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रविवार, 23 अक्टूबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

गले मिले दोहा यमक-

संजीव 'सलिल'
*
ना-ना को हाँ-हाँ समझ, नाना करते खेल.
अश्रु बहाकर डालती, नातन नाक नकेल..
*
भाव-अभाव न सह सके, कविता घटता चाव.
भाव पहुँच में हो 'सलिल', होता तभी निभाव..
*
ताव दिखाकर डालते, क्यों प्रिय! आप प्रभाव?
ताव फटे पल में 'सलिल', सह नहिं सके तनाव..
*
मनभावन पाऊँ कुँवर, विनय कर रही कौर.
मुँह में पाऊँ स्वाद नव, जब संग खाऊँ कौर..
*
बुरा बौराकर रहे, बार-बार क्यों खीझ?
गौर हाथ न आ रहीं, मन व्याकुल है रीझ..
*
अनगढ़ से गढ़ता रहा, नवाकार करतार.
कुम्भकार कर जोड़ता, दैव! दया कर तार..
*
आते ही हरतालिका, करती हैं उपवास.
जाँच रहीं हर तालिका, होकर श्रमित उदास..
*
भाग एक के चार कर, तब हो रोटी पाव.
बिन बोले चुप चाव से, खाले रोटी-पाव..
*
हाव-भाव से ही 'सलिल', अभिनय हो सम्प्राण.
हाव-हाव मत कर लगे, जग=जीवन निष्प्राण..
*
माँग भरो की माँग सुन, रहे कुँवारे भाग.
पीछा करें कुमारियाँ, परख सकें अनुराग..
*
पर में भर ताकत उड़ो, पर का कर दो त्याग.
हिकमत पर कर भरोसा, पर से कह दो भाग..
*

विरासत: दीवाली के दीप जले स्व. रघुपति सहाय 'फिराक गोरखपुरी'

विरासत:

दीवाली के दीप जले

स्व. रघुपति सहाय 'फिराक गोरखपुरी'

*

नयी हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले.
शाम सुहानी, रात सुहानी दीवाली के दीप जले..

धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आँचल धानी दीवाली के दीप जले..

नर्म लबों ने जुबान खोली फिर दुनिया से कहने को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले..

लाखों-लाखों दीपशिखाएँ देती हैं चुप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले..

लाखों आँखों में डूबा है खुशहाली का यह त्यौहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले..

कितनी मँहगी हैं सब चीज़ें, कितने सस्ते हैं आँसू.
उफ़ ये गरानी, ये अरजनी दीवाली के दीप जले..

मेरे अँधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले..

तझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आयी है पुरानी दीवाली के दीप जले..

जलते चरागों में सज उठती भूखे-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले..

देख रही हूँ सीने में मैं दाग़े जिगर के चराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले..

जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब् का चेहरा है नूरानी दीवाली के दीप जले..

जुग-जुग से इस दु:खी देश में बन जाता है हर त्यौहार
रंजो-खुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले..

रात गये जब इक-इक करके जलते दिए दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे गम की निशानी दीवाली के दीप जले..

जलते दियों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले..

कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने, हाय जवानी दीवाली के दीप जले..

लाखों चरागों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
तूने परायी पीर न जानी दीवाली के दीप जले..

 लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात.
 ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीप जले..

खुशहाली है शर्ते-ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले..

छेड़ के साजे-निशाते चिरागां आज फ़िराक सुनाता है
गम की कथा खुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले..

*************

अभिनव सारस्वत प्रयोग: त्रिपदिक नवगीत : नेह नर्मदा तीर पर

अभिनव सारस्वत प्रयोग:




त्रिपदिक नवगीत :



नेह नर्मदा तीर पर



संजीव 'सलिल'



*

नेह नर्मदा तीर पर,

अवगाहन कर धीर धर,

पल-पल उठ-गिरती लहर...

*

कौन उदासी-विरागी,

विकल किनारे पर खड़ा?

किसका पथ चुप जोहता?



निष्क्रिय, मौन, हताश है.

या दिलजला निराश है?

जलती आग पलाश है.



जब पीड़ा बनती भँवर,

खींचे तुझको केंद्र पर,

रुक मत घेरा पार कर...

*

नेह नर्मदा तीर पर,

अवगाहन का धीर धर,

पल-पल उठ-गिरती लहर...

*

सुन पंछी का मशविरा,

मेघदूत जाता फिरा-

'सलिल'-धार बनकर गिरा.



शांति दग्ध उर को मिली.

मुरझाई कलिका खिली.

शिला दूरियों की हिली.



मन्दिर में गूँजा गजर,

निष्ठां के सम्मिलित स्वर,

'हे माँ! सब पर दया कर...

*

नेह नर्मदा तीर पर,

अवगाहन का धीर धर,

पल-पल उठ-गिरती लहर...

*

पग आये पौधे लिये,

ज्यों नव आशा के दिये.

नर्तित थे हुलसित हिये.



सिकता कण लख नाचते.

कलकल ध्वनि सुन झूमते.

पर्ण कथा नव बाँचते.



बम्बुलिया के स्वर मधुर,

पग मादल की थाप पर,

लिखें कथा नव थिरक कर...

*

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

दोहा सलिला: एक हुए दोहा यमक - संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
एक हुए दोहा यमक-
संजीव 'सलिल'
*
दाना दाना चाहता, सिर्फ जरूरत-योग्य.
नादां दाना चाहता, प्रचुर नहीं जो भोग्य..
*
दाने-दाने पर लिखा, जबसे उसने नाम.
खाए या फेरे 'सलिल', सोचे उमर तमाम..
*
खोटे खोटे या नहीं. कहें देखकर कृत्य.
खरे खरे हैं या नहीं, कहे सुकृत्य-कुकृत्य..
*
देखा सु-नार सुनार को, अलंकार के संग.
उतर गया पतिदेव के, चेहरे का क्यों रंग??
*
जब साँसों का तार था, तब न बजाय साज.
गया गया वह तार दे, निज पुरखों को आज.
*
मुश्किल में हूँ दैव मैं, आकर तनिक निवार.
खटमल काटें रातभर, फिर जा छिपें निवार..
*
बिना नाव-पतवार के, कैसे उतरूँ पार?
उन्मत नारी सी नदी, देती कष्ट अपार..
*
खुदा नहीं खोदा गढ़ा, और गिर गये आप.
खुदा-खुदा का कर रहे, अब क्यों नाहक जाप..
*
बिन पेंदी लोटा 'सलिल', लोटा करता खूब.
तनिक गया मँझधार में, जाता पल में डूब..
*
कर वट पूजन हैं बसे, उसमें देव अनंत.
करवट लें पाकर सघन, छाँव देव नर संत..
*
झटपट-चटपट पट उठा, देख चित्र-पट खेल.
चित-पट पट-चित को 'सलिल', हँस-मुस्काकर झेल..
**********

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

नवगीत: दिशाहीन बंजारे हैं.... संजीव 'सलिल'


*
कौन, किसे, कैसे समझाये?
सब निज मन से हारे हैं.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह
खुद को तीसमारखां पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद गुब्बारे हैं...
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनका प्रयोगकर
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों-
नाहक बजते इकतारे हैं...
*
पान, तमाखू, ज़र्दा, गुटखा
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर लेकर
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस या
दिशाहीन बंजारे हैं ...
*********

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com


बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

दोहा सलिला: एक हुए दोहा-यमक- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

एक हुए दोहा-यमक-

संजीव 'सलिल'
*
हरि! जन की आवाज़ सुन, हरि-जन बचा न एक.
काबिल को अवसर मिले, हरिजन रखे विवेक..
*
'त्रास न दें'- वर दे दिया, मन हो गया प्रसन्न.
फिर मन भर संत्रास दे, तत्क्षण किया विपन्न..
*
घटा बरस कर थम गयी, घटा वृष्टि का जोर.
घटा अनघटा कुछ नहीं, सलिल-धार मुँहजोर..
*
जब तक तू कमजोर है, तनिक लगा कम जोर.
शह देकर जो मात दे, कहलाये शहजोर..
*
जान बनी अनजान क्यों?, जान-बूझ कर आज.
बनी जान पर जान की, बिगड़े बनते काज.
*
बँधी थान पर भैंसिया, करे जुगाली मस्त.
थान नापते सेठ जी, तुंदियल होकर त्रस्त..
*
बीन बजाकर बीन ले, रुपये किस्मत बाँच.
अरे सपेरे! मौन मत, रह कह दे कुछ साँच..
*
दिखा हाथ की सफाई, बाजीगर हर्षाय.
दिखा हाथ की सफाई, ठग सबको कलपाय..
*
करें धाम जा पुण्य वे, करें धाम आ पाप.
ऐसे जीवन मूल्य को, क्या कहियेगा आप??
*
धनी न आया धना का, चिंतित हुआ ललाट.
धनी गिन रहा धन अमित, कर-कर बंद कपाट..
*
तितली-कलियों में हुआ, जब स्नेहिल सम्बन्ध.
समलैंगिकता ने किया, तब सुदृढ़ अनुबंध..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

एक रचना: दस दिशा में चलें छंद-सिक्के खरे.. --- संजीव 'सलिल'

एक रचना:
दस दिशा में चलें छंद-सिक्के खरे..
--- संजीव 'सलिल'
*
नील नभ नित धरा पर बिखेरे सतत, पूर्णिमा रात में शुभ धवल चाँदनी.
अनगिनत रश्मियाँ बन कलम रच रहीं, देख इंगित नचे काव्य की कामिनी..

चुप निशानाथ राकेश तारापति, धड़कनों की तरह रश्मियों में बसा.
भाव, रस, बिम्ब, लय, कथ्य पंचामृतों का किरण-पुंज ले कवि हृदय है हँसा..

नव चमक, नव दमक देख दुनिया कहे, नीरजा-छवि अनूठी दिखा आरसी.
बिम्ब बिम्बित सलिल-धार में हँस रहा, दीप्ति -रेखा अचल शुभ महीपाल की..

श्री, कमल, शुक्ल सँग अंजुरी में सुमन, शार्दूला विजय मानोशी ने लिये.
घूँट संतोष के पी खलिश मौन हैं, साथ सज्जन के लाये हैं आतिश दिये..

शब्द आराधना पंथ पर भुज भरे, कंठ मिलते रहे हैं अलंकार नत.
गूँजती है सृजन की अनूपा ध्वनि, सुन प्रतापी का होता है जयकार शत..

अक्षरा दीप की मालिका शाश्वती, शक्ति श्री शारदा की त्रिवेणी बने.
साथ तम के समर घोर कर भोर में, उत्सवी शामियाना उषा का तने..

चहचहा-गुनगुना नर्मदा नेह की, नाद कलकल करे तीर हों फिर हरे.
खोटे सिक्के हटें काव्य बाज़ार से, दस दिशा में चलें छंद-सिक्के खरे..

वर्मदा शर्मदा कर्मदा धर्मदा, काव्य कह लेखनी धन्यता पा सके.
श्याम घन में झलक देख घनश्याम की, रासलीला-कथा साधिका गा सके..

******

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

सामयिक दोहा मुक्तिका: संदेहित किरदार..... संजीव 'सलिल

सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

*************

रोचक चर्चा : A good one.... कौन परिंदा?, कौन परिंदी??... -विजय कौशल, संजीव 'सलिल'

रोचक चर्चा : A good one....
कौन परिंदा?, कौन परिंदी??...
-विजय कौशल, संजीव 'सलिल'
*

For those who do not know how to tell the sex of a bird here is the easy way 
 


 *
कौन परिंदा?, कौन परिंदी? मेरे मन में उठा सवाल.
किससे पूछूं?, कौन बताये? सबने दिया प्रश्न यह टाल..
मदद करी तस्वीर ने मेरी,बिन बूझे हल हुई पहेली.
देख आप भी जान जाइये, कौन सहेला?, कौन सहेली??..
 करी कैमरे ने हल मुश्किल, देता चित्र जवाब.
कौन परिंदा?, कौन परिंदी??, लेवें जान जनाब..
*





अनथक श्रम बिन रुके नसीहत, जो दे वही परिन्दी.
मुँह फेरे सुन रहा अचाहे, अंगरेजी या हिन्दी..
बेबस हुआ परिंदा उसकी पीर नहीं अनजानी,.
'सलिल' ज़माने से घर-घर की यह ही रही कहानी..
 *
HOW TO TELL THE SEX OF A BIRD

This Is AMAZING!!!

Until now I never fully understood how to tell The difference Between Male and Female Birds. I always thought it had to be determined surgically. Until Now..


Below are Two Birds. Study them closely....See If You Can Spot Which of The Two Is The Female.
It can be done.
Even by one with limited bird watching skills.!
Send this to all of the men you know, who could do with a good laugh and to all women who have a great sense of humor..
*** 
नवगीत:


कम लिखता हूँ...


--संजीव 'सलिल'
*
क्या?, कैसा है??
क्या बतलाऊँ??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत में
केवल गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही अमंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...

***************

मुक्तिका : भजे लछमी मनचली को.. --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :
भजे लछमी मनचली को..
संजीव 'सलिल'
*
चाहते हैं सब लला, कोई न चाहे क्यों लली को?
नमक खाते भूलते, रख याद मिसरी की डली को..

गम न कर गर दोस्त कोई नहीं तेरा बन सका तो.
चाह में नेकी नहीं, तू बाँह में पाये छली को..

कौन चाहे शाक-भाजी-फल  खिलाना दावतों में

चाहते मदिरा पिलाना, खिलाना मछली तली को..

ज़माने में अब नहीं है कद्र फनकारों की बाकी.
बुलाता बिग बोंस घर में चोर डाकू औ' खली को..

राजमार्गों पर हुए गड्ढे बहुत, गुम सड़क खोजो.
चाहते हैं कदम अब पगडंडियों को या गली को..

वंदना या प्रार्थना के स्वर ज़माने को न भाते.
ऊगता सूरज न देखें, सराहें संध्या ढली को..

'सलिल' सीता को छला रावण ने भी, श्री राम ने भी.
शारदा तज अवध-लंका भजे लछमी मनचली को..

*****
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 9 अक्टूबर 2011

लेख : भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र --आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख :
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
संजीव 'सलिल'
*

वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम्      - समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश

वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव 
चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की 
कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च 
तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों 
को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये ऐसा 
घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो 
बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश 
समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर 
करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-
पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, 
ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की 
दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर 
निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किये जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) 
तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण-
पूर्व (आग्नेय) से प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश 
अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है। 
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची, मद्य, मांस 
आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो। 
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है। 
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो। 
* वायव्य दिशा में अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि हो। इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक सम्भावना होती है। 
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुम्बक की 
तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक 
दिशा में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण 
प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी। फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते हैं। सोते 
समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक 
प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य 
से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना
मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।
* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले का मुँह पूर्व
या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की ओर रहे। बहुमंजिला 
भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या 
अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा 
आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा 
एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में 
रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. दीवारों का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर 
लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों। 
सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो। 
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या 
नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर 
तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो।
* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि दीवारें अधिक मोटी हों। 
तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरनें तहखाने तक 
पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है।
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद 
संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन - 
धन्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
*
-- सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

हरिगीतिका: -- संजीव 'सलिल'

छंद सलिला:
हरिगीतिका:
-- संजीव 'सलिल'
*
मानव सफल हो निकष पर पुरुषार्थ चारों मानकर.
मन पर विजय पा तन सफल, सच देवता पहचान कर..
सौरभमयी हर श्वास हो, हर आस को अनुमान कर.
भगवान को भी ले बुला भू, पर 'सलिल' इंसान कर..

अष्टांग की कर साधना, हो अजित निज उत्थान कर.
थोथे अहम् का वहम कर ले, दूर किंचित ध्यान कर..
जो शून्य है वह पूर्ण है, इसका तनिक अनुमान कर.
भटकाव हमने खुद वरा है, जान को अनजान कर..
*
हलका सदा नर ही रहा नारी सदा भारी रही.
यह काष्ट है सूखा बिचारा, वह निरी आरी रही..
इसको लँगोटी ही मिली उसकी सदा सारी रही.
माली बना रक्षा करे वह, महकती क्यारी रही..

माता बहिन बेटी बहू जो, भी रही न्यारी रही.
घर की यही शोभा-प्रतिष्ठा, जान से प्यारी रही..
यह हार जाता जीतकर वह, जीतकर हारी रही.
यह मात्र स्वागत गीत वह, ज्योनार की गारी रही..
*
हमने नियति की हर कसौटी, विहँस कर स्वीकार की.
अब पग न डगमग हो रुकेंगे, ली चुनौती खार की.
अनुरोध रहिये साथ चिंता, जीत की ना हार की..
हर पर्व पर है गर्व हमको, गूँज श्रम जयकार की..
*

Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 8 अक्टूबर 2011

हरिगीतिका: --संजीव 'सलिल'

हरिगीतिका:
--संजीव 'सलिल'
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*

Acharya Sanjiv Salil

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एक रचना:
दस दिशा में चलें छंद-सिक्के खरे..
--- संजीव 'सलिल'
*
नील नभ नित धरा पर बिखेरे सतत, पूर्णिमा रात में शुभ धवल चाँदनी.
अनगिनत रश्मियाँ बन कलम रच रहीं, देख इंगित नचे काव्य की कामिनी..

चुप निशानाथ राकेश तारापति, धड़कनों की तरह रश्मियों में बसा.
भाव, रस, बिम्ब, लय, कथ्य पंचामृतों का किरण-पुंज ले कवि हृदय है हँसा..

नव चमक, नव दमक देख दुनिया कहे, नीरजा-छवि अनूठी दिखा आरसी.
बिम्ब बिम्बित सलिल-धार में हँस रहा, दीप्ति -रेखा अचल शुभ महीपाल की..

श्री, कमल, शुक्ल सँग अंजुरी में सुमन, शार्दूला विजय मानोशी ने लिये.
घूँट संतोष के पी खलिश मौन हैं, साथ सज्जन के लाये हैं आतिश दिये..

शब्द आराधना पंथ पर भुज भरे, कंठ मिलते रहे हैं अलंकार नत.
गूँजती है सृजन की अनूपा ध्वनि, सुन प्रतापी का होता है जयकार शत..

अक्षरा दीप की मालिका शाश्वती, शक्ति श्री शारदा की त्रिवेणी बने.
साथ तम के समर घोर कर भोर में, उत्सवी शामियाना उषा का तने..

चहचहा-गुनगुना नर्मदा नेह की, नाद कलकल करे तीर हों फिर हरे.
खोटे सिक्के हटें काव्य बाज़ार से, दस दिशा में चलें छंद-सिक्के खरे..

वर्मदा शर्मदा कर्मदा धर्मदा, काव्य कह लेखनी धन्यता पा सके.
श्याम घन में झलक देख घनश्याम की, रासलीला-कथा साधिका गा सके..

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Acharya Sanjiv Salil

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सावधान:
खाद्य पदार्थों में सूअर की चर्बी 
"Lays चिप्स के पैकेट में जोE631 लिखा है वह दर असल सूअरकी चर्बी है। चाहो तो गूगल पर देख लो।''
 
गब्बर की यही चीख भरी आवाज़ मेरे ज़हन में आई जब आज दोपहर आया एक एस एम एस पढ़ा मैंने, जो मेरे एक सहयोगी द्वारा भेजा गया था। SMS का संदेश था कि "Lays चिप्स के पैकेट में जो E631 लिखा है वह दर असल सूअर की चर्बी है। चाहो तो गूगल पर देख लो। " 
 कमाल है ! शायद ही कोई भारतीयपरिवार चिप्स आदि से बच पायाहोगा!! मुझे तत्काल कुछ वर्षों पहले का वह समय या...द आने लगा जब MSG का पता चलने पर मैं हर स्टोर पर किसी खाद्य पदार्थ के पैकेट पर नज़रें गड़ा कर यह देखने लगाजाता था कि इसमे कहीं MSG तो नहीं। यह देख वहां का स्टाफ व्यंग्य भरी नज़रें लिए बताता था कि ये सस्ता है सर, ज़्यादा महंगा नहीं है! मै जब कहता कि कीमत नहीं देख रहा हूँ तो उनकी जिज्ञासा बढ़ती तब बताता कि यह क्या होता है। आजकल तो बड़े बड़े अक्षरों में खास तौर पर लिखा रहता है कि No MSG
ऐसा ही कुछ वाकया ब्रुक बोंड की चाय-पत्ती के साथ हुआ था जिस पर पोस्ट लिखी थी मैंने कि किस तरह इतनी बड़ी कम्पनी लोगों को सरासर बेवकूफ बना रही है। बात हो रही E631 की।मैं दन्न से बाज़ार गया और Lays के पैकेट देखे कुछ नहीं दिखा। लेकिन मुझे याद आने लगा था कि इस तरह के कोड देखें हैं मैंने कुछ दिन पहले। शहर के दूसरे कोने वाल़े एक सुपर बाज़ार में भीकुछ नहीं दिखा तो स्टोर वालों से इस बारे में बात करने पर ज्ञात हुआ कि कुछ सप्ताह पहले आयातित चिप्स और बिस्किट लाए गए थे जो अब ख़त्म हो चुके। तब तक एक जिज्ञासु कर्मचारी कहीं से दो ऐसे पैकेट ले आया जिन्हेंचूहों द्वारा कुतरे जाने पर अलग रख दिया गया था। उन में इस तरह के कोड थे जिस में वाकई 631 लिखा हुआ है

 अब मैंने गूगल की शरण ली तो पता चला कि कुछ अरसे पहले यह हंगामा पाकिस्तान में हुआ था जिस पर ढेरों आरोप और सफाइयां दस्तावेजों सहित मौजूद हैं । हैरत की बात यह दिखी कि इस पदार्थ को कई देशों में प्रतिबंधित किया गया है किन्तु अपने देश में धड़ल्ले से उपयोग हो रहा। मूल तौर पर यह पदार्थ सूअर और मछली की चर्बी से प्राप्त होता है और ज्यादातर नूडल्स,चिप्स में स्वाद बढाने के लिए किया जाता है। रसायन शास्त्र में इसे Disodium Inosinate कहा जाता है जिसकासूत्र है C10H11N4Na2O8P1

होता यह है कि अधिकतर (ठंडे) पश्चिमी देशों में सूअर का मांस बहुत पसंद किया जाता है। वहाँ तो बाकायदा इसके लिए हजारों की तादाद में सूअर फार्म हैं। सूअर ही ऐसा प्राणी है जिसमे सभी जानवरों से अधिक चर्बी होती है। दिक्कत यह है कि चर्बी से बचते हैं लोग। तो फिर इस बेकार चर्बी का क्या किया जाए? पहले तो इसे जला दिया जाता था लेकिन फिर दिमाग दौड़ा कर इसका उपयोग साबुन वगैरह में किया गया और यह हिट रहा। फिर तो इसका व्यापारिक जाल बन गया और तरहतरह के उपयोग होने लगे। नाम दिया गया 'पिग फैट' 

1857 का वर्ष तो याद होगा आपको? उस समयकाल में बंदूकों की गोलियां पश्चिमी देशों से भारतीय उपमहाद्वीप में समुद्री राह से भेजी जाती थीं और उस महीनों लम्बे सफ़रमें समुद्री आबोहवा से गोलियां खराब हो जाती थीं। तब उन पर सूअर चर्बी की परत चढ़ा कर भेजा जाने लगा। लेकिन गोलियां भरने के पहले उस परत को दांतों से काट कर अलग किया जाना होता था। यह तथ्य सामने आते ही जो क्रोध फैला उसकी परिणिति 1857 की क्रांति में हुई बताई जाती है। इससे परेशान हो अब इसे नाम दिया गया 'ऐनिमल फैट' ! मुस्लिम देशों में इसे गाय या भेड़ की चर्बी कह प्रचारित किया गया लेकिन इसके हलाल न होने से असंतोष थमा नहीं और इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। 

बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नींद उड़ गई। आखिर उनका 75 प्रतिशत कमाई मारी जा रही थी इन बातों से। हार कर एक राह निकाली गई। अब गुप्त संकेतो वाली भाषा का उपयोग करने की सोची गई जिसे केवल संबंधित विभाग ही जानें कि यह क्या है! आम उपभोक्ता अनजान रह सब हजम करता रहे। तब जनम हुआ E कोड का तब से यह E631 पदार्थ कई चीजों में उपयोग किया जाने लगा जिसमे मुख्य हैं टूथपेस्ट, शेविंग क्रीम, च्युंग गम, चॉकलेट, मिठाई, बिस्कुट, कोर्न फ्लैक्स, टॉफी, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ आदि। सूची में और भी नाम हो सकते हैं। हाँ, कुछ मल्टी- विटामिन की गोलियों में भी यह पदार्थ होता है। 

शिशुओं, किशोरों सहित अस्थमा और गठिया के रोगियों को इस E631 पदार्थ मिश्रित सामग्री को उपयोग नहीं करने की सलाह है लेकिन कम्पनियाँ कहती हैं कि इसकी कम मात्रा होने से कुछ नहीं होता। पिछले वर्ष खुशदीप सहगल जी ने एक पोस्ट में बताया था कि कुरकुरे में प्लास्टिक होनेकी खबर है चाहें तो एक दो टुकड़ों को जला कर देख लें। मैंने वैसा किया और पिघलते टपकते कुरकुरे को देख हैरान हो गया। अब लग रहा कि कहीं वह चर्बी का प्रभाव तो नहीं था!? बताया तो यही जा रहा है कि जहां भी किसी पदार्थ पर लिखा दिखे E100, E110, E120, E 140, E141, E153, E210, E213, E214, E216, E234, E252,E270, E280, E325, E326, E327, E334, E335, E336, E337, E422, E430, E431, E432, E433, E434, E435, E436, E440, E470, E471, E472, E473, E474, E475,E476, E477, E478, E481, E482, E483, E491, E492, E493, E494, E495, E542,E570, E572, E631, E635, E904 समझ लीजिए कि उसमे सूअर की चर्बी है। और कुछ जानना हो कि किस कोड वाल़े पदार्थ का उपयोग करने से किसे बचना चाहिए तो यह सूची देख लें || ............... ............... ....

" श्री बी.एस. पाबला जी " के ब्लॉग से साभार
प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना "
(समाज सेवक)
(आल इंडिया नेशनल क्राएम रिपोर्टर

नवगीत: उत्सव का मौसम -- संजीव 'सलिल'

नवगीत:
उत्सव का मौसम
संजीव 'सलिल'
*
उत्सव का मौसम
बिन आये ही सटका है...
*
मुर्गे की टेर सुन
आँख मूँद सो रहे.
उषा की रूप छवि
बिन देखे खो रहे.
ब्रेड बटर बिस्कुट
मन उन्मन ने
गटका है.....
*
नाक बहा, टाई बाँध
अंगरेजी बोलेंगे.
अब कान्हा गोकुल में
नाहक ना डोलेंगे..
लोरी को राइम ने
औंधे मुँह पटका है...
*
निष्ठा ने मेहनत से
डाइवोर्स चाहा है.
पद-मद ने रिश्वत का
टैक्स फिर उगाहा है..
मलिन बिम्ब देख-देख
मन-दर्पण चटका है...
*
देह को दिखाना ही
प्रगति परिचायक है.
राजनीति कहे साध्य
केवल खलनायक है.
पगडंडी भूल
राजमार्ग राह भटका है...
*
मँहगाई आयी
दीवाली दीवाला है.
नेता है, अफसर है
पग-पग घोटाला है. 
अँगने  को खिड़की
दरवाजे से खटका है...
*

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

माननीय रूप चन्द्र जी शास्त्री को समर्पित:                                           

रूप चन्द्र जी शास्त्री, कविवर विश्व प्रसिद्ध.
रचनाकारों के शिखर, काव्य कला है सिद्ध..
काव्य कला है सिद्ध, गीत दोहा रचते हैं.
ऐसे लें मन जीत, नमन कविगण करते हैं.
धन्य लेखनी यश गाती, कविवर अनूप के.
दर्शन होते कविता में, अपरूप रूप के.. 
*
शारद की अनुपम कृपा, हुई आप पर तात.                                                            
कविता सलिला बहाकर, आप हुए प्रख्यात.
आप हुए प्रख्यात, रच रहे युग की गाथा.
कविता पढ़ भावी पीढ़ी हो उन्नत-माथा..
नमन 'सलिल' का लें अग्रज, आशीष दीजिये.                                            
मुझ जैसे अनुजों पर, हरदम कृपा कीजिये..
*
बचपन हँस-गाता रहे, करें कामना मीत.
फूलों सा खिलता रहे, जैसे पुष्प पुनीत..
जैसे पुष्प पुनीत, शारदा कृपा पा सके.
भारत माँ की जय, बोले नभ छुए-छा सके..
शास्त्री जी का आशिष पा, हो कंकर कंचन.
'सलिल' शीश पर हस्त, रहे जी लूँ फिर बचपन..
*
Acharya Sanjiv Salil

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डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
टनकपुर रोड, खटीमा,
ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड, भारत - 262308.
Phone/Fax: 05943-250207, 
Mobiles: 09368499921, 09997996437
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बाल गीत: सोन चिरैया ---संजीव वर्मा 'सलिल'

बाल गीत: 

सोन चिरैया ---

संजीव वर्मा 'सलिल'

*

सोनचिरैया फुर-फुर-फुर,      
उड़ती फिरती इधर-उधर.      
थकती नहीं, नहीं रूकती.     
रहे भागती दिन-दिन भर.    

रोज सवेरे उड़ जाती.         
दाने चुनकर ले आती.        
गर्मी-वर्षा-ठण्ड सहे,          
लेकिन हरदम मुस्काती.    

बच्चों के सँग गाती है,      
तनिक नहीं पछताती है.    
तिनका-तिनका जोड़ रही,  
घर को स्वर्ग बनाती है.     

बबलू भाग रहा पीछे,       
पकडूँ  जो आए नीचे.       
घात लगाये है बिल्ली,      
सजग मगर आँखें मीचे.   

सोन चिरैया खेल रही.
धूप-छाँव हँस झेल रही.
पार करे उड़कर नदिया,
नाव न लेकिन ठेल रही.

डाल-डाल पर झूल रही,
मन ही मन में फूल रही.
लड़ती नहीं किसी से यह,
खूब खेलती धूल रही. 

गाना गाती है अक्सर,
जब भी पाती है अवसर.
'सलिल'-धार में नहा रही,
सोनचिरैया फुर-फुर-फुर. 

* * * * * * * * * * * * * *                                                              
= यह बालगीत सामान्य से अधिक लम्बा है. ४-४ पंक्तियों के ७ पद हैं. हर पंक्ति में १४ मात्राएँ हैं. हर पद में पहली, दूसरी तथा चौथी पंक्ति की तुक मिल रही है.
चिप्पियाँ / labels : सोन चिरैया, सोहन चिड़िया, तिलोर, हुकना, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', great indian bustard, son chiraiya, sohan chidiya, hukna, tilor, indian birds, acharya sanjiv 'salil' 

छंद सलिला : १ रोला लिखना सीखिए- आचार्य संजीव 'सलिल'

छंद सलिला : १
रोला लिखना सीखिए- 
 
आचार्य संजीव 'सलिल'
vishv वाणी         हिन्दी का गीति काव्य संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत दंगल तथा शौरसेनी की विरासत के साथ-साथ अरबी-फारसी का संग मिलने पर लश्करी-रेख्ता-उर्दू के सौख्य, विविध भारतीय भाषाओँ-बोलिओं कन्नौजी, ब्रज, टकसाली, आदि के साहचर्य से संपन्न-समृद्ध हुआ है। हिन्दीमें श्रेष्ठ को आत्मसात करने की प्रवृत्ति ने अंग्रेज़ी के सोनेट जैसे छंद के साथ-साथ जापानी के हाइकु, स्नैर्यु आदि को भी पचा लिया है। वर्तमान में जितना वैविध्य हिन्दी गीति काव्य में है ,विश्व की अन्य किसी भाषा में नहीं है। आवश्यकता इस विरासत को आत्मसात करने की क्षमता और सृजन की सामर्थ्य को सतत बढ़ाने की है। 
इस                       इस लेख माला में हर सप्ताह हम किसी एक छंद का परिचय इस उद्देश्य से कराएँगे की रचनाकार उसे समझ कर उस छंद में कविकर्म प्रारम्भ के कीर्ति अर्जित करें। यह लेखमाला समर्पित है दिव्य नर्मदा अभियान जबलपुर के दिवंगत स्तंभों महामंडलेश्वर स्वामी रामचंद्रदास शास्त्री, धर्मप्राण कवयित्री श्रीमती शान्तिदेवी वर्मा, श्री राजबहादुरवर्मा, श्री रामेन्द्र तिवारी  तथा श्रीमती रजनी शर्मा को। ---संपादक 
रोला को लें जान
इस लेखमाला का श्रीगणेश रोला छंद से किया जा रहा है। रोला एक चतुष्पदीय अर्थात चार पदों (पंक्तियों ) का छंद है। हर पद में दो चरण होते हैं। रोला के ४ पदों तथा ८ चरणों में ११ - १३ पर यति होती है. यह दोहा की १३ - ११ पर यति के पूरी तरह विपरीत होती है ।हर पड़ में सम चरण के अंत में गुरु ( दीर्घ / बड़ी) मात्रा होती है ।११-१३ की यति सोरठा में भी होती है। सोरठा दो पदीय छंद है जबकि रोला चार पदीय है। ऐसा भी कह सकते हैं कि दो सोरठा मिलकर रोला बनता है। रोला के विषम चरण (१-३) के अंत में तुक मिलनी आवश्यक है.

आइये, रोला की कुछ भंगिमाएँ देखें- 
सब होवें संपन्न, सुमन से हँसें-हँसाये।
दुखमय आहें छोड़, मुदित रह रस बरसायें॥
भारत बने महान, युगों तक सब यश गायें।
अनुशासन में बँधे रहें, कर्त्तव्य निभायें॥ 
**************
भाव छोड़ कर, दाम, अधिक जब लेते पाया।
शासन-नियम-त्रिशूल झूल उसके सर आया॥
बहार आया माल, सेठ नि जो था चांपा।
बंद जेल में हुए, दवा बिन मिटा मुटापा॥ --- ओमप्रकाश बरसैंया 'ओमकार' 
*****************
नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला- रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल-तारे मंडल हैं।
बंदी जन खग-वृन्द शेष फन सिहासन है॥ 
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रोला को लें जान, छंद यह- छंद-प्रभाकर।
करिए हँसकर गान, छंद दोहा- गुण-आगर॥
करें आरती काव्य-देवता की- हिल-मिलकर।
माँ सरस्वती हँसें, सीखिए छंद हुलसकर॥ ---'सलिल'

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दोहा के चरणों का क्रम बदल दें तो सोरठा हो जाता है:
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डार.

जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवार..        -दोहा.

लघु न दीजिये डार, रहिमन देख बड़ेन को.
कहा करे तरवार, जहाँ काम आवे सुई..        -रोला.

पाठक रोला लिखकर भेजें तो उन्हें यथावश्यक संशोधनों के साथ प्रकाशित किया जाएगा। 
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