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सोमवार, 18 मार्च 2024

मार्च १८, निमाड़ी, नदी, मुक्तिका, दोहा, फागुन, सॉनेट, अस्ति

सलिल सृजन १८ मार्च
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मुक्तिका
(पदभार २४)
बेख्याल से...
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बेखयाल से खयाल हो रहे हैं आजकल
कीच लगा कीच लोग धो रहे हैं आजकल
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प्रेम चाहते हैं आप नफ़रतें उगा रहे
चैन-अमन बिना दाम खो रहे हैं आजकल
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मुस्कुरा रहे हैं होंठ लालियाँ लगा लगा
हाल-ए-दिल न पूछना रो रहे हैं आजकल
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पा गए जो कुर्सियाँ न जड़ जमीन में रही
रोज अहंकार बीज बो रहे हैं आजकल
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निज प्रशस्ति गा रहे हैं चीख चीख काग भी
राजहंस मौन दीन मूँद आँखें सो रहे
१८.३.२०२४
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सॉनेट
अस्ति
'अस्ति' राह पर चलते रहिए
तभी रहे अस्तित्व आपका
नहीं 'नास्ति' पथ पर पग रखिए
यह भटकाव कुपंथ शाप का
है विराग शिव समाधिस्थ सम
राग सती हो भस्म यज्ञ में
पहलू सिक्के के उजास तम
पाया-खोया विज्ञ-अज्ञ ने
अस्त उदित हो, उदित अस्त हो
कर्म-अकर्म-विकर्म सनातन
त्रस्त मत करे, नहीं पस्त हो
भिन्न-अभिन्न मरुस्थल-मधुवन
काम-अकाम समर्पित करिए
प्रभु चरणों में नत सिर रहिए
१८-३-२०२३
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दोहे फागुन के
फागुन फगुनायो सलिल, लेकर रंग गुलाल।
दसों दिशा में बिखेरें, झूमें दे दे ताल।।
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जहँ आशा तहँ स्मिता, बिन आशा नहिं चैन।
बैज सुधेंदु सलिल अनिल, क्यों सुरेंद्र बेचैन।।
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अफसाना फागुन कहे, दे आनंद अनंत।
रूपचंद्र योगेश हैं, फगुनाहट में संत।।
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खुशबू फगुनाहट उषा, मोहक सुंदर श्याम।
आभा प्रमिला हमसफ़र, दिनकर ललित ललाम।।
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समदर्शी हैं नंदिनी, सचिन दिलीप सुभाष।
दत्तात्रय प्राची कपिल, छगन छुए आकाश।।
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अनिल नाद सुन अनहदी, शारद हुईं प्रसन्न।
दोहे आशा के कहें, रसिक रंग आसन्न।।
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फगुनाहट कनकाभिती, दे सुरेंद्र वक्तव्य।
फागुन में नव सृजन हो, मंगलमय मंतव्य।।
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सुधा सुधेन्दु वचन लिए, फगुनाए हम आप।
मातु शारदा से विनय, फागुन मेटे ताप।।
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मुग्ध प्रियंका ज्योत्स्ना, नवल किरण आदित्य।
वर लय गति यति मंजुला, फगुनाए साहित्य।।
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किरण किरण बाला बना, माथे बिंदी सूर्य।
शब्द शब्द सलिला लहर, गुंजित रचना तूर्य।।
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साँची प्राची ने किया, श्रोता मन पर राज।
सरसों सरसा बसंती, वनश्री का है ताज।।
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छगन लाल पीले न हो, मूठा में भर रंग।
मूछें रंगी सफेद क्यों, देखे दुनिया दंग।।
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धूप-छाँव सुख-दुःख लिए, फगुनाहट के रंग।
चन्द्रकला भागीरथी, प्रमिला करतीं दंग।।
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आभा की आभा अमित, शब्द शब्द में अर्थ।
समालोचना में छिपी, है अद्भुत समर्थ।।
१८-३-२०२३
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मुक्तिका
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मन मंदिर जब रीता रीता रहता है।
पल पल सन्नाटे का सोता बहता है।।
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जिसकी सुधियों में तू खोया है निश-दिन
पल भर क्या वह तेरी सुधियाँ तहता है?
*
हमसे दिए दिवाली के हँस कहते हैं
हम सा जल; क्यों द्वेष पाल तू दहता है?
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तन के तिनके तन के झट झुक जाते हैं
मन का मनका व्यथा कथा कब कहता है?
*
किस किस को किस तरह करे कब किस मंज़िल
पग बिन सोचे पग पग पीड़ा सहता है
१८-३-२०२१
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गीत
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
१२.३.२०१८
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मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, सच्चा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
समय की सूखी नदी पर आँसुओं की अँगुलियों से
दिल ने बेहद बेदिली से, दर्द का किस्सा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, दुबारा रिश्ता लिखा
१८-३-२०१६
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निमाड़ी दोहा:
जिनी वाट मंs झाड नी, उनी वांट की छाँव.
मोह ममता लगन, को नारी छे ठाँव..
१८-३-२०१०
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