दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011
अन्ना आन्दोलन व्यंग्यचित्रकार पवन की दृष्टि में:
दोहा गीत: मातृ ज्योति-दीपक पिता, - संजीव 'सलिल'
दोहा गीत:
मातृ ज्योति-दीपक पिता,
- संजीव 'सलिल'
*
*
विजय विषमता तिमिर पर,
कर दे- साम्य हुलास..
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास....
*
जिसने कालिख-तम पिया,
वह काली माँ धन्य.
नव प्रकाश लाईं प्रखर,
दुर्गा देवी अनन्य.
भर अभाव को भाव से,
लक्ष्मी हुईं प्रणम्य.
ताल-नाद, स्वर-सुर सधे,
शारद कृपा सुरम्य.
वाक् भारती माँ, भरें
जीवन में उल्लास.
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास...
*
सुख-समृद्धि की कामना,
सबका है अधिकार.
अंतर से अंतर मिटा,
ख़त्म करो तकरार.
जीवन-जगत न हो महज-
क्रय-विक्रय व्यापार.
सत-शिव-सुन्दर को करें
सब मिलकर स्वीकार.
विषम घटे, सम बढ़ सके,
हो प्रयास- सायास.
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास....
**************
= दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
--
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
विजय विषमता तिमिर पर,
कर दे- साम्य हुलास..
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास....
*
जिसने कालिख-तम पिया,
वह काली माँ धन्य.
नव प्रकाश लाईं प्रखर,
दुर्गा देवी अनन्य.
भर अभाव को भाव से,
लक्ष्मी हुईं प्रणम्य.
ताल-नाद, स्वर-सुर सधे,
शारद कृपा सुरम्य.
वाक् भारती माँ, भरें
जीवन में उल्लास.
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास...
*
सुख-समृद्धि की कामना,
सबका है अधिकार.
अंतर से अंतर मिटा,
ख़त्म करो तकरार.
जीवन-जगत न हो महज-
क्रय-विक्रय व्यापार.
सत-शिव-सुन्दर को करें
सब मिलकर स्वीकार.
विषम घटे, सम बढ़ सके,
हो प्रयास- सायास.
मातृ ज्योति- दीपक पिता,
शाश्वत चाह उजास....
**************
= दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
--
Acharya Sanjiv Salil
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शोक:
श्रीमती सरोज वर्मा दिवंगत
दीप पर्व के पूर्व ही धन तेरस २४-१०-२०११ को अलबुकर्क न्यू अमेरिका में
पूज्या भाभीश्री श्रीमती सरोज वर्मा ने प्रातः ५.१० बजे (भारतीय
समयानुसार सायं ४.४० बजे) वैस्कुलाइटिस नामक रोग की गत ३ माह से चल रही
चिकित्सा के बीच इहलीला समाप्त कर देवलोक प्रस्थान कर दिया. उनके स्वजनों
के संपर्क सूत्र निम्न हैं:
sanjeev_varma@comcast.net , arti prasad <surti1988@gmail.com>,
abhimanyu.rai@gmail.com, anjali.manoj@gmail.com, divashree@gmail.com,
manoj.saxena@gmail.com, priyashree.rai@gmail.com, sprasad@unm.edu,
ssv777@hotmail.com, rkvarma@eng.uwo.ca, sanjeev_varma@comcast.net,
sarvesh@mit.edu, avivarma87@gmail.com, priyanka.varma92@gmail.कॉम
श्रीमती सरोज वर्मा दिवंगत
दीप पर्व के पूर्व ही धन तेरस २४-१०-२०११ को अलबुकर्क न्यू अमेरिका में
पूज्या भाभीश्री श्रीमती सरोज वर्मा ने प्रातः ५.१० बजे (भारतीय
समयानुसार सायं ४.४० बजे) वैस्कुलाइटिस नामक रोग की गत ३ माह से चल रही
चिकित्सा के बीच इहलीला समाप्त कर देवलोक प्रस्थान कर दिया. उनके स्वजनों
के संपर्क सूत्र निम्न हैं:
sanjeev_varma@comcast.net , arti prasad <surti1988@gmail.com>,
abhimanyu.rai@gmail.com, anjali.manoj@gmail.com, divashree@gmail.com,
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हृदयांजलि:
सरोज भाभी जी के महाप्रस्थान पर:
भाभी माँ तुम चली गयीं...
*
रहे रोकते हम मत जाओ, लेकिन तुमको जाना था.
भारत से या अमरीका से, यह तो महज ठिकाना था.
देह भले ही चली गयी हो,
मन से लेकिन नहीं गयीं.
भाभी माँ तुम चली गयीं...
*
ईश सती के अब सतीश भैया सचमुच एकाकुल हैं.
सती नाम धरकर सरोज का, गईं- स्वजन शोकाकुल हैं..
तुमसे पाया स्नेह अपरिमित, तुम ममता-आकार रहीं.
भारतीय नारी की प्रतिकृति, शुचि-सेवा साकार रहीं..
सकल विश्व घर माना तुमने,
घर से लेकिन नहीं गयीं.
भाभी माँ तुम चली गयीं...
*
माँ की बहू लाड़ली थीं तुम, अंत समय तक साथ रहीं.
करे सभी कर्त्तव्य, न रीता कभी वही तुम हाथ रहीं..
धन तेरस को निर्धन हैं हम, नयन रो रहे प्राण विकल.
रूप चतुर्थी है कुरूप सी, दुर्विपाक है काल सबल..
यादें है पाथेय हमारा,
छवियाँ मन से नहीं गयीं.
भाभी माँ तुम चली गयीं...
*
संस्कार राजीव लिए, संजीव लिए कर्मठता हैं.
मंजुलता अंजली लिए, आरती लिए प्रांजलता है..
मौली-सविता लिए विरासत, स्नेह-दीप उजियार रहीं.
नव पीढ़ी नव गति नव लय ले, भावी का आधार रहीं..
माँ के पग-चिन्हों का कर
अनुसरण, अकेली चली गयीं.
भाभी माँ तुम चली गयीं...
******
दिव्यनर्मदा परिवार की हार्दिक शोकांजलि.
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ज्योति पर्व : ज्योति वंदना- नरेन्द्र शर्मा / लावण्या शाह
ज्योति पर्व : ज्योति वंदना / नरेन्द्र शर्मा
जीवन की
अंधियारी
रात हो उजारी!
धरती पर धरो चरण
तिमिर-तम हारी
परम व्योमचारी!
चरण धरो, दीपंकर,
जाए कट तिमिर-पाश!
दिशि-दिशि में चरण धूलि
छाए बन कर-प्रकाश!
आओ,
नक्षत्र-पुरुष,
गगन-वन-विहारी
परम व्योमचारी!
आओ तुम, दीपों को
निरावरण करे निशा!
चरणों में स्वर्ण-हास
बिखरा दे दिशा-दिशा!
पा कर आलोक,
मृत्यु-लोक हो सुखारी
नयन हों पुजारी!
दीपावली मंगलमय हो / लावण्या शाह
दीप शिखा की लौ कहती है,
व्यथा कथा हर घर रहती है,
कभी छिपी तो कभी मुखर बन,
अश्रु हास बन बन बहती है
हाँ व्यथा सखी, हर घर
रहती है ..
बिछुडे स्वजन की याद कभी,
निर्धन की लालसा ज्योँ थकी थकी,
हारी ममता की आँखोँ मेँ नमी,
बन कर, बह कर, चुप सी रहती है,
हाँ व्यथा सखी, हर घर रहती है !
नत मस्तक, मैँ दिवला, बार नमूँ
आरती, माँ, महालक्ष्मी मैँ तेरी करूँ,
आओ घर घर माँ, यही आज कहूँ,
दुखियोँ को सुख दो, यह बिनती करूँ,
माँ, देक्ग, दिया, अब, प्रज्वलित कर दूँ !
दीपावली आई फिर आँगन, बन्दनवार,
रँगोली रची सुहावन !
किलकारी से गूँजा रे प्राँगन, मिष्ठान्न
अन्न धृत मेवा मन भावन !
देख सखी, यहाँ फूलझडी मुस्कावन !
जीवन बीता जाता ऋउतुओँ के सँग सँग,
हो सबको, दीपावली का अभिनँदन !
नव -वर्ष की बधई, हो, नित नव -रस !
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सोमवार, 24 अक्टूबर 2011
दोहा सलिला:
दीवाली के संग : दोहा का रंग संजीव 'सलिल' * सरहद पर दे कटा सर, हद अरि करे न पार. राष्ट्र-दीप पर हो 'सलिल', प्राण-दीप बलिहार.. * आपद-विपदाग्रस्त को, 'सलिल' न जाना भूल. दो दीपक रख आ वहाँ, ले अँजुरी भर फूल.. * कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत. रपट न थाने में हुई, ज्योति हुई क्यों फौत?? * तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास. आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस.. * दीप जला, जय बोलना, दुनिया का दस्तूर. दीप बुझा, चुप फेंकना, कर्म क्रूर-अक्रूर.. * चलते रहना ही सफर, रुकना काम-अकाम. जलते रहना ज़िंदगी, बुझना पूर्ण विराम. * सूरज की किरणें करें नवजीवन संचार. दीपक की किरणें करें, धरती का सिंगार.. * मन देहरी ने वर लिये, जगमग दोहा-दीप. तन ड्योढ़ी पर धर दिये, गुपचुप आँगन लीप.. * करे प्रार्थना, वंदना, प्रेयर, सबद, अजान. रसनिधि है रसलीन या, दीपक है रसखान.. * मन्दिर-मस्जिद, राह-घर, या मचान-खलिहान. दीपक फर्क न जानता, ज्योतित करे जहान.. * मद्यप परवाना नहीं, समझ सका यह बात. साक़ी लौ ले उजाला, लाई मरण-सौगात.. * Acharya Sanjiv Salil http://divyanarmada.blogspot. | |
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यम द्वितीय चित्रगुप्त पूजन पर विशेष भेंट: भजन: प्रभु हैं तेरे पास में... -- संजीव 'सलिल'
यम द्वितीय चित्रगुप्त पूजन पर विशेष भेंट:
भजन:
प्रभु हैं तेरे पास में...
-- संजीव 'सलिल'
*
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
तन तो धोता रोज न करता, मन को क्यों तू साफ रे!
जो तेरा अपराधी है, उसको करदे हँस माफ़ रे..
प्रभु को देख दोस्त-दुश्मन में, तम में और प्रकाश में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
चित्र-गुप्त प्रभु सदा चित्त में, गुप्त झलक नित देख ले.
आँख मूंदकर कर्मों की गति, मन-दर्पण में लेख ले..
आया तो जाने से पहले, प्रभु को सुमिर प्रवास में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
मंदिर-मस्जिद, काशी-काबा मिथ्या माया-जाल है.
वह घट-घट कण-कणवासी है, बीज फूल-फल डाल है..
हर्ष-दर्द उसका प्रसाद, कडुवाहट-मधुर मिठास में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
भजन:
प्रभु हैं तेरे पास में...
संजीव 'सलिल'
*
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
निराकार काया में स्थित, हो कायस्थ कहाते हैं.
रख नाना आकार दिखाते, झलक तुरत छिप जाते हैं..
प्रभु दर्शन बिन मन हो उन्मन,
प्रभु दर्शन कर परम शांत मन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
कोई न अपना सभी पराये, कोई न गैर सभी अपने हैं.
धूप-छाँव, जागरण-निद्रा, दिवस-निशा प्रभु के नपने हैं..
पंचतत्व प्रभु माटी-कंचन,
कर मद-मोह-गर्व का भंजन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
नभ पर्वत भू सलिल लहर प्रभु, पवन अग्नि रवि शशि तारे हैं.
कोई न प्रभु का, हर जन प्रभु का, जो आये द्वारे तारे हैं..
नेह नर्मदा में कर मज्जन,
प्रभु-अर्पण करदे निज जीवन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
Acharya Sanjiv Salil
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भजन:
प्रभु हैं तेरे पास में...
-- संजीव 'सलिल'
*
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
तन तो धोता रोज न करता, मन को क्यों तू साफ रे!
जो तेरा अपराधी है, उसको करदे हँस माफ़ रे..
प्रभु को देख दोस्त-दुश्मन में, तम में और प्रकाश में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
चित्र-गुप्त प्रभु सदा चित्त में, गुप्त झलक नित देख ले.
आँख मूंदकर कर्मों की गति, मन-दर्पण में लेख ले..
आया तो जाने से पहले, प्रभु को सुमिर प्रवास में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
मंदिर-मस्जिद, काशी-काबा मिथ्या माया-जाल है.
वह घट-घट कण-कणवासी है, बीज फूल-फल डाल है..
हर्ष-दर्द उसका प्रसाद, कडुवाहट-मधुर मिठास में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
भजन:
प्रभु हैं तेरे पास में...
संजीव 'सलिल'
*
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
निराकार काया में स्थित, हो कायस्थ कहाते हैं.
रख नाना आकार दिखाते, झलक तुरत छिप जाते हैं..
प्रभु दर्शन बिन मन हो उन्मन,
प्रभु दर्शन कर परम शांत मन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
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कोई न अपना सभी पराये, कोई न गैर सभी अपने हैं.
धूप-छाँव, जागरण-निद्रा, दिवस-निशा प्रभु के नपने हैं..
पंचतत्व प्रभु माटी-कंचन,
कर मद-मोह-गर्व का भंजन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
नभ पर्वत भू सलिल लहर प्रभु, पवन अग्नि रवि शशि तारे हैं.
कोई न प्रभु का, हर जन प्रभु का, जो आये द्वारे तारे हैं..
नेह नर्मदा में कर मज्जन,
प्रभु-अर्पण करदे निज जीवन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
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मधु माँग ना मेरे मधुर मीत...
-- स्व. पं. नरेन्द्र शर्मा
मधु के दिन मेरे गये बीत !...
मैँने भी मधु के गीत रचे,
मेरे मन की मधुशाला मेँ
यदि होँ मेरे कुछ गीत बचे,
तो उन गीतोँ के कारण ही,
कुछ और निभा ले प्रीत ~ रीत !
मधु के दिन मेरे गये बीत...
मधु कहाँ , यहाँ गँगा - जल है !
प्रभु के छरणोँ मे रखने को ,
जीवन का पका हुआ फल है !
मन हार चुका मधुसदन को,
मैँ भूल छुका मधु भुरे गीत !
मधु के दिन मेरे गये बीत...
वह गुपचुप प्रेम भुरी बातेँ,
यह मुरझाया मन भूल चुका
वन कुँजोँ की गुँजित रातेँ
मधु कलषोँ के छलकाने की
हो गइ, मधुर बेला व्यतीत!
मधु के दिन मेरे गये बीत...
~~
आभार: - lavanyashah@yahoo.com
[ गायक : श्री . सुधीर फडकेजी ] ~
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रविवार, 23 अक्टूबर 2011
दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक- संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक-
संजीव 'सलिल'
*
ना-ना को हाँ-हाँ समझ, नाना करते खेल.
अश्रु बहाकर डालती, नातन नाक नकेल..
*
भाव-अभाव न सह सके, कविता घटता चाव.
भाव पहुँच में हो 'सलिल', होता तभी निभाव..
*
ताव दिखाकर डालते, क्यों प्रिय! आप प्रभाव?
ताव फटे पल में 'सलिल', सह नहिं सके तनाव..
*
मनभावन पाऊँ कुँवर, विनय कर रही कौर.
मुँह में पाऊँ स्वाद नव, जब संग खाऊँ कौर..
*
बुरा बौराकर रहे, बार-बार क्यों खीझ?
गौर हाथ न आ रहीं, मन व्याकुल है रीझ..
*
अनगढ़ से गढ़ता रहा, नवाकार करतार.
कुम्भकार कर जोड़ता, दैव! दया कर तार..
*
आते ही हरतालिका, करती हैं उपवास.
जाँच रहीं हर तालिका, होकर श्रमित उदास..
*
भाग एक के चार कर, तब हो रोटी पाव.
बिन बोले चुप चाव से, खाले रोटी-पाव..
*
हाव-भाव से ही 'सलिल', अभिनय हो सम्प्राण.
हाव-हाव मत कर लगे, जग=जीवन निष्प्राण..
*
माँग भरो की माँग सुन, रहे कुँवारे भाग.
पीछा करें कुमारियाँ, परख सकें अनुराग..
*
पर में भर ताकत उड़ो, पर का कर दो त्याग.
हिकमत पर कर भरोसा, पर से कह दो भाग..
*
गले मिले दोहा यमक-
संजीव 'सलिल'
*
ना-ना को हाँ-हाँ समझ, नाना करते खेल.
अश्रु बहाकर डालती, नातन नाक नकेल..
*
भाव-अभाव न सह सके, कविता घटता चाव.
भाव पहुँच में हो 'सलिल', होता तभी निभाव..
*
ताव दिखाकर डालते, क्यों प्रिय! आप प्रभाव?
ताव फटे पल में 'सलिल', सह नहिं सके तनाव..
*
मनभावन पाऊँ कुँवर, विनय कर रही कौर.
मुँह में पाऊँ स्वाद नव, जब संग खाऊँ कौर..
*
बुरा बौराकर रहे, बार-बार क्यों खीझ?
गौर हाथ न आ रहीं, मन व्याकुल है रीझ..
*
अनगढ़ से गढ़ता रहा, नवाकार करतार.
कुम्भकार कर जोड़ता, दैव! दया कर तार..
*
आते ही हरतालिका, करती हैं उपवास.
जाँच रहीं हर तालिका, होकर श्रमित उदास..
*
भाग एक के चार कर, तब हो रोटी पाव.
बिन बोले चुप चाव से, खाले रोटी-पाव..
*
हाव-भाव से ही 'सलिल', अभिनय हो सम्प्राण.
हाव-हाव मत कर लगे, जग=जीवन निष्प्राण..
*
माँग भरो की माँग सुन, रहे कुँवारे भाग.
पीछा करें कुमारियाँ, परख सकें अनुराग..
*
पर में भर ताकत उड़ो, पर का कर दो त्याग.
हिकमत पर कर भरोसा, पर से कह दो भाग..
*
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विरासत: दीवाली के दीप जले स्व. रघुपति सहाय 'फिराक गोरखपुरी'
विरासत:
दीवाली के दीप जले
स्व. रघुपति सहाय 'फिराक गोरखपुरी'
*
नयी हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले.
शाम सुहानी, रात सुहानी दीवाली के दीप जले..
धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आँचल धानी दीवाली के दीप जले..
नर्म लबों ने जुबान खोली फिर दुनिया से कहने को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले..
लाखों-लाखों दीपशिखाएँ देती हैं चुप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले..
लाखों आँखों में डूबा है खुशहाली का यह त्यौहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले..
कितनी मँहगी हैं सब चीज़ें, कितने सस्ते हैं आँसू.
उफ़ ये गरानी, ये अरजनी दीवाली के दीप जले..
मेरे अँधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले..
तझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आयी है पुरानी दीवाली के दीप जले..
जलते चरागों में सज उठती भूखे-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले..
देख रही हूँ सीने में मैं दाग़े जिगर के चराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले..
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब् का चेहरा है नूरानी दीवाली के दीप जले..
जुग-जुग से इस दु:खी देश में बन जाता है हर त्यौहार
रंजो-खुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले..
रात गये जब इक-इक करके जलते दिए दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे गम की निशानी दीवाली के दीप जले..
जलते दियों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले..
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने, हाय जवानी दीवाली के दीप जले..
लाखों चरागों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
तूने परायी पीर न जानी दीवाली के दीप जले..
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात.
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीप जले..
खुशहाली है शर्ते-ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले..
छेड़ के साजे-निशाते चिरागां आज फ़िराक सुनाता है
गम की कथा खुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले..
*************
दीवाली के दीप जले
स्व. रघुपति सहाय 'फिराक गोरखपुरी'
*
नयी हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले.
शाम सुहानी, रात सुहानी दीवाली के दीप जले..
धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आँचल धानी दीवाली के दीप जले..
नर्म लबों ने जुबान खोली फिर दुनिया से कहने को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले..
लाखों-लाखों दीपशिखाएँ देती हैं चुप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले..
लाखों आँखों में डूबा है खुशहाली का यह त्यौहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले..
कितनी मँहगी हैं सब चीज़ें, कितने सस्ते हैं आँसू.
उफ़ ये गरानी, ये अरजनी दीवाली के दीप जले..
मेरे अँधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले..
तझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आयी है पुरानी दीवाली के दीप जले..
जलते चरागों में सज उठती भूखे-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले..
देख रही हूँ सीने में मैं दाग़े जिगर के चराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले..
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब् का चेहरा है नूरानी दीवाली के दीप जले..
जुग-जुग से इस दु:खी देश में बन जाता है हर त्यौहार
रंजो-खुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले..
रात गये जब इक-इक करके जलते दिए दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे गम की निशानी दीवाली के दीप जले..
जलते दियों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले..
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने, हाय जवानी दीवाली के दीप जले..
लाखों चरागों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
तूने परायी पीर न जानी दीवाली के दीप जले..
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात.
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीप जले..
खुशहाली है शर्ते-ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले..
छेड़ के साजे-निशाते चिरागां आज फ़िराक सुनाता है
गम की कथा खुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले..
*************
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अभिनव सारस्वत प्रयोग: त्रिपदिक नवगीत : नेह नर्मदा तीर पर
अभिनव सारस्वत प्रयोग:
त्रिपदिक नवगीत :
नेह नर्मदा तीर पर
संजीव 'सलिल'
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
निष्क्रिय, मौन, हताश है.
या दिलजला निराश है?
जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
खींचे तुझको केंद्र पर,
रुक मत घेरा पार कर...
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.
शांति दग्ध उर को मिली.
मुरझाई कलिका खिली.
शिला दूरियों की हिली.
मन्दिर में गूँजा गजर,
निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
'हे माँ! सब पर दया कर...
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.
सिकता कण लख नाचते.
कलकल ध्वनि सुन झूमते.
पर्ण कथा नव बाँचते.
बम्बुलिया के स्वर मधुर,
पग मादल की थाप पर,
लिखें कथा नव थिरक कर...
*
त्रिपदिक नवगीत :
नेह नर्मदा तीर पर
संजीव 'सलिल'
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
निष्क्रिय, मौन, हताश है.
या दिलजला निराश है?
जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
खींचे तुझको केंद्र पर,
रुक मत घेरा पार कर...
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.
शांति दग्ध उर को मिली.
मुरझाई कलिका खिली.
शिला दूरियों की हिली.
मन्दिर में गूँजा गजर,
निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
'हे माँ! सब पर दया कर...
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.
सिकता कण लख नाचते.
कलकल ध्वनि सुन झूमते.
पर्ण कथा नव बाँचते.
बम्बुलिया के स्वर मधुर,
पग मादल की थाप पर,
लिखें कथा नव थिरक कर...
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