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सोमवार, 1 जून 2015

kruti charcha: sanjiv

कृति चर्चा:
शेष कुशल है : सामायिक जनभावनाओं से सराबोर काव्य संग्रह 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[कृति विवरण: शेष कुशल है, कविता संग्रह, सुरेश 'तन्मय', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ८४, ६० रु., भेल हिंदी साहित्य परिषद् एल ३३/३ साकेत नगर, भेल, भोपाल , कवि संपर्क: २२६ माँ नर्मदे नगर, बिलहरी,जबलपुर ४८२०२०, चलभाष ९८९३२६६०१४, sureshnimadi@gmail.com ]
*
पिछले डेढ़ दशक से मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं में लगभग नहीं लिखने-छपने और साहित्यिक गोष्ठियों से अनुपस्थित रहने के बावजूद पुस्तकों की अबाध प्राप्ति सुख-दुःख की मिश्रित प्रतीति कराती है.


सुख दो कारणों से प्रथम अल्पज्ञ रचनाकार होने के बाद भी मित्रों के स्नेह-सम्मान का पात्र हूँ, द्वितीय यह कि शासन-प्रशासन द्वारा हिंदी की सुनियोजित उपेक्षा के बाद भी हिंदी देश के आम पाठक और रचनाकार भी भाषा बनी हुई है और उसमें लगातार अधिकाधिक साहित्य प्रकाशित हो रहा है.


दुःख के भी दो कारण हैं. प्रथम जो छप रहा है उसमें से अधिकांश को रचनाकार ने सँवारे-तराशे-निखारे बिना प्रस्तुत करना उचित समझा, रचनाओं की अंतर्वस्तु में कथ्य, शिल्प आदि अनगढ़ता कम फूहड़ता अधिक प्राप्य है. अधिकतम पुस्तकें पद्य की हैं जिनमें भाषा के व्याकरण और पिंगल की न केवल अवहेलनाहै अपितु अशुद्ध को यथावत रखने की जिद भी है. दुसरे मौलिकता के निकष पर भी कम ही रचनाएँ मिलती हैं. किसी लोकप्रिय कवि की रचना के विषय पर लिखने की प्रवृत्ति सामान्य है. इससे दुहराव तो होता ही है, मूल रचना की तुलना में नयापन या बेहतरी भी नहीं प्राप्त होती. प्रतिवर्ष शताधिक पुस्तकें पढ़ने के बाद दुबारा पढ़ने की इच्छा जगाने, अथवा याद रखकर कहीं उद्धृत करने के लिये उपयुक्त रचनांश कम ही मिलता है.
पुस्तक की आलोचना, विवेचना अथवा समीक्षा को सहन करने, उससे कुछ ग्रहण करने और बदलाव करने के स्थान पर उसमें केवल और केवल प्रशंसा पाने और न मिलने पर समीक्षक के प्रति दुर्भाव रखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. किसी अचाही किताब को पढ़ना, फिर उस पर कुछ लिखना, उससे कुछ लाभ न होने के बाद भी सम्बन्ध बिगाड़ना कौन चाहेगा? इस कारण पुस्तक-चर्चा अप्रिय कर्म हो गया है और उसे करते समय सजगता आवश्यक हो गयी है. इस परिस्थिति में आलोचना शास्त्र के नये सिद्धांत विकसित होना, नयी पद्धतियों का अन्वेषण कैसे हो? वैचारिक प्रतिबद्धतायें, विधागत संकीर्णता अथवा उद्दंडता, शब्दरूपों और भाषारूपों में क्षेत्रीय विविधताएं भी कठिनाई उपस्थित करती हैं. पारिस्थितिक दुरूहताओं के संकेतन के बाद अब चर्चा हो काव्य संग्रह 'शेष कुशल है' की.


'शेष कुशल है' की अछान्दस कवितायें जमीन से जुड़े आम आदमी की संवेदनाओं की अन्तरंग झलकी प्रस्तुत करती हैं. सुरेश तन्मय निमाड़ी गीत संग्रह 'प्यासों पनघट', हिंदी काव्य संग्रह 'आरोह-अवरोह' तथा बाल काव्य संग्रह 'अक्षर दीप जलाये' के बाद अपनी चतुर्थ कृति 'शेष कुशल है' में उन्नीस लयात्मक-अछांदस काव्य-सुमनों की अंजुली माँ शारदा के चरणों में समर्पित कर रहे हैं. तन्मय जी वर्तमान पारिस्थितिक जटिलताओं, अभावों और विषमताओं से परिचित हैं किन्तु उन्हें अपनी रचनाओं पर हावी नहीं होने देते. आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जानकार (आयुर्वेद रत्न ) होने के कारण तन्मय जी जानते हैं कि त्रितत्वों का संतुलन बनाये बिना व्याधि दूर नहीं होती. कविता में कथ्य, कहन और शिल्प के तीन तत्वों को बखूबी साधने में कवि सफल हुआ है.


कविताओं के विषय दैनंदिन जीवन और पारिवारिक-सामाजिक परिवेश से जुड़े हैं. अत:, पाठक को अपनत्व की अनुभूति होती है. कहन सहज-सरल प्रसाद गुण युक्त है. तन्मय जी वैयक्तिकता और सामाजिकता को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं. संग्रह की महत्वपूर्ण रचना 'गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी' (२५ पृष्ठ) घर के हर सदस्य से लेकर पड़ोस, गाँव के हर व्यक्ति के हाल-चाल, घटनाओं और संवादों के बहाने पारिस्थितिक वैषम्य और विसंगतियों का उद्घाटन मात्र नहीं करती अपितु मन को झिन्झोड़कर सोचने के लिए विवश कर देती है. बड़े भाई द्वारा छोटे को पढ़ाने-बढ़ाने के लिये स्वहितों का त्याग, छोटे द्वारा शहर में उन्नति के बाद भी गाँव से और चाहना, बड़े का अभावों से गहराते जाना, बड़ों और भाभी का अशक्त होना, छोटे से की गयी अपेक्षाओं का बहन होने की व्यथा-कथा पढ़ता पाठक करुणा विगलित होकर पात्रों से जुड़ जाता है. 'हम सब यहाँ / मजे में ही हैं' और 'तेरी मेहनत सफल हुई / कि अपना एक मकान हो गया / राजधानी भोपाल में' से आरम्भ पत्र क्रमश: 'छोटे! घर के हाल / बड़े बदहाल हो गए', 'तेरी भाभी को गठिया ने / घेर लिया है', 'भाई तू बेटा भी तू ही', 'सहते-सहते दरद / हो गयी है आदत / अब तो जीने की', 'इस राखी पर भाई मेरे / तू आ जाना / बहनों से हमसे मिल / थोडा सुख दे जाना', 'थोड़ी मदद मुझे कर देना / तेरी भाभी का इलाज भी करवाना है... ना कर पाया कुछ तो / फिर जीवन भर / मुझको पछताना है'', 'तूने पूछे हाल गाँव के / क्या बतलाऊँ? / पहले जैसा प्रेम भाव / अब नहीं रहा है', 'पञ्च और सरपंच / स्वयं को जिला कलेक्टर / लगे समझने', 'किस्मत में किसान की / बिन पानी के बादल / रहते छाये', 'एक नयी आफत सुन छोटे / टी वी और केबल टी वी ने / गाँवों में भी पैर पसारे', 'गाँवों के सब / खेत-जमीनें / शहरी सेठ / खरीद रहे हैं', ब्याज, शराब, को ओपरेटिव सोसायटी के घपले, निर्जला हैण्ड पंप, बिजली का उजाला, ग्रामीण युवकों का मेहनत से बचना, चमक-दमक, फ्रिज-टी वी आदि का आकर्षण, शादी-विवाह की समस्या के साथ बचपन की यादों का मार्मिक वर्णन और अंत में 'याद बनाये रखना भाई / कि तेरा भी एक भाई है'. यह एक कविता ही पाने आप में समूचे संग्रह की तरह है. कवि इसे बोझिलता से बचाए रखकर अर्थवत्ता दे सका है.


डॉ. साधना बलवटे ने तन्मय जी की रचनाओं में समग्र जीवन की अभिव्यक्ति की पहचान ठीक ही की है. ये कवितायें सरलता और तरलता का संगम हैं. एक बानगी देखें:
समय मिले तो / आकर हमको पढ़ लो
हम बहुत सरल हैं.
ना हम पंडित / ना हैं ज्ञानी
ना भौतिक / ना रस विज्ञानी
हम नदिया के / बहते पानी
भरो अंजुरी और /आचमन कर लो
हम बहुत तरल हैं


कन्या भ्रूण के साहसी स्वर, बहू-बल, मित्र, चैरेवती, मेरे पिता, माँ, बेटियाँ आदि रचनाएं रिश्तों की पड़ताल करने के साथ उनकी जड़ों की पहचान, युवा आकाक्षाओं की उड़ान और वृद्ध पगों की थकान का सहृदयता से शब्दांकन कर सकी हैं. वृक्ष संदेश पर्यावरणीय चेतना की संदेशवाही रचना है. नुक्कड़ गीत टोल-मोलकर बोल जमूरे, जाग जमूरे आदि नुक्कड़ गीत हैं जो जन जागरण में बहुत उपयोगी होंगे.


सुरेश तन्मय का यह काव्य संग्रह तन्मयतापूर्वक पढ़े जाने की मांग करता है. तन्मय जी आयुर्वेद के कम और सामाजिक रोगों के चिकित्सक अधिक प्रतीत होते हैं. कहीं भी कटु हुए बिना विद्रूपताओं को इंगित करना और बिना उपदेशात्मक मुद्रा के समाधान का इंगित कर पाना उन्हें औरों से अलग करता है. ये कवितायें कवी के आगामी संकलनों के प्रति नयी आशा जगाती है. आचार्य भगवत दुबे ठीक है कहते हैं कि 'ये (कवितायें) कहीं न कहीं हमारे मन की बातों का ही प्रतिबिम्ब हैं.
***
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४

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कृति चर्चा: 
रत्ना मंजूषा : छात्रोपयोगी काव्य संग्रह 
चर्चाकार: आचार्य संजीव 
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[कृति विवरण: रत्न मंजूषा, काव्य संग्रह, रत्ना ओझा 'रत्न', आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १८०, मूल्य १५० रु., प्राप्ति संपर्क: २४०५/ बी गाँधी नगर, नया कंचनपुर, जबलपुर]
*
रत्न मंजूषा संस्कारधानी जबलपुर में दीर्घ काल से साहित्य सृजन और शिक्षण कर्म में निमग्न कवयित्री श्रीमती रत्ना ओझा 'रत्न' की नवीन काव्यकृति है. बँटवारे का दर्द कहानी संग्रह, गीत रामायण दोहा संग्रह, जरा याद करो क़ुरबानी भाग १ वीरांगनाओं की जीवनी, जरा याद करो क़ुरबानी भाग २ महापुरुषों की जीवनी, का लेखन तथा ७ स्मारिकाओं का संपादन कर चुकी रत्ना जी की कविताओं के विषय तथा शिल्प लक्ष्य पाठक शालेय छात्रो को ध्यान में रखकर काव्य कर्म और रूपाकार और दिशा निर्धारित की है. उच्च मापदंडों के निकष पर उन्हें परखना गौरैया की उड़ान की बाज से तुलना करने की तरह बेमानी होगा. अनुशासन, सदाचार, देशभक्ति, भाईचारा, सद्भाव, परिश्रम तथा पर्यावरण सुधार आदि रत्ना जी के प्रिय विषय हैं. इन्हें केंद्र में रखकर वे काव्य सृजन करती हैं.


विवेच्य कृति रत्न मञ्जूषा को कवयित्री ने २ भागों में विभाजित किया है. भाग १ में राखी गयी ४३ कवितायेँ राष्ट्रीय भावभूमि पर रची गयी हैं. मातृ वंदना तथा शहीदों को नमन करने की परम्परानुसार रत्ना जी ने कृति का आरंभ शईदों को प्रणतांजलि तथा वीणा वंदना से किया है.रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, स्वामी विवेकानन्द, बापू, सुभद्रा कुमारी चौहान, इंदिराजी, जैसे कालजयी व्यक्तित्वों के साथ पर्यावरण और किसानों की समस्याओं को लेकर शासन-प्रशासन के विरुद्ध न्यायालय और ज़मीन पर नेरंतर संघर्षरत मेघा पाटकर पर कविता देकर रत्ना जी ने अपनी सजगता का परिचय दिया है. नर्मदा जयंती, वादियाँ जबलपुर की, ग्राम स्वराज्य, आदमी आदि परिवेश पर केन्द्रित रचनाएँ कवयित्री की संवेदनशीलता का प्रतिफल हैं. इस भाग की शेष रचनाएँ राष्ट्रीयता के रंग में रंगी हैं.


रत्न मञ्जूषा के भाग २ में सम्मिलित ८८ काव्य रचनाएँ विषय, छंद, कथ्य आदि की दृष्टि से बहुरंगी हैं. तस्वीर बदलनी चाहिए, मिट जाए बेगारी, लौट मत जाना बसंत, माँ रेवा की व्यथा-कथा, दहेज, आँसू, गुटखा, बचपन भी शर्मिंदा, ये कैसी आज़ादी आदि काव्य रचनाओं में कवयित्री का मन सामाजिक सामयिक समस्याओं की शल्य क्रिया कर कारण और निवारण की ओर उन्मुख है. रत्ना जी ने संभवत: जन-बूझकर इन कविताओं की भाषा विषयानुरूप सरस, सरल, सहज, बोधगम्य तथा लयात्मक रखी है. भूमिका लेखक आचार्य भगवत दुबे ने इसे पिन्गलीय आधार पर काव्य-दोष कहा है किन्तु मेरी दृष्टि में जिन पाठकों के लिए रचनाएँ की गयीं हैं, उनके भाषा और शब्द-ज्ञान को देखते हुए कवयित्री ने आम बोलचाल के शब्दों में अपनी बात कही है. प्रसाद गुण संपन्न ये रचनाएं काव्य रसिकों को नीरस लग सकती हैं किन्तु बच्चों को अपने मन के अनुकूल प्रतीत होंगी.


कवयित्री स्वयं कहती है: 'नवोदित पीढ़ी में राष्ट्रीयता, नैतिकता, पर्यावरण, सुरक्षा, कौमी एकता और संस्कार पनप सकें, काव्य संग्रह 'रत्न मञ्जूषा' में यही प्रयास किया गया है. कवयित्री अपने इस प्रयास में सफल है. शालेय बच्चे काव्यगत शिल्प और पिंगल की बारीकियों से परिचित नहीं होते. अत: उन्हें भाषिक कसावट की न्यूनता, अतिरिक्त शब्दों के प्रयोग, छंद विधान में चूकके बावजूद कथ्य ग्रहण करने में कठिनाई नहीं होगी. नयी पीढ़ी को देश के परिवेश, सामाजिक सौख्य और समन्वयवादी विरासत के साथ-साथ पर्यावरणीय समस्याओं और समाधान को इंगित करती-कराती इस काव्य-कृति का स्वागत किया जाना चाहिए.

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कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
आचार्य संजीव
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[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों  की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.

आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय  छोड़कर अन्यत्र  जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा  के  कारण  तर्क-बुद्धि का  परम्पराओं  के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन  तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों  से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों  से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में  पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता,  संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.


मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शाकुंताका खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह  से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.

संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी  शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि  पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा  अगढ़ता  के समीप हैं. इस कारण इन्हें  बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.

भारत अनेकता में एकता  का देश  है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों  से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व  मनाये  जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी  सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४

रविवार, 31 मई 2015

चन्द माहिया:क़िस्त 21



:1:
दिल हो जाता है गुम
जब चल देती हो
ज़ुल्फ़ें बिखरा कर तुम

:2:
जब तुम ही नहीं होगे
फिर कैसी मंज़िल
फिर किसका पता दोगे ?

:3:
पर्दा वो उठा लेंगे
उस दिन हम अपनी
हस्ती को मिटा देंगे

:4:
चादर न धुली होगी
जाने से पहले
मुठ्ठी भी खुली होगी

:5:
तोते सी नज़र पलटी
ये भी हुनर उनका
एहसान फ़रामोशी

-आनन्द.पाठक
09413395592

muktak:

मुक्तक:
लहरियों में घटी, घाट पर है सदी
धार के भाग्य में मछलियाँ हैं बदी 
चन्द्र को भाल पर टाँक कर खुश हुई, 
वास्तव में रही श्री लुटाती नदी
*
कलियों को रंग, तितलियों को पंख दे रही 
तेरी शरारतें नयी उमंग दे रहीं 
भँवरों की क्या खता जो लुटा दिल दिया मचल 
थीं संगदिल जो आज 'सलिल' संग दे रहीं 
*
जिसका लेख न हो सका, देख लेखिये आप 
लिखा जा चुका श्रेष्ठ फिर, दुहराना है जाप
दृष्टि-कोण की भिन्नता, बदले कथ्य न सत्य 
लिखे हुए पर प्रतिक्रिया, करना है अनुमाप 
*

dwipadi: sanjiv

द्विपदी सलिला :
संजीव
*
औरों की निगाहों से करूँ, खुद का आकलन 
ऐसा न दिन दिखाना कभी, ईश्वर मुझे.
*
'डूब नजरों में न जाएँ' ये सोच दूर रही
वरना नज़रों के नजारों पे नजर शैदा थी

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
दोहा का रंग सिर के संग 
संजीव 
*
पहले सोच-विचार लें, फिर करिए कुछ काम 
व्यर्थ न सिर धुनना पड़े, अप्रिय न हो परिणाम 
*
सिर धुनकर पछता रहे, दस सिर किया न काज 
बन्धु सखा कुल मिट गया, नष्ट हो गया राज
*
सिर न उठा पाये कभी, दुश्मन रखिये ध्यान 
सरकश का सर झुकाकर, रखे सदा बलवान
*
नतशिर होकर नमन कर, प्रभु हों तभी प्रसन्न 
जो पौरुष करता नहीं, रहता 'सलिल' विपन्न 
*
मातृभूमि हित सिर कटा, होते अमर शहीद 
बलिदानी को पूजिए, हर दीवाली-ईद 
*
विपद पड़े सिर जोड़कर, करिए 'सलिल' विचार 
चाह राह की हो प्रबल, मिल जाता उपचार 
*
तर्पण कर सिर झुकाकर, कर प्रियजन को याद 
हैं कृतज्ञ करिए प्रगट, भाव- रहें  फिर शाद 
*
दुर्दिन में सिर मूड़ते, करें नहीं संकोच
साया छोड़े साथ- लें अपने भी उत्कोच  
*
अरि ज्यों सीमा में घुसे, सिर काटें तत्काल 
दया-रहम जब-जब किया, हुआ हाल बेहाल 
*
सिर न खपायें तो नहीं, हल हो कठिन सवाल 
सिर न खुजाएँ तो 'सलिल', मन में रहे मलाल 
*
'सलिल' न सिर पर हों खड़े, होता कहीं न काम 
सरकारी दफ्तर अगर, पड़े चुकाना दाम 
*
सिर पर चढ़ते आ रहे, नेता-अफसर खूब
पाँच साल  गायब रहे, सके जमानत डूब 
*
भूल चूक हो जाए तो, सिर मत धुनिये आप 
सोच-विचार सुधार लें, सुख जाए मन व्याप
*
होनी थी सो हो गयी, सिर न पीटिए व्यर्थ
गया मनुज कब लौटता?, नहीं शोक का अर्थ 
*
सब जग की चिंता नहीं, सिर पर धरिये लाद
सिर बेचारा हो विवश, करे नित्य फरियाद 
*
सिर मत फोड़ें धैर्य तज, सिर जोड़ें मिल-बैठ 
सही तरीके से तभी, हो जीवन में पैठ
सिर पर बाँधे हैं कफन, अपने वीर जवान 
ऐसा काम न कीजिए, घटे देश का मान 
*
सर-सर करता सर्प यदि, हो समीप झट भाग
सर कर निज भय, सर रखो, ठंडा बढ़े न ताप 
*
सर!-सर! कह थक गये पर, असर न हो यदि मीत
घुड़की दो: 'सर फोड़ दूं?', यही उचित है रीत
*
कसर न छोड़े काम में, पसर न कर आराम
गुजर-बसर तब हो सके, सर बिन माटी चाम
*

**    

facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

शनिवार, 30 मई 2015

muktak: sanjiv


मुक्तक:
संजीव 
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका 
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका 
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोइ कभी गा सका 

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान 
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान 
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक 
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक 
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक 
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब 
*

dwipadiyan: sanjiv

द्विपदी सलिला :
संजीव
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं 
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
*
जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है 
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है 


  

haiku: sanjiv

हाइकु सलिला: 
हाइकु का रंग पलाश के संग 
संजीव 
*
करे तलाश 
अरमानों की लाश
लाल पलाश 
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन 
ढाक के पात 
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप 
टेसू निष्पाप 
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित 
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित 
करे पलाश 
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या 
प्रेमी उदास
*

शुक्रवार, 29 मई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
मातृभाषा में
संजीव
*
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
ढोल सुहाने दूर के
होते सबको ज्ञात
घर का जोगी जोगड़ा
आन सिद्ध विख्यात
घरवाली की बचा नजरें
अन्य से अँखियाँ लड़ाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
आम आदमी समझ ले
मत बोलो वह बात
लुका-दबा काबिज़ रहो
औरों पर कर घात
दर्द अन्य का बिन सुने
स्वयं का दुखड़ा सुनाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
दोहे का रंग मुँह के संग
संजीव
*
दोहे के मुँह मत लगें, पल में देगा मात
मुँह-दर्पण से जान ले, किसकी क्या है जात?
*
मुँह की खाते हैं सदा, अहंकार मद लोभ
मुँहफट को सहना पड़े, असफलता दुःख क्षोभ
*
मुँहजोरी से उपजता, दोनों ओर तनाव
श्रोता-वक्ता में नहीं, शेष रहे सद्भाव
*
मुँह-देखी कहिए नहीं, सुनना भी है दोष
जहाँ-तहाँ मुँह मारता, जो- खोता संतोष
*
मुँह पर करिए बात तो, मिट सकते मतभेद
बात पीठ पीछे करें, बढ़ बनते मनभेद
*
मुँह दिखलाना ही नहीं, होता है पर्याप्त
हाथ बटायें साथ मिल, तब मंजिल हो प्राप्त
*
मुँह-माँगा वरदान पा, तापस करता भोग
लोभ मोह माया अहं, क्रोध ग्रसे बन रोग
*
आपद-विपदा में गये, यार-दोस्त मुँह मोड़
उनको कर मजबूत मन, तत्क्षण दें हँस छोड़
*
मददगार का हम करें, किस मुँह से आभार?
मदद अन्य जन की करें, सुख पाये संसार
*
जो मुँहदेखी कह रहे, उन्हें न मानें मीत
दुर्दिन में तज जायेंगे, यह दुनिया की रीत
*
बेहतर है मुँह में रखो, अपने 'सलिल' लगाम
बड़बोलापन हानिप्रद, रहें विधाता वाम
*
छिपा रहे मुँह आप क्यों?, करें न काज अकाज
सच को यदि स्वीकार लें, रहे शांति का राज
*
बैठ गये मुँह फुलाकर, कान्हा करें न बात
राधा जी मुस्का रहीं, मार-मार कर पात
*
मुँह में पानी आ रहा, माखन-मिसरी देख
मैया कब जाएँ कहीं, करे कन्हैया लेख
*
मुँह  की खाकर लौटते, दुश्मन सरहद छोड़
भारतीय सैनिक करें, जांबाजी की होड़
*
दस मुँह भी काले हुए, मति न रही यदि शुद्ध
काले मुँह उजले हुए, मानस अगर प्रबुद्ध
*
गये उठा मुँह जब कहीं, तभी हुआ उपहास
आमंत्रित हो जाइए, स्वागत हो सायास
*
सीता का मुँह लाल लख, आये रघुकुलनाथ
'धनुष-भंग कर एक हों', मना रहीं नत माथ
*
मुँह महीप से महल पर, अँखियाँ पहरेदार
बली-कली पर कटु-मृदुल, करते वार-प्रहार
***

doha-sortha salila: sanjiv

दोहा-सोरठा सलिला:

छंद सवैया सोरठा, लुप्त नहीं- हैं मौन
ह्रदय बसाये पीर को, देख रहे चुप कौन?
*
करे पीर से प्रेम जब, छंद तभी होता प्रगट  
बसें कलम में तभी रब, जब आँसू हों आँख में 
*
पीर-प्रेम का साथ ही, राधा-मीरावाद
सूर-यशोदा पीर का, ममतामय अनुवाद
*
शब्द-शब्द आनंद, श्वास-श्वास में जब बसे
तभी गुंजरित छंद, होते बनकर प्रार्थना
*
धुआँ कामना हो गयी, छूटी श्वासा रेल 
जग-जीवन लगने लगा, जीत-हार का खेल 
*
किशन देखता मौन, कितने कहाँ सरोज हैं?
शब्द-वेध कर कौन, बने धंनजय 'सलिल' फिर.
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
एकता 
संजीव
*
मतभेदों की चली आँधियाँ
तिनकों जैसी 
हुई एकता 
*
धूमधाम से बैनर बाँधे 
उठा होर्डिंग ढोते काँधे 
मंच बनाया भाग-दौड़कर 
भीड़ जुटी ज्यों वानर फाँदे
आश्वासन से सजी वादियाँ 
भाषण गूँजे 
हुई एकता 
मतभेदों की चली आँधियाँ
तिनकों जैसी 
हुई एकता 
*
सगा किसी का कौन यहाँ पर?
लड़ते ऊँचा निजी निशां कर
संकट में चल दिये छोड़कर
अपना नारा आप गुंजाकर 
मौन रहो, चुप सहो खामियाँ 
सच सुनकर 
कब टिकी एकता?
मतभेदों की चली आँधियाँ
तिनकों जैसी 
हुई एकता 
*
बैठ मंच पर सज दूल्हा बन 
चमचों से करवा अभिनंदन 
रोली माला चन्दन श्रीफल 
फोटो भाषण खबर दनादन 
काम बहुत कम अधिक लाबियाँ 
मनमानी को 
कहें एकता 
मतभेदों की चली आँधियाँ
तिनकों जैसी 
हुई एकता 
*
    
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

गुरुवार, 28 मई 2015

गीत: sanjiv

अभिनव प्रयोग
दोहा-सोरठा गीत
संजीव
*
इतना ही इतिहास,
मनुज, असुर-सुर का रहा
हर्ष शोक संत्रास,
मार-पीट, जय-पराजय
*
अक्षर चुप रह देखते, क्षर करते अभिमान
एक दूसरे को सता, कहते हम मतिमान
सकल सृष्टि का कर रहा, पल-पल अनुसन्धान
किन्तु नहीं खुद को 'सलिल', किंचित पाया जान
अपनापन अनुप्रास,
श्लेष स्नेह हरदम रहा
यमक अधर धर हास,
सत्य सदा कहता अभय
*
शब्द मुखर हो बोलते,  शिव का करिए गान
सुंदर वह जो सनातन, नश्वर तन-मन मान
सत चित में जब बस रहे, भाषा हो रस-खान
पा-देते आनंद तब, छंद न कर अभिमान
जीवन में परिहास,
हो भोजन में नमक सा
जब हो छल-उपहास
साध्य, तभी होती प्रलय
*
मुखड़ा संकेतित करे, रोकें नहीं उड़ान
हठ मत ठानें नापना, क्षण में सकल वितान
अंतर से अंतर मिटा, रच अंतरा सुजान
गति-यति, लय मत भंग कर, तभी सधेगी तान
कुछ कर ले सायास,
अनायास कुछ हो रहा
देखे मौन सहास
अंश पूर्ण में हो विलय
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
ले जाना चाहां था
खुद  को खुद  से दूर
*
जिसने रोका
जिसने टोका
किसे नहीं भट्टी में झोंका
दे जाना चाहां, जो पाया
नहीं फितूर
ले जाना चाहां था
खुद को खुद से दूर
*
जिसकी माया
जिसका साया
उसे न जग ने रोका-टोंका
चढ़ा दिया परसाद सवाया
कह: 'हो सूर'
ले जाना चाहां था
खुद को खुद से दूर
*
जैसी करनी
वैसी भरनी
फिर भी छुरा पीठ  में भोंका
तनिक नहीं मनुआ शरमाया
हो मगरूर
ले जाना चाहां था
खुद को खुद से दूर
*

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
अपने घर में 
आग लगायें *
इसको इतना 
उसको उतना
शेष बचे जो 
किसको कितना?
कहें लोक से 
भाड़ में जाएँ 
सबके सपने 
आज जलायें   
*
जिसका सपना 
जितना अपना 
बेपेंदी का 
उतना नपना 
अपनी ढपली 
राग सुनाएँ 
पियें न पीने दें 
लुढ़कायें 
*
इसे बरसना
उसको तपना 
इसे अकड़ना 
उसे न झुकना 
मिलकर आँसू 
चंद बहायें  
हाय! राम भी 
बचा न  पायें 
*

बुधवार, 27 मई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
चलो मिल सूरज उगायें 
*
सघनतम तिमिर हो जब 
उज्ज्वलतम कल हो तब 
जब निराश अंतर्मन-
नव आशा फल हो तब 
विघ्न-बाधा मिल भगायें 
चलो मिल सूरज उगायें 
*
पत्थर का वक्ष फोड़ 
भूतल को दें झिंझोड़ 
अमिय धार प्रवहित हो 
कालकूट जाल तोड़ 
मरकर भी जी जाएँ 
चलो मिल सूरज उगायें 
*
अपनापन अपनों का 
धंधा हो सपनों का 
बंधन मत तोड़ 'सलिल' 
अपने ही नपनों का 
भूसुर-भुसुत बनायें 
चलो मिल सूरज उगायें 
*



navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
कौए मन्दिर में बैठे हैं
गीध सिंहासन पा ऐंठे हैं
मन्त्र पढ़ रहे गर्दभगण मिल
करतल ध्वनि करते जेठे हैं.
पुस्तक लिख-छपते उलूक नित
चीलें पीर भईं
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
चूहे खलिहानों के रक्षक
हैं सियार शेरों के भक्षक
दूध पिलाकर पाल रहे हैं
अगिन नेवले वासुकि तक्षक
आश्वासन हैं खंबे
वादों की शहतीर नईं
*
न्याय तौलते हैं परजीवी
रट्टू तोते हुए मनीषी
कामशास्त्र पढ़ रहीं साध्वियाँ
सुन प्रवचन वैताल पचीसी
धुल धूसरित संयम
भोगों की प्राचीर मुईं
***