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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

सोनिया गाँधी का सच

विशेष आलेख:

सोनिया गाँधी का सच

कांग्रेस पार्टी और खुद सोनिया गांधी अपनी पृष्ठभूमि के बारे में जो बताते हैं , वो तीन झूठों पर टिका हुआ है। पहला ये है कि उनका असली नाम अंतोनिया है न की सोनिया। यह बात इटली के राजदूत ने नई दिल्ली में 27 अप्रैल 1973 को गृह मंत्रालय को लिखे एक पत्र में जिसे कभी सार्वजनिक नहीं किया जाहिर की थी। इसके अनुसार सोनिया का असली नाम अंतोनिया ही उनके जन्म प्रमाणपत्र के अनुसार सही है। सोनिया ने इसी तरह अपने पिता का नाम स्टेफनो मैनो बताया था। स्टेफनो नाजी आर्मी के वालिंटियर सदस्य तथा दूसरे विश्व युद्ध के समय रूस में युद्ध बंदी थे। कई इतालवी फासिस्टों ने ऐसा ही किया था। सोनिया दरअसल इतालवी नहीं बल्कि रूसी नाम है।


सोनिया के पिता रूसी जेलों में दो साल बिताने के बाद रूस समर्थक हो गये थे। अमेरिकी सेनाओं ने इटली में सभी फासिस्टों की संपत्ति को तहस-नहस कर दिया था। सोनिया ओरबासानो में पैदा नहीं हुईं , जैसा कि सांसद  बनने पर उनके द्वारा प्रस्तुत बायोडाटा में लिखा गया है। उनका जन्म लुसियाना में हुआ था । वह  सचयह इसलिए छिपाने की कोशिश करती हैं ताकि उनके पिता के नाजी और मुसोलिनी संपर्कों का पता न चले साथ ही  उनके परिवार के संपर्क इटली के भूमिगत हो चुके नाजी फासिस्टों से द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने तक बने रहने का सच सबको ज्ञात न हो जाए लुसियाना इटली-स्विस सीमा पर नाजी फासिस्ट नेटवर्क का मुख्यालय था । 
तीसरा सोनिया गांधी ने हाईस्कूल से आगे की पढ़ाई कभी की ही नहीं, लेकिन उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान रायबरेली में चुनाव लड़ने के दौरान रिटर्निंग ऑफिसर के सम्मुख अपने चुनाव नामांकन पत्र में उन्होंने झूठा हलफनामा दायर किया कि वे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में डिप्लोमाधारी हैं। इससे पहले 1989 में लोकसभा में अपने बायोग्राफिकल में भी उन्होंने अपने हस्ताक्षर के साथ यही बात लोकसभा के सचिवालय के सम्मुख पेश की थी। बाद में लोकसभा स्पीकर को लिखे पत्र में उन्होंने इसे मानते हुए इसे टाइपिंग की गलती बताया। 
 
सत्य यह है कि श्रीमती सोनिया गांधी ने कभी किसी कालेज में पढाई की ही नहीं। वह पढ़ाई के लिए गिवानो के कैथोलिक नन्स द्वारा संचालित स्कूल मारिया आसीलेट्रिस गईं, जो उनके कस्बे ओरबासानों से 15 किलोमीटर दूर था। उन दिनों गरीबी के चलते इटली की लड़कियां इन मिशनरीज में जाती थीं और फिर किशोरवय में ब्रिटेन ताकि वहां वो कोई छोटी-मोटी नौकरी कर सकें। मैनो उन दिनों गरीब थे। सोनिया के पिता और माता की हैसियत बेहद मामूली थी और अब वो दो बिलियन पाउंड की अथाह संपत्ति के मालिक हैं। इस तरह सोनिया ने लोकसभा और हलफनामे के जरिए गलत जानकारी देकर आपराधिक काम किया है, जिसके तहत न केवल उन पर अपराध का मुकदमा चलाया जा सकता है बल्कि वो सांसद की सदस्यता से भी वंचित की जा सकती हैं। यह सुप्रीम कोर्ट की उस फैसले की भावना का भी उल्लंघन है कि सभी उम्मीदवारों को हलफनामे के जरिए अपनी सही पढ़ाई-लिखाई से संबंधित योग्यता को पेश करना जरूरी है। 
सोनिया गांधी ने इन तीन झूठों से सच छिपाने की कोशिश की। इसके पीछे उनके उद्देश्य कुछ अलग थे। सोनिया गांधी ने इतनी इंग्लिश सीख ली थी कि वो कैम्ब्रिज टाउन के यूनिवर्सिटी रेस्टोरेंट में वैट्रेस (महिला बैरा) बन सकीं। वे विद्यार्थी राजीव गांधी से पहली बार 1965 में तब मिली जब राजीव् रेस्टोरेंट में आये। राजीव लंबे समय तक अपनी पढ़ाई के साथ तालमेल नहीं बिठा पाये इसलिए उन्हें 1966 में लंदन भेज दिया गया , जहां उनका दाखिला इंपीरियल कालेज ऑफ इंजीनियरिंग में हुआ। उस समय सोनिया भी लंदन में थीं। उन्हें लाहौर के एक व्यवसायी सलमान तासिर के आउटफिट में नौकरी मिल गई। तासीर की एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट कंपनी का मुख्यालय दुबई में था लेकिन वो अपना ज्यादा समय लंदन में बिताते थे। आईएसआई से जुडे होने के लिए उनकी ये प्रोफाइल जरूरी थी। 
राजीव माँ इंदिरा गांधी द्वारा भारत से भेजे गये पैसों से कहीं ज्यादा पैसे खर्च देते थे। सोनिया अपनी नौकरी से इतना पैसा कमा लेती थीं कि राजीव को लोन उधार दे सकें। इंदिरा ने राजीव की इस आदत पर 1965 में गुस्सा जाहिर किया था श्री पी. एन. लेखी द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट में पेश किये गये राजीव के छोटे भाई संजय को लिखे गये पत्र में साफ तौर पर संकेत दिया गया है कि वह वित्तीय तौर पर सोनिया के काफी कर्जदार हो चुके थे और उन्होंने संजय से  जो उन दिनों खुद ब्रिटेन में थे और  खासा पैसा उड़ा कर कर्ज में डूबे हुए थे से मदद हेतु थे अनुरोध किया था। 
उन दिनों सोनिया केवल राजीव गांधी ही नहीं, बल्कि माधवराव सिंधिया  और स्टीगलर नाम का एक जर्मन युवक भी सोनिया के अच्छे मित्रों में थे। माधवराव की सोनिया से दोस्ती राजीव की सोनिया से शादी के बाद भी जारी रही। 1972 में  एकरात दो बजे माधवराव आई.आई.टी. दिल्ली के मुख्य गेट के पास एक एक्सीडेंट के शिकार हुए और उन्हें बुरी तरह चोटें आईं उसी समय आई.आई.टी. का एक छात्र बाहर था। उसने उन्हें कार से निकाल कर ऑटोरिक्शा में बिठाया और साथ में घायल सोनिया को श्रीमती इंदिरा गांधी के आवास पर भेजा जबकि माधवराव सिंधिया का पैर टूट चुका था और उन्हें इलाज की दरकार थी। दिल्ली पुलिस ने उन्हें हॉस्पिटल तक पहुंचाया। दिल्ली पुलिस वहां तब पहुंची जब सोनिया वहां से जा चुकी थीं। 
बाद के सालों में माधवराव सिंधिया व्यक्तिगत तौर पर सोनिया के बड़े आलोचक बन गये थे और उन्होंने अपने कुछ नजदीकी मित्रों से अपनी आशंकाओं के बारे में भी बताया था। कितना दुर्भाग्य है कि वो 2001 में एक विमान हादसे में मारे गये। मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षित भी उसी विमान से जाने वाले थे लेकिन उन्हें आखिरी क्षणों में फ्लाइट से न जाने को कहा गया। वो हालात भी विवादों से भरे हैं जब राजीव ने ओरबासानो के चर्च में सोनिया से शादी की थी , लेकिन ये प्राइवेट मसला है , इसका जिक्र करना ठीक नहीं होगा। इंदिरा गांधी शुरू में इस विवाह के सख्त खिलाफ थीं , उसके कुछ कारण भी थे जो उन्हें बताये जा चुके थे। वो इस शादी को हिन्दू रीतिरिवाजों से दिल्ली में पंजीकृत कराने की सहमति तब दी जब सोवियत समर्थक टी. एन. कौल ने इसके लिए उन्हें प्रेरित किया , उन्होंने सोवियत संघ के चाहने पर इंदिरा जी से कहा कि यह शादी भारत-सोवियत दोस्ती के वृहद सम्बन्ध में बेहतर कदम साबित हो सकती है। 
आभार: राजनामा 
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दोहा सलिला- यमक का रंग दोहे के सँग: घट ना जाए मूल -- संजीव 'सलिल'

गले मिले दोहा यमक
*
घट ना फूटे सम्हल जा, घट ना जाए मूल.
घटना जब घट जाए तो, चुभती शूल बबूल..
घट= घड़ा, कम हो, काम होना. 
*
चमक कैमरे ले रहे, जहाँ-तहाँ तस्वीर.
दुर्घटना में कै मरे?, फ़िक्र न कर धर धीर..
कैमरे=चित्र उतरने का यंत्र, कितने मरे.
*
मिले अजनबी पर नहीं, रहे अजनबी मीत.
सब सज-धज तज अज नबी, गाते प्रभु के गीत..
अजनबी=अपरिचित, अज=अजन्मा, ईश, नबी=ईश्वर का दूत.
*
तिल-तिलकर जलता रहा, तिल भर सका न त्याग.
तिल-घृत की चिंताग्नि की, सहे सुयोधन आग..
तिल=अल्प, एक खाद्यान्न.
*
माँग भरें वर माँगकर, गौरा हुईं प्रसन्न..
बौरा पूरी माँगकर, हुए अधीन न खिन्न..
माँग=विवाहित स्त्रियों के केशों के मध्य रेखा, इच्छा.
*
टाँग न सकती टाँग को, हर खूँटी बेकाम.
टाँगा टाँगा ही नहीं, लेकिन पाया नाम..
टाँग=पैर, टाँगना. टाँगा=टाँग लिया, घोड़े द्वारा खींचे जानेवाला वाहन.
*
नाम न पूछें नाम से, जाना जाता व्यक्ति.
बिना नाम का काम कर, तजें मोह-आसक्ति..
नाम=व्यक्ति का संबोधन, यश, श्रेय.
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Acharya Sanjiv Salil

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एक गीत : अमराई कर दो... -- संजीव 'सलिल'

एक गीत-
अमराई कर दो...
संजीव 'सलिल'
*
कागा की बोली सुनने को
तुम कान लगाकर मत बैठो.
कोयल की बोली में कूको,
इस घर को  अमराई कर दो...
*
तुमसे मकान घर लगता है,
तुम बिन न कहीं कुछ फबता है..
राखी, होली या दीवाली
हर पर्व तुम्हीं से सजता है..
वंदना आरती स्तुति तुम
अल्पना चौक बंदनवारा.
सब त्रुटियों-कमियों की पल में
मुस्काकर भरपाई कर दो...
*
तुम शक्ति, बुद्धि, श्री समता हो.
तुम दृढ़ विनम्र शुचि ममता हो..
रह भेदभाव से दूर सदा-
निस्वार्थ भावमय समता हो..
वातायन, आँगन, मर्यादा
पूजा, रसोई, तुलसी चौरा.
तुम साँस-साँस को दोहा कर
आसों को चौपाई कर दो...
*
जल उथला सदा मचलता है.
मृदु मन ही शीघ्र पिघलता है..
दृढ़ चोटें सहता चुप रहता-
गिरि-नभ ना कभी उछलता है..
शैशव, बचपन, कैशौर्य, तरुण
तुम अठखेली, तुम अंगड़ाई-
जीवन के हर अभाव की तुम
पल भर में भरपाई कर दो..
*****
Acharya Sanjiv Salil

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दोहा सलिला:
दोहा का रंग यमक के संग
संजीव 'सलिल'
*
ठाकुर जी को सर झुका, ठाकुर करें प्रणाम. 
कारिंदे मुस्का रहे, पड़ा आज फिर काम.. 
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल.
न मन न तन हों समन्वित, तो चुभता है शूल..
*
बख्शी को बख्शी गयी, जैसे ही जागीर.
थे फ़कीर कहला रहे, खुद को  खुदी अमीर..
*
गये दवाखाना तभी, पाया यह सन्देश.
'भूल दवा खाना गये', झट खा लें आदेश..
*
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक-पीछे  भाग.
ना ज्यादा अनुराग रख, ना ज्यादा वैराग..
*


मंगलवार, 23 अगस्त 2011

कजगांव (टेढ़वां बाजार) का ऐतिहासिक कजरी मेला

कजगांव (टेढ़वां बाजार) का ऐतिहासिक कजरी मेला

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जफराबाद क्षेत्र के कजगांव (टेढ़वां बाजार) की ऐतिहासिक कजरी जो क्षेत्रीय बुजुर्गां के अनुसार लगभग 85 वर्षों से लगती चली आ रही है जिसमें टेढ़वां के लोग राजेपुर गांव में शादी करने का दावा पेश करते हैं और राजेपुर गांव के लोग टेढ़वां में शादी करने का सपना संजोकर बारात लेकर आते हैं। बाजार के अन्त में दोनों गांव के बीच स्थित पोखरे पर राजेपुर की बारात पूर्वी छोर और कजगांव की बारात पश्चिमी छोर पर बाराती, हाथी, घोड़ा, ऊंट तथा दूल्हे के साथ द्वार पूजा के लिये खड़ी हो जाती है। एक-दूसरे पर दोनों तरफ से मनोविनोदी आवाज में जोर-जोर बाराती और कभी-कभी दूल्हा भी चिल्लाने लगता है कि दूल्हन दे दो, हम लेकर जायेंगे। यह क्रम घण्टों चलता है। यदि बीच में पोखरा न हो तो शायद आपस में भिड़ंत भी हो सकती है लेकिन 85 वर्षों में कभी भी ऐसी कोई बात नहीं हुई।
महीनों पहले से जहां एक गांव के नागरिक दूसरे गांव के लोगां से मजाक शुरू कर देते हैं, वहीं कजरी मेला समाप्त होने के बाद मजाक एक वर्ष के लिये बंद होकर अगले वर्ष तक के लिये समाप्त सा रहता है। मेला में जहां एक ओर दोनों गांव के बाराती एक-दूसरे से मजकिया लहजे में जोर-जोर से वार्ता करते हैं, वहीं दूसरी ओर गांव ही नहीं, जिले के विभिन्न क्षेत्रों से आये लोग इस काल्पनिक बारात में शामिल होकर मेला का आनन्द लेते हैं जहां खाद्य पदार्थों के अलावा घरेलू सामानों की जमकर खरीददारी भी की जाती है।
    मेले में सुरक्षा की दृष्टि से भारी संख्या में पीएसी व पुलिस के जवानों के अलावा तमाम थानाध्यक्ष भी डटे रहे तथा सिविल डेªस में भी पुलिसकर्मी चक्रमण करते नजर आये। कुल मिलाकर यह मेला पूरी तरह आपसी सौहार्द एवं परम्परागत ढंग से सम्पन्न हो गया और दोनों तरफ के दूल्हे इस वर्ष भी शादी न करने में असफल रहने का मलाल लेकर बगैर दूल्हन अगले वर्ष की आस लिये लौट गये।

kajri melaलगभग 85 वर्षों का इतिहास संजोये जफराबाद क्षेत्र के कजगांव (टेढ़वां बाजार) स्थित पोखरे पर राजेपुर और कजगांव की ऐतिहासिक बारातें आयीं जिसमें हाथी, घोड़े, ऊंट पर सवार बैण्ड-बाजे की धुन पर बाराती घण्टों जमकर थिरके लेकिन इस वर्ष 18 अगस्त २०११ को भी दोनों गांव से आये दूल्हों की इच्छा पूरी नहीं हो सकी और बारात बगैर शादी एवं दूल्हन के बैरंग वापस चली गयी।




आभार : हमारा जौनपुर.

सोमवार, 22 अगस्त 2011

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर दोहा सलिला- बजा कर्म की बाँसुरी: --संजीव 'सलिल'

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर दोहा सलिला-                                             
बजा कर्म की बाँसुरी:
संजीव 'सलिल'
*
बजा कर्म की बाँसुरी, रचा आस सँग रास.
मर्म धर्म का समझ ले, 'सलिल' मिटे संत्रास..
*
मीरां सी दीवानगी, राधा जैसी प्रीत.
द्रुपदसुता सी नेह की, थाती परम पुनीत..
*
चार पोर की बाँसुरी, तन-चारों पुरुषार्थ.
फूँक जोर से साँस री, दस दिश हो परमार्थ..
*
श्वास-बाँसुरी पर गुँजा, लास-हास के गीत.
रास- काम निशाकाम कर, पाल ईश से प्रीत..
*
प्रभु अर्पित हो पार्थ सम, बनें आप सब काम.
त्याग वासना-कामना, भुला कर्म-परिणाम..
*
श्वास किशन, है राधिका आस, जिंदगी रास.
प्यास मिटा नवनीत दे, जब हो सतत प्रयास..
*
मन मीरां तन राधिका, नटनागर संकल्प.
पार्थ प्रबल पुरुषार्थ का, यश गाते शत कल्प..
*
मनमोहन मुरली बजा, छेड़ें मधुमय तान.
कन्दुक क्रीड़ा कर किया, वश में कालिय नाग..
*
दुर्योधन से दिन कठिन, दु:शासन सी रात.
संध्या है धृतराष्ट्र सी, गांधारी सा प्रात..
*
करें मित्रता कृष्ण सी, श्रीदामा सा स्नेह.
अंतर्मन से एक हों, बिसरा तन-धन-गेह..
*
आत्म-राधिका ध्यान में, कृष्णचन्द्र के लीन.
किंचित ओझल हों किशन, तड़पे जल बिन मीन..
*
बाल कृष्ण को देखते, सूरदास बिन नैन.
नैनावाले आँधरे, तड़प रहे दिन-रैन..
*
श्री की सार्थकता तभी, साथ रहें श्रीनाथ.
नाथ रहित श्री मोह मन, करती आत्म-अनाथ..
*
'सलिल' न सम्यक आचरण, जब करता इंसान.
नियति महाभारत रचे, जग बनता शमशान..
*
शांति नगर हो विश्व यदि, संजय-विदुर प्रधान.
सेवक पांडवगण रहें, रक्षक भीष्म प्रधान..
*
सच से आँखें मूँद लीं, आया निकट विनाश.
नाश न होता देखती, गांधारी सच काश..
*
श्रवण, भीष्म, श्री राम की, पितृ-भक्ति अनमोल.
तीन लोक की सम्पदा, सके न किंचित तोल..
*
दिशा बोध दायित्व जब, लगा द्रोण के हाथ.
एकलव्य-राधेय का, झुका जीतकर माथ..
*
नेत्रहीन धृतराष्ट्र को, दिशा दिखाये कौन?
बांधे पट्टी आँख पर, गांधारी यदि मौन..
*
भृष्टाचारी कंस को, अन्ना कृष्ण समान.
हुई सोनिया पूतना, दिल्ली कुरु-मैदान..
*
Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 21 अगस्त 2011

एक रचना: काल --संजीव 'सलिल'

एक रचना:                                                                                
काल
--संजीव 'सलिल'

*
काल की यों करते परवाह...
*
काल ना सदय ना निर्दय है.
काल ना भीत ना निर्भय है.
काल ना अमर ना क्षणभंगुर-
काल ना अजर ना अक्षय है.
काल पल-पल का साथी है
काल का सहा न जाए दाह...
*
काल ना शत्रु नहीं है मीत.
काल ना घृणा नहीं है प्रीत.
काल ना संग नहीं निस्संग-
काल की हार न होती जीत.
काल है आह कभी है वाह...
*
काल माने ना राजा-रंक.
एक हैं सूरज गगन मयंक.
काल है दीपक तिमिर उजास-
काल है शंका, काल निश्शंक.
काल अनचाही पलती चाह...
*
काल को नयन मूँदकर देख.
काल है फलक खींच दे रेख.
भाल को छूकर ले तू जान-
काल का अमित लिखा है लेख.
काल ही पग, बाधा है राह...
*
काल का कोई न पारावार.
काल बिन कोई न हो व्यापार.
काल इकरार, काल इसरार-
काल इंकार, काल स्वीकार.
काल की कोई न पाये थाह...
***********

Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

राष्ट्रीय गीत : गायिका लता मंगेशकर जी


http://www.youtube.com/watch?v=z0WxLYDbqdY&feature=player_embedded#t=४५५स


रमजान पर विशेष: पाक़ क़ुरआन

रमजान पर विशेष:  पाक़ क़ुरआन

क़ुरआन का शब्दशः अर्थ है प्रदर्शन अथवा अभिव्यक्ति। क़ुरआन, ईश्वर के शब्द है जिन्हें सातवी शताब्दी में पैगम्बर मोहम्मद के द्वारा अभिव्यक्ति मिली। अपने तीसवे वर्ष के दौरान, पैगम्बर मोहम्मद को स्वप्नादि में दृष्टांत होने लगे। इसके पश्चात आपने एकांत में साधना की व आध्यात्मिक जागृति की गरज से आप हीरा नामक पहाड़ी, जो कि मक्का के बाहरी इलाके में थी, वहाँ जाना शुरु किया। वे अपने साथ जीवन यापन का सामान लिये हुए, एक गुफा में एकांतवास कर ध्यान धारणा में लीन रहा करते थे। अपने जीवन के चालीसवे वर्ष में एक परी ने उनके समक्ष दृष्टांत दिया और आदेश दिया, ''सुनाओ" मोहम्मद ने जवाब दिया, ''मै सुनाने वाला नही हूँ"।
तब उस परी ने मोहम्मद को अपने पाश में आबद्घ किया, इस अनुभव में मोहम्मद अपनी सीमाओं से पार जा पहुँचे। ऐसा दो बार पुनः हुआ। तीसरी बार जब परी ने उन्हे मुक्त किया, तब उन्होंने कहा :
اقرا باسم ربك الذي خلق
خلق الانسان من علق
اقرا و ربك الاكرم
الذي علم بالقلم
علم الانسان ما لم يعلم
मै सुनाता हूँ! तुम्हारे ईश्वर और आनन्द प्रदाता के नाम पर,
जिसने एक खून के कतरे से इन्सान को बनाया,
मै सुनाता हूँ!
और आपका ईश्वर सर्वव्यापी है
वह जिसने तुम्हे आंतरिक शब्दों को जीना सिखाया
तुम्हे वह सिखाया जो अज्ञात था
(96 : 1-5)
पैगम्बर मोहम्मद ने इन शब्दों को परी के समक्ष दोहराया और तेज़ी से पहाड़ी से नीचे आए। बीच रास्ते में ही, आपने एक आवाज़ सुनी,
''हे मोहम्मद! तुम अल्लाह के संदेशवाहक हो और मै गॅब्रियेल हूँ।"
पैगम्बर ऊपर दृष्टि किये हुए स्तब्ध खड़े रहे और उन्होंने देखा कि क्षितिज के पार तक उस परी का अस्तित्व है।
इस संदेश के साथ ही एक और संदेश प्रस्तुत हुआ और इसे व्यक्तिगत रुप से मोहम्मद को कहा गया :
ن و القلم و ما يسطرون
ما انت بنعمة ربك بمجنون
و ان لك لاجرا غير ممنون
و انك لعلى خلق عظيم
नुन (एक संक्षिप्त अक्षर)
आंतरिक पुस्तक के गुह्य व स्पष्ट ज्ञान से
और उसके तत्वरुप में रुपांतरण से
आप मात्र आपके ईश्वर की इच्छा से
भले, बुरे अथवा प्राप्ति अप्राप्ति
एवं उच्च चरित्र के आदर्श
(68 : 1-4)
कुछ अंतराल के लिये, वहाँ कोई संदेश नही थे, फिर वे प्रकट हुए और पैगम्बर के पूरे जीवनकाल तक समय समय पर, लगभग 25 वर्षों तक उनके समक्ष रहे।
ये संदेश प्रथमतः कहीं दूर से आती हुई मधुर घंटियों के आवाज़ के समान और आगे मुखर होती हुई एक आवाज़ के समान थे। इन संदेशों को ग्रहण करते समय मोहम्मद साहब की अवस्था प्राकृतिक रुप से बदल जाती थी। इन संदेशों को उनके अनुयायियों द्वारा याद रखा गया और उन्हे हड्डि.यों, पेड़ की छाल, पत्तियों व अन्य इस प्रकार की वस्तुओं पर उन्हे अंकित किया गया। पैगम्बर मोहम्मद (अल्लाह उन्हे शांति में रखे) ने क़ुरआन को एकमात्र चमत्कार माना है जो ईश्वर द्वारा उनके माध्यम से किया गया और इसे आपने ''ईश्वरीय चमत्कार" कहा है।"

*

दिव्य प्रकाश

الله نور السماوات و الأرض مثل نوره كمشكواة فيها مصباح المصباح في زجاجة الزجاجة كأنها كوكب دري يوقد من شجرة مباركة زيتونة لا شرقية و لا غربية یکاد زيتها يضيئ و لو لم تمسسه نار نور على نور يهدي الله لنوره من يشاء و يضرب الله الأمثال للناس و الله بكل شيئ عليم.
'ईश्वर स्वर्ग व धरती का प्रकाश है। उसके प्रकाश की कथा है कि एक स्थान पर एक दिया है उसपर काँच का आवरण काँच, चमकते सितारे जैसा, फलित वृक्ष से जाज्वल्य जैतून! न पूर्व का न पश्चिम का जिसका तेल स्वयं प्रकाशित है जिसे अग्नि स्पर्श की आवश्यकता नही है। प्रकाश पर प्रकाश, कृपा! ईश्वरेच्छा ईश्वर मानव निर्मित कथाओं से आगे है ईश्वर सर्वज्ञ है।
(24:35)
ألر كتاب أنزلناه إليك لتخرج الناس من الظلمات إلى النور بإذن ربهم إلى صراط العزيز الحميد.
ए .एल .आर ., एक पुस्तक जिसे हमने आत्मसात किया, इस आशा से कि यह मानव मात्र को गहरे अज्ञान से बाहर निकाले,अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाए - उनके ईश्वर से, उसकी ओर, उच्च शक्ति की ओर, जो संपूर्ण भक्तिस्वरुप है!
(14:1)
सूफीवाद का लक्ष्य है आत्मज्ञान, अर्थात उस विधाता का ज्ञान। इस सत्य ज्ञान का फल होता है परम्‌ प्रकाश। प्रोफेसर सादेग अंघा हमें बताते है, ''अपने अंतर्मन के सम्राज्य में रहस्यमय व सत्य की अनुभूतियाँ पाओ और ये पूर्ण विश्वास रखो कि तुम उस परम्‌ प्रकाश को अवश्य पा सकोगे और इस प्रकाश के मार्गदर्शन में ही तुम उसके अतीन्द्र अस्तित्व को अनुभूत कर पाओगे और इस प्रकार से जो परम्‌ शांति तुम खोज रहे थे, अब तुम्हारी हो जाएगी। यह जान लो कि जो तुम्हारे बगैर अस्तित्व में है, वह सत्य नही है और जो तुममें निहित है वही सत्य है।  [1]
الله ولي اللذين آمنوا يخرجهم من الظلمات إلى النور.
अल्लाह उनका रक्षक है जिन्हे विश्वास है, गहराई से वह उन्हे अंधेरे से प्रकाश में ले जाता है।
(2:257)
يهدي به الله من اتبع رضوانه سبل السلام و يخرجهم من الظلمات إلى النور بإذنه و يهديهم إلى صراط مستقيم.
जहाँ भी अल्लाह का मार्गदर्शन है, उसका आनंद व सुरक्षा है और यही उन्हे अंधकार से, उसकी इच्छा के चलते प्रकाश में ले जाता है और इस पथ का प्रदर्शक बन जाता है।
(5:16)
सूफीवाद के अध्ययन का मुख्य आधार शब्द अथवा विचार नही है जो कि सत्य का आवरण हो। मात्र ईश्वरीय कृपा व पीर के मार्गदर्शन से ही साधक के मन में निर्विवाद रुप से वह अनमोल सत्य उजागर हो सकता है । पीर का मार्गदर्शन व परम्‌ प्रकाश, इस यात्रा के अवरोधों से बचाव हेतु आवश्यक है। आत्मज्ञान की इस यात्रा में, ''सत्य शब्द", शुद्घ हृदय, सही इरादे, ईमानदारी, कार्यनिष्ठा व सत्य समर्पण आवश्यक है, अतः ईश्वरीय कृपा व पैगम्बर के प्रति निरंतर समर्पण, वह अनमोल सत्य, साधक के अंतर्मन में जागृत होकर उसे समस्त प्रश्नों से परे कर देता है।" [2]
يأيها اللذين آمنوا اتقوا الله و ءامنوا برسوله يؤتيكم كفلين من رحمته و يجعل لكم نورا تمشون به و يغفر لكم و الله غفور رحيم.
और वह तुम पर दुगुनी कृपा करेगा, वह तुम्हे वह परम्‌ प्रकाश प्रदान करेगा जो पथप्रदर्शक है, और वह तुम्हे माफ कर देगा क्योंकि अल्लाह सबसे दयालु है।
(57:28)
_____________________________

1. Sadegh ANGHA, Hazrat Shah Maghsoud, The Light of Salvation, M.T.O. Publications, Tehran, Iran, 1975, p.99
2. Ibid, p.86
 *

स्थायी चमत्कार

पैगम्बर मोहम्मद के साथ संपन्न मुख्यतः सभी चमत्कार उनके आत्मतत्व तक ही सीमित थे और ये उस पीढ़ी के अनुयायियों तक ही सीमित रहे। क़ुरआन का चमत्कार पुनर्जन्म के समय तक ही रहा। ये चमत्कार प्राकृतिक अवस्था के उच्च स्तर व रहस्यात्मक कल्पनाओं को अभिव्यक्ति देने से संबंधित है। ऐसा कोई भी काल नही होगा जहाँ उसके संदेश उपस्थित नही होंगे। यह नियमित रुप से अपनी उपस्थिती की सार्थकता को सिद्घ करता रहेगा। अन्य शब्दों में, भौतिक क़ुरआन की उपस्थिति, क़ुरआन की वास्तविकता का सत्याभास मात्र है। [1]
क़ुरआन एक ब्रम्हांड के समान है जिसमें अनेक उड़न खतोलों के समान अस्तित्व व समझ के स्तर है... ये जान लेना महत्वपूर्ण है कि हम आत्मतत्व को आत्मसात कर ईश्वरीय कृपा के बगैर क़ुरआन के सही अर्थ को नही जान सकते। यदि हम क़ुरआन को सतही तौर पर देखें और इसके विचारों का उथला सा आकलन करें, हम सतह पर तैरते अस्तित्व के भावों को देखें और आंतरिक अस्तित्व से अछूते रहकर व्यवहार करेंगे तो क़ुरआन का अर्थ भी हमें मात्र सतही तौर पर समझ में आएगा। वह अपने रहस्यों को हमसे छुपा रखेगी और हम सत्य का साक्षात्कार नही कर पाएँगे। यह मात्र आध्यात्मिक जागृति से ही संभव है कि मानव पवित्र शब्दों के रहस्यात्मक अर्थ को समझ सके।
ज़लाल-अल-दीन रुमी जलालुद्‌दीन रुमी, फारसी रहस्यबोध के कवि, क़ुरआन व विश्वासक के संबंध को इस प्रकार से अभिव्यक्त करते है : ''कुछ व्यक्ति नवजात शिशुओं के समान शािब्दक अर्थ आत्मसात कर क़ुरआन को दुग्धपान के समान ग्रहण करते है। परंतु वे, जो अनुभवी है व ऊँची व परिपक्व सोच रखते है, वे ही सही समझदारी के साथ क़ुरआन के आंतरिक मर्म को समझते है।"
क़ुरआन के विद्यार्थी को आंतरिक व बाह्य, रहस्यात्मक व विश्लेष्णात्मक शिक्षण के प्रकारों के मध्य अंतर करना होता है।
रुमी द्वारा मसनवी के अंतर्गत, क़ुरआन के रहस्यों को इस प्रकार से अभिव्यक्त किया गया :
'क़ुरआन के शब्दों को जानना सरल है,
परंतु बाह्य स्वरुप में एक आंतरिक रहस्य है।
उस रहस्यमय अर्थ में ही तृतीय रुप में
उच्च विज्ञता शामिल है।
चौथा अर्थ किसी ने भी नही देखा।
रक्षा प्रभु! अतुलनीय, सर्वप्रदाता।
और वे आगे बढ़े, एक एक कर सात अर्थों तक
पैगम्बर के शब्दों के अनुसार, बिना किसी शक शुबहे के
मेरे पुत्र! मात्र ऊपरी अर्थ पर ही सीमित न रहो
यहाँ तक कि आदम के साथ के शैतान भी ऊपरी ही थे
ऊपरी अर्थ यानी शैतान का शरीर :
जिसका शरीर दृष्टिगत होता है परंतु आत्मा अदृश्य है।

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1. Kenneth Cragg and R. Marston Speight, Islam from Within: anthology of a Religion, Wadsworth Publishing Company, 1980, p.18
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आभार : MTO Islam Website

गुरुवार, 18 अगस्त 2011


                                                                                                                                                                                  - डॉ. दीप्ति गुप्ता

जून की खिली गर्मी, जब तब काले-काले बादलों से भरा आसमान, बीच बीच में मानसूनी हवा का शरारती झोंका, जो शोध के बजाए कविता लिखने को ललचाता, लेकिन मौसम, हवा, कविता - इतनी तरह के सुहावने लोभ आसपास मंडराने पर भी, बाबू जी से मिलने का, साक्षात्कार करने का लोभ इन सब पर भारी पड़ा. 
अमृतलाल नागर - जिन्हें मैं बाबू जी कह कर संबोधित करती थी, आज भी जब याद आते हैं तो एकाएक उनके ठहाके कानों में गूँज उठते हैं. जिंदादिल, उदार मनस, हँसता चेहरा, मुस्कुराती आँखें - उनकी ये खूबियाँ सिलसिलेवार आँखों में लहरा उठती हैं. 


उनसे मेरी पहली मुलाक़ात मेरे शोध कार्य के दौरान सन् १९७७ में हुई थी. आगरा विश्वविद्यालय से हिन्दी एम.ए. के बाद मैंने अपने निदेशक से चर्चा के उपरांत नागर जी के उपन्यास साहित्य पर शोध करने का निर्णय लिया और अविलम्ब उनके उपन्यास खरीद कर पढने शुरू किए. उनके उपन्यास इतने हृदयग्राही थे कि शुरू करने के बाद बीच में छोडने का मन ही नहीं होता था. मेरी फुफेरी बहन जो उस समय आई.टी. कालिज, लखनऊ में फिजिक्स विभाग में प्रवक्ता थी और बहन कम सहेली अधिक थी - उसे मैंने फोन पर ‘आपातकालीन आदेश’ दिया कि किसी भी तरह जल्द से जल्द नागर जी का फोन नंबर डायरेक्टरी से या चौक में उनके घर जाकर पता करे और शीघ्र ही मुझे भेजे. मेरी दीदी ने भी मुस्तैदी से काम किया और दो दिन के अंदर बाबू जी का फोन नंबर मुझे मिल गया. फिर क्या था, मैं जो भी उपन्यास पढ़ कर खत्म करती, फोन से उस पर बाबूजी से ज़रूरी प्रश्न करती और अपनी जिज्ञासाओं को शांत करती. बाबू जी भी बोलने वाले और मैं भी. जब भी फोन करती, उनके उपन्यासों के सन्दर्भ में रुचिकर बातें होतीं. लेखन के दौरान बाबू जी जिन अनमोल अनुभवों से गुज़रे थे, उन्हें बताते समय वे अतीत में डूब जाते और उनके साथ - साथ मैं भी लखनऊ, बनारस की गलियों, मौहल्लों, वहाँ के नुक्कडों और हवेलियों में पहुँच जाती. इस पर भी तृप्ति नहीं होती. लंबी बातचीत होने के बावजूद भी, उनके उपन्यासों के पात्रों और कथ्य से जुडे अनेक वर्क अनछुए रह जाते. उनके बारे में, फ़ोन करने के बजाय, मैं बाबू जी को खत लिखती. उनका बडप्पन देखिए कि बाबू जी मेरे खत की हर बात का जवाब बड़े धैर्य से देते. उनकी इस बात से मैं बहुत अधिक प्रभावित थी. इतने व्यस्त लेखक; लेकिन पत्र का उत्तर देने में तनिक भी देरी नहीं. पत्र भी कोई रोज़मर्रा की साधारण बातों वाला नहीं अपितु शोध से जुड़े विकट प्रश्नों से बिंधा पत्र और समुद्र से शांत बाबू जी बिना झुंझलाए सहजता से उत्तर लिख भेजते. उनका लेख बेहद ख़ूबसूरत और कलात्मक था. मेरे शोध कार्य में किसी तरह की वैचारिक बाधा न आए और न देरी हो - इस बात का वे हमेशा ख्याल रखते. पिता की भाँति उनका यह सोच मेरे अंतर्मन पर मीठी-मीठी अमिट छाप छोडता. एक शोधार्थी के लिए उनकी यह प्रतिबध्दता, उदारता और ख्याल, उनके सँस्कारों और उस बीते ज़माने के ऊँचे अखलाख का परिचायक था. फिलहाल उनके एक पत्र को पाठकों के साथ बाँटना चाहूँगी. बाबू जी से बातचीत होने पर, हर बार उनके व्यक्तित्व की एक नई परत खुलती और मैं उस महान हस्ती के बारे में जानने के लिए और अधिक उत्सुक हो उठती. मैंने लोगों से उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व के बारे में सुन रखा था. लेकिन अब तक मैं स्वयं उनसे बातचीत करके जान गई थी कि वे कितनी अद्भुत हस्ती थे. उनसे बिना मिले ही, सिर्फ फोन पर बातचीत करने भर से ही उनकी सरलता और अभिजात्यता की मिश्रित तरंगें मुझ तक पहुँच चुकी थी. उनका साहित्य पढकर समाप्त करने के बाद उनसे साक्षात्कार का कार्यक्रम बना. जब मैंने बाबू जी को लिखा कि उनकी सुविधानुसार उनसे मिलने लखनऊ आना चाहूँगी तो उन्होंने मेरे आगमन का स्वागत करते हुए, सुघड़ लेख में सफ़ेद पोस्टकार्ड पर अपने घर तक सरलता से पहुँचने का मार्गदर्शन करते हुए मुझे पत्र लिख भेजा. उनसे मिलने के समय आदि का निर्णय - जनवरी से लेकर दिसंबर तक किसी भी महीने में, कभी भी; बाबू जी ने मुझ पर छोड़ दिया. उनकी इस छूट के कारण, सर्दियों से टलता हुआ प्रोग्राम गर्मी के मौसम तक पहुँच गया.                                                                       
निश्चित तिथि और समय पर मैं जून में लखनऊ पहुँची और अपने फूफा श्वसुर डा. बलजीत सिंह और बुआ सरला गर्ग के घर ठहरी. वे दोनों लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर थे. बुआ और फूफा जी का सुझाव था कि कि मुझे कैम्पस में उनके पास ही रहना चाहिए और साथ ही प्यार भरी धमकी भी उन्होंने दे डाली थी कि कहीं और ठहरी तो वे नाराज़ हो जाएँगे. दूसरी ओर मेरी अपनी बुआ और बहनों ने इसरार किया कि मैं उनके पास ‘चौक’ में ही ठहरूँ. वहाँ से नागर जी का घर भी पास पडेगा. दोनों ही रिश्ते निकट के थे. मुझे यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में शोध से सम्बंधित रिफरेंस पुस्तके भी खोजनी थी और अध्ययन भी करना था, यह कार्य कैम्पस स्थित उनके बंगले में ठहरने पर अधिक सुविधा से हो सकता था. सो अंत में, मेरी बहनें और बुआ, मेरे शोध की ज़रूरतों को समझते हुए मेरे यूनिवर्सिटी कैम्पस में ही ठहरने की बात पर राजी हो गई. घर पहुँच कर, थोड़ा फ्रेश होकर, सबसे पहले मैंने बाबू जी को फोन किया और अपने पहुँचने की सूचना दी. जब मैंने उनसे मिलने का समय तय करने की बात करी तो वे फिर वही पितृतुल्य ममत्व से भरे हुए, आदेश देते बोले –

‘सबसे पहले, लखनऊ में तुम्हारा बहुत-बहुत स्वागत ! देखो बेटा, आज तुम पूरी तरह आराम करोगी, समझीं, सफर की थकान उतारो. कल शाम यहाँ आना, इत्मीनान से चर्चा करेगें.’ 

उनके स्नेह से आह्लादित सी, निरुत्तर हुई मैं उनका कहा मानने को विवश थी.

अगले दिन, मैं ठीक चार बजे चौक स्थित नागर जी के घर पहुँच गई. चौक में खुनखुन जी की कोठी से आगे एल.आई. सी. की इमारत थी, जिसके सामने वाली सड़क के दूसरी ओर मिर्ज़ा मंडी गली थी. गली में बीस कदम चलने के बाद नागर जी का मकान आ गया. घर क्या था - एक विशालकाय हवेली थी, जिसके लहीम-शहीम, पुरानी शैली वाले नक्काशीदार दरवाजे ने उदारता से मेरा स्वागत किया. उस बुलंद दरवाजे से अंदर प्रवेश कर मैंने अपने को दहलीज में खडा पाया. उस दहलीज में एक दूसरा मध्यम आकार का दरवाजा था. उसे देखकर ऐसा लगा जैसे वह हँस रहा हो. उस हँसमुख दरवाजे ने आँगन में जाने के लिए मेरा मार्गदर्शन किया. मैं उस दरवाज़े को ऊपर से नीचे तक देखती हुई सोचने लगी कि इसमें ऐसा क्या है जो यह मुझे इतना हँसोड़ नज़र आ रहा है...!! या बाबू जी की उन्मुक्त हँसी इसकी रग-रग में समा गई है. मन में बढ़ते प्रफुल्लता के आयतन को सम्हालती जब मैंने अंदर नज़र डाली तो - सामने फैला हुआ विशाल आँगन और उसके आगे बरामदे से लगे खुले कमरे में चौकी पर किताबों, पत्रिकाओं के जमावड़े के साथ बैठे बाबू जी आँखों पर चश्मा चढाए, एक फ़ाइल में कुछ लिखने में मशगूल नज़र आए. मैंने उनकी तन्मयता में व्यवधान डाले बिना, पहले खामोशी से उनके अदभुत घर का जायाज़ा लिया. सहन के एक किनारे पर प्रवेश द्वार, द्वार के दाईं ओर दूर रसोई, शेष दोनों ओर, एक सिरे से दूसरे सिरे तक क्रम से बने दुमंजले कमरों की कतार. घर के खुलेपन को और अधिक विस्तार देता, ऊपर खुला आसमान......मुझे सारा घर बाबू जी के विशाल हृदय की प्रतिछवि लगा. कमरों के चौपट खुले दरवाजे भी भरपूर मुँह खोल कर खिलखिलाते लग रहे थे. उनके साथ अधखुली खिडकियाँ मंद मंद मुस्कुराती सी लगी
हर घर की विशिष्ट तरंगें होती हैं जो घरवालों से पहले, आने वाले का स्वागत करती हैं और चुपचाप घर की आबो-हवा का, मिजाज़ का परिचय दे डालती हैं. स्वचालित इस परिचय प्रक्रिया के तहत बाबू जी के घर की खुशनुमा तरंगें मुझ तक पहुँच चुकी थीं. मै भी उनसे तरंगायित हो, बाबू जी से मिलने के उत्साह से छलकती, बिना आहट किए सधे कदम चलती, अपनी तीन साल की बेटी ‘मानसी’ की अंगुली थामे, बाबू जी के निकट पहुँच कर, उनका ध्यान भंग करती बोली – बाबू जी प्रणाम ! सुनते ही जैसे बाबू जी की तंद्रा टूटी और वे झटपट आँखों से चश्मा उतारते बोले – ‘अरे ! आ गई बेटा, दीप्ति हो न ? कहीं कोई और हो और मैं उसे दीप्ति समझ बैठूँ.’ 

‘नहीं कोई और नहीं, बाबू जी, आपने ठीक पहचाना ’ - यह कहती मैं उस महान हस्ती के सान्निध्य से गदगद हुई, तुरंत उनके चरणस्पर्श के लिए झुक गई. लेकिन बाबू जी ने चरणों तक पहुँचने से पहले ही, मुझे हाथों से रोक कर, आशीष दिया और बड़े सत्कार से बैठने के लिए कहा. मेरी देखा देखी, मानसी भी उकडूँ बैठ कर नन्हे-नन्हें हाथों से बाबू जी के पैर छू कर माथे से लगा कर, मेरी तरफ पलटी तो बाबू जी ने मानसी की औपचारिक शिष्टाचार की उस नकल अंदाज़ी के भोलेपन पर मुग्ध होकर उसे गोद में उठा लिया और बोले – अरे वाह ! इस नन्ही गुडिया की तहज़ीब ने तो मेरा दिल मोह लिया. फिर उसके नन्हें हाथों को चूमा और प्यार से सिर पर हाथ फेर कर मेरे पास कुर्सी पर बैठा दिया. इतने में सारा शिष्टाचार भुला कर, मानसी ने रूठते हुए तुतला कर कहा – ‘बाबा जी ने मेरे बाल खराब कर दिए....’ बस फिर क्या था – यह सुनते ही बाबू जी ने जो ठहाका लगाया तो मैं भी अपनी हँसी न रोक सकी और हमें हँसते देख, मानसी भी हँसने लगी – शायद यह सोच कर कि जब हम हँस रहे हैं तो उसे भी हँसना चाहिए. उसका पहले रूठना फिर हमारे साथ खिलखिलाना देखकर मैं और बाबू जी और अधिक हँस पड़े. 

फिर, बाबू जी प्यार जताते बोले -‘यहाँ पहुँचने में किसी तरह की दिक्कत तो नहीं हुई ?’ 

मैंने कहा – ‘बाबू जी, बिलकुल नहीं - और घर में कदम रखने पर तो आपके बाहर वाले बुलंद दरवाजे से लेकर, दहलीज और आँगन, उनमें विराजमान सारे खिड़की- दरवाजों ने जो मेरा हँसते - मुस्कुराते स्वागत किया, उसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती’. यह सुन कर बाबू जी खुश होते हुए, हा.. हा.....हा करके हंसने लगे. उनके खुले व्यक्तित्व के आगे मेरी बिटिया को खुलते देर नहीं लगी. मैं मन ही मन घबराई कि अब अगर इसने बोलना शुरू किया और अपनी फरमाइशें, नाज़ - नखरे फैलाने शुरू किए तो बाबू जी से मेरी चर्चा होने से रही. उधर बाबू जी अपने मसखरे हाव-भाव और मीठी बातों से उसके संकोच को भगाने पर उतारू थे. बच्चे उन्हें खासतौर से प्रिय थे. इतने में बाबू जी की पोती ‘दीक्षा’ जो मानसी से थोड़ी बड़ी रही होगी, वह बड़े और लंबे से गिलास में मेरे लिए पानी छलकाती लाई. उसे देखकर मुझे तसल्ली हुई कि चलो मानसी दीक्षा के साथ थोड़ा खेलने में लग जाएगी तो बेहतर रहेगा. बाबू जी ने दोनों की दोस्ती करा दी और दीक्षा प्यार से मानसी का हाथ थामे उसे अपने खिलौने दिखाने ले गई. उसके बाद मैंने एक पल भी बरबाद किए बिना, बाबू जी से उनके उपन्यासों, कथ्य, विविध चरित्रों औए घटनाओं पर चर्चा करनी शुरू की. बाबू जी बोले – ‘देखो बेटा, ज़रा भी हिचकना मत, जो कुछ भी तुम पूछना चाहती हो, नि:संकोच पूछना. शोध के साथ न्याय करना है तो मेरा अच्छी तरह आपरेशन करना. तुम डाक्टर बनने जा रही हो. जितना अच्छा आपरेशन करोगी, उतनी ही अच्छी डाक्टर बनोगी...’ 


उनके इस शब्द कौशल में ध्वनित व्यंजना ने मुझे जितना हँसाया, उतना ही प्रभावित भी किया. बाबू जी की भी बातों का जवाब नहीं था. हमारी बातें चल ही रहीं थी कि कुछ देर बाद मानसी खेल से ऊब कर दौडती हुई आई और मेरा पल्लू पकड़ कर बाबू जी से बोली – ये आपका मुँह लाल लाल कैसे हुआ ?’ बाबू जी इस बार उसके बाल बिगडने का ख्याल रखते हुए, उसके गाल छू कर बोले – ‘पान से बिटिया,’

मानसी पहले तो चुप खडी रही क्योकि वह ‘पान’ क्या होता है, जानती ही नहीं थी. फिर न जाने क्या सोच कर बोली – ‘मुझे भी अपना मुँह लाल करना है.’


फिर क्या था. मैंने बाबू जी को बहुत रोकना चाहा लेकिन बाबू जी कहाँ मानने वाले. उन्होंने तुरंत पानदान से पान का छोटा सा टुकड़ा लगा कर मानसी के मुँह में रख दिया. उसने तो इससे पहले न पान देखा था न खाया था, सो क़यामत तो आनी ही थी. पहले तो उसने खाने की कोशिश करी लेकिन जब उसे पान में कोई स्वाद नहीं आया तो तुरंत ही उसका धैर्य चुक गया और उसने टुकड़ा- टुकड़ा मुँह से निकाल कर फेंकना शुरू कर दिया. पर पान ने क्षण भर में उसके मुँह को लाल करके उसकी इच्छा ज़रूर पूरी कर दी थी. इससे पहले कि बाबू जी के अध्ययन कक्ष में जगह जगह पान के टुकड़े फेंक - फेंक कर मानसी ग़दर मचाती, मैं उसे जल्दी से नल के पास ले गई और उसके मुँह से पान के टुकड़े निकाल कर, उसका मुँह साफ़ किया. फिर भी इतनी देर में अपने मुँह के अजनबी स्वाद को वह ‘छू-छू’ करके बाहर निकालने की कोशिश में लगी रही. जब वह ऐसा करती तो कभी मैं उसे इशारे से मना करती, तो कभी तरेर कर देखती. बाबू जी उसकी नाज़ुक सी छू - छू पर खिलखिला कर हँसते तो वह सोचती कि बड़ा अच्छा काम कर रही है, फलत: वह बार-बार वैसे ही करती जाती और बाबू जी की हँसी में साथ देती. किसी तरह उसे शांत करके मैंने फिर से चर्चा शुरू की. इस बार मानसी बातें खत्म होने तक समझदार की तरह खामोश बैठी रही. अब फिर उसके सब्र का बाँध खत्म हो गया था. एकाएक मेरी गोद में चढ़ कर, उसने बाबू जी से मुखातिब होकर सवाल किया – ‘आप टाफ़ी नहीं खाते ?’ 

वे उसके नन्हे मुन्ने सवाल का आनंद लेते बोले – ‘नहीं बिटिया रानी हम तो नहीं खाते.’ 

तो मानसी पटाक से बोली – ‘मै तो खाती हूँ’ और इसके आगे किसी तरह का इंतज़ार किए बिना बेधडक बोली – मुझे टाफ़ी चाहिए...मुझे टाफ़ी खानी है...

उसकी जिद की रफ़्तार को भाँप कर मैंने उसे सम्हालते हुए कहा – ‘देखो अभी हम बाजार जाने वाले हैं. मैं तुम्हें एक नहीं, ढेर सारी टाफियाँ लेकर दूँगी, पर अभी मेरा कहना मानो. ठीक है न ?’ और मेरी यह तरकीब काम कर गई. मैंने घर लौटते समय अपना वायदा पूरा भी किया. मैंने फिर अपनी बातचीत आगे बढाई और कुछ देर बात हमारी वार्ता अंतिम छोर पर पहुँच गई. मैंने बाबू जी का आभार प्रगट किया और मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि बाबू जी के साथ काफी हद तक संतोषजनक चर्चा भलीभाँति पूरी हो गई थी. लेकिन साथ ही मेरा मन यह भी कह रहा था कि यह चर्चा समुद्र में बूँद की मानिंद थी क्योंकि लेखक अमृतलाल नागर और उनका बहुरंगी समृद्ध साहित्य एक ऐसे विशाल उदधि के समान था जिसमें बार बार जितने गहरे जाओ, उतनी ही तथ्यपूर्ण बातें सोचने को, मनन करने को प्रेरित करती थी. बातचीत के दौरान मैंने जब उनसे, उन्हें मिलने वाले पुरस्कारों के विषय में जानना चाहा तो वे निर्लिप्त भाव से बोले -
‘बेटा, अकादमी पुरस्कार हो या, प्रेमचंद पुरस्कार, मेरे लिए तो सबसे बड़ा पुरस्कार मेरे पाठकों से मिलने वाली सराहना और प्यार है. किताबों से मिलने वाली रायल्टी है. मेरी दिली तमन्ना है कि पूरी तरह सिर्फ अपने लेखन से मिलने वाली रायल्टी के बलबूते पर जीवन निर्वाह कर सकूँ.’ 


चलते - चलते मैं उनसे एक और अंतिम सवाल करने से अपने को न रोक सकी. मैंने पूछा कि वे तो कलम के बादशाह हैं तो उन्होंने फिल्मों का लेखन कार्य किस लिए छोड़ा ? क्योंकि वे तो बड़े सराहनीय, बड़े उम्दा संवाद और पटकथा लिख रहे थे वहाँ. मेरे इस सवाल पर, वे अतीत में डूबते हुए वे बोले – ‘ बेटा फिल्मों में लेखन का तो स्वागत है, पर ‘स्वतन्त्र लेखन’ का स्वागत नहीं है. कोई भी सच्चा लेखक और ख़ास करके मुझ जैसा मुक्त स्वभाव का लेखक अपनी कलम को किसी का गुलाम नहीं बना सकता. इसलिए ही छोड़ा आया वह माया नगरी.’


फिर भी उन्होंने अपने बंबई प्रवास के दौरान जितनी भी पटकथाएँ लिखीं, संवाद लिखे, वे उनके सिनेलेखन की प्रवीणता के परिचायक हैं. १९५३ से लेकर ५७ तक लखनऊ के आकाशवाणी केन्द्र में बतौर ड्रामा प्रोड्यूसर का पद बड़ी कुशलता से सम्हाला. किन्तु ये सब गतिविधियाँ रचनात्मक होते हुए भी, उन्हें वह सुख, वह सन्तोष नहीं दे सकीं, जो उन्हें साहित्य सृजन में मिलता था. इसलिए अंतत: इन क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का परचम फहरा कर, वे अंतिम सांस तक पूर्णतया लेखन में ही लगे रहे.


बीच में, चर्चा को ब्रेक देते हुए, बड़ी ही मोहक खिलखिलाती ‘बा’ (प्रतिभा नागर) ने बड़े प्यार से चाय नाश्ता कराया. मेरे मना करने पर भी वे एक – दो खाने की चीजों तक नहीं मानीं और चार - पाँच तरह की मिठाई - नमकीन उन्होंने मेज़ पर सजा दी. बाबू जी तो मिष्ठान्न प्रेमी, सो हमें चेतावनी देते बोले – ‘खालो भय्या, वरना मैं यह सारी मिठाई खत्म कर दूँगा.’ बा तुरंत बोली – ‘आप भूल गए क्या, मैं यही बैठी हूँ, एक मिठाई ले लीजिए बस. अपनी सेहत का ख्याल कीजिए. बाबू जी आज्ञाकारी बच्चे की तरह सिर झुकाते बोले – ‘जो हुक्म सरकार ! देखा दीप्ति, कितनी पाबंदियों के बीच रहता हूँ. मेरी यह होम मिनिस्टर बड़ी सख्त है.’

नाश्ता करने के बाद ‘बा’ ज्यों ही  रसोई से ट्रे लाने के लिए वहाँ से हटीं, बाबू जी के चहरे पर शरारत तैर गई. उन्होंने झटपट २-३ बर्फी के टुकड़े मुँह में डाल लिए. दूर से ‘बा’ की नजर बाबू जी के चुपचाप मिठाई गटकते मुँह पर टिक गई. उन्हें शायद अंदाजा रहा होगा कि उनके हटते ही बाबू जी कान्हा की तरह चोरी करेगे. उनका मिठाई से भरा मुँह देख कर बा ने भाँप लिया कि बाबू जी ने अपना मिशन पूरा कर लिया. पास आकर प्यार भरी फटकार देती बोली – ‘कर ली बेईमानी मेरे उठते ही...?’

नागर जी आँखों को गोल-गोल घुमाते बोले – ‘देखो, बात समझा करो, दीप्ति और मानसी ने तो चिड़िया की तरह खाया. मैंने देखा कि मिठाई प्लेट में उदास सी पडी, अपमानित महसूस कर रही थी. मुझे अच्छा नहीं लगा मिठाइयों की उतरी सूरत देख के, सो मैंने इन्हें कृतज्ञ करने के लिए इनका उद्धार कर दिया.’ बा हँसती हुई बोली – ‘देखा बेटा कितने उपकारी हैं...’मैं हँसती हुई उन दोनो की नोक झोंक का आनंद लेती रही. 

बाबू जी जैसा ज्ञान पिपासु, जिज्ञासु, जीवंत, यायावर, अनुभवों का पिटारा, बहुपठित, बहुभाषाविज्ञ, बहुआयामी व्यक्तित्व इस दुनिया की भीड़ में मिलना दुर्लभ है. वे जीर्ण-शीर्ण अर्थहीन ‘पुरातनता’ का अनुसरण न कर, स्वस्थ व रचनात्मक ‘नवीनता’ के हिमायती थे. विचारों, कार्यों और लेखन, सभी में उनके क्रांतिकारी स्वभाव की झलक मिलती है. यहाँ तक कि उनके व्यक्तित्व में भी इसकी छाप थी. ऊँचा कद, उन्नत मस्तक,खिलता हुआ टिपिकल गुजराती गौर वर्ण, मुँह में पान की गिलौरी, हाथ में कलम, जब विचारमग्न हों तो समुद्र से गहरे, जब भावनाओं में डूबे हों तो खोए खोए मौसम से, और जब चुहल पर आए तो इतना अट्टहास, इतने ठहाके कि सारी कायनात हास-परिहास में डूब जाए. क्षण-क्षण में आते जाते विविध भावों से मुखर उनका चेहरा किसी किताब से कम न था. लेकिन विनोद का भाव अन्य सब भावों को तिरोहित कर स्थायी रूप से उनके तेजस्वी मुख मंडल पर विराजमान रहता था. 


बाबू जी भांग के बड़े प्रेमी थे. मुझे याद है कि एक बार मैंने उन्हें फोन किया तो ‘बा’ ने फोन उठाया और हँसी मिश्रित व्यंग्य से मुझे बताया - ‘तुम्हारे बाबू जी भांग घोट रहे हैं ‘ तब तक यह सुनकर वे खुद फोन पर आ चुके थे, पान भरे मुँह से बोले – ‘देखो दीप्ति, मैं पक्का शिव भक्त हूँ. भांग के बिना मेरी अराधना पूरी नहीं होती और यह कह कर उन्होंने फोन पर आदत के अनुसार एक ज़ोरदार ठहाका लगाया.’ 


मैं तीन घंटे नागर जी के सान्निध्य में रही और उन तीन घंटों में उनसे अनवरत इतनी महत्वपूर्ण चर्चा हुई कि जितनी तीन माह साथ रहने पर भी शायद न हो पाती. मेरे विदा लेने का समय आ गया, सो उठते हुए मैंने कृतज्ञता ज़ाहिर की और कहा – ‘बाबू जी, मैंने आपका बहुत समय लिया. वैसे तो आपने मेरी लगभग सभी जिज्ञासाओं का शमन किया, फिर भी यदि कुछ और पूछने की ज़रूरत पडी तो फोन से अथवा खत लिख कर पूछ लूँगी.’ 

यह सुनकर बाबू जी सुझाव देते बोले – ‘अभी कब तक हो तुम लखनऊ में ? 

मैं बोली - ‘ पन्द्रह - बीस दिन तो रहना होगा और शायद पूरा जून भी रुक सकती हूँ क्योंकि यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में ‘सन्दर्भ पुस्तकें’ खोजनी हैं, विशेष प्रसंगों का अध्ययन करना है.’

बाबू जी एकदम बोले – ‘तो कभी भी दोबारा आ जाओ न बेटा. काफी दिन हैं तुम्हारे पास.’ 

मैं संकोच करती बोली – ‘मन तो है एक बार फिर से आने का लेकिन आपको परेशान नहीं करना चाहती. आपकी रचनात्मकता में बाधा डालना उचित नहीं. लेखक को लेखन कितना प्रिय होता है, यह मैं समझ सकती हूँ.’ 

बाबू जी सिर पर हाथ फेरते बोले – ‘अब इतनी भी समझदारी अच्छी नहीं, आज हूँ दुनिया में, कल का क्या पता.. ‘ उनके ये शब्द मुझे एकाएक भावुक बना गए. और अनायास मेरे मुँह से निकल गया – बस, बाबू जी, बस ऐसा मत कहिए.’


फिर वे डपटते से बोले – ‘ अरे, बेटा साहित्यिक चर्चा और वो भी जब मेरी रचानाओं पर हो तो मैं क्यों परेशान होने लगा. मैं तो बड़ी रुचि से, आनंद के साथ तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर जितनी बार चाहो, देने को तैयार हूँ.’

बाबू जी के बड़प्पन और उदारता से अभिभूत हुई मैंने एक सप्ताह बाद आने की इच्छा ज़ाहिर की तो बा और बाबू जी, दोनों एक साथ बोल पड़े – ‘तो अगली बार रात का खाना हमारे साथ खाना.’

मैंने कहा कि वे खाने का तकल्लुफ न करे. वैसे ही मुझसे उनके ख्याल और प्यार का भार नहीं सम्हाला जा रहा है ऊपर से इतनी खातिर......लेकिन बा और बाबू जी ने एक न सुनी.

दूसरी विज़िट में मुझे बाबू जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को और अधिक गहराई से जानने का अवसर मिला. इस बार मैं मिठाई के बजाय, बा और बाबू जी के लिए उपहार ले कर गई. बाबू जी उपहार देख कर मुझे सीख देने पर उतारू हो गए कि बुजुर्गों को भेंट देने की औपचारिकता क्यों की...वगैरा वगैरा....’


पिछले छ: सात माह से फोन और खतों से बातचीत करते-करते और फिर व्यक्तिगत रूप से मिलने पर, मैं भी बाबू जी से काफी परच गई थी. उनकी सीख खत्म होने पर, मैं बड़े इत्मीनान के साथ बोलना शुरू हुई – ‘बाबू जी आप पर आगरा की अलमस्ती तो पूरी तरह पसरी हुई है ही, लेकिन लखनऊ का तकल्लुफी मिजाज भी भरपूर हावी है. ‘बा’ और आप मेरी कितनी आवभगत कर रहे हैं. मैं क्या हूँ आपके लिए - एक शोधार्थी ही तो हूँ. आपसे न खून का रिश्ता है न कोई दूर का. आपका खुले दिल से मेरा इतना सहयोग, स्वागत-सत्कार देखकर मैं कितनी चकित और कृतज्ञ हूँ - मैं बता नहीं सकती. आज के युग में अपने, अपनों को नहीं पूछते और आप दोनों है कि कितना कुछ दिल से कर रहे हैं. ये उपहार मैं नहीं लाई हूँ, बल्कि आप दोनों, जो प्रेम और अपनत्व मुझे दे रहे हैं - वह ‘अपनत्व’ ये भेंट लेकर आया है. तो स्वीकार तो करनी पड़ेगी ‘प्रेम की भेंट’. प्रेम की भेंट तकल्लुफ नहीं होती - यह एक भाग्यशाली का दूसरे भाग्यशाली के साथ भावनात्मक आदान-प्रदान है’.


इसके बाद, दिल से निकली, मेरी इस दलील के आगे दोनों को मेरा उपहार स्वीकार करना पड़ा. उस दूसरी यादगार चर्चा के उपरांत, हम सबने मिलकर भोजन किया. बा के हाथ के स्वादिष्ट व्यंजन और उससे भी अधिक उनकी प्यार भरी भावनाएँ जिनसे खाने का स्वाद और भी दुगुना हो गया था. बाबू जी का चौक का वह घर, आँगन, उनका अध्ययन कक्ष, उनका खडाऊँ पहन कर खटर-पटर करते हुए चलना, पानदान खोल कर पान लगाना और मुँह में गिलौरी रखने का अंदाज़, सरापा प्यार और उदारता से सराबोर व्यक्तित्व, संस्मरण लिखते हुए मेरे ज़ेहन में फिर से जी उठा है.


उन दिनों बाबू जी ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ लिखने में लगे थे. निस्संदेह लेखन कार्य किसी मंथन और तपस्या से कम नहीं होता. कथ्य, भावों और विचारों के पूरी तरह मथे जाने पर ही उत्कृष्ट और कालजयी रचनाएँ निकल कर आती हैं. बाबू जी उपन्यास लेखन से पूर्व, विषय की खूब जांच-पडताल करके, फिर उस पर बाकायदा शोध, छोटी-बड़ी जानकारी, संबंधित सूचनाएँ आदि एक शोधार्थी की भाँति खोजते थे, तदनंतर उस पर कलम चलाते थे. ऎसी सुगढ कृतियों के सृजन के समय - पहले रचनाकार आनंदित होता है और तदनंतर, पठनकाल में, उसे पढने वाले पाठक.


यह मेरा सौभाग्य था कि मैं नागर जी जैसे महान और संवेदनशील रचनाकार से, उनके लेखन के उस दौर में मिली में मिली जब उनका लेखन अपनी पराकाष्ठा पर था. ‘मानस का हंस’ जैसी अमर कृति वे लिख चुके थे और दूसरी कालजयी रचना ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ वे लिख रहे थे. उसके बाद भी १९८१ में ‘खंजन नयन’, १९८२ में ‘बिखरे तिनके’ १९८३ में ‘अग्निगर्भा’, १९८५ में ‘करवट’, और १९८९ में ‘पीढियाँ’ जैसी श्रेष्ठ रचनाएँ उन्होंने साहित्य जगत को दीं. नागर जी की कृतियाँ लंबी उम्र लेकर साहित्य जगत में उतरीं. उनकी रचनाओं के सज्जन-दुर्जन पात्र, अपनी सशक्त चारित्रिक विशेषताओं के साथ पाठकों के दिलों दिमाग पर छा जाने वाले होते थे. मुखर संवेदनाओं का धनी व्यक्ति ही ऐसी, रचनाओं के कथ्य की बुनावट की बारीकियों, पात्रों के अंतर्द्वंद्व से घिरे उनके चरित्रों को ही नहीं वरन मानवीय भावों के पल-पल उलझते-सुलझते तेवरों को समझ सकता था. साथ ही उनकी अभिव्यक्ति, भाषा-शैली इतनी सरल,सहज और तरल कि सीधे दिल में उतरती चली जाए. इन सब खूबियों का समन्वय पहले उनकी रचनाओं में देखने को मिला, तदनंतर मुलाक़ात होने पर उनके व्यक्तित्व में. जिस भावनात्मक ऊष्मा से वे भरपूर थे, वही उष्मा उनके प्रमुख उपन्यास पात्रों में लक्षित हुई मुझे. जब वे बात करते थे, तो शब्दों से ज़्यादा उनके हाव-भाव और चेहरा बोलता था. वे जन्मना साहित्यकार थे. आम ज़िंदगी की अच्छी-बुरी घटनाओं, श्वेत-स्याह चरित्रों को अपने में समोए, उनकी रचनाएँ एक अनूठी ग्राह्यता, और भव्यता ओढ़े होती थीं - ठीक बाबू जी की ही तरह - सरल, सामान्य, फिर भी विशिष्ट और असामान्य.

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नागर जी का साहित्य

1 ) जिनके साथ जिया
2 )  आज के बिछुडे न जाने कब मिलेगें
 
नागर जी का  साहित्य’
उपन्यास  साहित्य
सामाजिक उपन्यास  
भूख (पुराना नाम ‘महाकाल’) १९४७
सेठ बांकेमल      १९५५
बूँद और समुद्र     १९५६
अमृत  और विष   १९६६
नाच्यौ बहुत गोपाल    १९७८
बिखरे तिनके   १९८२
अग्नि गर्भा  १९८३
 
ऐतिहासिक उपन्यास
शतरंज के मोहरे   १९५८
सुहाग के नूपुर १९६०
सात घूँघट वाला मुखड़ा  १९६८
मानस का हंस       १९७२
खंजन  नयन     १९८१
करवट          १९८५
पीढियाँ         १९८९
 
पौराणिक उपन्यास
एकदा  नैमिषारण्य  १९७१
 
कथा साहित्य
वाटिका
हम फिदाए लखनऊ
तुलाराम शास्त्री
एटम बम
पीपल की परी
पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ
भारतपुत्र नौरंगीलाल
और सिकंदर हार गया
काल दंड की चोरी
एक दिल हज़ार अफसाने
 
 
नाट्य-साहित्य  एवं प्रहसन  
युगावतार
बात की बात
चन्दन वन
चक्करदार  सीढियाँ  और  अंधेरा
उतार-चढ़ाव
चढत न दूजो रंग
 
निबंध साहित्य
साहित्य एवं संस्कृति
 
 
बाल साहित्य
 
बाल कहानी संग्रह
नटखट चाची
बजरंगी पहलवान
 
बाल उपन्यास
बजरंगी- नौरंगी
बजरंगी  स्मगलरों के फंदे में
बाल महाभारत (छ:भाग)
 
रेखाचित्र
नवाबी मसनद
 
संस्मरण
जिनके साथ जिया
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेगें
 
सर्वेक्षण वृत्त
गदर के फूल
ये कोठेवालियाँ
 
व्यंग्य वार्ता
कृपया दायें चलिए
 
जीवनी
चैतन्य महाप्रभु
 
आत्मकथा
टुकड़े-टुकड़े दास्तां
 
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आभार : "हिन्दी भारत" at 8/17/2011 00:03:00 AM


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मनोज अग्रवाल