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सोमवार, 30 मई 2011

मुक्तिका : संजीव 'सलिल' भंग हुआ हर सपना

मुक्तिका :
संजीव 'सलिल'
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.

माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..

तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?

पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..

बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
************

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त --- योगराज प्रभाकर

 घनाक्षरी / मनहरण कवित्त  
योगराज प्रभाकर 
Encyclopedia of Sikh Literature
Guru Shabd Ratnakar
Mahaan-Kosh
By Bhai Kahan Singh Nabha ji.
Excerpts from page no. 1577-1579



(अ) घनाक्षरी : यह छंद "कबित्त" का ही एक रूप है, लक्षण - प्रति चरण ३२ अक्षर, ८-८ अक्षरों पर विश्राम, अंत २ लघु !


निकसत म्यान ते ही, छटा घन म्यान ते ही
कालजीह लह लह, होय रही हल हल,
लागे अरी गर गेरे, धर पर धर सिर,
धरत ना ढहर चारों, चक्क परैं चल चल !

(आ) घनाक्षरी का दूसरा रूप है "रूप-घनाक्षरी", लक्षण: प्रति चरण ३२ अक्षर, १६-१६ पर दो विश्राम, इक्त्तीस्वां (३१ वाँ) दीर्घ, बत्तीसवां (३२ वाँ ) लघु !
मिसाल :

अबिचल नगर उजागर सकल जग
जाहर जहूर जहाँ जोति है जबर जान
खंडे हैं प्रचंड खर खड़ग कुवंड धरे
खंजर तुफंग पुंज करद कृपान बान !

(इ) घनाक्षरी का तीसरा रूप है "जलहरण", लक्षण: रूप है प्रति चरण ३२ अक्षर, १६-१६ पर दो विश्राम, इक्त्तीस्वां (३१ वाँ) लघु, बत्तीसवां (३२ वाँ ) दीर्घ, !

देवन के धाम धूलि ध्व्स्न कै धेनुन की
धराधर द्रोह धूम धाम कलू धांक परा
साहिब सुजन फ़तेह सिंह देग तेग धनी
देत जो न भ्रातन सो सीस कर पुन्न हरा !

(ई) घनाक्षरी का चौथा रूप है "देव-घनाक्षरी", लक्षण: रूप है प्रति चरण ३३ अक्षर, तीन विश्राम ८ पर, चौथा ९ पर, अंत में "नगण " !

सिंह जिम गाजै सिंह,
सेना सिंह घटा अरु,
बीजरी ज्यों खग उठै,
तीखन चमक चमक

मुक्तिका: है भारत में महाभारत... -- संजीव 'सलिल'


  है भारत में महाभारत...
  संजीव 'सलिल'
ये भारत है, महाभारत समय ने ही कराया है.
लड़ा सत से असत सिर असत का नीचा कराया है..  

निशा का पाश तोड़ा, साथ ऊषा के लिये फेरे.
तिमिर हर सूर्य ने दुनिया को उजयारा कराया है..

रचें सदभावमय दुनिया, विनत लेकिन सुदृढ़ हों हम.
लदेंगे दुश्मनों के दिन, तिलक सच का कराया है..

मिली संजय की दृष्टि, पर रहा धृतराष्ट्र अंधा ही.
न सच माना, असत ने नाश सब कुल का कराया है..

बनेगी प्रीत जीवन रीत, होगी स्वर्ग यह धरती.
मिटा मतभेद, श्रम-सहयोग ने दावा कराया है..

रहे रागी बनें बागी, विरागी हों न कर मेहनत.
अँगुलियों से बनें मुट्ठी, अहद पूरा कराया है..

जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया हैं.
हुए हैं एक फिर से नेक, अँकवारा कराया है..

बने धर्मेन्द्र जब सिंह तो, मने जंगल में भी मंगल.
हरी हो फिर से यह धरती, 'सलिल' वादा कराया है..

**********
अँकवारा = अंक में भरना, स्नेह से गोद में बैठाना, आलिगन करना.

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त ... झटपट करिए --संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
संजीव 'सलिल'
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
*
छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
*********
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com/

रविवार, 29 मई 2011

मुक्तिका: आँख -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
आँख
संजीव 'सलिल'
*
आँख में पानी न आना चाहिए.
आँख का पानी न जाना चाहिए..

आँख मिलने का बहाना चाहिए.
आँख-आँखों में समाना चाहिए..

आँख लड़ती आँख से मिल दिल खिले.
आँख को नज़रें चुराना चाहिए..

आँख घूरे, झुक चलाये तीर तो.
आँख आँखों से लड़ाना चाहिए..

आँख का अंधा अदेखा देखता.
आँख ना आना न जाना चाहिए..

आँख आँखों से मिले हँसकर गले.
आँख में सपना सुहाना चहिये..

आँख झाँके आँख में सच ना छिपे.
आँख को बिजली गिराना चाहिए..

आँख करती आँख से बातें 'सलिल'
आँख आँख को करना बहाना चाहिए..

आँख का इंगित 'सलिल' कुछ तो समझ.
आँख रूठी मिल मनाना चाहिए..
***************************

Acharya Sanjiv Salil

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माननीय राकेश खंडेलवाल जी को समर्पित गीत ------संजीव 'सलिल'

माननीय राकेश खंडेलवाल जी को समर्पित
गीत
संजीव 'सलिल'
*
चरण रज चन्दन तुम्हारी
काश पाकर तर सकूँ मैं...
*
शब्द आराधक! रुको
जग पग पखारे तो तरेगा.
प्राण जब भी व्यथित होगा-
गीत पढ़कर तम हरेगा.
जी रहे युग कई तुममें
झलक भी हमने न देखी.
बरस कितने ही गँवाये
सत्य की कर-कर अदेखी.
चाहना है मात्र यह
निर्मल चदरिया धर सकूँ मैं...
*
रश्मि रथ राकेश लेकर
पंथ उजियारा करेगा.
सूर्य आकर दीप शत-शत
द्वार पर सादर धरेगा.
कौन पढ़ पाया कहो कब
भाग्य की लिपि लय-प्रलय में.
किन्तु तुमने गढ़ दिये हैं
गीत किस्मत के विलय में.
ढाई आखर भरे गीतों में
पढ़ाओ पढ़ सकूँ मैं...
*
चाकरी होती अधम यह
सत्य पुरखे कह गये हैं.
क्या कहूँ अनमोल पल
कितने समय संग बह गये हैं.
गीत जब पढ़ता तुम्हारे
प्राण-मन तब झूम जाते.
चित्र शब्दों से निकलकर
नयन-सम्मुख घूम जाते.
सीखता लिखना तुम्हें पढ़
काश तुम सा लिख सकूँ मैं...
*
दीप्ति मय होता सलिल जब
उषा आती ऊर्मियाँ ले.
या बहाये दीप संध्या
बहें शत-शत रश्मियाँ ले.
गीत सुनकर गीत गाये
पवन ले-लेकर हिलोरे.
झूम जाये देवता ज्यों
झूमते तरु ले झकोरे.
एक तो पल मिले ऐसा
जिसे जीकर मर सकूँ मैं...
*

Acharya Sanjiv Salil

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दोहे आचार्य हैं सलिल जी महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

आचार्य हैं सलिल जी, कविता में उद्यत: दोहे-- ईकविता, २९ मई २०११


आचार्य हैं सलिल जी, कविता में उद्यत
कूल नर्मदा पर रहें, पावन ज्यों अमृत

आशु-लेखन में नहीं उनका सानी कोय
शब्द लिखे जो लेखनी, अमर तुरत ही होय

सीधा सरल स्वभाव है, कटु वचनों से दूर
व्यसन उन्हें है एक ही, कविता से मज़बूर

मुक्त-हृदय कविता करें, मन कविता की आग
वे आए तो जग गए ईकविता के भाग

धन-धन हे आचार्य जी, हमहू कर लो शिष्य
बन जाए साहित्य में हमरा तनिक भविष्य.

महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
२९ मई २०११

--
(Ex)Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Medico-legal Consultant
www.writing.com/authors/mcgupta44

मुक्तिका: हमेशा भीड़ में... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
हमेशा भीड़ में...
संजीव 'सलिल'
*
हमेशा भीड़ में फिर भी अकेलापन मेरी किस्मत.
किया कुछ भी नहीं फिर भी लगी मुझ पर सदा तोहमत.

कहे इंसान से ईश्वर 'न अब होता सहन तू रुक.
न मुझ पर पेड़-पर्वत पर तनिक तो कर दे तू रहमत..

न होती इन्तेहाँ आतंक की, ज़ुल्मो-सितम की क्यों?
कहे छलनी समय से तन मेरा 'तज अब मुझे घिस मत'..

बहस होती रही बरसों न पर निष्कर्ष कुछ निकला.
नहीं कोई समझ पाया कि क्यों बढ़ती रही नफरत..

किया नीलाम ईमां को सड़क पर बेहिचक जिसने.
बना है पाक दावा कर रहा बेदाग़ है अस्मत..

मिले जब 'सलिल' तब खिल सुमन जग सुवासित करता.
न काँटे रोक पाते अधूरी उनकी रही हसरत..
*

मुक्तिका : आज बिदा का दिन है __संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
आज बिदा का दिन है
-- संजीव 'सलिल'
*
आज बिदा का दिन है देखूँ जी भर के.
क्या मालूम कल किसका दिल टूटे-दरके..

बिम्ब आँख में भर लूँ आज तुम्हारा फिर.
जिसे देख जी पाऊँ मैं हँस मर-मर के..

अमन-चैन के दुश्मन घेरे, कहते है:
दूर न जाओ हम न बाहरी, हैं घर के..

पाप मुझे कुछ जीवन में कर लेने दो.
लौट सकूँ, चाहूँ न दूर जाना तर के..

पूज रहा है शक्ति-लक्ष्मी को सब जग.
कोई न आशिष चाह रहा है हरि-हर के..

कमा-जोड़ता रहूँ चाहते हैं अपने.
कमा न पाये जो चाहें जल्दी सरके..

खलिश 'सलिल' का साथ न छूटे कभी कहीं.
रहें सुनाते गीत-ग़ज़ल मिल जी भर के..
********

शनिवार, 28 मई 2011

रोचक चर्चा: कमल और कुमुद -रावेंद्रकुमार

रोचक चर्चा:
कमल और कुमुद

रावेंद्रकुमार
*
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने ललित निबंध 'महाकवि माघ का प्रभात वर्णन' में स्पष्ट लिखा है -
.
जब कमल शोभित होते हैं, तब कुमुद नहीं, और जब कुमुद शोभित होते हैं तब कमल नहीं। दोनों की दशा बहुधा एक सी नहीं रहती परन्तु इस समय, देखी जाती है। कुमुद बन्द होने को है; पर अभी पूरे बन्द नहीं हुए। उधर कमल खिलने को है, पर अभी पूरे खिले नहीं। एक की शोभा आधी ही रह गयी है, और दूसरे को आधी ही प्राप्त हुई है। रहे भ्रमर, सो अभी दोनों ही पर मंडरा रहे हैं और गुंजा रव के बहाने दोनों ही के प्रशंसा के गीत से गा रहे हैं। इसी से, इस समय कुमुद और कमल, दोनों ही समता को प्राप्त हो रहे हैं।

कमल और कुमुद एक ही फूल है या अलग-अलग? पाठक कृपया बतायें.

मुक्तिका: नहीं समझे -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
नहीं समझे
संजीव 'सलिल'
*
समझकर भी हसीं ज़ज्बात दिल के दिल नहीं समझे.
कहें क्या जबकि अपने ही हमें अपना नहीं समझे..

कुसुम परिमल से सारे चमन को करता सुवासित है.
चुभन काँटों की चुप सहता कसक भँवरे नहीं समझे..

सियासत की रवायत है, चढ़ो तो तोड़ दो सीढ़ी.
कभी होगा उतरना भी, यही सच पद नहीं समझे..

कही दर्पण ने अनकहनी बिना कुछ भी कहे हरदम.
रहे हम ताकते खुद को मगर दर्पण नहीं समझे.. 

'सलिल' सबके पखारे पग मगर निर्मल सदा रहता.
हुए छलनी लहर-पग, पीर को पत्थर नहीं समझे..

****************

मुक्तिका: ज़रा सी जिद ने --संजीव 'सलिल'


मुक्तिका: 
ज़रा सी जिद ने
संजीव 'सलिल'   
 
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है. 
की बेकदरी ने सिर नीचा कराया है..  

ज़माने ने न जाने किससे कब-कब क्या कराया है. 
दिया लालच, सिखा धोखा,  दगा-दंगा कराया है.. 

उसूलों की लगा बोली, करा नीलाम ईमां भी. 
न सच खुल जाये सबके सामने, परदा कराया है.. 

तिलकधारी था, योगीराज बागी दानी भी राणा.  
हरा दुश्मन को, नीचा शत्रु का झंडा कराया है..   

सधा मतलब तो अपना बन गले से था लिया लिपटा. 
नहीं मतलब तो बिन मतलब झगड़ पंगा कराया है.. 

वो पछताते है लेकिन भूल कैसे मिट सके बोलो- 
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है.. 

न सपने और नपने कभी अपने होते सच मानो.
डुबा सूरज को चंदा ने ही अँधियारा कराया है..  

सियासत में वफ़ा का कुछ नहीं मानी 'सलिल' होता- 
मिली कुर्सी तो पद-मद ने नयन अंधा कराया है.. 

बही बारिश में निज मर्याद लज्जा शर्म तज नदिया. 
'सलिल' पर्वत पिता ने तजा, जल मैला कराया है..

***

नवगीत: टेसू तुम क्यों?.... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत:                                                                                           
टेसू तुम क्यों?....
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
टेसू तुम क्यों लाल हुए?...
*
टेसू तुम क्यों लाल हुए?
फर्क न कोई तुमको पड़ता
चाहे कोई तुम्हें छुए.....
*
आह कुटी की तुम्हें लगी क्या?
उजड़े दीन-गरीब.
मीरां को विष, ईसा को
इंसान चढ़ाये सलीब.
आदम का आदम ही है क्यों
रहा बिगाड़ नसीब?
नहीं किसी को रोटी
कोई खाए मालपुए...
*
खून बहाया सुर-असुरों ने.
ओबामा-ओसामा ने.
रिश्ते-नातों चचा-भतीजों ने
भांजों ने, मामा ने.
कोशिश करी शांति की हर पल
गीतों, सा रे गा मा ने.
नहीं सफलता मिली
'सलिल' पद-मद से दूर हुए...
*

रोचक चर्चा: क्या करूँ?... -- संजीव 'सलिल'

रोचक चर्चा:
क्या करूँ?...
संजीव 'सलिल'
*
एक अन्य बच्चे ने अनुवाद करने के लिये शब्द दिया: 'the wall'
मैंने अनुवाद किया 'दीवाल' तो बोला: 'अनुवाद करिए मेरा दिया शब्द क्यों दुहरा रहे है?'
अब क्या करूँ?
*
मैंने हार मान ली तो बोला : चलिए एक शब्द का अर्थ ही बता दें. शब्द दिया 'what?'
मैंने अर्थ बताया 'क्या' तो बोला: 'अरे अब आप अर्थ बताने की जगह मुझसे पूछ रहे हैं.
मैं क्या करूँ? 
*

हस्ताक्षर: ख्याति प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय शायर श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी -- नवीन चतुर्वेदी

हस्ताक्षर: 

ख्याति प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय शायर श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी

-- नवीन चतुर्वेदी 
मैं कोई हरिश्चंद्र तो नहीं हूँ, पर सच बोलने को प्राथमिकता अवश्य देता हूँ| और सच ये है कि चंद हफ़्ते पहले तक मैं नहीं जानता था आदरणीय तुफ़ैल चतुर्वेदी जी को| कुछ मित्रों से सुना उन के बारे में| सुना तो बात करने का दिल हुआ| बात हुई तो मिलने का दिल हुआ| और मिलने के बाद आप सभी से मिलाने का दिल हुआ| हालाँकि मैं जानता हूँ कि आप में से कई सारे उन्हें पहले से भी जानते हैं| फिर भी, जो नहीं जानते उन के लिए और अंतर्जाल के भावी संदर्भों के लिए मुझे ऐसा करना श्रेयस्कर लगा|

पर क्या बताऊँ उन के बारे में, जब कि मैं खुद भी कुछ ज्यादा जानकारी नहीं रखता| तो आइये सबसे पहले पढ़ते हैं उन के प्रिय शिष्य, भाई विकास शर्मा ‘राज़’ के हवाले से प्राप्त उन के कुछ चुनिन्दा शेर:-



उस की गली को छोड़ के ये फ़ायदा हुआ|
ग़ालिब, फ़िराक़, जोश की बस्ती में आ गये||
***
मैं सदियाँ छीन लाया वक़्त तुझसे|
मेरे कब्ज़े में लमहा भी नहीं था||
***
मेरे पैरों में चुभ जाएंगे लेकिन|
इस रस्ते से काँटे कम हो जाएंगे||
***
हम तो समझे थे कि अब अश्क़ों की किश्तें चुक गईं|
रात इक तस्वीर ने फिर से तक़ाज़ा कर दिया||
***
अच्छा दहेज दे न सका मैं, बस इसलिए|
दुनिया में जितने ऐब थे, बेटी में आ गये||
***
तुमने कहा था आओगे – जब आयेगी बहार|
देखो तो कितने फूल चमेली में आ गये||
***
हर एक बौना मेरे क़द को नापता है यहाँ|
मैं सारे शहर से उलझूँ मेरे इलाही क्या||
***
बस अपने ज़ख्म से खिलवाड़ थे हमारे शेर|
हमारे जैसे क़लमकार ने लिखा ही क्या||
***
हम फ़कीरों को ये गठरी, ये चटाई है बहुत|
हम कभी शाहों से मखमल नहीं माँगा करते||
***
लड़ाई कीजिये, लेकिन, जरा सलीक़े से|
शरीफ़ लोगों में जूता नहीं निकलता है||
***
बेटे की अर्थी चुपचाप उठा तो ली|
अंदर अंदर लेकिन बूढ़ा टूट गया||
***
नई बहू से इतनी तबदीली आई|
भाई का भाई से रिश्ता टूट गया||
***
तुम्हारी बात बिलकुल ठीक थी बस|
तुम्हें लहज़ा बदलना चाहिए था||
***
नहीं झोंका कोई भी ताज़गी का|
तो फिर क्या फायदा इस शायरी का||
***
किसी दिन हाथ धो बैठोगे हमसे|
तुम्हें चस्का बहुत है बेरुख़ी का||
***





तो ये हैं तुफ़ैल चतुर्वेदी जी - हिंदुस्तान-पाकिस्तान दोनों मुल्कों के शायरों के अज़ीज़| नोयडा [दिल्ली] में रहते हैं| पेंटिंग्स, रत्न, रेकी और न जाने क्या क्या इन के तज़रूबे में शामिल हैं – ग़ज़ल के सिवाय| उस्ताद शायर के रुतबे को शोभायमान करते तुफ़ैल जी की बातों को अदब के हलक़ों में ख़ासा सम्मान हासिल है|


आप की गज़लों में सादगी के साथ साथ चुटीले कथ्यों की भरमार देखने को मिलती है| उरूज़ के उच्चतम प्रामाणिक पैमानों का सम्मान करते हुए ऐसी गज़लें कहना अपने आप में एक अप्रतिम वैशिष्ट्य है|

अदब को ले कर हिन्दी हल्के में सब से बढ़िया मेगज़ीन निकालते हैं ये, जिसका कि नाम है “लफ्ज”| ये मेगज़ीन अब तक अनेक सुख़नवरों को नुमाया कर चुकी है| ग़ज़ल के विद्यार्थी जिनको कहना चाहिए, ऐसे क़लमकार भी स्थान पाते हैं “लफ़्ज़” में|

मेरा सौभाग्य है कि मैंने कुछ घंटे बिताए आप के साथ में| पूरी सादगी और विनम्रता के साथ आप ने अपना अनुभव और ज्ञान जो मेरे साथ बाँटा, उस के लिए मैं सदैव आप का आभारी रहूँगा|

मुझे यह लिखना ज़रूरी लग रहा है कि हर ज्ञान पिपासु के लिए आप के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं|

तुफ़ैल जी का ई मेल पता:- tufailchaturvedi@yahoo.com
मोबाइल नंबर :- +91 9810387857
आभार: वातायन 

छंद परिचय: मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -- संजीव 'सलिल'

मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

संजीव 'सलिल'
*
मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें. स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं.

इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घंक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. घनाक्षरी पाठक/श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है.

घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है. ८-८-८-७ की बंदिश कई बार शब्द संयोजन को कठिन बना देती है. किसी भाव विशेष को अभिव्यक्त करने में कठिनाई होने पर कवि १६-१५ की बंदिश अपनाते रहे हैं. इसमें आधुनिक और प्राचीन जैसा कुछ नहीं है. यह कवि के चयन पर निर्भर है. १६-१५ करने पर ८ अक्षरी चरणांश की ३ आवृत्तियाँ नहीं हो पातीं. 

मेरे मत में इस विषय पर भ्रम या किसी एक को चुनने जैसी कोई स्थिति नहीं है. कवि शिल्पगत शुद्धता को प्राथमिकता देना चाहेगा तो शब्द-चयन की सीमा में भाव की अभिव्यक्ति करनी होगी जो समय और श्रम-साध्य है. कवि अपने भावों को प्रधानता देना चाहे और उसे ८-८-८-७ की शब्द सीमा में न कर सके तो वह १६-१५ की छूट लेता है.

सोचने का बिंदु यह है कि यदि १६-१५ में भी भाव अभिव्यक्ति में बाधा हो तो क्या हर पंक्ति में १६+१५=३१ अक्षर होने और १६ के बाद यति (विराम) न होने पर भी उसे घनाक्षरी कहें? यदि हाँ तो फिर छन्द में बंदिश का अर्थ ही कुछ नहीं होगा. फिर छन्दबद्ध और छन्दमुक्त रचना में क्या अंतर शेष रहेगा. यदि नहीं तो फिर ८-८-८ की त्रिपदी में छूट क्यों?

उदाहरण हर तरह के अनेकों हैं. उदाहरण देने से समस्या नहीं सुलझेगी. हमें नियम को वरीयता देनी चाहिए. इसलिए मैंने प्रचालन के अनुसार कुछ त्रुटि रखते हुए रचना भेजी ताकि पाठक पढ़कर सुधारें और ऐसा न हों पर नवीन जी से अनुरोध किया कि वे सुधारें. पाठक और कवि दोनों रचनाओं को पढ़कर समझ सकते हैं कि बहुधा कवि भाव को प्रमुख मानते हुए और शिल्प को गौड़ मानते हुए या आलस्य या शब्दाभाव या नियम की जानकारी के अभाव में त्रुटिपूर्ण रचना प्रचलित कर देता है जिसे थोडा सा प्रयास करने पर सही शिल्प में ढाला जा सकता है.

अतः, मनहरण घनाक्षरी छंद का शुद्ध रूप तो ८-८-८-७ ही है. ८+८, ८+७ अर्थात १६-१५, या ३१-३१-३१-३१ को शिल्पगत त्रुटियुक्त घनाक्षरी ही माँना जा सकता है. नियम तो नियम होते हैं. नियम-भंग महाकवि करे या नवोदित कवि दोष ही कहलायेगा. किन्हीं महाकवियों के या बहुत लोकप्रिय या बहुत अधिक संख्या में उदाहरण देकर गलत को सही नहीं कहा जा सकता. शेष रचना कर्म में नियम न मानने पर कोई दंड तो होता नहीं है सो हर रचनाकार अपना निर्णय लेने में स्वतंत्र है.

घनाक्षरी रचना विधान :

आठ-आठ-आठ-सात पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
वर्षा-वर्णन :
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर,
जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है.
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर,
पुलक-पुलककर, मोर नरतित है..
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर,
कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है.
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे,
दादुर 'सलिल' संग स्वागतरत है..
*
भारत गान :
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम,
नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,
माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पावन है, भावन है,
शत्रुओं को घेर घाट मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंकर है, दिक्-नभ अम्बर है,
सागर-'सलिल' पग नित्य ही पखारेंगे..
*
हास्य घनाक्षरी
 सत्ता जो मिली है तो जनता को लूट खाओ,
मोह होता है बहुत घूस मिले धन का|

नातों को भुनाओ सदा, वादों को भुलाओ सदा,
चाल चल लूट लेना धन जन-जन का|

घूरना लगे है भला, लुगाई गरीब की को,
फागुन लगे है भला, साली-समधन का|

विजया भवानी भली, साकी रात-रानी भली,
चौर्य कर्म भी भला है आँख-अंजन का||

मुक्तिका: सुबह को, शाम को, रातों को -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सुबह को, शाम को,  रातों को
संजीव 'सलिल'
*


सुबह को, शाम को,  रातों को कैसे तू सुहाया है?
सितारे पूछते, सूरज ने गुर अपना छिपाया है..

जिसे देखो उसी ने ख्वाब निज हित का सजाया है.
गुलिस्तां को उजाड़ा, फर्श काँटों का बिछाया है..

तेरे घर में जले ईमान का हरदम दिया लेकिन-
मुझे फानूस दौलत के मिलें, सबने मनाया है..

न मन्दिर और न मस्जिद में तुझको मिल सकेगा वह.
उसे लेकर कटोरा राह में तूने बिठाया है..

वो चूहा पूछता है 'एक दाना भी नहीं जब तो-
बता इंसां रसोईघर में चूल्हा क्यों बनाया है?.

दिए सरकार ने पैसे मदरसे खूब बन जाएँ.
मगर अफसर औ' ठेकेदार ने बंगला बनाया है..

रहनुमा हैं गरीबों के मगर उड़ते जहाजों में.
जमूरों ने मदारी और मजमा बेच खाया है..

भ्रमर की, तितलियों की बात सुनते ही नहीं माली.
जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है..

वो राधा हो या रज़िया हो, नहीं उसका सगा कोई.
हरेक अपने को उसने घूरते ही 'सलिल' पाया है.

'सलिल' पत्थर की छाती फाड़, हरने प्यास आया है -
इसे भी बेच पत्थर दिलों ने धंधा बनाया है.

मंगलवार, 24 मई 2011

छंद परिचय: मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -- संजीव 'सलिल'

छंद परिचय:
मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

संजीव 'सलिल' *
मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें. स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं.
इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घंक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. घनाक्षरी पाठक/श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है. घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है.
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधर सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
वर्षा-वर्णन:
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर,
जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है.
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर,
पुलक-पुलककर, मोर नरतित है..
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर,
कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है.
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे,
दादुर 'सलिल' संग स्वागतरत है..
*
भारत वंदना:
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम,
नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,
माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पवन है, भवन है,
शत्रुओं को घेर घात मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंका रही, दिक्-नभ अम्बर है,
सागर-'सलिल' पग नित्य ही पखारेंगे..
*
षडऋतु वर्णन : मनहरण घनाक्षरी/कवित्त छंद
संजीव 'सलिल'
*

वर्षा :
गरज-बरस मेघ, धरती का ताप हर, बिजली गिराता जल, देता हरषाता है. 
शरद:
हरी चादर ओढ़ भू, लाज से सँकुचती है, देख रवि किरण से, संदेशा पठाता है.
शिशिर:
प्रीत भीत हो तो शीत, हौसलों पर बर्फ की, चादर बिछाता फिर, ठेंगा दिखलाता है. 
हेमन्त :
प्यार हार नहीं मान, कुछ करने की ठान, दरीचे से झाँक-झाँक, झलक दिखाता है.
वसंत :
रति-रतिनाथ साथ, हाथों में लेकर हाथ, तन-मन में उमंग, नित नव जगाता है.
ग्रीष्म :
देख क्रुद्ध होता सूर्य, खिलते पलाश सम, आसमान से गरम, धूप बरसाता है..
*
टिप्पणी : घनाक्षरी छंद को लय में पढ़ते समय बहुधा शब्दों को तोड़कर पड़ा जाता ताकि आरोह-अवरोह (उतर-चढ़ाव) बना रहे.

सोमवार, 23 मई 2011

मुक्तिका: सागर ऊँचा... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सागर ऊँचा...
संजीव 'सलिल'
*
सागर ऊँचा, पर्वत गहरा.
अंधा न्याय, प्रशासन बहरा..

खुली छूट आतंकवाद को.
संत-आश्रमों पर है पहरा..

पौरुष निस्संतान मर रहा.
वंश बढ़ाता फिरता महरा..

भ्रष्ट सियासत देश बेचती.
देश-प्रेम का झंडा लहरा..

शक्ति पूजते जला शक्ति को.
मौज-मजा श्यामल घन घहरा..

राजमार्ग ने वन-गिरि निगले..
सारा देश हुआ है सहरा..

कब होगा जनतंत्र देश में?
जनमत का ध्वज देखें फहरा..

हिंसा व्यापी दिग-दिगंत तक.
स्नेह-सलिल है ठहरा-ठहरा..

जनप्रतिनिधि ने जनसेवा का
'सलिल' न अब तक पढ़ा ककहरा..

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रचना आमंत्रण : परिकल्पना ब्लॉगोत्सव हेतु रचनाएँ आमंत्रित

रचना आमंत्रण :
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव हेतु रचनाएँ आमंत्रित
*
 महोदय/महोदया
हर्ष के साथ सूचित करना है कि  विगत वर्ष की तरह इस वर्ष भी परिकल्पना पर ब्लॉगोत्सव मनाने का निर्णय लिया गया है, जिसमें भाग लेने हेतु निम्नलिखित वर्गों में रचनाएँ आमंत्रित है :
  • आलेख वर्ग हेतु साहित्यिक-सांस्कृतिक और कला को रेखांकित करता हुआ दो विवेचनात्मक निबंध,एक फोटो और संक्षिप्त परिचय  प्रेषित करें
  • कथा-कहानी वर्ग हेतु दो कहानी, लंबी कहानी, लघु कथा, एक फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • कविता वर्ग हेतु दो कवितायें एक फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • ग़ज़ल वर्ग हेतु दो गज़लें  एक फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • गीत-नवगीत हेतु दो नवगीत अथवा गीत  एक फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • चर्चा-परिचर्चा हेतु किसी भी विषय पर कम से  कम दस लोगों का मंतव्य फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • चौपाल हेतु किसी भी राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय मुद्दे पर कम से  कम दस व्यक्तियों की राय फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • बतकही हेतु राजनीति/साहित्य/पत्रकारिता और समाज से जुड़े  महत्वपूर्ण व्यक्तियों की विवादास्पद टिप्पणियों अपनी मजेदार टिप्पणियाँ फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • बाल-मन हेतु बच्चे की रचनाएँ/रेखा चित्र अथवा बच्चों के मनोविज्ञान को समझने वाले रचनाकारों की रचनाये  फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • मनोरंजन के अंतर्गत अपनी रचनाये स्वयं या किसी अन्य गायक अथवा गायिका के स्वर में वीडियो/ऑडियो तैयार करते हुए फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • लोकमंच के अंतर्गत आंचलिक/क्षेत्रीय  रचनाएँ फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • विमर्श के अंतर्गत किसी भी मुद्दे पर वेबाक राय  फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • विविध के अंतर्गत आप किसी भी प्रकार की रोचक जानकारियाँ फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • समीक्षा के अंतर्गत आप किसी भी पात्र-पत्रिका अथवा पुस्तक की समीक्षा  फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • साक्षात्कार के अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों की चर्चित हस्तियों के साथ वार्तालाप फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • साहित्य के अंतर्गत ललित निबंध  फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • सुर-संगीत के अंतर्गत किसी भी प्रकार की मंचीय प्रस्तुति का वीडियो फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • हास्य-व्यंग्य के अंतर्गत दो हास्य व्यंग्य रचनाएँ फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • गतिविधियों के अंतर्गत कार्यक्रमों की रपट फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • कार्टून वर्ग में शामिल होने हेतु कम से कम पांच कार्टून्स फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
अपनी रचनाये, फोटो, संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित ई-मेल पर प्रेषित करें
 
नोट : प्राप्त सभी रचनाएँ परिकल्पना ब्लॉगोत्सव (www.parikalpna.com/) पर प्रकाशित की जायेगी तथा उन प्रकाशित रचनाओं से ५१ श्रेष्ठ रचनाओं का चयन करते हुए उन्हें सार्वजनिक  मंच से "परिकल्पना सम्मान-२०११" से सम्मानित किया जाएगा
 
आप सभी से विनम्र निवेदन है कि अपना-अपना रचनात्मक सहयोग देकर ब्लॉगोत्सव-२०११ को सफल बनाएं  
सादर-
रवीन्द्र प्रभात