यवस्था को बड़ा मानना, महत्वाकांक्षा से अधिक महत्त्व कार्यपूर्ति को देना, सेफ हाउस, सेफ पैसेज, सेफ इवैकुएशन युक्त रक्षा व्यवस्था, प्रकृति चक्र के अनुकूल कृषि उत्पादन, सशक्त लोक संस्थाओं, पारदर्शी न्याय प्रणाली, अपराधी को कड़ा दण्ड आदि से जुडी घटनाओं के प्रामाणिक विवेचना कर शिवाजी के शासन को श्रेष्ठ व् अनुकरणीय बताने में लेखक ने अथक श्रम किया है। शिवाजी के अष्ट प्रधानों में से एक कान्होजी के संबंधी खंडोजी द्वारा अफजल खां की सहायता किये जाने पर शिवजी ने एक हाथ-एकपैर काटकर दण्डित किया था, आज सोते हुए लोगों को कर से कुचलने और मासूम काले हिरणों को मारने वाले समर्थ बच जाते हैं। एक साथ अनेक शत्रुओं के साथ संघर्ष न कर किसी एक से लड़कर जितने तथा उसके बाद अन्य को जीतने की शिवाजी की नीति भारतीय विदेश नीति की विफलता इंगित करती है जहाँ हमारे सब पडोसी भारत से रुष्ट हैं। सिद्दी जौहर के साथ पन्हाला युद्ध में अंग्रेजी तोपों और ध्वजों का प्रयोग राजपुर में अंग्रेजों का भंडार नष्ट कर लेने का प्रसंग कश्मीरमें पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा ध्वज फहराने के संबन्ध में विचारणीय है। क्यों नहीं भारत सरकार पाकिस्तानी क्षेत्र में स्थित अड्डे करती?
शिवाजी ने वेदेशी व्यापारियों के प्रवेश, व्यवसाय करने, इमारतें बनाने आदि हर सुविधा के बदले बड़ी धनराशि सरकारी ख़ज़ाने में जमा कराई, आज हमारी सरकार विदेशी कंपनियों को अनेक सुविधाएँ देकर आमंत्रित कर रही है। बड़े उद्योगपति अरबों-खरबों का कर्ज़ लेकर देश छोड़ भाग रहे हैं। शिवाजी को आदर्श माननेवालों के शासनकाल में उद्योगपतियों के करोड़ों रुपयों के बिजली के बिल माफ़ होना और आम नागरिक के चंद रुपयों के बिल भुगतान न होने पर बिजली कटने का अंतर्विरोध कथनी-करनी पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। शिवजी द्वारा नौसेना को ५ गुरुबों तथा ११ गलबतों में विभाजित किया जाना, शस्त्र भंडारण एक स्थान पर न करना, कर्मचारियों को यथेष्ठ वेतन ताकि गुणवत्तापूर्ण कार्य करे (अतिथि विद्वानों को नाम मात्र पारिश्रमिक देकर उच्च शिक्षा देने), राज प्रसाद की समुचित सुरक्षा (इंदिरा गाँधी हत्या), सैन्य शिविरों में छोटे-बड़े सैन्याधिकारियों का एक साथ रहना, कर्मचारियों का निर्धारित समयावधि में नियमित स्थानान्तरण, भ्रष्टाचार के प्रति कठोर रुख, त्वरित न्याय आदि प्रसंगों में लेखन की विवेचना शक्ति का परिचय मिलता है।
पाठक मंच के माध्यम से इस पुस्तक को पुरे प्रदेश में पढवाये जाने और चर्चा कराये जाने का विपुल महत्त्व है। सभी जनप्रतिनिधियों को यह पुस्तक पढ़कर शिवजी के आदर्शों के अनुसार सदा जीवन-उच्च विचार अपनाना चाहिए और विलासिता पूर्ण जीवन त्यागना चाहिए। सारत: यह कृति शिवाजी को युग-नायक के रूप में स्थापित करती है। अनिल जी को साधुवाद इस कृति के माध्यम से राजनेताओं के लिए शिवाजी की तरह आचार संहिता बनाये और अपनाये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करने के लिए। आवश्यक यह है कि आदर्शों को व्यवहार मेंसरकारें अपनाएं ताकि जनगण की निष्ठा शासन-प्रशासन और विधि-व्यवस्था में बनी रहे। 
***
समीक्षक संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयं, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com, दूरवार्ता ९४२५१८३२४४, ०७६१ २४१११३१। ९.८.२०१६ 

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muktak

मुक्तक
वही अचल हो सचल समूची सृष्टि रच रहा
कण-कणवासी किन्तु दृष्टि से सदा बच रहा
आँख खोजती बाहर वह भीतर पैठा है
आप नाचता और आप ही आप नच रहा 
*
श्री प्रकाश पा पाँव पलोट रहा राधा के
बन महेश-सिर-चंद्र, पाश काटे बाधा के
नभ तारे राकेश धरा भू वज्र कुसुम वह-
तर्क-वितर्क-कुतर्क काट-सुनता व्याधा के
*
राम सुसाइड करें, कृष्ण का मर्डर होता
ईसा बन अपना सलीब वह खुद ही ढोता
बने मुहम्मद आतंकी जब-जब जय बोलें
तब-तब बेबस छिपकर अपने नयन भिगोता
*
पाप-पुण्य क्या? सब कर्मों का फल मिलना है
मुरझाने के पहले जी भरकर खिलना है
'सलिल' शब्द-लहरों में डूबा-उतराता है
जड़ चेतन होना चाहे तो खुद हिलना है
*
सावनी घनाक्षरियाँ :
सावन में झूम-झूम
संजीव वर्मा "सलिल"
*
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
sanjiv verma 'salil'9425183244
salil.sanjiv@gmail.com

doha rakhi alankar

दोहा सलिला: 
अलंकारों के रंग-राखी के संग
संजीव 'सलिल'
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
बंध न = मुक्त रह, बंधन = मुक्त न रह
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना.
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
*

mahiya: anand pathak

चन्द माहिया सावन के
आनंद पाठक 
*
सावन की घटा काली
याद दिलाती है
वो शाम जो मतवाली
*
सावन के वो झूले
झूले थे हम तुम 
कैसे कोई भूले
*
सावन की फुहारों से
जलता है तन-मन
जैसे अंगारों से
*
आएगी कब गोरी?
पूछ रही मुझ से
मन्दिर की बँधी डोरी
*
क्या जानू किस कारन?
सावन भी बीता 
आए न अभी साजन
*

navgeet

नवगीत:
हुआ तो क्या
अविनाश ब्योहार 
*
हुआ तो क्या

सच का ही
यशगान करेगा
घर खपरैल
हुआ तो क्या!
ऊँचे बंगलों
के कंगूरे
बेईमानी की
बातें करते!
महानगर के
हैं बाशिंदे
विश्वासों पर
घातें करते!!
कोई तवज्जो
नहीं मिली
दिल में तुफ़ैल
हुआ तो क्या!
हो गईं
मुंहजोर हैं
शहर में
चलती हवायें!
भोंडेपन के
दबाव में
आ गईं हैं
हुनर कलायें!!
हमनें उनकी
करी भलाई
मन में मैल
हुआ तो क्या!
***
अविनाश ब्यौहार
रायल एस्टेट कटंगी रोड
जबलपुर, 9826795372

बुधवार, 8 अगस्त 2018

ॐ दोहा शतक: श्री महातम मिश्र


उड़े तिरंगा शान से
दोहा शतक
महातम मिश्र (गौतम गोरखपुरी)
















जन्म: ९-१२-१९५८, गोरखपुर।
आत्मज: स्वर्गीया श्रीमती बादामी मिश्रा-श्री रामसबद मिश्र। 
जीवन संगिनी: श्रीमती रंभा मिश्रा।
शिक्षा : स्नातकोत्तर (मनोविज्ञान)।
प्रकाशन: कार्यालयीन वार्षिक पत्रिका “दर्शना” सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं  व जे.एम.डी. पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार-प्रसार योजनांतर्गत काव्य संग्रह काव्य अमृत में प्रकाशित।
उपलब्धि: युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा 'श्रेष्ठ रचनाकर',  'साहित्य गौरव २०१५'  सम्मान, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, अहमदाबाद द्वारा २०१६ में आयोजित काव्य पाठ प्रतियोगिता में पुरस्कार व सम्मान पत्र। अनेक पत्रिकाओं तथा समूहों द्वारा कई महत्वपूर्ण सम्मान।
संप्रति: भारत सरकार में वैज्ञानिकी कार्यसेवा में कार्यरत (वरिष्ठ तकनीकी अधिकारी-१)।
संपर्क:  वर्तमान: बी १२१, तेजेंद्र प्रकाश सोसायटी विभाग-१, अहमदाबाद-३८२३५०।
स्थायी पता: ग्राम-भरसी, पोस्ट-डाड़ी, जिला गोरखपुर २७३४२३ उत्तर प्रदेश ।
चलभाष: ९४२६५ ७७१३९ (वाट्सएप), ८१६०८७ ५७८३।  ईमेल: mahatmrmishra@gmail.com
*
महातम मिश्र जी भोजपुरी अंचल में जन्मे, पीला और बढ़े फिर गुजरात में दीर्घकालिक निवास रहा। लंबे समय से हिंदी भाषी क्षेत्र से दूर रहते हुए भी हिंदी के प्रति लगाव न आपको सेवानिवृत्ति पश्चात् साहित्य सृजन हेतु प्रेरित किया है। भोजपुरी मिश्रित हिंदी में रचित दोहन में उनकी एक विशिष्ट शैली का अंकुरण होता दिखता है। शुद्ध खड़ी, शुद्ध भोजपुरी या दोनों की मिश्रित शैली तीनों राहें महातम जी के सृजन-कार्य हेतु उपलब्ध हैं। प्रकृति और पर्यावरण के प्रति चिंतित महातम जी माँ शीतला से पर्यावरण के साथ-साथ विचार की शुद्धि हेतु भी प्रार्थना करते हैं:
मातु शीतला अब बहे, शीतल नीम बयार।
निर्मल हो आबो-हवा, मिटे मलीन विचार।।
शिव-शिवा लीलाभूमि से नैकट्य का लाभ पा चुके मिश्र जी शिव के रागे-विरागी दोनों रूपों में अपने उपास्य को भजते हैं:
चंदा की सोलह कला, धारण करते नाथ।
गिरि-तनया अर्धांगिनी, सोहें शिव के साथ।।
प्रकृति के सान्निन्ध्य में रहते हुए पशु-पक्षियों का स्वभाषा-प्रेम उन्हें प्रेरित करता है साथ विस्मित भी करता है कि मानव को स्वभाषा बोलने पर हीनता की अनुभूति क्यों होती है?
पशु-पक्षी की बोलियाँ, समझ गया इंसान।
निज बोली पर हीनता, मूरख का अभिमान।।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक सकल देश को एक सूत्र में बाँधता तिरंगा उड़ता देख्कार मिश्र जी का शीश गर्व से ऊँचा होना स्वाभाविक है:
उड़े तिरंगा शान से, लहराए ज्यों फूल।
हरित केशरी चक्र सह, शुभ्र रंग अनुकूल।।
लोकोक्ति है 'अपन भले तो जग भला'। मिश्र जी इस लोकोक्ति को अपने जीवनानुभव के साथ मिश्रित कर दोहे में पिरोते हैं:
मैं अति भला तुमहिं सरिस, भला मिला संसार।
जैसी जिसकी नजर है, वैसा है व्यवहार।।
मिश्र जी जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। उनके लिए साहित्य सृजन विद्वता-प्रदर्शन का नहीं आत्माभिव्यक्ति का माध्यम है। मूल मानकों का पालन करते हुए भाषिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाए रखन उन्हें रुचिकर लगता है। भारत में हिंदी को आंचलिक बोलियों से मिल रही चुनौती और अलगाव भाव को देखते हुए वे हिंदी भोजपुरी को मिलकर रचना करने का प्रयोग उचित ही कर रहे हैं। ऐसे लेखन से बोलीओं के आंचलिक शब्द-भण्डार से हिंदी भाषी जुड़कर उन्हें अपना सकेगा और हिंदी शब्द-भण्डार को समृद्ध करेगा। 
*
पहले पूज्य गणेश जी, नंदन शिवा-महेश।
आसन विहँस विराजिए, भागें दुख अरु क्लेश।।
शिव कुल की महिमा अमिट, वंदउँ प्रथम गणेश।
शिवाशक्ति के लालना, जय शिव शंभु महेश।।
हे माँ वीणावादिनी!, वास करो आ कंठ।
कभी न कलम मलीन हो, साथ न आए चंठ।।
राधा छवि दर्पण लिए, मन कान्हा चितचोर।
मोरपंख सह बाँसुरी, वन-वन नाचत मोर।।
राधा-कृष्णा बोलिए, युगल रूप मकरंद।
प्रभु जब मंचासीन हों, तब आए आनंद।।
ममता बिन माता नहीं, वृक्ष बिना नहिं छाँव।
करुणाकर करुणामयी, हो अभाव नहिं गाँव।।
नीति विनीत चरित्र मन, विनय करूँ कर जोर।
भक्ति-शक्ति, तप-कर्म मम, नित साधना अँज़ोर॥
सदा भवानी पूजकर, रहे सुख कुशल-क्षेम।
विनय बुद्धि प्रतिपल बढ़े, जस कुबेर गृह हेम।।
हरि-हर अपने धाम में, लिए भूत-बैताल।
गणपति बप्पा मोरया, सदा रखें खुशहाल।।
बाबा शिव की छावनी, गणपति का ननिहाल।
धन्य-धन्य दोनों पुरा, गौरा मालामाल।।
वाहन नंदी सत्य शिव, डमरू नाग त्रिशूल।
भस्म भंग प्रभु औघड़ी, मृगछाला अनुकूल।।
चौदह स्वर डमरू बजे, सारेगामा सार।
जूट-जटा गंगा धवल, शिव बाबा-संसार।।
चंदा की सोलह कला, धारण करते नाथ।
गिरि-तनया अर्धांगिनी, सोहें शिव के साथ।।
बाबा भोले नाथ की, महिमा अपरंपार।
भंग-भस्म की आरती, शक्ति सत्य आपार।।
डम-डम डमरू बाजता, आदि कलश कैलाश।
अर्ध चंद्रमा खिल रहा, गंगा धवल प्रकाश।।
जय गणेश जय कार्तिके, जय नंदी महाराज।
जयति-जयति माँ पार्वती, धन्य शीतला राज।।
डोला माँ का सज गया, जय चैत्री नवरात।
नित-नव गरवा घूमती, जननी दुर्गा मात।।
भूल-चूक कर माँ क्षमा, विनय करूँ कर जोर।
सेवक 'गौतम' पग पड़ा, दे आशीष अंजोर।।
मातु शीतला अब बहे, शीतल नीम बयार।
निर्मल हो आबो-हवा, मिटे मलीन विचार।।
डोला मैया आप का, बगिया का रखवार।
माली हूँ अर्पण करूँ, नीम पुष्प जलधार।।
जन्म-दिवस है आप का, आज वीर हनुमान।
चरण पवन सुत मैं पडूँ, ज्ञानी गुण बलवान।।
शुभकामना बधाइयाँ, जन-जन पहुँचे राम।
हनुमत के हिय में बसें, लखन सिया श्रीराम।।
गंगोत्री सु-यमुनोत्री, बद्रीनाथ केदार।
चारों धाम विराजते, शिव; महिमा साकार।।
मातु पार्वती ने दिया, अपना घर उपहार।
आ बैकुंठ विराजिए, ममता विष्णु दुलार।।
स्वर्गलोक की छावनी, देव भूमि यह धाम।
ब्रम्हा विष्णु महेश को, बारंबार प्रणाम।।
दर्शन करके तर गए, पूर्वज सहित अनेक।
सकल कामना सिद्धता, आए बुद्धि विवेक।।
बार बार सब तीर्थ कर, एक बार हरि-धाम।
प्रेमिल रसना आरती, बोल विष्णु का नाम।।
दोहा अपनी बात से, मन को लेता मोह।
चकित करे हर मोड़ पर, काहु न बैर बिछोह।।
पशु-पक्षी की बोलियाँ, समझ गया इंसान।
निज बोली पर हीनता, मूरख का अभिमान।।
दोहा है ऐसी विधा, कहे छंद सत सार।
तेरह-ग्यारह पर रुके, रचना स्वर अनुसार।।
दोहा अपने आप में, रखता सुंदर भाव।
जागरूक करता सदा, लेकर मोहक चाव।।
पर्यावरण सुधार लो, सबकी साधे खैर।
जल-जीवन सब जानते, जल से किसका बैर।।
पर्यावरण विशुद्ध हो, नाशे रोग-विकार।
प्रेमी सींचें बाग-वन, मन में रख उपकार।।
मानव तेरा हो भला, मानवता की राह।
कभी न दानव संग हो, करते मन गुमराह।।
वो दिन कहाँ चले गए, ओल्हा पांती पेड़।
अभी कहाँ नियरात हैं, मोटे-तगड़े मेड़॥
उड़े तिरंगा शान से, लहराए ज्यों फूल।
हरित केशरी चक्र सह, शुभ्र रंग अनुकूल।।
झंडा डंडे से बँधा, मानवता की डोर।
काश्मीर जिसकी शिखा, कन्याकुमारी छोर।।
कड़क रही है दामिनी, बादल सह इतराय।
पलक बंद पल में करे, देखत जिय डरि जाय।।
क्यों रूठे हो तुम सखे, कुछ तो निकले बैन।
व्याकुल विरह बढ़ा रहा, पड़े न मन को चैन।।
तनिक बरस भी जाइए, आँगन मेरा सून।
गर्मी से राहत मिले, शीतल हो दिन जून।।
बारिस भी यह खूब है, बिन मर्जी के होय।
कहीं गिरे कहिं धौकनी, बिना रंग की पोय।।
किसे कहूँ? कैसे लिखूँ, दोहा तुझसे नेह।
परवश होती प्रीत है, मानों परमा स्नेह।।
गड़बड़ झाला देख के, पड़ा कबीरा बोल।
मौसम ऋतु वीरान है, पीट रहे दिग ढोल।।
कैसे तुझे जतन करूँ, पुष्प पराग नहाय।
अपने पथ नवयौवना, महक बसंत बुलाय॥
रंग-रंग पर चढ़ गया, दिखे न दूजा रंग।
अंग-अंग रंगीनियाँ, फड़क रहा हर अंग॥
ऋतु बहार ले आ गई,पड़ें न सीधे पाँव।
कदली इतराती रही, बैठी पुलकित छाँव॥
महुआ कुच दिखने लगे, बौर गए हैं आम।
मेरे कागा बोल मत, सुबह हुई कत शाम॥
नहि पराग कण पाँखुड़ी, कलियन मह नहि वास।
कब वसंत आया-गया, चित न चढ़ें मधुमास॥
सोनचिरैया उड़ चली, पिंजरा हुआ पराय।
नात बात रोवन लगे, जस-तस निकसत हाय॥
कई मंजिला घर मिला, मिली जगह भरपूर।
छूट जाय घर मानवा, जीवन जग दस्तूर॥
निर्धन-मरा जुआरिया, धनी मरा संताप।
मानवता पल में मरी, मरि-मरि जिए अनाथ॥
लोभी क्रोधी धूतरा, दिख सज्जन बड़ वेष।
उतराए दिन-रात है, कतहु न मिले निमेष।।
माया महिमा साधुता, उगी ठगी चहुँ ओर।
जातन देखि विलासिता, भीड़ भई मतिभोर॥
ऊटपटांग न बोली, बनते बैन बलाय।
हर्ष भरे मन शूरमा, फिर पाछे पछिताय॥
पाप-पुण्य की आस में, जीवन बीता जाय।
नहीं भक्ति नहि कर्म भा, दिन में रात दिखाय॥
भली भलाई पारकी, मन संतोष समाय।
खुद की थाली कब कहे, रख दे औरन खाय॥
कैसे कहूँ महल सुखी, दिग में सुखी न कोय।
बहुतायती अधीर है, रोटी मिले न भोय।।
मुट्ठी भरते लालची, अपराधी चहुँ ओर।
कोना-कोना छानते, मणि ले चले बटोर।।
गाय दुधारू को सभी, करते खूब दुलार।
दूध नहीं दाना नहीं, चला करे तलवार।।
पूत पिता को तौलते, लिए तराजू चोर।
हीरा हिंसक एक से, बँसवारी में शोर।।
समय-समय की बात है, आज बहुत है ठंड।
भीग रहे हैं छाँव में, बिना काम का फंड।।
सम समानता अरु समय, होता है अति वीर।
बुद्धि-विवेक बहुत भले, अपनाते हैं धीर।।
वीणा का स्वर अति मधुर, मन को लेती मोह।
मानों कोयल कूकती, बौर-बौर चित सोह।।
जगत जहाँ बढ़ता गया, बढ़ते गए फ़क़ीर।
बाबा ढोंगी हो गये, अब क्या करें कबीर।।
मिलन-मिलन में फेर है, मिल लीजे मन खोल।
अंतिम समय विछोह है, सब कुछ पोलम-पोल।।
खुश रहिये मेरे सखा, सब कुछ भगवत-हाथ।
कभी न चिंता कीजिये, करनी-भरनी साथ।।
डाली-डाली झूमती, लादे रहती बोझ।
झुक जाती है फल लिए, कैसा किसका झोझ।।
दुख में दुखी न होइए, धीरज दीजे मान।
क्लेश होत नहिं स्वार्थी, आता जाता शान।।
कभी न मन में रार हो, कभी न छाए द्वेष।
बोली भाषा एक सी, अलग अलग है भेष।।
लहर रही है ओस अब, ठिठुर रही है रात।
सूझत नाहीं कत गया, भौंरा गुंजत प्रात।।
चादर मैली हो गई, धोया जिसको खूब।
अजी खाद-पानी बिना, फैल गई है दूब।।
मैं अति भला तुमहिं सरिस, भला मिला संसार।
जैसी जिसकी नजर है, वैसा है व्यवहार।।
अलंकार साहित्य का, गहना भूषण मान।
छंदस मात्रा सादगी, आभूषण सुविधान।।
उचित कर्म सौंदर्य है, मंशा महक महान।
रे साथी! अब चेतना, क्रोध न करना जान।।
ज्ञान नहीं भूगोल का, लिखन चला इतिहास।
अर्थशास्त्र के महारथी, द्रव्य करे उदभास।।
करो अध्ययन लालना, मानों सखा किताब।
बिना पढ़े नहिं ज्ञान हो, यह पूँजी नायाब।।
कर्म बिना सत्कर्म क्या, धन होता बेकार।
सोच-समझ ले रे मना, तब करना तकरार।।
नेह-निमंत्रण आप को, पहुँचे मेरे मीत।
कोयलिया की स्वर सुधा, मीठी बोली गीत।।
मनन बुद्धि गर शुद्ध हो, बने आचरण नेक।
कड़वी पर शीतल लगे, नीम छाँव प्रतिरेक।।
निराधार हम सब सखे!, अगर नहीं आधार।
ठेंगा ही पहचान है, बाकी सब बेकार।।
मेरे परमात्मा सदा, करना तू मजबूत।
नित्य नमन आराध्य को, करता हो अभिभूत।।
नदी किनारा देख के, मन होता खुशहाल।
कलकल सरिता बह रहीं, जल-मछली बदहाल।।
रे मन! धीरज रख तनिक, नाहक क्यों हैरान।
समय-समय की बात है, समय सदा बलवान।।
सृजन सहज हो सामयिक, लय में हो प्रभु गान।
सुरावली हो सूर की, हो कबीर का मान।।
मानव होकर क्यों करें, यह झूठा अभिमान।
कर्म-धर्म होता सगा, जीवन जोगी जान।।
आविष्कारक हर किता, करता है अनुमान।
इस विकास की दौड़ में, खुद को भी पहचान।।
मंगलमय होता सदा, सु-मनसा अनुष्ठान।
सर्वकामना सिद्ध हो, हों प्रबल प्रतिष्ठान।।
हरियाली लहरा रही, झूम रहे हैं खेत।
सरसों भी फूलन लगे, रे किसान गृह चेत।।
मारा-मारी हो रही, मिल जाए अधिकार।
कुछ भी बोलो साथिया, मन नहिं हो व्यभिचार।।
करूँ नहीं अधिकल्पना, मन में रखता धीर।
स्वागत सबका हँस करूँ, निर्धन राजा पीर।।
जिम्मेदारी है बहुत, लेकर चलता आज।
जितना कर पाता भला, उतना करता राज।।
सिंहासन सजता रहा, आदिकाल से अंत।
कितने आए अरु गए, कैसे-कैसे संत।।
मरती है संवेदना, मानव तेरा हाल।
एक हाथ में हाथ है, एक हाथ में खाल।।
सहनशीलता पावनी, देती शीतल छाँव।
मानों बैठा है भगत, जिय के भीतर गाँव।।
मिला खूबसूरत जहाँ, क्यों करते हो रार।
हे बलशाली मानवा, मतकर जल को खार।।
नैतिकता की आड़ में, लूट रहे सब खूब।
खेतों में जकड़ा रहा, भल किसान जस दूब।।
देना आशीर्वाद माँ!, आया तेरे धाम।
रमा रहे मन भक्ति में, शुद्ध भाव निष्काम।।
सकारात्मक जब हुआ, आया चिंतन काम।
नकारात्मक क्यों बनें, हे मेरे अभिराम।।
रोजगार बिन फिर रहा, डिग्री-धार सपूत।
घूम रहा पगला जहाँ, जैसे काला भूत।।
नमन करूँ प्रभु आप का, रखकर हृदय विशाल.
स्वस्थ रहें साथी सकल, सज्जित पूजा-थाल।।
***

doha

दोहा सलिलाः
संजीव
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, सन्त बन सकें सन्त
*
आशा पर आकाश टंगा है, कहते हैं सब लोग
आशा जीवन श्वास है, ईश्वर हो न वियोग
*
जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
*
लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
*
गाल टमाटर की तरह, अब न बोलना आप
प्रेयसि के नखरे बढ़ें, प्रेमी पाये शाप.
*
प्याज कुमारी से करे, युवा टमाटर प्यार
किसके ज्यादा भाव हैं?, हुई मुई तकरार
*

८.८.२०१४ 

सोमवार, 6 अगस्त 2018

doha kahta yug-katha १

दोहा कहता युग कथा १ 
इतमें हम महाराज
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कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.

महाकवि बिहारी के भांजे लोकनाथ चौबे जयपुर दरबार के मानद कवि थे। चौबेजी को 'महाराज' कहा ही जाता है। तो हुआ क्या, एक बार चौबेजी गाँव गए हुए थे। वहाँ उन्हें रुपयों की आवश्यकता हुई, तो उन्होंने स्थानीय सेठ को राजा के नाम एक हजार की हुण्डी लिख कर दे दी, साथ में एक प्रशस्ति का छंद भी लिख कर दे दिया। राजा मान सिंह ने हुण्डी तो स्वीकार कर ली, लेकिन जवाब में एक दोहा भी लिख भेजा :
इतमें हम महाराज हैं, उतमें तुम महाराज।
हुण्डी करी हज़ार की, नेक न आई लाज।।
***

रविवार, 5 अगस्त 2018

muktak

"We're born alone, we live alone, we die alone. Only through our love and friendship can we create the illusion for the moment that we're not alone."
—By Orson Welles

मुक्तक
आए थे हम अकेले और अकेले जाएँगे।
बीच राह में यारियाँ कर कुछ उन्हें निभाएँगे।।
वादे-कसमें, प्यार-वफ़ा, नातों का क्या बन-टूटें 
गले लगाया है कुछ ने, कुछ को गले लगाएँगे।।  
*

nepali

गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह 'नेपाली'
------------------------------
गोपाल सिंह नेपाली (११ अगस्त १९११-१७ अप्रैल १९६३) का जन्म बेतिया, पश्चिमी चम्पारन बिहार में हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह था। वे हिंदी - नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिये गाने भी लिखे। वे एक पत्रकार भी थे जिन्होने "रतलाम टाइम्स", चित्रपट, सुधा, एवं योगी पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। १९३३ में उनका पहला काव्य संग्रह ‘उमंग’ प्रकाशित हुआ था। ‘पंछी’, ‘रागिनी’, ‘पंचमी’, ‘नवीन’ और ‘हिमालय ने पुकारा’ इनके काव्य और गीत संग्रह हैं। नेपाली ने देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम तथा मानवीय भावनाओं का सुंदर चित्रण किया है। उन्हें "गीतों का राजकुमार" कहा जाता था। नेपाली ने तकरीबन चार दर्जन फिल्मों के लिए गीत लिखे थे। उन्होंने ‘हिमालय फिल्म्स’ और ‘नेपाली पिक्चर्स’ की स्थापना की थी। निर्माता-निर्देशक के तौर पर नेपाली ने तीन फीचर फिल्मों-नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया था।
********************************
गीत
गोपालसिंह नेपाली
*
तुम जलाकर दिये, मुँह छुपाते रहे, जगमगाती रही कल्पना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
*
चाँद घूँघट घटा का उठाता रहा
द्वार घर का पवन खटखटाता रहा
पास आते हुए तुम कहीं छुप गए
गीत हमको पपीहा रटाता रहा
तुम कहीं रह गये, हम कहीं रह गए, गुनगुनाती रही वेदना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
*
तुम न आए, हमें ही बुलाना पड़ा
मंदिरों में सुबह-शाम जाना पड़ा
लाख बातें कहीं मूर्तियाँ चुप रहीं
बस तुम्हारे लिए सर झुकाता रहा
प्यार लेकिन वहाँ एकतरफ़ा रहा, लौट आती रही प्रार्थना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
*
शाम को तुम सितारे सजाते चले
रात को मुँह सुबह का दिखाते चले
पर दिया प्यार का, काँपता रह गया
तुम बुझाते चले, हम जलाते चले
दुख यही है हमें तुम रहे सामने, पर न होता रहा सामना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
***

शनिवार, 4 अगस्त 2018

muktak

मुक्तक 
*
हिंदी कहो, हिंदी पढ़ो, हिंदी लिखो, नित जाल पर
हिंदी- तिलक हँसकर लगाओ, भारती के भाल पर
विश्व वाणी है यही, कल सब कहेंगे सत्य यह
मीडिया-मित्रों कहो 'जय हिन्द-हिंदी' जाल पर
*
हिंदी में हिंदी नहीं तो, सब दुखी हो जाएँगे
बधावा या मर्सिया इंग्लिश में रटकर गाएँगे?
आरती या भजन समझेंगे नहीं जब देवता-
कहो कोंवेंट-प्रेमियों वरदान कैसे पाएँगे?
*
गले मिल, झगड़ा करो स्वीकार है
अधर पर रख अधर सिल, स्वीकार है
छोड़ दें हिंदी किसी भी शर्त पर
है असंभव यही अस्वीकार है
*



dohe barsaat ke

दोहे बरसात के
*
मेघदूत संदेश ले, आये भू के द्वार 
स्नेह-रश्मि पा सु-मन हँस, उमड़े बन जल-धार 
*
पल्लव झूमे गले मिल, कभी करें तकरार
कभी गले मिलकर 'सलिल', करें मान मनुहार 
*
आदम दुबका नीड़ में, हुआ प्रकृति से दूर
वर्षा-मंगल भूलकर, कोसे प्रभु को सूर
*

navgeet

नवगीत:
महका-महका
संजीव
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
लख मयंक की छटा अनूठी
सज्जन हरषे.
नेह नर्मदा नहा नवेली
पायस परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
***
salil.sanjiv@gmil.com
#दिव्यनर्मदा
#divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

doha salila

दोहा सलिला 
*
लिखा बिन लिखे आज कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज 
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज
*
अर्थ न रहे अनर्थ में, अर्थ बिना सब व्यर्थ 
समझ न पाया किस तरह, समझा सकता अर्थ
*
सजे अधर पर जब हँसी, धन्य हो गयी आप 
पैमाना कोई नहीं, जो खुशियाँ ले नाप
*
सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग? 
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग

*
दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल 
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल
*
प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान

*
कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग 
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग
*
कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख
मैं जन्मा क्यों द्रुपदसुता,का होता उल्लेख?

*
मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर 
फटक न;  सटके सफलता, अटके; करिए गौर।  
*
३.८.२०१८, ७९९९५५९६१८ 
salil.sanjiv@gmail.com  

varsha geet

वर्षा गीत  
*
बारिश तो अब भी होती है 
लेकिन बच्चे नहीं खेलते. 
*
नाव बनाना 
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोइ न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

shanatiraj pustakalay

विश्व वाणी हिंदी संस्थान - शांति-राज पुस्तक संस्कृति अभियान
समन्वय प्रकाशन अभियान
समन्वय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
***
ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll
ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l
'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
***
प्रति- निदेशक / प्राचार्य,
वेदांत इंटरनेशनल स्कूल,
समीप सुखाड़िया स्टेडियम,
गोविन्द नगर, भीलवाड़ा।
चलभाष: ९२१४२३२४१५/२९०४५०२५ /५४१५६४।
विषय: शांतिराज पुस्तकालय योजना के अंतर्गत पुस्तक प्रदाय।
सन्दर्भ: आपका आवेदन दिनांक ५ जुलाई २-१७।
महोदय,
वंदे भारत-भारती।
सहर्ष सूचित किया जाता है की आपके आवेदन पर विचार कर संस्थान-कार्यकारिणी द्वारा शांतिराज पुस्तकालय योजना के अन्तर्गत निशुल्क पुस्तक प्रदाय हेतु आपकी संस्था का चयन किया गया है।
तदनुसार निम्नानुसार पुस्तकें भेजी जा रही हैं। इस योजना के नियम भी संलग्न हैं।
आपसे अपेक्षा है कि यथाशीघ्र पुस्तकों की पावती भेजें। पुस्तकों को अभिलेखों में दर्ज कर, पाठकों को उपलब्ध कराएं। पुस्तकालय में यथास्थान 'विश्व वाणी हिंदी संस्थान - शांति-राज पुस्तक संस्कृति अभियान, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१' का बोर्ड या बैनर लगाएं। हर तीन माह में पाठकों को दी गयी पुस्तकों तथा पाठकों की संख्या सूचित करते रहें ताकि हम पुनः: पुस्तकें उपलब्ध कराने हेतु पुस्तकों के सदुपयोग से आश्वस्त हो सकें। पुस्तकालय के स्वामित्व तथा सञ्चालन दायित्व पूर्णत: आपका होगा।
पुस्तक सूची-
००१. काल है संक्रांति का, नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', ३००/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००२. मीत मेरे, कविता संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', ८०/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००३. कुरुक्षेत्र गाथा, प्रबंध काव्य, स्व. द्वारका प्रसाद खरे- आचार्य संजीव वर्मा ३००/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००४. भूकंप के साथ जीना सीखें, तकनीकी, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००५. ऑफ़ एंड ऑन, अंग्रेजी ग़ज़ल, डॉ. अनिल जैन, ८०/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००६. यदा-कदा, काव्यानुवाद, डॉ. बाबू जोसेफ, ८०/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००७. काव्य मन्दाकिनी २००८, काव्य संग्रह, श्यामलाल उपाध्याय, ३२५/-, भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता।
००८. काव्य मन्दाकिनी २०१०, काव्य संग्रह, श्यामलाल उपाध्याय, ३२५/-, भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता।
००९. देश का नसीब, क्षणिकाएं, रमेश मनोहरा, १००/-, मांडवी प्रकाशन गाजियाबाद।
०१०. काँटों के बीच, गीत संग्रह, सूर्यदेव पाठक 'पराग', ७५/-, प्रत्यय प्रकाशन पटना।
०११. दिमाग में बकरा युद्ध, व्यंग्य संग्रह, सुधारानी श्रीवास्तव, १००/-, विधि चेतना प्रकाशन जबलपुर।
०१२. कौआ कान ले गया, व्यंग्य संग्रह, विवेक रंजन श्रीवास्तव, ६०/-, सुकीर्ति प्रकाशन कैथल।
०१३. हँसोगे तो फँसोगे, हास्य कवितायें, राम सहाय वर्मा, ५०/-, मकरंद प्रकाशन नोएडा।
०१४. इक्कीसवीं सदी की ओर, बाल नाटक, डॉ. शकुंतला चौधरी, २०/-, प्रसाद प्रकाशन जबलपुर।
०१५. अनाम भामाशाह, कमलेश शर्मा, कहानी संग्रह, १००/-, साधु आश्रम होश्यारपुर।
०१६. मुक्त उड़ान, हाइकु, कुमार गौरव अजितेंदु, १००/-, शुक्तिका प्रकाशन कोलकाता।
०१७. उदगार, डॉ. कमला डोगरा, कवितायें, १५०/-, पहले पहल प्रकाशन भोपाल।
०१८. पूजाग्नि, बृजेंद्र अग्निहोत्री, कवितायें, ९५/-, उमा प्रेस फतेहपुर।
०१९. कमबख्त तीसरा बच्चा, व्यंग्य संग्रह, रविशंकर परसाई, ८०/-, कैलाश प्रकाशन पिपरिया।
०२०. कलम मुखबिर है, व्यंग्य संग्रह, रविशंकर परसाई, ८०/-, कैलाश प्रकाशन पिपरिया।
२१. नीरव का संगीत, कवितायें डॉ. अग्निभ मुखर्जी, ८०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
०२२. गाँधी दर्शन, सुमन जेतली, ५०/-, लोक हितकारी परिषद् मुरादाबाद।
०२३. दूध का दूध, समीक्षाएँ, सदाशिव कौतुक, १००/-, साहित्य संगम इंदौर।
०२४. मानस के मोती, विवेचना, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, गणपति प्रकाशन दिल्ली।
०२५. अंतर्ध्वनि, कवितायेँ, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, अर्पित प्रकाशन कैथल।
०२६. रघुवंशम, काव्यानुवाद, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, अर्पित प्रकाशन कैथल।
०२७. स्वयं प्रभा, पद्य, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर।
०२८. बाल कौमुदी, कविता, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', ६०/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०२९. सुमन साधिका, बालगीत, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, ६०/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०३०. गहराती हुई धुंध,काव्य, डॉ. मणि शंकर प्रसाद, ८५ /-, अ. भा. भाषा साहित्य सम्मेलन पटना।
०३१. हिंदी भाषा के विविध आयाम, निबंध, डॉ. राजेश्वरी शांडिल्य, २००/-, राज्य श्री प्रकाशन लखनऊ।
०३२. साँझ का सूनापन, गद्य काव्य, डॉ. ॐप्रकाश हयारण 'दर्द', ५०/-, चंद्रकांता प्रकाशन झाँसी।
०३३. आकाश के मोती, कविता संग्रह, अनिरुद्ध सिंह सेंगर, २५/-, राजेश्वरी प्रकाशन गुना।
०३४. अंतर-संवाद, कहानी संग्रह, रजनी सक्सेना, १२०/-, जन परिषद् भोपाल।
०३५. तुम्हारे लिए, गद्य काव्य, डॉ. ॐ प्रकाश हयारण 'दर्द', १५०/-, चंद्रकांता प्रकाशन झाँसी।
०३६. स्वर्णिम कलश, डॉ. जगदीश चंद्र चौरे, २५०/-, श्रेष्ठ प्रकाशन खंडवा।
०३७. जादू शिक्षा का, नाटक, विवेकरंजन श्रीवास्तव, ९०/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०३८. मेरे प्रिय व्यंग्य लेख, विवेक रंजन श्रीवास्तव, ७०/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०३९. सद्विचार, छंटन, दामोदर भगेरिया, १००/-, भगेरिया प्रकाशन जयपुर।
०४०. शहर में सांप ज़िंदा है, कवितायें, संतोष शर्मा 'चहेता, २०/-, स्मृति प्रकाशन शाजापुर।
०४१. समीक्षा के अभिनव सोपान, डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, २००/-, शिव संकल्प साहित्य परिषद् होशंगाबाद।
०४२. अनुभव सतसई, दोहा संग्रह, आत्म प्रकाश, १००/-, तक्षशिला अपार्टमेंट अहमदाबाद।
०४३. वक़्त का शाहकार, कविताएँ,डॉ. रामप्रकाश 'अनंत', २५/-, आल्टरनेटिव पब्लिकेशन आगरा।
०४४. निसर्ग, काव्य संग्रह, प्रमोद सक्सेना, ६०/-, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल।
०४५. हालात से दो-दो हाथ, ग़ज़ल संकलन, श्री राम मीणा, ५१/-, राष्ट्र भारती प्रकाशन नर्मदापुरम।
०४६.तितलियाँ आसपास, तसलीस (त्रिपदी), अज़ीज़ अंसारी, १२०/-, सुर्खाब पब्लिकेशन उज्जैन।
०४७. स्मृतियों के दीप, काव्य संकलन, राजेंद्र प्रसाद 'ऱाज, १५०/-, प्रेरणा साहित्य परिषद्, रहटवाड़ा, होशंगाबाद।
०४८. तपिश, कविता संग्रह, लक्ष्मी ताम्रकार, ६०/-, श्री प्रकाशन दुर्ग।
०४९. शब्दों के शिला खंड, कवितायें, जगदीश चंद्र शर्मा, ६०/-, हंसा प्रकाशन जयपुर।
०५०. परछाइयाँ, ग़ज़ल संग्रह, आत्म प्रकाश, ७०/-, तक्षशिला अपार्टमेंट अहमदाबाद।\
०५१. इंद्रधनुषी, कवितायेँ, शास्त्री राम गोपाल चतुर्वेदी 'निस्छल, १००/-, मनसा ग्राफिक्स भोपाल।
०५२. उड़ान, कवितायें, प्रो. धर्मवीर साहनी, २००/-, अमृत प्रकाशन ग्वालियर।
०५३. हास्य बम, कवितायेँ, इंजी.राजेश अरोरा 'शलभ', २५/-, डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली।
०५४. खटमल दर्शन, हास्य कुण्डलिया, केहरि एस. जी. पटेल, २०/-, मुक्त चेतना विचार मंच, बाँसा, हरदोई।
०५५. लोक सतसई, दोहा संग्रह, शिव गुलाम सिंह 'केहरि', ४०/-, अक्षय प्रकाशन कानपुर।
०५६. भावनामृत, काव्य, डिहुर राण निर्वाण, ६/-, संगम साहित्य समिति. मगरलोड छत्तीसगढ़।
०५७. जपु जी साहिब,समूह सिख संगत जबलपुर।
०५८. समाधान, उपन्यास, जी. वी.एस. ए. पाण्डुरंगइया, ४०/-, विजय प्रिंटर्स मेरठ।
०५९. गायत्री सार, , शिव गुलाम सिंह 'केहरि', १/-, केहरि प्रकाशन तेंदुआ हरदोई।
०६०. कटपीस, हास्य कविता, रासबिहारी पांडेय, ३०/-, सरयू प्रकाशन जबलपुर।
०६१. शेयर खाता खोल सजनिया, हास्य कविता, प्रबोध कुमार गोविल, १८/-, राही सहयोग संस्थान वनस्थली। ०६२. तृप्ति, लघुकथा संग्रह, रविंद्र खरे 'अकेला', ४०/-, समीर प्रकाशन जबलपुर।
०६३. काका के जूते, व्यंग्य लेख, रासबिहारी पांडेय, ३०/-, सरयू प्रकाशन जबलपुर।
०६४. काव्य अर्चना, कवितायेँ, रत्न लाल वर्मा, २०/-, हमीरपुर हिमाचल प्रदेश।
०६५. वेद काव्य, कवितायेँ, आचार्य ॐ प्रकाश, गाज़ियाबाद।
०६६. वतन को नमन, कवितायेँ, प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, विकास प्रकाशन मंडला।
०६७. अनुगुंजन, काव्य संग्रह, प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, विकास प्रकाशन मंडला।
०६८. बिजली का बदलता परिदृश्य, लोकोकपयोगी, विवेक रंजन श्रीवास्तव, २००/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०६९. मन का साकेत, गीत, जयप्रकाश श्रीवास्तव, १५०/-, विभोर ग्राफिक्स भोपाल।
०७०. पनघट पर गागर, काव्य, रामखिलावन गर्ग, १५०/-, प्रकाशन जबलपुर।
०७१. श्री गीता मानस, काव्यानुवाद, डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर', २७१/-, गुप्तेश्वर मंदिर जबलपुर।
०७२. खोया हुआ शहर, काव्य, अमरनाथ मेहरोत्रा, १००/-, समीक्षा प्रकाशन दिल्ली।
०७३. आक्रोश कवितायें, विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र', ३५/-, विकास प्रकाशन मंडला।
०७४. ईशाराधन, प्रार्थना संग्रह, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', २५/-, विकास प्रकाशन मंडला।
७५. मुद्रा विज्ञान, डॉ. जयशंकर यादव-वीर राजेंद्र जैन, २०/-, महावीर इंटरनेशनल बेलगाम।
०७६. आदित्य ह्रदयस्तोत्रम, काव्यानुवाद, डॉ. सतीश सक्सेना 'शून्य', ५/-, शानू पब्लिकेशन ग्वालियर।
०७७. सिक्ख इतिहास की झलक, मनमोहन दुबे, २०/-, खन्ना बुक डिपो जबलपुर।
०७८. यादें, कवितायें, बृजेन्द्र अग्निहोत्री, ५०/-, फतेहपुर।
०७९. अहल्याकरण, आर. सी. शर्मा 'आरसी', १०५/-, दीपशिखा प्रकाशन कोटा।
०८०. हाशिये पर, क्षणिकाएँ, सुगन चंद्र जैन 'नलिन', १००/-, रूपसी प्रकाशन भोपाल।
०८१. आँगन भर आकाश, गीत संग्रह, मधु प्रसाद, १००/-, श्री प्रकाशन कोलकाता।
०८२. सतपुड़ा के स्वर, काव्य संग्रह, अब्बास खान संगदिल, ७५/-, समय प्रकाशन दिल्ली।
०८३. म्हां सूं असी बणी, काव्य संग्रह, रामेश्वर शर्मा 'रामू भैया', ८०/-, हितैषी प्रकाशन कोटा।
०८४. कल की कलकल, सुशीला अवस्थी, ४००/-, सर्जनात्मक संतुष्टि संस्थान जोधपुर।
०८५. सदी के इन अंतिम दिनों में, कवितायें, राजेंद्र नागदेव, ९०/-, राजसूर्य प्रकाशन दिल्ली।
०८६. अंतर्मन के साथ, काव्य, शिवनारायण जौहरी 'विमल', १५०/-, कैलाश पुस्तक सदन भोपाल।
०८७. अब तक रही कुँवारी धूप, नवगीत, निर्मल शुक्ल, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ।
०८८. नावक के तीर, दोहा संग्रह, अनंत राम मिश्र 'अनंत', १८०/-, भारती भाषा प्रकाशन दिल्ली।
०८९. मैं सागर सी, हाइकु-ताँका संग्रह, मञ्जूषा मन, १४०/-, पोएट्री बुक बाजार लखनऊ।
०९०. उपकार जनरल नॉलेज २०११, कुमार सुंदरम, १४५/-, उपकार प्रकाशन आगरा।
०९१. ईयर बुक २०१०, पी. एस. ब्राइट, १८०/-, ब्राइट पब्लिकेशन दिल्ली।
०९२. यथार्थ, कवितायें, देवेंद्र मिश्र, १००/-, श्री विष्णु प्रकाशन छिंदवाड़ा।
०९३. माई अर्ली लाइफ, आत्म कथा, विंस्टन चर्चिल, कोलिन्स फोंटाना बुक्स।
०९४. १९८४, उपन्यास, जोर्ज ओरवेल, सिग्नेट बुक्स।
०९५. लेस मिजेरेब्लस, उपन्यास, विक्टर ह्यूगो, मैकमिलन।
०९६. डेविड कोपर फील्ड, उपन्यास, चार्ल्स डिकेंस, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।
०९७. द लाइफ एंड डेथ ऑफ़ मेयर ऑफ़ कैस्टरब्रिज, थॉमस हार्डी, मैकमिलन।
०९८. द माँउंटेंस ऑफ़ एडवेंचर्स, उपन्यास, स्निड ब्लायटन, कोलिन्स एंड कंपनी।
०९९. लिविंग इंग्लिश स्ट्रक्चर, स्टेनर्ड एलन ओरिएंट लॉन्गमैन।
१००. एक्सरसाइज़ इन इंग्लिश कंपोजीशन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।

जबलपुर, १.८.२०१७ (संजीव वर्मा 'सलिल')
सभापति विश्व वाणी हिंदी संस्थान
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१,

laghukatha


लघुकथा 
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर। 
***

laghukatha

लघुकथा :
सोई आत्मा 
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....

वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा। 
*

muktak

मुक्तक 
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर 
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर 
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
*